Sampadkiye : Shakti : Alekh : Dr.R.K. Dubey.

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Shakti : Cover Page.
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सम्पादकीय : शक्ति आलेख : गद्य पद्य संग्रह. 
 
लेखक कवि विचारक. 
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सम्पादकीय :आलेख .
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डॉ. आर के दुबे.

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 आवरण पृष्ठ : कोलाज : विदिशा.
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सम्पादकीय : शक्ति : गद्य पद्य विचार : संग्रह. आलेख 
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फोर स्क्वायर होटल : रांची : समर्थित :

समर्थित : आवरण पृष्ठ : विषय सूची : सम्पादकीय. शक्ति. समूह : मार्स मिडिया ऐड : नई दिल्ली.


सम्पादकीय. शक्ति. समूह : आलेख 
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महासरस्वती : नर्मदा डेस्क 
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शक्ति. संयोजक.
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डॉ. मधुप 


एम. एस. मीडिया : शक्ति : प्रस्तुति 
सम्पादकीय : शक्ति : आलेख 
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विषय सूची : प्रारब्ध : ०
सम्पादित.
शक्ति.डॉ. सुनीता सीमा शक्ति * प्रिया.
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विषय सूची : प्रारब्ध : ०
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आवरण पृष्ठ : ०
विषय सूची : पृष्ठ : ० 
सम्पादकीय. शक्ति. पृष्ठ : ०
राधिका कृष्ण शक्ति दर्शन.पृष्ठ : ०. 
सम्पादकीय. शक्ति. गद्य संग्रह : आलेख : पृष्ठ : १  
सम्पादकीय. शक्ति. पद्य संग्रह : आलेख : पृष्ठ : २ 
सम्पादकीय. शक्ति. विचार संग्रह : आलेख : पृष्ठ : ३
सम्पादकीय. शक्ति.दृश्यम संग्रह : आलेख : पृष्ठ : ४ 
संदेशें आते हैं : चिठ्ठी आई हैं : आपने कहा : पृष्ठ : ५   
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सम्पादकीय. शक्ति. समूह : पृष्ठ : १ 
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शक्ति. रेनू. अनुभूति. नीलम. 
 शक्ति.डॉ. सुनीता शक्ति* प्रिया. 
     शक्ति.डॉ. नूतन. शालिनी. उषा.  
शक्ति. डॉ.मीरा श्रीवास्तवा.रीता रानी. कंचन  
शक्ति.डॉ.अनुपम अंजलि.रंजना. मानसी. 
शक्ति.डॉ.भावना. माधवी. संगीता.  
शक्ति. डॉ. रूप कला. सीमा. तनुश्री सर्वाधिकारी. 
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सम्पादकीय. शक्ति. सज्जा 
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शक्ति. मंजिता. सुष्मिता.अनीता. 

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एम एस मीडिया.शक्ति. प्रस्तुति.


संभवामि युगे युगे.  प्रारब्ध : पृष्ठ : ०.
राधिका कृष्ण शक्ति दर्शन.पृष्ठ : ०.
 
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स्वर्णिका ज्वेलर्स सोह सराय बिहार शरीफ़ समर्थित 
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सम्पादकीय. शक्ति :  गद्य संग्रह : आलेख : पृष्ठ : १ 
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डॉ. आर के दुबे.
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लेखक कवि विचारक 


डॉ. आर के दुबे.

शक्ति. सीमा 
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संपादन.आलेख 
 
शक्ति : रेनू शब्द मुखर / जयपुर. 
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पृष्ठ सज्जा.


शक्ति अनुभूति / शिमला.  
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सम्पादकीय. शक्ति :  गद्य संग्रह : आलेख : पृष्ठ : १.
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 डॉ. आर के दुबे.
 राधा कौन ? : सम्पादकीय :  आलेख : ४  
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राधा कौन ? यह जिज्ञासा हमारे भीतर होती है। 
मित्रों जब श्री कृष्ण की चर्चा होती है तब राधा जी का नाम जरूर आता है। राधा जिससे श्री कृष्ण बहुत प्रेम करते उनसे श्री कृष्ण का विवाह नहीं होता है। फिर भी जहां कृष्ण की चर्चा होती है राधा जी की चर्चा हुए बिन कृष्ण चर्चा पुरी नहीं होती।तब अनायास ही पश्न सम्मुख खड़ा होता है कि राधा कौन है?
राधा का स्वरूप परम दुरूह है। किशोरी जी ही राधा है। राधा का जैविक परिचय है कि वो किर्ति और वृषभानु की पुत्री है। उनकी शादी रायाण से हुई।
राधा का तात्विक परिचय है कि राधा कृष्ण की आनंद है।वो कृष्ण की ही अहलादिनी शक्ति स्वरूप है। रायाण से जिस राधा की शादी हुई वो तो छाया राधा से हुई। तात्विक राधा तो अन्तर्ध्यान हो गई थी। राधा की मृत्यु भी, कहते हैं,कि कृष्ण के बंसी बजाने पर राधा कृष्ण में ही विलीन हो गयी थी।
 समस्त वेद पुराण उनके गुणों से भरा पड़ा है। अहलादिनी भगवान को भी रसास्वादन कराती हैं। सच्चिदानंद श्रीकृष्ण की आनंद ही राधा है।महाभवस्वरुपिणी है। राधा पूर्ण शक्ति है कृष्ण पूर्ण शक्तिमान। कृष्ण सागर है तो राधा तरंग, कृष्ण फूल तो राधा सुगंध और कृष्ण अग्नि तो राधा तेज़ हैं। कृष्ण जो सब को आकर्षित करते हैं पर उनको भी आकर्षित करती है राधा। राधा अगर धन है तो कृष्ण तिजोरी।परमधन राधा जी है। प्रेम, समर्पण जहां है वहां राधा तत्व है।जनम लियो मोहन हित श्यामा। राधा नित्य है। ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार नित्य गोलोक धाम में श्रीकृष्ण एक से दो होते हैं। राधा का उनके बाम अंग से प्राकट्य होता है।
और, राधा जी से ही उनकी आठों  सखियां -ललिता, विशाखा, चित्रा, इन्दुलेखा, श्री रंगदेवी तुंगविद्या, चंपकलता और सुदेवी का प्रकाट्य है।

आलेख : संपादन. शक्ति : रेनू शब्द मुखर / जयपुर.  
स्तंभ संपादन :  शक्ति.डॉ. सुनीता शक्ति* प्रिया. 
आलेख : पृष्ठ सज्जा. शक्ति अनुभूति / शिमला.


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कृष्ण :एक जीवन परिचय.सम्पादकीय :आलेख :६     
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लेखक : डॉ. आर के दुबे.
संपादक / दिग्दर्शक : ब्लॉग मैगज़ीन पेज 



एम. एस. मीडिया : शक्ति : प्रस्तुति 
स्तंभ सम्पादित 
 शक्ति.डॉ. सुनीता शक्ति* प्रिया. 

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कृष्ण दर्शन : राधा - कृष्ण अद्वैत प्रेम : विशेष आलेख : ७     
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लेखक : डॉ. आर के दुबे.

राधा और कृष्ण रास लीला :  वृन्दावन का निधिवन :
राधा और कृष्ण के संदर्भ में पौराणिक मान्यताओं के अनुसार वृन्दावन का निधिवन उनके रास लीला का गवाह है। कहते हैं कि आज भी शाम की आरती के बाद निधिवन को बंद कर दिया जाता है लोगों का मानना है कि श्री कृष्ण रास लीला करने के लिए हर शाम यहां आते हैं। श्री कृष्ण की रास लीला वृंदावन की गलियों में आज भी कहानी किस्सों की तरह सुनाई जाती हैं। स्थानीय लोगों के अनुसार कान्हा राधा जी के साथ शाम होने पर वन में रास रचाते थे। उनका साथ देने के लिए वन के पेड़ पौधे गोपियां बन जाया करते थे।
कृष्ण अगर शरीर है तो राधा आत्मा : राधा कृष्ण एक प्रेमी प्रेमिका के रूप में जाने जाते हैं। हालांकि श्री कृष्ण की १६१०८ रानियां थी पर इन पर राधा का प्रेम भारी था तभी तो हर मूर्ति और तस्वीर में श्री कृष्ण संग राधा का स्थान है।
उनका प्रेम एक मिशाल है।
कृष्ण और राधा के प्रेम की प्रगाढ़ता ऐसी थी कि कृष्ण अगर शरीर है तो राधा आत्मा। एक कहानी के मुताबिक कान्हा के मथुरा जाने के पूर्व राधा ने उनसे पूछा कि वह उनसे विवाह क्यों नहीं कर लेते तो कृष्ण का उत्तर था ' कोई भला अपनी आत्मा से विवाह करता है क्या ? "

आगे जारी है.... 


गतांक से आगे. 
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           कृष्ण दर्शन : राधा - कृष्ण अद्वैत प्रेम : विशेष आलेख : ७ / ०      
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लेखक : डॉ. आर. के. दुबे.


प्रेम तो हृदय से हो : शक्ल और उम्र से नहीं प्रेम तो हृदय से होता है,। राधा जी कृष्ण से उम्र में बड़ी थी, फिर भी कान्हा राधा से बहुत स्नेह करते थे।कई विद्वानों के अनुसार राधा जी मिल्की वाइट थी जबकि कृष्ण सांवले।
श्री कृष्ण भगवान विष्णु के अवतार हैं।उनका जन्म बड़े उद्देश्य से हुआ था। अपने ही मामा कंस की क्रुरता का अंत करने के साथ ही महाभारत काल में अधर्म पर धर्म की जीत के लिए पाण्डवों को मार्ग दिखाने के लिए कन्हैया इस पृथ्वी पर अवतरित हुए थे। भले ही श्री कृष्ण की कई पत्नियां हुई पर राधा से उनका विवाह नहीं हुआ। शायद कृष्ण यह संदेश देना चाहते थे कि प्रेम में विवाह आवश्यक नहीं है। प्रेम अपने आप में पूर्ण है। प्रेम को सदैव आत्मा में समाकर अपने लक्ष्यों की पूर्ति की ओर अग्रसर रहे।
कृष्ण राधा  प्रेम : कृष्ण और राधा के प्रेम की एक बड़ी अनोखी बात थी। ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार राधा का विवाह रायाण से हुआ था जो कि माता यशोदा के भाई थे। यानी रिश्ते में राधा कृष्ण की मामी लगती थी।अगर इस तथ्य को सत्य माने तो कृष्ण को भले ही बचपन में राधा से प्रेम था लेकिन राधा की मंगनी पहले से ही हो चुकी थी। बड़े होने पर राधा और कृष्ण ने इस बात को समझा और विवाह न करके ये सीख कि प्रेम करना ग़लत नहीं,पर नैतिकता और परिवार के विरुद्ध जाकर अपने प्रेम को पाने का जतन करना ग़लत है।

सज्जा : शक्ति अनुभूति 
स्तंभ संपादन : शक्ति रीता 



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कृष्ण :एक जीवन परिचय.सम्पादकीय :आलेख : ६     
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लेखक : डॉ. आर के दुबे.

फोटो : साभार 


श्री कृष्णः एक परिचय : यशोदा के नंद लाला : ६ / १  
लेखक : डॉ. आर के दुबे.
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देवकी एवं वासुदेव : देवकी एवं वासुदेव श्रीकृष्ण के माता-पिता थे। श्री विष्णु के आज्ञानुसार योगमाया ने देवकी के सातवें गर्भ को वासुदेव की दूसरी पत्नी रोहिणी के गर्भ में प्रविष्ट किया और स्वयं देवकी के गर्भ में रहीं। जन्मोपरांत कंस जब उसे मारने निकला तो उसके हाथों से छूट कर स्वस्थान चली गई। 
यशोदा के नंद लाला : श्री कृष्ण देवकी की आठवीं संतान थे। इनके जन्मोपरांत वासुदेव इन्हें गोकुल में नंद यशोदा के घर ले गए। वासुदेव ने रोहिणी को भी उसके पुत्र के साथ गोकुल भेज दिया। युद्धवंश के पुरोहित गर्ग मुनि ने वासुदेव के कहने पर दोनों बालकों का नामकरण गुप्तरुप से किया। उन्होंने रोहिणी के पुत्र का नाम राम एवं देवकी के पुत्र का नाम श्री कृष्ण रखा।
आगे चलकर उनके प्रचंड शक्ति के कारण उनका नाम बलराम पड़ा।
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श्री कृष्णः एक परिचय : गोपियों के ह्रदय के स्पंदन : सुख दुःख : माधव : ६  / २ .
लेखक : डॉ. आर के दुबे.

फोटो : साभार 
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शरद ऋतु के एक चांदनी रात को श्री कृष्ण ने गोकुल में गोपियों संग रास क्रिड़ा रचाई। उस समय गोपियों को ब्रह्मानंद की अनुभूति हुई। श्री कृष्ण का सौंदर्य अद्वितीय था। उनके सौंदर्य से सभी मोहित हो जाते थे।
श्री कृष्ण को पकड़ने के लिए जरासंध ने अठारह बार मथुरा को घेरा। एक व्यक्ति को पकड़ने के लिए इतनी बार प्रयत्न करने का जग में अन्य कोई उदाहरण नहीं है। 
कंस २८०  हाथियों को बेड़ों में यमुना नदी के पार ले आया। तीन माह मथुरा को घेरे रखने पर भी श्री कृष्ण नहीं मिले। कंस श्री कृष्ण को ढूंढ नहीं पाया क्योंकि श्री कृष्ण प्रतिदिन किसी दूसरे घर चले जाते थे। एक सहस्र बालकों ने श्री कृष्ण समान मोर पंख पहन लिए थे। कंस के सैनिकों ने उन्हें मारा पिटा, तब भी उन्होंने यह भेद नहीं खोला, "वास्तव में श्री कृष्ण कौन है"।
श्री कृष्ण एक एक आदर्श पुत्र थे क्योंकि उन्होंने अपने आचरण द्वारा माता पिता वासुदेव देवकी एवं पालनकर्ता नंद यशोदा को आनंदित करने का प्रयत्न करते थे।


श्री  कृष्णः एक परिचय : सर्व प्रिय सदा सहायते कृष्ण : ६  / ३   
लेखक : डॉ. आर के दुबे.
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फोटो : साभार 

जब श्री कृष्ण सात वर्ष के थे तो कंस  को मारने मथुरा गये तभी उनका बचपन समाप्त हो गया। मथुरा के आसपास की भूमि को ब्रजभूमि कहते हैं। बाल कृष्ण की लीला इसी प्रदेश में हुई, इसलिए इसे पुण्यभूमि भी कहते हैं।
कंस वध एवं उपनयन के पश्चात बलराम और श्री कृष्ण अवंती नगरी में गुरू संदीपनि मुनि के आश्रम गए। संदीपनः अर्थात वह जिनके शरीर की सभी कोशिकाओं में दीप अर्थात चैतन्य जागृत है। श्री कृष्ण ने उनसे चौसठ दिनों में चौदह विद्याएं एवं चौसठ कलाएं सीखीं। साधारणः एक विद्या सीखने में दो से ढाई वर्ष लगते थे।
वयोवृद्धों के साथ भी श्री कृष्ण की निकटता थी।। सात वर्ष की कोमल आयु. में ही श्री कृष्ण ने गोपियों को मथुरा जाने से रोका, क्योंकि दुष्ट - कंस  को दूध बेचकर अर्जित किया हुआ धन उन्हें स्वीकार न था। तब से वयोवृद्ध भी उनकी बात मानने लगे तथा श्री कृष्ण ने भी उनके विश्वास को सांर्थक किया।
एक बार गोपियों ने यशोदा को बताया "श्री कृष्ण ने मिट्टी खा ली है। इस पर यशोदा ने श्री कृष्ण को मुख खोलने के लिए कहा तथा श्री कृष्ण के मुख खोलते ही यशोदा को उनके मुख में ही विश्वास रुप के दर्शन हुए। इससे यह स्पष्ट होता है कि अवतार बचपन से ही कार्य करते हैं।

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श्री कृष्णः एक परिचय : बांसुरी को प्रेम, खुशी, और आकर्षण का प्रतीक : ६  / ४  
लेखक : डॉ. आर के दुबे.  
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फोटो : श्याम तेरी बंसी को बजने से काम 

बहुपत्नीत्व के स्वामी : श्री कृष्ण : एक पत्नी का मन रखना कठिन होता है जब की श्री कृष्ण ने तो १६००८ पत्नियों को संतुष्ट रखा। नारदजी ने उनके बीच कलह उत्पन्न करने का प्रयत्न किया; परन्तु वह प्रयत्न भी असफल रहा। इसलिए श्री कृष्ण एक पति रुप में भी सफल रहे।
श्री कृष्ण एक अनुकरणीय पिता का उदाहरण थे। अपनी संतान, पोता-पोती इत्यादि के अनुचित आचरण के कारण श्री कृष्ण ने यादवी युद्ध कर स्वयं ही उन्हें मार दिया। अवतार एवं देवताओं में अपना कुल क्षय करने वाले उदाहरण है।
श्री कृष्ण  : द्वारिकाधीश : पांडवों  के सखा : श्री कृष्ण द्वारिकाधीश थे। पर उनके बचपन के मित्र सुदामा जब उनके पास सहायतार्थ आते हैं तो श्री कृष्ण ने उनका बड़े प्रेम एवं उत्साह से स्वागत किया। पांडवो का सखा होने के नाते वे उनकी सदैव सहायता करते थे। पांडवों  का श्री कृष्ण के प्रति सख्य भक्ति थी।
कला मर्मज्ञ श्री कृष्ण  :  बांसुरी बादक : नृत्य संगीत इत्यादि कलाओं के भोक्ता एवं मर्मज्ञ थे। उनके वासुरी वादन एवं रास क्रीड़ा प्रसिद्ध है। श्री कृष्ण का वासुरी वादन सुन पशु-पक्षी भी मोहित हो जाते थे।
भगवान कृष्ण की बांसुरी का नाम महानंदा या सम्मोहिनी था. यह बांसुरी बहुत लंबी थी. कृष्ण को बांसुरी बजाने का बहुत शौक था. कृष्ण की बांसुरी से जुड़ी कुछ और बातें :
मान्यता है कि भगवान शिव ने महर्षि दधीची की हड्डियों से यह बांसुरी बनाई थी और इसे कृष्ण को उपहार में दिया था. 
कृष्ण की बांसुरी को प्रेम, खुशी, और आकर्षण का प्रतीक : माना जाता है उनकी बांसुरी की धुन सुनकर पूरा विश्व भक्तिमय हो जाता था. कृष्ण गोपियों को आकर्षित करने के लिए वेणु बांसुरी का इस्तेमाल करते थे. ज्ञात हो कृष्ण ने राधा के वियोग में प्रेम के प्रतीक बांसुरी को तोड़कर फेंक दिया था. 
कृष्ण की टूटी हुई बांसुरी का भाग्य एक रहस्य ही बना हुआ है

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श्री कृष्णः एक परिचय : उनका आचरण अनुकरणीय : पृष्ठ ६ / ५.  


फोटो :  साभार : नरकासुर से मुक्त की गई १६०००  कन्याओं से विवाह. 

श्री कृष्ण ने स्वयं पुद्ध कर या औरों की सहायता कर कंस, जरासंध, कौरवों द्वारा किए गए अन्याय को नष्ट किया। नरकासुर के कारावास से मुक्त की गयी १६०००  कन्याओं से विवाह किया ताकि उन्हें समाज में उचित स्थान मिल सके और अनर्थ रोका जा सके।
श्री कृष्ण का कोई भी आचरण अनुकरणीय है। महाभारत युद्ध के समय उन्होंने प्रतिज्ञा की थी कि वे शस्त्र नहीं उठाएंगे। 
परन्तु भीष्म ने प्रतिज्ञा की कि ये श्री कृष्ण को शस्त्र उठाने पर विवश करेंगे। उनके प्रतिज्ञा की पूर्ति हेतु चक्र श्री कृष्ण ने चक्र उठाया और उनपर वार  भी किया।
उन्होंने ने ऐसा इसलिए किया क्योंकि उन्हें मालूम था समयानुकूल न किया गया तो दुष्टों का प्रभुत्व हो जाएगा।

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श्री कृष्णः एक परिचय : धर्म संस्थापना के लिए  : पृष्ठ ६ / ६.
  


अपने अनोखे वक्तृत्व द्वारा श्री कृष्ण ने कई लोगों के मन में पाण्डवों के लिए आत्मीयता जनित करने में सफलता पाई थी। कौरवों की राज्यसभा में श्री कृष्ण ने बड़े निपुणता से पाण्डवों का पक्ष रखा था।
सही समय पर कर्ण को उसके जन्म रहस्य बताकर श्री कृष्ण ने उसे दुविधा में डाल दिया। इसलिए श्री कृष्ण एक अच्छे मानसशास्त्री भी कहे जा सकते हैं।
श्री कृष्ण एक असाधारण योद्धा : श्री कृष्ण धनुर्विद्या में, गदा युद्ध एवं मल्लयुद्ध में प्रवीण थे। श्री कृष्ण ने वक्रदंत को गदा युद्ध में हराया। चाणुर से मलयुद्ध किया  तथा उसे मारा भी।
श्री कृष्ण ने अनेक दुष्ट राजाओं एवं मायावी राक्षसों का वध किया। जब दो बलवान राजा, जरासंध और कालयवन ने एक साथ आक्रमण किया तब श्री कृष्ण ने धैर्य नहीं खोया और यादवों की रक्षा की। श्री कृष्ण ने अर्जुन का सारथ्य कुशलता से निभाया।
श्री कृष्ण अपने काल के अनभिषिक्त राजा थे। वे दुष्ट राजाओं का वध कर उनकी संतान को गद्दी पर बिठाते समय कभी उनसे युद्ध का खर्च नहीं लिया।
श्री कृष्ण की विनम्रता उनकी  मित्रता : श्री कृष्ण की विनम्रता उनकी  मित्रता जैसे ही अनुकरणीय है। कृष्ण सुदामा की मैत्री अतुलनीय है। । कृष्ण का सखा भाव लोग कैसे भूला सकते हैं। द्रौपदी के प्रिय सखी रहें श्री कृष्ण और ज्ञात है सदैव उन्होंने उनकी सहायता की।   पाण्डवों के राजसूय यज्ञ के समय ब्राह्मणों का पैर भी धोया था
भागवत गीता जैसा ज्ञान देकर भी उसके श्रेय उन्होंने खुद को नहीं दिया। उन्होंने गीता में बतायें ज्ञान के लिए कहा कि " ऋषियों ने जिसका अनेक बार कथन किया, अनेक बार जिसका गुणगान किया,वही मैं पुनः पुनः कहता हूं।"

आलेख : संपादन. शक्ति : रेनू शब्द मुखर / जयपुर.  
स्तंभ संपादन :  शक्ति.डॉ. सुनीता शक्ति* प्रिया. दार्जलिंग .
आलेख : पृष्ठ सज्जा. शक्ति अनुभूति / शिमला.

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श्री कृष्णः एक परिचय : महान तत्वज्ञ  : : पृष्ठ ६ / ७ .


ये है गीता का ज्ञान 

श्री कृष्ण महान तत्वज्ञ  : मनुष्य को अपना कर्तव्य कैसे निभाना चाहिए,इसी का मुख्यतः प्रतिपादन उन्होंने भागवत गीता में किया है। शास्त्र यह निर्धारित करता है कि हमारा कर्तव्य क्या है; परन्तु उस निर्धारित कर्तव्य को किस प्रकार निभाना चाहिए,यह श्री कृष्ण ने उतम प्रकार से समझाया है। 
भागवत गीता में उन्होंने अर्जुन को बताया कि प्रवृत्ति : सांसारिक विषयों के प्रति आसक्ति  को निवृत्ति रुप : सांसारिक विषयों के प्रति विरक्ति  में अथवा निवृत्ति को प्रवृत्ति रुप में कैसे परिवर्तित करना चाहिए एवं मनुष्य को अपना कर्तव्य कैसे निभाना चाहिए। इसलिए श्री कृष्ण महान तत्वज्ञ है।
श्री कृष्ण ने अर्जुन को गीता ज्ञान देकर एवं शब्दातीत माध्यम से अनुभूति करा कर उनके विकल्पों को नष्ट करते हैं।यह श्री कृष्ण का गुरुत्व है।
श्री कृष्ण में ईश्वरीय करिश्मा भी देखने को मिलता है। वस्त्रावतार धारण कर द्रौपदी की श्री कृष्ण ने लाज रखी। श्री कृष्ण को अठारह सिद्धियां प्राप्त थीं।


ये थे हमारे आदरणीय, अनुकरणीय : पृष्ठ ६ / ७ .


श्री कृष्ण का जामवंती से विवाह : फोटो साभार 

श्री कृष्ण का जामवंती से विवाह : जब रीछों के राजा जामवंत ने श्री कृष्ण से अपनी पुत्री जामवंती से विवाह की अभ्यार्थना की तो लाख विरोधों के बाद भी श्री कृष्ण ने उससे विवाह किया।यह इस तथ्य को प्रमाणित करता है कि श्री कृष्ण सभी प्राणियों से समान रूप से प्रेम करते हैं।
महाभारत के युद्ध में श्री कृष्ण ही एकमात्र ऐसे सारथी थें जिन पर किसी ने आक्रमण नहीं किया।
मृतकों के शव पर जीवित रहने वाले गिद्ध और सियार के बीच महाभारत युद्ध के पश्चात संवाद हुआ।इस संवाद में उन्होंने सभी की गलतियां बतलाई यहां तक कि युधिष्ठिर की भी गलती बताईं परंतु श्री कृष्ण की एक भी गलती नहीं बता पाए। 
तो, ये थे हमारे आदरणीय, अनुकरणीय एवं अपने आचरण के लिए विचारणीय श्री कृष्ण।
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श्री कृष्ण के विविध नाम  पृष्ठ ६ / ८  .

अचला, अच्युत, अद्भुतह, आदिदेव, अदित्या, अजन्मा, अजया, अक्षरा, अमृत, अनादिह, आनंद सागर, अनंता, अनंतजीत, अनया, अनिरुद्धा, अपराजित, अव्युक्ता, बाल गोपाल, बलि, चतुर्भुज, दानवेंद्रो, दयालु, दयानिधि, देवाधिदेव, देवकीनंदन, देवेश, धर्माध्यक्ष, द्वारकाधीश, गोपाल, गोपालप्रिया, गोविंदा, ज्ञानेश्वर, हरि, हिरण्यगर्भा, ऋषिकेश, जगद्गुरु, जगदीशा, जगन्नाथ, जनार्धना, जयंतह, ज्योतिरादित्या, कमलनाथ, कमलनयन, कामसांतक, कंजलोचन, केशव, कृष्ण, लक्ष्मीकांत, लोकाध्यक्ष, मदन, माधव, मधुसूदन, महेन्द्र, मनमोहन, मनोहर, मयूर, मोहन, मुरली, मुरलीधर, मुरली मनोहर, नंदगोपाल, नारायन, निरंजन, निर्गुण, पद्महस्ता, पद्मनाभ, परब्रह्मन, परमात्मा, परंम पुरुष, पार्थसारथी, प्रजापति, पुण्य, पुरुषोत्तम, रविलोचन, सहस्राकाश, सहस्रजीत, सहस्रपात, साक्षी, सनातन, सर्वजन, सर्वपालक, सर्वेश्वर, सत्य वचन, सत्यव्त, शंतह, श्रेष्ठ, श्रीकांत, श्याम, श्यामसुंदर, सुदर्शन, सुमेध, सुरेशम, स्वर्गपति, त्रिविक्रमा, उपेन्द्र, वैकुंठनाथ, वर्धमानह, वासुदेव, विष्णु, विश्वदक्शिनह, विश्वकर्मा, विश्वमूर्ति, विश्वरूपा, विश्वात्मा वेंद्रा, योगि और योगिनाम्पति।
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        योगेश्वर श्रीकृष्ण पृष्ठ ६ / ९ .

श्रीकृष्ण : योगेश्वर : श्रीकृष्ण को योगेश्वर और योगीराज कहा जाता है। भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को कर्म योग, भक्ति योग और ज्ञान योग का उपदेश दिया। उन्होंने गीता मैं अर्जुन को जीवन की समस्याओं के समाधान के लिए योग के माध्यम से ज्ञान कर्म भक्ति और राज योग के बारे में बताया।
उन्होंने ने जिन  लोगों की शिक्षा दी उसके अनुसार उनका स्वयं का आचरण भी था।
कर्तव्यों के प्रति उनकी अद्वितीय निष्ठा : कर्तव्यों के प्रति उनकी अद्वितीय निष्ठा थी। भगवान श्री कृष्ण ने अपने जीवन में योग के विभिन्न पहलुओं का उदाहरण दिया। अर्जुन को उपदेश देते हुए ईश्वर प्राप्ति के लिए सभी प्रकार के योग साधनों को विस्तार से बतलाया है। भक्ति योग को श्रीकृष्ण ने सर्वश्रेष्ठ योग बतलाया है।


स्तंभ संपादन 
शक्ति : रीता रानी  
जमशेद पुर 














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कृष्ण : जिंदगी के ४ अनमोल रत्न हैं...सम्पादकीय :आलेख : ५   
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एक दिन राधा जी ने भगवान कृष्ण से पूछा - हे श्यामसुंदर इस जीवन में सबसे कीमती रत्न क्या है? 
कृष्ण ने कहा - जिंदगी के ४ अनमोल रत्न हैं...
१.पहला रत्न है : ' माफी ' तुम्हारे लिए कोई कुछ भी कहे, तुम उसकी बात को कभी अपने मन में न बिठाना, और ना ही उसके लिए कभी प्रतिकार की भावना मन में रखना, बल्कि उसे माफ कर देना।
२.दूसरा रत्न है : ' भूल जाना ' अपने द्वारा दूसरों के प्रति किये गए उपकार को भूल जाना, कभी भी उस किए गए उपकार का प्रतिलाभ मिलने की उम्मीद मन में न रखना।
३.तीसरा रत्न है: ' विश्वास ' हमेशा अपनी महेनत और उस परमपिता परमात्मा पर अटूट विश्वास रखना। यही सफलता का सूत्र है।
४.चौथा रत्न है: ' वैराग्य ' हमेशा यह याद रखना कि जब हमारा जन्म हुआ है तो निशिचत ही हमें एक मरना ही है। इसलिए बिना लिप्त हुऐ जीवन का आनंद लेना। वर्तमान में जीना। यही जीवन का असल सच है।
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 राधा कौन ? : सम्पादकीय :  आलेख : ४  
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राधा कौन ? यह जिज्ञासा हमारे भीतर होती है। 
मित्रों जब श्री कृष्ण की चर्चा होती है तब राधा जी का नाम जरूर आता है। राधा जिससे श्री कृष्ण बहुत प्रेम करते उनसे श्री कृष्ण का विवाह नहीं होता है। फिर भी जहां कृष्ण की चर्चा होती है राधा जी की चर्चा हुए बिन कृष्ण चर्चा पुरी नहीं होती।तब अनायास ही पश्न सम्मुख खड़ा होता है कि राधा कौन है?
राधा का स्वरूप परम दुरूह है। किशोरी जी ही राधा है। राधा का जैविक परिचय है कि वो किर्ति और वृषभानु की पुत्री है। उनकी शादी रायाण से हुई।
राधा का तात्विक परिचय है कि राधा कृष्ण की आनंद है।वो कृष्ण की ही अहलादिनी शक्ति स्वरूप है। रायाण से जिस राधा की शादी हुई वो तो छाया राधा से हुई। तात्विक राधा तो अन्तर्ध्यान हो गई थी। राधा की मृत्यु भी, कहते हैं,कि कृष्ण के बंसी बजाने पर राधा कृष्ण में ही विलीन हो गयी थी।
 समस्त वेद पुराण उनके गुणों से भरा पड़ा है। अहलादिनी भगवान को भी रसास्वादन कराती हैं। सच्चिदानंद श्रीकृष्ण की आनंद ही राधा है।महाभवस्वरुपिणी है। राधा पूर्ण शक्ति है कृष्ण पूर्ण शक्तिमान। कृष्ण सागर है तो राधा तरंग, कृष्ण फूल तो राधा सुगंध और कृष्ण अग्नि तो राधा तेज़ हैं। कृष्ण जो सब को आकर्षित करते हैं पर उनको भी आकर्षित करती है राधा। राधा अगर धन है तो कृष्ण तिजोरी।परमधन राधा जी है। प्रेम, समर्पण जहां है वहां राधा तत्व है।जनम लियो मोहन हित श्यामा। राधा नित्य है। ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार नित्य गोलोक धाम में श्रीकृष्ण एक से दो होते हैं। राधा का उनके बाम अंग से प्राकट्य होता है।
और, राधा जी से ही उनकी आठों  सखियां -ललिता, विशाखा, चित्रा, इन्दुलेखा, श्री रंगदेवी तुंगविद्या, चंपकलता और सुदेवी का प्रकाट्य है।

आलेख : संपादन. शक्ति : रेनू शब्द मुखर / जयपुर.  
स्तंभ संपादन :  शक्ति.डॉ. सुनीता शक्ति* प्रिया. 
आलेख : पृष्ठ सज्जा. शक्ति अनुभूति / शिमला.


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आज शरद पूर्णिमा है : सम्पादकीय :आलेख : ३ 
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आज शरद पूर्णिमा है सभी मित्रों को इस मौके पर हार्दिक बधाईयां और शुभकामनाएं। शरद पूर्णिमा को ही कोजागरी पूर्णिमा और रास पूर्णिमा भी कहते हैं। ऐसा माना जाता है कि पूरे वर्ष में केवल इसी दिन चन्द्रमा सोलह कलाओं से परिपूर्ण होता है।इस दिन कौमुदी व्रत भी मनाया जाता है। मान्यता है कि इस दिन धन की देवी समुद्र मंथन से उत्पन्न हुई थी। इसके साथ ही द्वापर युग में भगवान कृष्ण ने शरद पूर्णिमा की धवल चांदनी में महारास किया था और इससे प्रसन्न होकर चन्द्रमा ने अमृत वर्षा की थी। तभी तो इस दिन उत्तर भारत में खीर बनाकर रात भर चांदनी में रखने का एवं सुबह प्रसाद के रूप में लेने का विधान है। तो बताऊं कि विगत वर्ष मैं ने कृष्ण महारास 
का चित्रण अपने एक गीत में किया था जिसे देश के जाने-माने भजन एवं ग़ज़ल गायक तथा श्रद्धेय अनूप जलोटा जी के शिष्य श्री राजीव तोमर जी ने अपने मखमली आवाज में जीवंतता प्रदान की है। सोचा कि मित्रों के बीच लिंक शेयर करु ताकि जो मित्र नहीं सुन पाये हों वो भी सुन ले। गीत यूं है :-

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दीपावली भगवान राम : सम्पादकीय :आलेख : २ 
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अधिकतर घरों में बच्चे यह दो प्रश्न अवश्य पूछते हैं जब दीपावली भगवान राम के १४  वर्ष के वनवास से अयोध्या लौटने की खुशी में मनाई जाती है तो दीपावली पर लक्ष्मी पूजन क्यों होता है? 
राम और सीता की पूजा क्यों नही? 
दूसरा यह कि दीपावली पर लक्ष्मी जी के साथ गणेश जी की पूजा क्यों होती है, विष्णु भगवान की क्यों नहीं?
सच तो यह है कि दीपावली का उत्सव दो युगो, सतयुग और त्रेता युग से जुड़ा हुआ है। सतयुग में समुद्र मंथन से माता लक्ष्मी उस दिन प्रगट हुई थी इसलिए लक्ष्मीजी का पूजन होता है। भगवान राम भी त्रेता युग में इसी दिन अयोध्या लौटे थे तो अयोध्या वासियों ने घर घर दीपमाला जलाकर उनका स्वागत किया था इसलिए इसका नाम दीपावली है।अत: इस पर्व के दो नाम है लक्ष्मी पूजन जो सतयुग से जुड़ा है दूसरा दीपावली जो त्रेता युग प्रभु राम और दीपों से जुड़ा है।
लक्ष्मी गणेश का आपस में क्या रिश्ता है
और दीवाली पर इन दोनों की पूजा क्यों होती है?
लक्ष्मी जी सागरमन्थन में मिलीं, भगवान विष्णु ने उनसे विवाह किया और उन्हें सृष्टि की धन और ऐश्वर्य की देवी बनाया गया। लक्ष्मी जी ने धन बाँटने के लिए कुबेर को अपने साथ रखा। कुबेर बड़े ही कंजूस थे, वे धन बाँटते ही नहीं थे।वे खुद धन के भंडारी बन कर बैठ गए। माता लक्ष्मी खिन्न हो गईं, उनकी सन्तानों को कृपा नहीं मिल रही थी। उन्होंने अपनी व्यथा भगवान विष्णु को बताई। भगवान विष्णु ने कहा कि तुम कुबेर के स्थान पर किसी अन्य को धन बाँटने का काम सौंप दो। माँ लक्ष्मी बोली कि यक्षों के राजा कुबेर मेरे परम भक्त हैं उन्हें बुरा लगेगा।
तब भगवान विष्णु ने उन्हें गणेश जी की  विशाल बुद्धि को प्रयोग करने की सलाह दी। माँ लक्ष्मी ने गणेश जी को भी कुबेर के साथ बैठा दिया। गणेश जी ठहरे महाबुद्धिमान। वे बोले, माँ, मैं जिसका भी नाम बताऊँगा , उस पर आप कृपा कर देना, कोई किंतु परन्तु नहीं। माँ लक्ष्मी ने हाँ कर दी।अब गणेश जी लोगों के सौभाग्य के विघ्न, रुकावट को दूर कर उनके लिए धनागमन के द्वार खोलने लगे।कुबेर भंडारी देखते रह गए, गणेश जी कुबेर के भंडार का द्वार खोलने वाले बन गए। गणेश जी की भक्तों के प्रति ममता कृपा देख माँ लक्ष्मी ने अपने मानस पुत्र श्रीगणेश को आशीर्वाद दिया कि जहाँ वे अपने पति नारायण के सँग ना हों, वहाँ उनका पुत्रवत गणेश उनके साथ रहें।
दीवाली आती है कार्तिक अमावस्या को, भगवान विष्णु उस समय योगनिद्रा में होते हैं, वे जागते हैं ग्यारह दिन बाद देव उठनी एकादशी को। माँ लक्ष्मी को पृथ्वी भ्रमण करने आना होता है शरद पूर्णिमा से दीवाली के बीच के पन्द्रह दिनों में।इसलिए वे अपने सँग ले आती हैं अपने मानस पुत्र गणेश जी को।
इसलिए दीवाली को लक्ष्मी गणेश की पूजा होती है।
सभी मित्रों को दीवाली की  ढेरों बधाइयां और शुभकामनाएं  शुभ दीपावली

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शारदा जी आप सचमुच ' विजया ' सम्पादकीय : आलेख : १ 
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१९५२की विजया जब समझने लगी लोक जन, मन,और जीवन मूल्य तो उनकी ये समझ मुखरित हुई उनके सात सुरों से निर्मित उनके विशाल  सृजित संगीत संसार में और तब बन गयी शारदा सिन्हा। संगीत के शिखर पर होने के बावजूद उनमें कोई अहंकार नहीं था।मेरी और उनकी मुलाकात २०२३मे मुम्बई एअर पोर्ट पर हुई प्लेन में इन्ट्री के दौरान।यह पूछने पर कि आप शारदा सिन्हा जी है। 
उन्होंने ने उतर में कहा "हां मैं शारदा"हूं। कितनी सरलता उनमें थी। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है।प्लेन में मैं अपना सिट छोड़ कर उनके पास बैठा गप करता रहा।फिर मैं उन्हें अपना लिखा गीत/ग़ज़ल/भजन/लोक गीत यूट्यूब से सुनाया। बड़े चाव से मेरी रचनाओं को सुनती रही।अंत में उन्होंने कहा कि आप एक उम्दा साहित्य सर्जक है।आइए कभी मेरे पटना के निवास पर मिल कर कुछ आगे की सोचते हैं। मैं ने निमंत्रण उनका स्वीकार किया और तब मैं अपने सिट पर जाकर बैठ गया क्योंकि अब प्लेन टेक आफ के लिए मुव कर रहा था। पटना उतर कर मैं अपने पत्नी संग अपने आवास की ओर तथा वो अपने पुत्र अंशुमान के साथ अपने आवास की ओर रवाना हो गए।उस दिन उन्होंने ने कहा था "दुबे जी फिर मिलते हैं।"अब तक तो मैं जा नहीं सका पर अब सोचता हूं " अब कब और कहां मिल सकेंगे?थोड़ी ही देर में उन्होंने जो आत्मियता मुझे दी। भुलाए नहीं भूल सकता। शारदा जी आप सचमुच" विजया"भी है। बहुत याद आएगी।
विनम्र श्रद्धांजलि

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टाइम्स मिडिया प्रस्तुति 
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डॉ. आर के दुबे : सम्पादकीय : पद्य संग्रह. आलेख .पृष्ठ : २ 
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पद्य संग्रह. 
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कवि : डॉ. आर के दुबे.
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मुन्ना लाल महेश लाल आर्य एंड संस ज्वेलर्स बिहार शरीफ़ समर्थित. 
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पद संग्रह  संपादन.
 

शक्ति. नीलम. 
वाराणसी. 
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पृष्ठ सज्जा.


शक्ति अनुभूति / शिमला.  
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कान्हा छोड़ वृन्दावन में कहा भागे जाय :  २ / ३ .


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कजरी.२ / २. 
राधा कृष्ण की होली.  डॉ आर के दुबे. 


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कृष्ण भजन :  २ / १  

कन्हैया ! कन्हैया ! तुझको आना पड़ेगा 


फोटो : साभार
 

कन्हैया! कन्हैया! तुझको आना पड़ेगा 
आकर  धरम -ज्योत   जलाना  पड़ेगा।

अब देखो ना कैसी शमां बंध गयी है 
चहुं ओर  संकट घटा  घीर  गयी  है 
आओ  फिर  गोवर्धन  उठाना पड़ेगा ।

जुल्म और जुल्मी प्रबल हो रहें हैं 
कत्ल और क़ातिल सबल हो रहें हैं 
छाया अंधेरा अरुण को बुलाना पड़ेगा।

हर ओर आतंकी साया छाने लगी है 
रक्त रंजित धरा फिर  होने  वाली है 
आओ  आज सुदर्शन उठाना पड़ेगा ।

कौरव  सेना  संग  दुर्योधन  खड़ा  है
देख  तेरा अर्जुन आज  तन्हा पड़ा है 
आकर गीता फिर  से सुनाना पड़ेगा।
अर्जुन को फिर आज जीतना पड़ेगा।

  डॉ आर के दुबे    
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भोजपुरी ग़ज़ल :  २ / ०   
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भोजपुरी ग़ज़ल

नयन  में ख़ुशी  के  बसल सपना मोरा


फोटो : साभार


सनम  संग बीतावे  के  दिन जे आइल
करीब उनका जाए के  दिन जे आइल।

कहाइल  सुनाइल  जवन  बात दिल से
उ सब कुछ  बतावे के  दिन जे आइल।

करे मन इ दिल रहिया आपन बिछइती
लुटावे  लुटे  रीझे  के दिन  जे  आइल।

नयन  में ख़ुशी  के  बसल सपना मोरा
नशीला नजर आवे के दिन जे आइल।

हवा भोर के हम   से  पूछत घुमे  अब
बगीया   सजे साजे के दिन जे आइल।

डॉ आर के दुबे.
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प्रथम मिडिया प्रस्तुति 


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सम्पादकीय : सुविचार संग्रह. पृष्ठ : ३
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विचारक. 
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कवि : डॉ. आर के दुबे.
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गीता सार : आत्मा अजर अमर है 
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सुविचार : पृष्ठ : ३ : संपादन.
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शक्ति. शालिनी रॉय.
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पृष्ठ सज्जा. पृष्ठ : ३ : संपादन.



शक्ति. मंजिता  / चंडीगढ़.
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एम एस मिडिया प्रस्तुति 
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सम्पादकीय. शक्ति.दृश्यम : संग्रह  : पृष्ठ : ४ 
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संपादन 


शक्ति. मीना सिंह / नैनीताल.  

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कृष्ण सदा सहायते 

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ए एंड एम मिडिया प्रस्तुति 


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आपने कहा : संदेशें आते हैं : चिठ्ठी आई हैं : पृष्ठ : ५ 
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सम्पादकीय : संपादन. 


शक्ति. डॉ.नूतन स्मृति.
लेखिका. कवयित्री.  
देहरादून. 

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आपने कहा :

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राधिका कृष्ण सदा सहायते 
कृष्ण : भक्ति : शक्ति 
मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई 
हे माधव ! मेरे ' गुरु ' और ' गुरुर '  दोनों आप ही हैं 


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डॉ. आर के दुबे : विचार.
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मानव जीवन में विषमतायें क्यों : विचार : १ 
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प्रश्न : मानव_जीवन_में_विषमतायें_क्यों ? 
आज ज्ञान और अच्छी संवेदन शील बातें तो कण कण में बिखरी पड़ी हैं 
आपने देखा होगा - पशु / पक्षी के बच्चे चलना / उड़ना आते ही मां बाप को छोड़कर, कहां चल जाते हैं किसी को पता नहीं होता। सब अपना अलग जीवन गुजर-बसर करते हैं।
मनुष्य के साथ ही ऐसी उलझन क्यों है कि वह अपने बच्चों के पांवपर खड़े होकर होश संभालते ही दूर चले जाने पर, उनके बिना जीना दूभर बोझिल हो जाता है।
क्यों ...  और  क्या इस समस्या का कोई उपाय  है ,,, ....आध्यात्मिक ,दार्शनिक, साहित्यिक विद्वानों की दृष्टि में मार्ग दर्शन का निवेदन है ।
उत्तर : सभ्य मनुष्य ने स्वस्थ समाज को सुचारू रूप से चलाने के लिए मानव जीवन के चार पुरूषार्थों की प्राप्ति के लिए चार आश्रमों की व्यवस्था की थी शास्त्रों में.. 
ब्रह्मचर्य आश्रम ,गृहस्थ आश्रम, वानप्रस्थ आश्रम, संन्यास आश्रम
लेकिन आज का तथाकथित मानव अपने अपने ढंग से जीने के तरीके बताने वाले विचारकों, दार्शनिकों, विद्वानों की पुस्तकें पढ़ पढ़ कर  प्राचीन सनातन भारतीय मनिषियों के बताये मार्ग को त्याग कर किसी आश्रम का नियमत: पालन करना भूल गया है.. 
न उसे ब्रह्मचर्याश्रम के नियमों को पालकर विद्या ग्रहण करना है.. न उसे गृहस्थाश्रम की नियमित नियमानुसार कार्य करना है... वानप्रस्थ आश्रम से उसे डर लगता है और संन्यास आश्रम से कंपकपी छूटती है  तो बुढ़ापा आने पर उसे बाल बच्चों का तिरस्कार पाने और वृद्धाश्रम जाने की मजबूरी को कौन रोक सकता है.. 
प्रारंभिक जीवन में गुरुकुल की शिक्षा व्यवस्था को धूल चटाकर कांवेंटी शिक्षा ही उसे प्रगतिकारक लगता रहा तो कांवेंटी शिक्षा का उपसंहार से वह कैसे बच सकता है.. बेटे बेटियों को कार्पोरेट जिंदगी जीने में देखना उसे अच्छा लगा तो बेटे बहू बेटी दामाद विदेशों या बंगलुरू, पूणे के आकर्षण को छोड़ छोटे गाँव/शहर में क्यों आएंगे? उन्हें वृद्धाश्रम की शोभा बढ़ानी ही होगी.. पैसा नहीं है तब भी और अथाह पैसा है तब भी अकेलेपन का दंश झेलना ही होगा"

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नरक स्वर्ग अपबर्ग निसेनी। ग्यान बिराग भगति सुभ देनी॥ : विचार : २  
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नरक स्वर्ग अपबर्ग निसेनी। ग्यान बिराग भगति सुभ देनी॥  
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एक विचार जो विचारणीय है 
 मनुष्य शरीर में सांसारिक, पारमार्थिक — सब तरह की उन्नति करने की स्वतंत्रता है। मनुष्य शरीर कर्म (साधन) योनि है, इस शरीर में जो एक विवेक शक्ति मिली हुई है, इसके सदुपयोग से मनुष्य श्रेष्ठ बन सकता है।
नरक स्वर्ग अपबर्ग निसेनी। ग्यान बिराग भगति सुभ देनी॥
मनुष्य शरीर में यह योग्यता मिली हुई है कि वह नरक, स्वर्ग में जा सकता है, ज्ञान, वैराग्य, मुक्ति और भगवान् के चरणों की श्रेष्ठ भक्ति प्राप्त कर सकता है। ज्ञान, वैराग्य, मुक्ति, भक्ति की प्राप्ति के लिए सत्संग मुख्य है। सत्संग के द्वारा सद्विचार पैदा होते हैं और सद्शास्त्र भी ठीक समझ में आते हैं। शास्त्रों के अध्ययन से तो यत्किन्चित अभिमान हो सकता है, लेकिन ठीक सत्संग किया जाय तो अभिमान नहीं होता है।
प्रायः लोगों में यह धारणा है कि हम अच्छे काम करके अच्छे बनेंगे, लेकिन श्रेष्ठ बात यह है कि बुराई छोड़ने से अच्छाई स्वत: पैदा होती है। अच्छे काम करने के लिए तो पैसा, पुरुषार्थ, सामग्री आदि चाहिए, लेकिन बुराई के त्याग में सभी स्वाधीन हैं — 
किसी की निन्दा, तिरस्कार नहीं करना, चोरी, हिंसा आदि नहीं करना; इनको नहीं करने में श्रम है ही नहीं। इस तरह निषेधात्मक साधन सुगम भी है और श्रेष्ठ भी है। बुराई का त्याग। किसी को बुरा न समझें, किसी का बुरा न चाहें, किसी का बुरा न करें— 
मूल में सभी परमात्मा के अंश हैं, बुराई आगन्तुक दोष है।
ईस्वर अंस जीव अबिनासी। चेतन अमल सहज सुख रासी॥
किसी को भी बुरा समझकर हम अपने में और जिसे हम बुरा समझते हैं, उसमें भी बुराई दृढ़ कर रहे होते हैं, उसे बुरा बनने के लिए प्रेरित करते हैं। सर्वथा भले तो सभी हो सकते हैं, लेकिन सर्वथा बुरा कोई हो सकता ही नहीं।
बुराई का त्याग करने से भलाई स्वत: प्रकट होती है। भलाई करने का तो अभिमान आ सकता है, लेकिन बुराई के त्याग का अभिमान नहीं होता। कोई झूठ नहीं बोलता, हिंसा नहीं करता, छल-कपट, चोरी नहीं करता— ऐसे नहीं करने का कोई क्या अभिमान करेगा? जैसे भगवान् के चिन्तन से सद्गुण-सदाचार आते हैं, वैसे ही बुराई के चिन्तन से अपने में बुराई के संस्कार पनपते हैं। किसी को बुरा न समझना अपने भला बनने के लिए खास निमन्त्रण है। मनुष्य शरीर में दो खास काम हैं —भगवान् को याद रखना और संसार की सेवा करना।
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यस् तत्व रतिर एव स्याद् आत्म तृप्तश्च च मानव: आत्मन्येव च सन्तुष्टस तस्य कार्य न विद्यते।
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एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयति य: अघायुर इंद्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति।
हे पार्थ जो लोग वेदों द्वारा स्थापित यज्ञ अपने उत्तरदायित्व को नहीं स्वीकार करते ,वे पापी है। वे केवल अपने इंद्रियों के सुख के लिए जीते हैं। वास्तव में उनका जीवन व्यर्थ है।
यस् तत्व रतिर एव स्याद् आत्म तृप्तश्च च मानव: आत्मन्येव च सन्तुष्टस तस्य कार्य न विद्यते।
किन्तु जो लोग आत्मा में ही रमण करते हैं जो प्रकाशवान है और आत्मा में ही पूर्णतया संतुष्ट हैं उनके लिए कोई कर्तव्य नहीं है
नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन। न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रय:।।
 उस महापुरुष का इस विश्व में न तो कर्म करने से कोई प्रयोजन रहता है और न ही कर्मों के न करने से ही कोई प्रयोजन रहता है। तथा सम्पूर्ण प्राणियों में भी इसका किश्चिन्मात्र भी स्वार्थ का संबंध नहीं रहता।
तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर। असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पुरुष:।।
इसलिए तूं निरंतर आसक्ति से रहित होकर सदा कर्तव्य कर्म को भलीभांति करता रह।
क्योंकी आसक्ति से रहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्मा को प्राप्त हो जाता है।

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कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादय गीता : उपदेश 
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कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादय:।
लोकसंप्रहमेवापि  सम्पश्यन्करतुमर्हसि।।
जनकादि ज्ञानी जन भी आसक्ति रहित कर्म द्वारा ही परम सिद्धि को प्राप्त हुए थे। इसलिए तथा लोकसंग्रह कों देखते हुए भी तूं कर्म करने के ही योग्य है। अर्थात तुझे कर्म करना हीं उचित है।
यद्यदाचरित श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन:।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।
श्रेष्ठ पुरुष जो जो आचरण करता है,अन्य पुरुष भी वैसा वैसा हीं आचरण करतें हैं।वह जो कुछ प्रमाण कर देता है,समस्त मनुष्य समुदाय उसी के अनुसार बरतनें लग जाता है।
संख्या -7
(३/20-21)
उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्।
संकरस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमा: प्रजा:।।
अर्थात यदि मैं कर्म न करु तो ये सब मनुष्य नष्ट भ्रष्ट हो जायं और मैं संकरता का करने वाला होऊं तथा इस समस्त प्रजा को नष्ट करने वाला बनूं।
सक्ता:कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत।
कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम।।
अर्थात हे भारत! कर्म में आसक्त हुए अज्ञानीजन जिस प्रकार कर्म करते हैं, आसक्ति रहित विद्वान भी लोकसंग्रह करना चाहता हुआ उसी प्रकार कर्म करे।
संख्या -9
3/24-25
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अपने वर्ण,आश्रम, स्वभाव : गीता : उपदेश 
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मित्रों गीता के तीसरे अध्याय के श्लोक तीन से उन्नतिस श्लोक तक कर्म के संदर्भ में श्री कृष्ण ने अर्जुन के समक्ष यह प्रमाणित किया है कि मनुष्य किसी भी स्थिति में क्यों न हो, उसे अपने वर्ण,आश्रम, स्वभाव और परिस्थिति के अनुरूप विहित कर्म करते हीं रहना चाहिए।इसे प्रमाणित करने के लिए इन श्लोकों में निम्नलिखित बातें कहीं हैं:-
*कर्म किए बिना नैष्कर्म्यसिद्धिरुप कर्मनिष्ठा नहीं मिलती।
*कर्मों का त्याग कर देने मात्र से ज्ञान निष्ठा सिद्ध नहीं होती।
*एक क्षण के लिए भी मनुष्य सर्वथा कर्म किए बिना नहीं रह सकता।
*बाहर से कर्मों का त्याग कर के मन से विषयों का चिन्तन करते रहना मिथ्याचार है।
*मन -इंद्रियों को वश में कर के निष्काम भाव से कर्म करने वाला श्रेष्ठ है।
*बिना कर्म किए शरीर निर्वाह भी नहीं हो सकता।


*यज्ञ के लिए किये जाने वाले कर्म बन्धन करने वाले नहीं, बल्कि मुक्ती के कारण है।
*कर्म करने के लिए प्रजापति की आज्ञा है और नि: स्वार्थ भाव से उसका पालन करने से श्रेय की प्राप्ति होती है।
*कर्तव्य का पालन किए बिना भोगों का उपभोग करने वाला निंदनीय है।
*कर्तव्य -पालन करके यज्ञ शेष से शरीर निर्वाह के लिए भोजनादि करने वाला सब पापों से छूट जाता है।

 *कर्तव्य -कर्म के त्याग द्वारा सृष्टि चक्र में बाधा पहुंचाने वाले मनुष्य का जीवन व्यर्थ है।
*अनासक्त भाव से कर्म करने से परमात्मा की प्राप्ति होती है।
*पूर्व काल में जनकादि ने भी कर्मों द्वारा सिद्धि प्राप्त की थी।
*दूसरे मनुष्य श्रेष्ठ महापुरुष का अनुकरण करते हैं, इसलिए श्रेष्ठ महापुरुषों को कर्म करना चाहिए।
*भगवान को कुछ भी कर्तव्य नहीं है, तो भी वें लोक संग्रह के लिए कर्म करते हैं।

*ज्ञानी के लिए कोई कर्तव्य नहीं है, तो भी उसे लोक संग्रह के लिए कर्म करना चाहिए।
*ज्ञानी को स्वयं विहित कर्मों का त्याग कर के या कर्म त्याग का उपदेश देकर किसी प्रकार भी लोगों को   कर्तव्य कर्म से विचलित न करना चाहिए वरन स्वयं कर्म करना और दूसरों से करवाना चाहिए।
*ज्ञानी महापुरुषों को उचित है कि विहित कर्मों कास्वरुपत: त्याग करने का उपदेश देकर कर्माशक्त मनुष्यों को विचलित न करें।

यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न कांक्षति।
शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्य: स मे प्रिय:।।
जो न कभी हर्षित होता है,न द्वेष करता है,न शोक करता है तथा जो शुभ और अशुभ सम्पूर्ण कर्मों का त्यागी है -वह भक्ति युक्त पुरुष मुझ को प्रिय है।
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संदेशें आते हैं : चिठ्ठी आई हैं : शुभकामनायें : आपने कहा : पृष्ठ : ५ 
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संपादन.
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शक्ति. रीता रानी.
 जमशेदपुर.  
*
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स्व रामप्रताप द्विवेदी स्मृति साहित्य संस्था सतना मध्य प्रदेश 
अपनी माटी अपना देश हरा भरा हो भारत देश
*
लाइव काव्य पाठ तीसरा आयोजन
*
सम्मान-पत्र
*
दिनांक ०७.०३.२०२५. 
*
आ.श्री राजेंद्र दुबे जी
*
उत्कृष्ट लाइव काव्य पाठ के लिए मंच आपको सम्मानित करते हुए गर्व का अनुभव करता है एवं आपके उज्ज्वल साहित्यिक जीवन की कामना करता है।
*
संस्थापक श्री कृष्णगोपाल द्विवेदी जी
*
संरक्षक निर्मल त्रिपाठी दिल्ली. 
*

Shakti's Disclaimer*. 
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Joining Social Media Site Blog magazine Page with right purposes and positive motos stood for only the Fundamental Rights & Duties under  Right  to Expression
for the patriotic theme Sare Jahan Se Achchha Hindustan Hamara.
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