आज और कल.समसामयिक हिंदी पत्रिका.
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कृण्वन्तो विश्वमार्यम.
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आज और कल. हिंदी पत्रिका. समसामयिक.
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प्रथम मीडिया.
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ए.एंड.एम.मीडिया.
के सौजन्य से.
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अंक १. देखें आवरण पृष्ठ. ०
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पृष्ठ ० .
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सहायक संपादक.
डॉ. आर. के. दुबे. रेनू शब्दमुखर. जयपुर. --------------- संपादक मंडल
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डॉ. रंजना, स्त्री रोग विशेषज्ञ.
डॉ. रूप कला प्रसाद , प्रोफेसर, अंग्रेजी विभाग.
डॉ. शारदा सिन्हा, पूर्व हिंदी विभागाध्यक्ष ,नालंदा महिला कॉलेज.
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संयोजिका. नीलम पांडेय. --------------- सुबह सबेरे. संपादन. फोटो संपादक. अशोक कर्ण. पूर्व फोटो एडीटर ( एजेंडा ,नईदिल्ली ), छायाकार, हिंदुस्तान टाइम्स ( पटना,रांची संस्करण ) -------------------- |
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समर्पित
निर्मला सिन्हा ,एम. ए. हिंदी ,पटना विश्वविद्यालय
प्रधानाध्यापिका, हरनौत प्रोजेक्ट स्कूल.
गीता सिन्हा. एम. ए. द्वय हिंदी ,संस्कृत. पटना विश्वविद्यालय
पूर्व शिक्षिका.टेल्को ,जमशेदपुर.
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चिरंजीव नाथ सिन्हा, ए.डी.सी.पी. लखनऊ.
राज कुमार कर्ण, डी. एस. पी. ( सेवानिवृत ).पटना
डॉ. मो. शिब्ली नोमानी. डी. एस. पी. नालंदा
कर्नल सतीश कुमार सिन्हा ( सेवानिवृत ) हैदराबाद.
कैप्टन अजय स्वरुप, देहरादून , इंडियन नेवी ( सेवानिवृत ).
डॉ. प्रशांत , बड़ोदा
डॉ. आर. के. प्रसाद , ( ऑर्थोपेडिशयन ) पटना.
अनूप कुमार सिन्हा, ( उद्योगपति ) नई दिल्ली.
डॉ. तेज़ पाल सिंह ,नैनीताल ( व्याख्याता )
अनुभूति सिन्हा , शिमला
डॉ. भावना, ( व्याख्याता )
कैप्टन अजय स्वरुप, देहरादून , इंडियन नेवी ( सेवानिवृत ).
अनुपम चौहान ( संपादक ), समर सलिल, लखनऊ.
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सहयोग.
--------------------- आलेख सम्पूर्ण : पृष्ठ १. देखें यत्र नार्यस्तु पूज्यते तत्र रमंते देवता रंजना. नई दिल्ली लेखिका.हिंदुस्तान दैनिक. यत्र नार्यस्तु पूज्यते तत्र रमंते देवता ऐसा हमारे धार्मिक ग्रंथों में वर्णन किया गया है । जहां नारी की पूजा होती है वहां देवता वास करते हैं। एक वर्णन मार्कंडेय पुराण में भी है कि जब राक्षसों का प्रकोप देवलोक पर बढ़ रहा था राक्षस सब जगह तबाही मचाने पर आतुर हो गए थे तब सारे देवगण देवी के चरणों में आए और स्तुति करने लगे की हे--, देवी देवलोक को बचाइए इतना ही नहीं देवताओं ने अपने अपने बहुमूल्य अस्त्र-शस्त्र भी देवी को दिया तत्पश्चात देवी ने १०० वर्षों तक युद्ध कर देवताओं के साम्राज्य को बचाया था। ऐसा वर्णन है अर्थात आज के संदर्भ में देखा जाए तो नारी सिर्फ घर ही नहीं संभालती थी समस्त ब्रह्मांड की रक्षा के लिए भी तैयार रहती थी। कहा जाता है नारी शारीरिक रूप से कमजोर होती हैं , लेकिन यदि धार्मिक ग्रंथों को देखें तब नारी युद्ध करती दिखीं हैं। साइंस की बात माने तो नारी मानसिक रूप से बहुत ही मजबूत होती हैं शारीरिक रूप से भी कहीं ना कहीं फर्क पड़ जाता है। खैर अब तक हमारा समाज पितृसत्तात्मक ही रहा है संभवत आगे भी यही ऐसा ही रहेगा लेकिन परिवर्तन प्रकृति का नियम है। आज हम उस दौर में हैं जहां समूल परिवर्तन की मांग है , समाज में बड़े जोर शोर से परिवर्तन हो भी रहा है। परिवार टूट रहें हैं । संयुक्त परिवार से एकल परिवार तक पहुंचने में जितना वक्त लगा उससे कहीं कम वक्त में हम बिन फेरे हम तेरे तक पहुंच गए। हर बदलाव का कुछ सकारात्मक और कुछ नकारात्मक प्रभाव भी होता ही है । इन बदलावों का असर महिला समाज पर कहीं अधिक पड़ा है। परिवार टूटने का ठीकरा उनके सर पर फूटा तो घरेलू हिंसा का ठीकरा पुरुषों के सर पर पड़ता है। हमेशा से स्वतंत्र होना चाह रही हैं महिलाओं के अंदर एक कुलबुलाहट सदैव से रही है । महिलाओं में कुलबुलाहट की मुख्य वजह क्या होती थी । घर में क्यों बंद रह रही हैं , पुरुषों के समान क्यों बाहर नहीं निकल पा रही हैं, पुरुषों की तरह निर्णय नहीं ले पा रही हैं ,आदि आदि। उनके ऊपर जबरन निर्णय थोपे जाते हैं। मनपसंद कपड़े पहनने में भी उनका निर्णय नहीं होता है। लोगों की वक्र दृष्टि को सोच कर ही कपड़े पहनना पड़ता है वगैरा-वगैरा। बहुत सारी बातें अब पुरुषों ने भी सोचना शुरू कर दिया है। महिलाओं के पक्ष में उनकी कुलबुलाहट को लेकर वह भी चाहते हैं कि महिलाएं स्वतंत्र हो शिक्षा से अपनी जिंदगी जिए। घरेलू महिला कहलाना आज की तारीख में किसी को भी पसंद नहीं आता। घर के दीवार में बंद होकर बाल बच्चे पति -परिवार, नाता - रिश्ता, आस-पड़ोस सब की देखभाल करने वाली महिला को वह सम्मान नहीं मिल पाता था जिसकी वह हकदार थी। हर बार यही कह दिया जाता था यह कह दिया जाता है,आप हाउसवाइफ है इसको तोड़ती हुई आप बाहर कैसे निकल गई। अब पुरुष का एक वर्ग चाहता है घरेलू पुरुष बन कर रहना । जी हां घरेलू पुरुष बनकर रहना चाहता है ठीक वैसे ही जैसे घरेलू महिला रहती थी अब तक रहती आ रही है। सुबह की चाय से लेकर रात को बिस्तर लगाने तक पति से लेकर पति के परिवार तक हर की सेवा जिस तरह महिलाएं करती थी ठीक वैसे ही पुरूष भी चाहते हैं। वह सब कुछ करें अपनी पत्नी को सुबह की चाय के साथ जगाए । हालांकि ऐसा करना क्या चाहते हैं बल्कि कर रहे हैं। बहुत से पुरुषों ने सहजता से स्वीकार कर लिया है घर के कामों में हाथ बंटाना। कोरोनावायरस के समय में रह कर घर के पुरुषों ने झाड़ू पोछा लगाना कपड़े धोना बर्तन धोना रोटियां बनाना सीख लिया है। अब उनकी लालसा बढ़ गई है वह भी चाहते हैं। यह बहुत हुआ बाहर के काम करते-करते थक गए हैं । उसके ऊपर से बहुत सारे तोहमत भी लगते रहे हैं। पुरुषत्व कि पुरुषों के साथ शासन चलाने की अधिपत्य जमाने की तोहमतें लगती रहतीं हैं। हां पुरुष घर में हो या बाहर वह चाहते हैं कि हर कोई उनकी बात मानने उनके निर्णय को ही अंतिम निर्णय माना जाए अब पुरुषों का एक वर्ग इस तोहमत से बाहर निकलना चाहते हैं। पुरुष घरेलू महिला वाले रूप को भी जीना चाहते हैं ,महिलाएं आर्थिक रूप से संपन्न हो गई हैं। घर और बाहर दोनों संभाल रही है जिम्मेवारी है उनकी बढ़ गई हैं इस बीच उनकी आवाज भी उठती रहती है घर और बाहर दोनों काम को लेकर कई बार वह परिवार नहीं ढ़ाना चाहती। क्योंकि इससे उनके काम पर असर पड़ेगा ,उसके फिगर पर असर पड़ेगा। और स्वतंत्रता कहीं ना कहीं प्रभावित होती है ऐसे में पुरुष चाहते हैं की घर की पूरी जिम्मेदारी अपने कंधों पर ले ले ए टू जेड महिलाएं स्वतंत्र होकर आर्थिक जिम्मेवारी ही उठाएं । मुश्किल सिर्फ इतनी होगी की पुरुष पिता तो बन सकते हैं मां की तरह ९ महीना बच्चे को कोख में नहीं रख सकते अब यहां पर विवशता ही है । चाह कर भी कुछ नहीं कर सकता यह एक कष्ट लड़कियों को ही उठाना पड़ेगा अन्यथा जन्म के बाद बच्चे पालना हो दूध पिलाना नैपी चेंज करना मालिश करना सब कुछ करना है सब कुछ पुरुष कर लेगा। बल्कि बहुत से पिता करते ही हैं ऐसा एकल परिवार में और कोई ऑप्शन नहीं होता हां यह निर्णय भी महिला को लेना पड़ेगा। महिलाओं का पद छीन जाने की बात है ऐसे में उन्हें ही आगे आकर समाज को संभालना होगा। गतांक से आगे. १ जोरू का गुलाम : समाज में महिलाओं का घर से निकलना जितना बुरा नहीं माना जाता ,उससे कहीं अधिक पुरुषों का घर में रहकर चौका बर्तन करना हे दृष्टि से देखा जाता रहा है। यदि कोई पुरुष अपनी पत्नी का अधिक देख भाल करता हुआ दिख जाता था, तब उसे जोरू का गुलाम कहा करते थे। हालांकि महानगरों में अभी परिदृश्य बदला है। फिर भी वैसा नहीं बदला जिसे हम घरेलू पुरुष की तरह देखें या घरेलू पुरुष के संदर्भ को स्वीकार कर ले। एक नहीं अनेकों ऐसी महिलाएं मिल जाएंगी जो घर से बाहर निकल कर कमा रही हैं। और घर गृहस्थी चला रही हैं। वैसे में उनके पति घर के समूह काम को निपटाते हैं। जिस वक्त पत्नी घर जाती हैं उनके बेड पर ही उनको खाना नाश्ता सब कुछ मिल जाता है। वह शौकिया किचन में जाती है। अब ऐसे पुरुषों को अक्सर मजाकिया लहजे में देखा जाता है। पुरुषों का एक वर्ग चाहता है कि उसके इस सोच को स्वीकार किया जाए ,महिलाओं के हित के लिए, उनके सशक्तिकरण के लिए, उनकी स्वतंत्रता के लिए ना कि मजाक बनाया जाए। अब बहुत हो गया मजाक बनाने का समय ,अब वो खुद से महिला सशक्तिकरण की बात करते हुए महिलाओं के हाथों में पूरी शक्ति देने को तैयार बैठे हैं। अब देखना है है कि कितनी लड़कियां इस चीज़ को स्वीकार करने को तैयार होती हैं। लड़कियां यह आशा करेंगी कि समाज में क्या उन्हें घरेलू पुरुष से शादी करना है या नहीं , क्योंकि शादी ब्याह का मामला स्टेटस सिंबल का भी होता है। मां बाप अक्सर लड़का या लड़की देख कर नहीं , बल्कि लड़का लड़की के अतिरिक्त उसके घर परिवार समृद्धि शिक्षा सब कुछ देख कर शादी का निर्णय लेते हैं। ऐसी स्थिति में एक घरेलू पुरुष को स्वीकार करना कितना आसान होगा उनके लिए यह कह पाना मुश्किल है। एक डॉक्टर डॉक्टर से शादी करना चाहती हैं ,एक इंजीनियर की शादी इंजीनियर या वैसे ही किसी पोस्ट वाले अधिकारियों से होने की बात होती है। जो लड़की कमा रही होती है उनको भी कमाने वाला ही पति चाहिए । यदि गौर किया जाए तो डॉक्टर ,इंजीनियर,आईएएस ,आईपीएस किसी भी पद पर लड़के हो ,यदि उनकी शादी एक साधारण सी लड़की से कर दी जाती है तब भी खुशी-खुशी जिंदगी निभा लेते हैं। अपनी कमाई का सारा हिस्सा अपनी पत्नी के हाथ में डाल देते हैं। ज्यादा से ज्यादा मेहनत पत्नी की खुशी के लिए करते हैं। इसके विपरीत क्या एक महिला या लड़की जब कमा कर आती है तो अपना सब कुछ अपने पति के हाथ में डाल देना पसंद करती है ? अपना घर बैंक बैलेंस सब घरेलू पति के नाम करना पसंद करेंगी ? क्या एक अधिकारी लड़की साधारण से घरेलू लड़के को जीवनसाथी चुनना पसंद करेंगी ? क्या समाज " मौगा " या " जोरु का गुलाम " वाली मानसिकता से पुरी तरह बाहर आ पाएगा ? आर्थिक व समाजिक दोनों ही पक्षों को संभालने के लिए लड़कियों को ही मानसिक रुप से मजबूत बनना पड़ेगा । जिस तरह अब देहरी से बाहर निकलने की लड़ाई लड़ी है लड़कियों ने वैसे ही यहां भी दंभी मानसिकता से लड़ना होगा । लड़कियों के हक की बात यह भी है कि अब कोई बुजुर्ग पीढ़ी नहीं बचीं है जो इस निर्णय पर हंगामा खड़ा कर दे। और सही सलामत घर में रह ले । यहां उम्र होते ही वृद्धाश्रम जाना होता है । रही बात मां बनने की तब वो पति पत्नी के बीच का मामला होगा। मर्जी होगी चाहे तो बने नहीं तो गोद ले ले या सरोगेसी तो है ही । अभी एक मुद्दा जो कोर्ट में चक्कर काट रहा है, वैवाहिक बलात्कार की। तो ऐसे मामलों में भी महिलाओं पर ही निर्भर रहेगा घरेलू पुरुष को वो जब स्वीकृति प्रदान करेंगी तब ही संबंध बनेगा । वैसे ही अब ढकी छुपी रहने वाली बात आर्गैज़्म की , जब ७० /३० पर खुल कर सामने आ ही गई है तो ऐसे में पुरुष सामर्थ्य अनुसार संतुष्ट करने की पूरी कोशिश करता रहेगा ....बस घरेलू पुरुष को भी थोड़ा सा सम्मान चाहिए। रंजना. नई दिल्ली लेखिका.हिंदुस्तान दैनिक. आलेख : सामयिक -सामाजिक पहलू और नवरात्र.आलेख रीता रानी फ़ोटो डॉ मधुप हर तरफ ढाक बजने लगे हैं,मंगलमय मंत्रोच्चार लयबद्ध हो चहुं दिशाओं में गुंजायमान है,आह्लादित नर- नारी भाव विभोर हो प्रतिमा के आगे नतमस्तक हैं।नवरात्रि नौ दिनों तक चलने वाले शक्ति पूजन के स्त्रैण्य रूप का महिमा गान है। माता दुर्गा भुवन मोहिनी है, पालिका हैं, तो विनाशिका भी। पोषण और संहार द्वय कर्मों का,मृदुलता और कठोरता उभय पक्षों का- अति मनोहर समन्वय है उनका दिव्य रूप। इस दिव्य स्त्री की शक्ति में समाहित है उसके चारों ओर के संपूर्ण सकारात्मक समाज की शक्ति। महिषासुर केदुराचार को सुनकर ब्रह्मा, विष्णु और शंकर भगवान के मुंह से पूर्ण क्रोध के कारण उत्पन्न हुए महान तेज एवं अन्य सभी देवताओं के शरीर से भी निकले अतुल तेज जब मिलकर एकाकार हो गए, तब इन सभी के उज्जवलतम सामूहिक स्वरूप से बना एक नारी का शरीर। आग उन्हें शक्ति देते हैं , वायु धनुष, काल चमकती हुई ढाल और तलवार, हिमालय सिंह, वरुण पाश और शंख तो सूर्य देवी के समस्त रोमकूपों में अपनी किरणों का तेज भर देते हैं। जिसके पास जो उत्तम है सब ने दिया देवी को। नारी एक शक्ति : सबकी दिव्यता और ताकत एक जगह संग्रहित होकर बड़े- से- बड़े असुरों का भी विनाश कर डालती है। माता दुर्गा का चरित्र सामाजिकता का बहुत बड़ा पाठ है। इस शक्ति संग्रहण में कहां स्त्री-पुरुष का भेद रह जाता है। सारे देव (पुरुष) अपनी शक्तियों का संकेन्द्रण माता दुर्गा में कर देते हैं । आदिकाल से तो यही रहा है भारत का अध्यात्मिक स्वरूप, हिंद की संस्कृति नारी को सम्मान देने में अपने मूल स्वरूप में सदैव अग्रणी रही है। कालांतर में भले ही स्त्री- पुरुष भेद गहरी खाई का रूप धारण करने लगा लेकिन आज भी वास्तविकता यही है कि स्त्री शक्ति के पल्लवन -पुष्पण में पुरुषों के स्नेह- सहयोग की महती भूमिका है।समाज है तो शुंभ- निशुंभ भी अस्तित्व में आते रहेंगे, मिटते भी रहेंगे। देवताओं के द्वारा सौंपे गए दायित्व को माता ने भी बखूबी निभाया-अनाचार -अत्याचार का अंत किया, धर्म की स्थापना की। आज भी समाज में स्त्री- पुरुष का संतुलित और परस्पर आदरपूर्ण संबंध अनाचार - अत्याचार के अंत और धर्म की स्थापना का आधार है।संगठित होकर कोई भी समाज अप्रतिम रूप से ताकतवर बनकर हर दुश्मन ,हर बुराई के आगे दृढ़ता से खड़े रहकर विजयी हो सकता है। माता के दिव्य शक्तियों का अलग-अलग हिस्सों में बंटकर असुरों अर्थात बुराइयों से युद्ध करना एक कुशल जननायक को नायकत्व का अद्भुत पाठ पढ़ाता है कि आप अपने संसर्ग में अन्य शक्तियों को भी इस प्रकार स्थापित करते रहें कि आवश्यकता पड़ने पर वे शक्तियां भी नेतृत्व प्रदान कर सकें, संघर्ष को नया रूप देकर सत्य को विजय दिलाएं। महा राक्षस शुंभ-निशुंभ का सामना करने में काली, शिव दूती, वैष्णवी, कौमारी, माहेश्वरी ,वाराही, ऐन्द्री ब्रह्माणी आदि देवियां (यूं तो माता दुर्गा के ही विभिन्न रूप हैं) अपने पृथक अस्तित्व में रणक्षेत्र में पराक्रम पूर्ण व्यवहार का प्रदर्शन करती हैं-कुशल नायिका की वीरांगनाएं प्रतिनिधि। सभी देवियों के वाहन पशु हैं, ऐन्द्री का वाहन एरावत हाथी है तो वैष्णवी का वाहन गरुड़, माहेश्वरी बैल के वाहन पर तो कौमारी मोर केवाहन पर विराजमान रहती हैं, ईश्वरी वृष पर सवार हैं ,ब्रह्माणी हंस पर विराजमान रहती हैं। सभ्यता के प्रारंभिक काल से ही मनुष्य का सहचर रहे पशुओं के महत्व , उनके साहचर्य का महिमामंडन और मानव- प्रकृति सामंजस्य - सभी विशेषताओं का प्रतिनिधित्व करते हैं ये। सत्व, रज और तम -तीनों प्रकार के गुणों का समावेश होने पर भी दिव्य है मातृ शक्ति का रूप,पूजनीय है, वंदनीय है। व्यक्तित्व का कितना सुंदर पवित्र संतुलन सिखाती है माता दुर्गा।उनका रज और तम गुण, सत्त्व गुण को दबा नहीं पाता ।नवरात्रि के उपासकों को यही संदेश मिलता है, केवल शरीर को न साधा जाए, केवल जिह्वा(रस) को ही न साधा जाए, बल्कि विचारों को, मन को सात्विक आनंद के राह पर अग्रसर किया जाए। नवरात्रि में माता का स्तुति गान किया जाता है । ग्रहणीय है इससे, समाज में जो भी उत्तम संपादित हो रहा है,उनका यशोगान हो ताकि यह उनके लिए प्रेरक बनकर उनकी ऊर्जा को स्पंदित करता रहे। स्तुति हैक्या, किसी भी कार्य को ,किसी भी व्यक्तित्व को सकारात्मक स्वीकृति देना और यह सकारात्मक स्वीकृति किसी भी समाज में सकारात्मक ऊर्जा प्रवाह के लिए सुगम गतिशील पथ का निर्माण करती है। जननायकों को भी आवश्यकता होती है मनोबल बढ़ाने वाले तत्वों की, सत्य का साथ देने वाले जन की। नायक और जन, जब- जब मिलकर शौर्य और सत्य का पथ सुगम करेंगे, तब तक धरती पर सनातन धर्म की विजय पताका फहरायेगी। असुरत्व का अंत होगा, शांति की स्थापना होगी, चराचर जगत समरसता का आनंद उठाएगा। नारी की अद्यतन स्थिति : वर्तमान समाज में प्रचलित एक महत्वपूर्ण कुरीति, स्त्री को भोग्या की दृष्टि से देखने का महाअपराध , चिंतनीय है। जैसे समस्त दैवीय शक्तियां मिल कर इस शुंभ - निशुंभ रूपी इस कुदृष्टि का अंत कर देती है, वैसे ही वर्तमान समाज में भी शारीरिक शोषण रूपी दैत्य का अंत सज्जनों - सुसंस्कृतों की एकीकृत शक्ति कर सकती है।अनाचार के अंत के लिए सब को एक होना होगा, साथ देना होगा। यह संघर्ष भी एक- दो
दिनों की कहानी नहीं, कई वर्षों की तपस्या होगी, माता जगदंबा के राक्षसों के अंत के लिए सौपे गए हजारों वर्षों की तरह अनथक समवेत प्रयास समाज में जारी रखना होगा। रीता रानी जमशेदपुर, झारखंड। |
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आलेख : सौंदर्य : सभ्यता - संस्कृति का आधार तत्व . पृष्ठ २ / ०
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सौंदर्य : सभ्यता - संस्कृति का आधार तत्व
" उज्ज्वल वरदान चेतना का
सौंदर्य जिसे सब कहते हैं।
जिसमें अनंत अभिलाषा के
सपने सब जगते रहते हैं। "
- कामायनी
( जयशंकर प्रसाद )
रीता रानी |
'सौंदर्य' शब्द का उच्चारण ही सर्वप्रथम किसी सौंदर्यशालिनी रमणी या सुदर्शन पुरुष या किसी रमणीक स्थल अथवा मनभावन वस्तु का चित्रबोध चित को प्रदान कर देता है, परंतु सौंदर्य अपने आप में इतना स्थूल है कहां। देखा जाए तो सौंदर्य जीवन दर्शन का एक अध्याय है, अनंता से मिलाने का एक सोपान। मानवीय रिश्तों की आधारभूमि पर शारीरिक सौंदर्य आकर्षण का प्रथम केंद्र बिंदु हो सकता है परंतु उसको ,दीर्घजीविता देनी है तो विचारों को भी सौंदर्य शील होना आवश्यक ही नहीं अपरिहार्य है, तभी समन्वय का सौंदर्य विकसित होगा, परस्पर आदर का सौंदर्य बना रहेगा और जीता रहेगा रिश्तों का सौंदर्य। ह्रदय पक्ष के सौंदर्य का अभाव संबंधों की प्रतिकूलता में परिलक्षित होता है। इससे जुड़ा एक सत्य महादेवी के शब्दों में-'निकट की दूरी हमारे वैज्ञानिक युग की अनेक विशेषताओं में सामान्य विशेषता बन गई है।'
सच तो यह है ,सौंदर्य भाव की वस्तु है। जहां ,जो भी आप के भाव से जुड़ा है, आपके अंतर्मन से, वहां- वहां सौंदर्य दृष्टिगत है। सौंदर्य का एक भौतिक ढांचा तो है परंतु यहां पर वह व्यक्ति -व्यक्ति के भावों से गुजरता हुआ अपनी परिभाषाएं बदलता जाता है।
फोटो इंटरनेट से साभार |
मुंशी प्रेमचंद लिखते हैं- ' सुंदरता मनोभावों पर निर्भर करती है। मां अपने कुरूप पुत्र को भी सुंदर समझती है। 'यह सौंदर्य मनोभाव का ही उदाहरण है। सहृदयता भी सौंदर्यबोध का अनिवार्य तत्व है-यानि कोमलता। जिसका चित्त जितना अधिक कोमल होता है उसका सौंदर्यबोध भी उतना ही अधिक होता है। साहचर्य,सौंदर्यबोध का तीसरा अनिवार्य तत्व है।
प्रकृति के साथ साहचर्य सौंदर्यबोध को परिभाषित करता है।
मुंशी प्रेमचंद |
सौंदर्य की इसी आधारभूमि के कारण बागवान को कुसुमों में ,पल्लवों में सौंदर्य नजर आता है, तो भक्तों को ईश्वर की प्रतिमा में, मंदिर की घंटियों के नाद में। साहित्य प्रेमी को शब्दों और पंक्तियों में सौंदर्य नजर आता है तो यायावर को सड़कों और वादियों में। सौंदर्य का संबंध सकारात्मकता से है, सौंदर्य का संबंध पवित्रता से है। तभी तो अबोध शिशु चाहे जिस वर्ण का हो, कृशकाय हो या हो गोल मटोल-उसकी आंखों की चमक में और उसके निस्पृह मुस्कान में छुपा सौंदर्य सबको अपनी ओर चुंबकत्व शक्ति से आकर्षित करता है ।लीपे आंगन में अपने चौरे में सजी तुलसी विश्वासधर्मी के हृदय में सौंदर्य का संचार कर देती है। नभचर बादल, चहचहाते पक्षी, चौकड़ी भरते हिरणदल,हवा के संग डोलती शाखाएं , कलनाद उत्पन्न करती नदियां, उगते सूर्य की रक्तिम आभा, दिनकर के प्रस्थान के बाद श्यामल हुआ आकाश-सभी सौंदर्य के प्रतिमान हैं। सौंदर्य चित्त की शांति से जुड़ा है, अंतः स्थल की गहराइयों तक जो भी सुख प्रदान करें, वहां- वहां सौंदर्य है।
अतएव अनुराग में सौंदर्य है, इसलिए अध्यात्म में सौंदर्य है, इसलिए सृजन में सौंदर्य है, उपयोगिता में सौंदर्य है। सौंदर्य है तो जीवन में रस है और यह जीवन रस ही इस संसार के नियंता की कला का सौंदर्य है। हंसी के साथ जीवन का सौंदर्य विहंसता है, वहीं रुदन भी जीवन के सौंदर्य को अपने में समाहित किए हुए है। जीवन का पहला सुर रुदन की कोख से ही जन्म लेता है।रुदन जहां मन के विषाद को अपने वेग में बहा ले जाता है, वहीं कभी पश्चाताप के आंसू गंगाजल सदृश हो जीवन सौंदर्य में अभिवृद्धि कर देते हैं ।
किसी विशिष्ट को जीवन का सौंदर्य दिन -प्रतिदिन की क्रियाकलापों में ही दिख जाता है तो किसी अन्य को सामान्य सांसारिक क्रियाकलापों से पृथक किसी अन्य में तो किसी को सांसारिकता के बंधन से मुक्ति में। मदर टेरेसा ने वंचितों , असहायों की सेवा में अपना जीवन सौंदर्य ढूंढा, तो मीरा को वह सौंदर्य राजमहल
से निकालकर गली -गली में कृष्ण प्रेम में भटकाता रहा, भगत सिंह के लिए गुलाम भारत माता की कटी बेड़ियों में जो सौंदर्य छुपा था, वह कहीं नहीं था। जिसने जैसा सौंदर्य देखने की कोशिश की, अपने अपने जीवन को उसी सौंदर्य, उसी उद्देश्य को प्राप्त करने हेतु समर्पित भी किया। कई बार सौंदर्य स्वप्न की वस्तु भी बन कर रह जाता है। सौंदर्य उपादेयता दे, उद्देश्य प्राप्ति का साधन हो, मर्यादित और कल्याण प्रेमी हो-तो वह अपनी उत्कृष्टता की संरचना स्वयं कर जाता है।
मीरा |
आध्यात्मिकता की संदेशवाहिका भारतीय संस्कृति अभौतिक पक्षों में भी सौंदर्य ढूंढती है। इसलिए भारत में जीवन का सौंदर्य रिश्तो में ढूंढा गया, कुटुंब में पाया गया, सामाजिक और वैश्विक हित में ढूंढा गया।परंपराओं , त्योहारों, जीवनशैली को संस्कृति के सौंदर्य का आधार प्रदान कर दिया गया-विविधरंगी जीवन और इन रंगों में छुपा भारतीय जीवन का सौंदर्य।
हमारी वैदिक सौंदर्य दृष्टि आध्यात्मिक रही-विराट विश्व के पीछे रहने वाली दिव्य सत्ता के सामने समर्पण में ही आनंद की अनुभूति महसूस की गई और उसीअनुभूति में सौंदर्य का दिग्दर्शन किया गया। वेदकालीन अंतःकरण के सौंदर्य को रामायण ने विशिष्ट मानव शरीर के सौंदर्य में बदल दिया ।राम की आभा में ही सारा सौंदर्य समाविष्ट हो गया औरआदर्श आचरण का सौंदर्य प्रभु श्री राम को कालांतर से परे एक युगपुरुष के रूप में सर्वदा के लिए स्थापित कर गया। महाभारत में कर्म और संघर्ष का सौंदर्य है ।इसके बाद भक्ति साहित्य वेदों के अगोचर दिव्य सौंदर्य को प्रत्यक्ष रुप प्रदान करता है। स्थान और समयकाल के हिसाब से सौन्दर्य की परिभाषा भिन्न -भिन्न है।अलग-अलग देशों और संस्कृतियों में सुंदरता के मापदंड भी अलग हैं।
आज के युग के बाजारीकरण ने सौंदर्य को शारीरिक सौंदर्य तक समेट कर रख दिया है, त्वचा की सुंदरता
ही सौंदर्य का पैमाना बन गई है, विज्ञापनों की दुनिया में नारी शरीर का व्यापक प्रयोग है, करोड़ों खर्च होते हैं सौंदर्य के इस विकृत उपास्थापित स्वरूप पर। साथ ही सौंदर्य बोध की एक नवीनतम धारा भी बह रही है, स्वयं को स्वीकृति देने के संबंध में। मशहूर फैशन डिजाइनर सब्यसाची मुखर्जी के अनुसार 'सुंदरता खुद को स्वीकार करने और सहजता में है।जब आप सहज होते हैं , आप सुन्दर महसूस करते हैं।' निश्चलता, सरलता , गुणग्राहकता, मधुरता, हमारी प्रसन्नता , मुस्कुराहट , उत्तम स्वास्थ्य ,आशा युक्त निश्चित जीवन, हर्ष , दया , ईमानदारी-यही सदभावनाएं किसी व्यक्ति को बलात खींचकर हम तक ले आती हैं।कुल मिलाकर आत्मविश्वास से परिपूर्ण व्यक्तित्व नवीन पीढ़ी के लिए सौंदर्य का परिचायक बन रहा है पर अभी इस राह में संघर्ष है। इस नवीन विचारधारा को महात्मा के शब्द संबल प्रदान करते हैं-'वास्तविक सौंदर्य हृदय की पवित्रता में है। बाह्य बनावट और प्रदर्शन से उसका कोई संबंध नहीं है। यह जो रूप की सजावट, वेष विन्यास में विचित्रता का प्रसार बढ़ रहा है ,यह आंतरिक सौंदर्य को छलता है, इससे बचना चाहिए।'
फोटो इंटरनेट से साभार |
सौंदर्य बोध को शब्दों में ढालने वाले महान कवि कीट्स का कहना है कि सौंदर्य ही सत्य है और सत्य ही
सौंदर्य है। आस्तिक जहां इन पंक्तियों में सत्यस्वरूप परमात्मा के प्रकाश को ही सौंदर्य के रूप में देखेंगे ,वही तार्किक इसे आत्मिक आवश्यकता के रूप में। जिस रूप में भी देखा जाए सौंदर्य के बिना इस जीवन का कोई महत्व नहीं है। सौंदर्यशास्त्र के निचोड़ की यात्रा प्लेटो के शब्दों के साथ सहजता से की जा सकती है-'सौंदर्यवान वस्तुएं उत्पन्न होती हैं तथा समाप्त हो जाती हैं। पर सौंदर्य न तो प्रारंभ ही होता है, ना समाप्त होता है। यहशाश्वत ,अपरिवर्तनीय और अविनाशी है। सौंदर्यवान वस्तुएं उसी शाश्वत सौंदर्य की क्षणिक अभिव्यक्ति हैं।'
कवि कीट्स |
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आलेख : हिंदी दिवस . पृष्ठ २ / १
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वैश्विक पहचान बना रही है हिंदी.
रवि शंकर शर्मा |
१४ सितंबर १९४९ को संविधान सभा ने एकमत से यह निर्णय लिया की हिंदी ही भारत की राजभाषा होगी। इस निर्णय के बाद हिंदी को हर क्षेत्र में प्रसारित करने के लिए राष्ट्र भाषा प्रचार समिति, वर्धा के अनुरोध पर १९५३ से पूरे भारत में १४ सितंबर को हर साल हिंदी दिवस के रूप में मनाया जाने लगा।
राष्ट्रभाषा बनाने की पहल : १९१८ में आयोजित हिंदी साहित्य सम्मेलन में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की पहल की थी। गांधी जी ने हिंदी को जनमानस की भाषा बताया था। अब आते हैं राष्ट्रभाषा, मातृभाषा और राजभाषा पर तो इन तीनों को लोग सामान्य रूप से एक समझ लेते हैं। जबकि इनमें मूलभूत अंतर है। वह भाषा जो देश के अधिकांश लोगों द्वारा बोली और समझी जाती है, वह राष्ट्र भाषा कहलाती है। यह देश की संस्कृति से जुड़ी रहती है और जन्म के बाद जो भाषा हम अपने माता-पिता और परिवेश से सीखते हैं, वह मातृभाषा होती है। फिर शासन द्वारा स्वीकृत भाषा, जिसमें राज-काज होता है और जो विशेष रूप से राजकीय प्रयोजनों में प्रयुक्त होती है, उसे राज भाषा कहते हैं।
इसके अलावा विश्व में हिंदी के प्रचार प्रसार के लिए १० जनवरी को विश्व हिंदी दिवस मनाया जाता है।१० जनवरी, विश्व हिंदी दिवस : विदेशों में भारत के दूतावास इस दिन को विशेष रूप से मनाते हैं। पहला विश्व हिंदी सम्मेलन १० जनवरी १९७५ को नागपुर में आयोजित हुआ था, तभी से इस दिन को विश्व हिंदी दिवस के रूप में मनाते हैं। हमारे देश में जितने भी प्रदेश हैं, वहां की कोई भी मातृभाषा क्यों ना हो, लेकिन वहां के लोग न केवल हिंदी भाषा भी जानते हैं और बोलते हैं, बल्कि हिंदी की फिल्मों को भी बहुत
रुचि से देखते हैं।
ब्रिक्स सम्मेलन में प्रधानमंत्री : चित्र साभार |
आजकल अफगानिस्तान पर भी तमाम चैनलों पर जो बहस प्रसारित की जा रही है, उसमें भी अफगानिस्तान के जो लोग भाग ले रहे हैं, वे सभी हिंदी में चर्चा करते हैं। ब्रिक्स के सम्मेलन को भी हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हिंदी में ही संबोधित किया, जबकि चीन जैसे देश के राष्ट्रपति ने अंग्रेजी में। यह हमारी बड़ी सफलता है और हिंदी के वैश्वीकरण की ओर बढ़ते कदम भी।
प्रसिद्ध सिने स्टार अमिताभ बच्चन का भी मानना है कि अंग्रेजी और अन्य भाषाएं बेशक सीखें, लेकिन बच्चों व किशोरों की हिंदी में रुचि बढ़ाने के लिए उन्हें लगातार प्रेरित करने की जरूरत है। यह प्रेरणा उन्हें
माता-पिता या उनके अध्यापक ही दे सकते हैं।
चित्र साभार |
अमेरिका में बोली जाने वाली दक्षिण एशियाई भाषाओं में हिंदी अभी पहले पायदान पर आती है। हिंदी की विशेषता यह है कि यह विकासशील भाषा है और समय के साथ होने वाले परिवर्तनों को यह स्वीकार भी कर रही है।
हिंदी सिर्फ़ भारत में ही नहीं बोली जाती, यह दुनिया के ३० से अधिक देशों में बोली जाती है। भारत के लोग दुनिया के जिस हिस्से में भी हैं, हिंदी का स्वरूप वहां किसी न किसी रूप में विद्यमान है। हिंदी बोलने और लिखने वाले लोग लगातार बढ़ रहे हैं और अच्छी बात यह है कि टेक्नोलोजी में भी इसका इस्तेमाल बढ़ रहा है। अक्सर अंग्रेजी से पिछड़ने और कमतर समझी जाने वाली हिंदी ने इंटरनेट की दुनिया में भी अपनी पहचान बनाई है। इस बारे में गूगल ने कुछ दिलचस्प आंकड़े बताए हैं। गूगल की एक रिपोर्ट के मुताबिक जल्दी ही अंग्रेजी को पीछे छोड़ देगी हिंदी। इंटरनेट पर भारतीय भाषाओं में सबसे ज्यादा हिंदी का इस्तेमाल होता है।
११ वां विश्व हिंदी सम्मेलन : २१ अगस्त २०१८ को मॉरीशस की राजधानी पोर्ट लुइस में तीन दिन का ११ वां विश्व हिंदी सम्मेलन हुआ था। इसमें मार्गदर्शन मंत्री अनिरुद्ध जगन्नाथ ने हिंदी और हिंदुस्तान पर भावुक भाषण दिया था। उन्होंने कहा कि यदि भारत को माता कहते हैं तो माॅरीशस उस माता का पुत्र है। उन्होंने मॉरीशस की आजादी में हिंदी का योगदान बताते हुए कहा कि हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा बनाने की कोशिशों में मॉरीशस पूरी तरह समर्थन देगा।
उन्होंने कहा कि अन्य भाषाओं की तरह हिंदी को भी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर स्थान मिलना चाहिए। उन्होंने अपने देश के सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक विकास में हिंदी की भूमिका को स्वीकार करते हुए मॉरीशस में हिंदी मंत्रालय की स्थापना पर खुशी जताई।
इस अवसर पर तत्कालीन विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा बनवाने के लिए दुनिया भर के हिंदी प्रेमियों का आह्वान किया था। उन्होंने कहा कि संयुक्त राष्ट्र अब हिंदी
में साप्ताहिक बुलेटिन प्रसारित करने लगा है। श्रोता बढ़ने पर यह हिंदी बुलेटिन दैनिक हो जाएगा। इसी तरह से संयुक्त राष्ट्र ने हिंदी में ट्विटर अकाउंट बनाया है। इसका ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल करना चाहिए। मॉरीशस के प्रधानमंत्री ने पीएम नरेंद्र मोदी की प्रशंसा करते हुए कहा कि वर्ल्ड इकोनाॅमिक फोरम जैसे मंच पर हिंदी में भाषण देकर मोदी ने बता दिया कि वह अपनी भाषा को कितना सम्मान देते हैं। हिंदी सम्मेलन में यह भी कहा गया कि अब समय आ गया है कि हिंदी को दुनिया में बराबरी का दर्जा मिलना चाहिए। इसके लिए सभी को प्रयास करना होगा।
चित्र साभार |
हिंदी की अपनी वैश्विक पहचान : दुनिया भर में ६५०० भाषाएं बोली या लिखी-पढ़ी जाती हैं। भाषाओं के इस मेले में हिंदी अपनी वैश्विक पहचान बना रही है। आधार, अच्छा और बापू जैसे शब्द न सिर्फ ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी ने अपनाएं हैं, बल्कि कई अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर भी हिंदी के शब्द शामिल किए जा रहे हैं। अरे यार , भेलपूरी, चूड़ीदार, ढाबा, बदमाश, फंडा, चाचा चौधरी, चमचा, दादागीरी, जुगाड़, पायजामा, कीमा, पापड़ ,करी, चटनी, अवतार, चीता, गुरु ये शब्द पहले से ही शामिल हैं।
ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी की वर्ल्ड इंग्लिश एडिटर डेनिका सालाजार के अनुसार, अब तक हिंदी के ९०० शब्दों को डिक्शनरी में जगह मिल चुकी है। इसी तरह बापू ,
सूर्य नमस्कार और अच्छा शब्द शब्दकोश में जगह बना चुके हैं।
२०१७ में करीब ७० भारतीय शब्द ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी में शामिल किए गए। इनमें ३३ हिंदी के थे। २०१७ में नारी शक्ति व २०१८ में आधार शब्द को हिंदी शब्द ऑफ द ईयर के खिताब से नवाजा गया था। हिंदी को समृद्ध बनाने के लिए लंबे समय से कार्यरत मशहूर कोषकार और संपादक अभय मौर्य के मुताबिक किसी भी शब्द को पूर्ण होने के लिए हिंदी समेत अन्य भाषाओं के शब्दों की जरूरत होती है।
आज जरूरत इस बात की है कि हम हिंदी दिवस को एक औपचारिकता न बना कर साल के ३६५ दिन हिंदी दिवस मनाएं और इसके विश्वव्यापी प्रसार के लिए काम करें।
रवि शंकर शर्मा.
वरिष्ठ साहित्यकार एवं स्तंभकार.
संपर्क: इंजीनियर्स एन्क्लेव
पीली कोठी, बड़ी मुखानी, हल्द्वानी.
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आलेख : पर्यावरण दिवस . २ / २
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पुनः पर्यावरण चिंतन " पर्यावरण सब कुछ है जो मैं नहीं हूँ । "- अल्बर्ट आइंस्टाईन।
रीता रानी |
५ जून विश्व पर्यावरण दिवस के नाम समर्पित है। फिर वही पत्र-पत्रिकाओं में कुछ संबंधित चित्र, आलेख, संचार माध्यमों में कुछ चर्चा- परिचर्चा, कुछ सरकारी घोषणाएं और कार्यक्रम। आवश्यकता है हम आमजन पर्यावरण को इसके स्थूल रूप से पृथक इसके वास्तविक रूप में ग्रहण करें।
पर्यावरण के जैविक संघटकों में सूक्ष्म जीवाणु से लेकर कीड़े-मकोड़े, सभी जीव-जंतु, पेड़-पौधे आ जाते हैं और इसके साथ ही उनसे जुड़ी सारी जैव क्रियाएँ और प्रक्रियाएँ भी। अजैविक संघटकों में जीवनरहित तत्व और उनसे जुड़ी प्रक्रियाएँ आती हैं, जैसे: चट्टानें, पर्वत, नदी, हवा और जलवायु के तत्व इत्यादि। पर्यावरण के जैविक और अजैविक दोनों ही संघटकों का वह हिस्सा, जो मुख्यतः जीवन के भौतिक स्वरूप के पक्ष से जुड़ा है, बहुत बड़े पैमाने पर मानवीय क्रियाकलापों से भी प्रभावित होता है और यही कारण है कि उस पर कुछ कुप्रभाव समय के साथ दृष्टिगोचर होते रहे हैं ।इन दुष्प्रभावों ने जब-जब सभ्यता की पेशानी पर बल डाला है ,तब - तब पर्यावरण दिवस जैसे दिवसों के आयोजन की महत्ता और आवश्यकता मनुष्य को समझ में आने लगती है।
संयुक्त राष्ट्र की वैश्विक पहल : इस दिवस को मनाने की घोषणा संयुक्त राष्ट्र ने पर्यावरण के प्रति वैश्विक स्तर पर राजनीतिक और सामाजिक जागृति लाने हेतु वर्ष १९७२ में की थी। इसे विश्व पर्यावरण सम्मेलन में चर्चा के बाद लिया गया। इसके बाद ५ जून, १९७४ को पहला विश्व पर्यावरण दिवस मनाया गया। ४८ वर्षों मे चिंता नहीं बदली, बस उसके विषय बदलते गए। विश्व पर्यावरण दिवस २०२० की थीम 'जैव-विविधता' थी, वहीं २०२१ के विश्व पर्यावरण दिवस के चिंतन का मुख्य विषय है- "पारिस्थितिकी तंत्र की बहाली"।
पारिस्थितिकी तंत्र एक कार्यशील क्षेत्रीय इकाई होता है, जो क्षेत्र विशेष के सभी जीवधारियों एवं उनके भौतिक पर्यावरण के सकल योग का प्रतिनिधित्व करता है।पारिस्थितिक तंत्र एक ऐसा तंत्र होता है. जिसमें विभिन्न प्रकार के सजीव उस क्षेत्र के निर्जीव वातावरण से आपस में अंतर संबंध रखते हैं और सजीव और निर्जीव में जो अंतर्संबंध की प्रक्रिया होती है,उसे पारिस्थितिक तंत्र कहते है।
सुंदरलाल बहुगुणा : चिपको आंदोलन |
विश्व पर्यावरण दिवस और भारत : २०२१ में भारत विश्व पर्यावरण दिवस तब मना रहा है , जब वृक्षमित्र सुंदरलाल बहुगुणा जैसे पर्यावरणविद हमसे अंतिम विदाई ले चुके हैं और दूसरी ओर पूरा देश कोरोना के दूसरी लहर के प्रचंड वेग से बाहर निकलने के लिए आकुल - व्याकुल है। प्रकृति को जीवन की सहगामिनी बनाना इस विश्वव्यापी आपदा के बाद मनुष्य की पहली प्राथमिकता होनी चाहिए।
आवश्यकता है कि औद्योगिक इकाइयां जल, वायु, मृदा जिन क्षेत्रों में भी अपने प्रयासों के द्वारा प्रदूषण की मात्रा को कम कर सकती हैं या न्यूनतम स्तर पर ले जा सकती हैं उन्हें अपने लाभ का एक निश्चित प्रतिशत अवश्य ही इन जीवनदाई उपायों पर खर्च करना चाहिए। पर्यावरण संरक्षण के कार्य में उद्यमी अपने औद्योगिक इकाइयों और औद्योगिक बस्तियों में वृक्षारोपण और जल प्रबंधन के क्षेत्र में उत्तम कार्य कर मिसाल कायम कर सकते हैं। स्वच्छ पेयजल की उपलब्धता पहले से ही वैश्विक चुनौती है। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम और उसके सहयोगियों की रिपोर्ट के मुताबिक विश्व के ७० करोड से ज्यादा आबादी की स्थिति पानी को लेकर चिंताजनक है।
टाटा औद्योगिक इकाइयों के सार्थक प्रयास : हर्बल पार्क. छायाचित्र : रीता रानी. |
टाटा औद्योगिक इकाइयों के सार्थक प्रयास : औद्योगिक इकाइयां इस क्षेत्र में कितनी प्रवीणता से कार्य कर सकती हैं -इसका एक ताजातरीन उदाहरण जल संरक्षण की दिशा में टाटा आयरन एंड स्टील कंपनी का एक पैकेज, सीवरेज ट्रीटमेंट प्लांट है, जिसके द्वारा प्रतिदिन ५०००० लीटर पानी को साफ कर वहां के आसपास के चौक -चौराहों पर लगे पेड़ -पौधे को उस पानी से सिंचित करने, वॉशरूम में उपयोग किये जाने, औद्योगिक उपयोग में भी लाये जाने का कार्य किया जा रहा है।
साफ- सफाई और कूड़ा प्रबंधन , कूड़े का नवीनकरणीय रूप में प्रयोग, कृत्रिम पार्कों के निर्माण-इन क्षेत्रों में औद्योगिक इकाइयों द्वारा दायित्व निर्वहन कर सामाजिक दायित्वों के प्रति ईमानदारी दिखाई जानी चाहिए।
टाटा स्टील एंड आयरन कंपनी, जमशेदपुर ने इस लौहनगरी में प्लास्टिक के द्वारा एक लंबी सड़क का निर्माण कर इस नई तकनीक को क्रियान्वित कर दिखाया है, वहीं अपने कंपनी परिसर के अंदर बोनसाई और हर्बल पार्क ( शहर में विभिन्न पार्कों के अलावा ) को अस्तित्व दिया है।
जल संकट तीसरे विश्व युद्ध का कारण बनेगा-भविष्य के प्रति इस आशंकित भय के निराकरण हेतु हम स्थानीय और राष्ट्रीय स्तर पर तो पहल करना प्रारंभ कर ही दें। सूखी पड़ी नदियों, तालाबों, झीलों में फिर से जलधारा कैसे प्रवाहित हो पाए-पर गहन चिंतन इस विषय के विशेषज्ञों को करना होगा। अभी हाल में ही बंगाल की खाड़ी में उठे यास तूफान से हुई भारी बारिश के कारण बिहार के शेखपुरा जिले में एक मृत झरना पुनः जीवित हो उठा । प्राकृतिक स्रोत आजीवन प्रवाहित रहें-विचारणीय हैं।भूगर्भ जल स्तर के गिरते स्तर को खास करके गहन आवासीय बस्तियों में - इस समस्या को अब और अवहेलित करना उस खतरनाक चित्र को फिर से आमंत्रित करने जैसा है जब चेन्नई जैसे शहर में रेल से शहरी आवासीय बस्तियों में पानी का वितरण किया गया था।
भागीरथी प्रयास : कठोर कानूनों के द्वारा हर घर में वर्षा जल संचयन पर हमें कार्य करना ही होगा।सरकारों के पास भी ऊर्जा के वैकल्पिक प्रयोग को बढ़ावा देने को लंबित करने का कोई कारण नहीं है।
इलेक्ट्रिक वाहनों के प्रयोग को हम बढ़ावा दें, सार्वजनिक व्यवस्था इतनी दुरुस्त रखें निजी वाहनों के सीमित प्रयोग द्वारा ईंधन और प्रदूषण नियंत्रण- दोनों ही दिशा में सकारात्मक पहल होना प्रारंभ हो जाए, सौर ऊर्जा को इतना बढ़ावा दें कि आवासीय बस्तियों के हर छत पर सौर प्लेटो की उपस्थिति दर्ज होने लगे।
जैविक खेती को बढ़ावा मिले, किसानों को उनकी स्थानीयता के अनुसार उत्पादन करने और मिट्टी के उपजसंवर्धन को बढ़ाएं रखने के लिए तकनीकी रूप से पर्याप्त ज्ञान और आर्थिक सहयोग मिलता रहे। असम में बांस के पत्तों से नई प्रकार की चाय पत्ती बनाने का मामला प्रकाश में आया है, इस तकनीक के प्रयोग को उन राज्यों में भी बढ़ावा दिया जा सकता है जहां बांस का बड़े पैमाने पर उत्पादन होता है जैसे कि झारखंड। खेती में स्थानीयता को बढ़ावा एवं वन उत्पादों का लाभकर प्रयोग स्थानीय निवासियों को उनकी माटी और स्थानीय वनों के प्रति गहन ममत्व और आकर्षण से भरता रहेगा।
पूर्वानुमान : कोरोना काल में राष्ट्र ने चार-चार चक्रवाती तूफानों को झेला है। अम्फन, निसर्ग ,ताइतू, यास ; बाढ़ अलग, वनों में लगी आग अलग- आवश्यकता है इन प्राकृतिक आपदाओं को रोकने के लिए यथासंभव सशक्त प्रतिरोधक तंत्र विकसित करना, ताकि पूर्वानुमान के द्वारा केवल जानमाल की क्षति को ही कम न किया जा सके, अपितु उसके उचित प्रबंधन के साथ-साथ यथासंभव रोक पर भी पर भी हम कार्य कर सकें।
चिकित्सकीय कूड़े का कोविड-19 के इस चुनौतीपूर्ण समय में उचित निपटान भी संपूर्ण विश्व के लिए एक चिंताजनक तथ्य होगा। कार्बन उत्सर्जन, ओजोन परत में प्रदूषण से हो रहे छेद-जैसे बड़े-बड़े विषय अंतरराष्ट्रीय मंचों पर सुलझाए जाते रहेंगे, हम राष्ट्रीय और व्यक्तिगत रूप से अपने छोटे- छोटे कदम तो बढ़ाना प्रारंभ कर ही दें।
अपनी अपनी जिम्मेदारियां : प्रशासन या संगठन-चाहे वह औद्योगिक हो या राजनयिक, पर्यावरण रक्षण के संदर्भ में अपनी- अपनी जिम्मेदारियां तो निभाये ही; आम नागरिक भी पर्यावरण के प्रति वैसे ही सचेत हों जैसे अपने घर या परिवार के प्रति होते हैं।
प्लास्टिक का कम से कम प्रयोग, सार्वजनिक परिवहन साधनों एवं साइकिल के प्रयोग को यथोचित और यथासंभव बढ़ावा देना, पानी-बिजली के दुरुपयोग को रोकना, पशु- पक्षियों के प्रति संवेदनशील होना, ऊर्जा के अन्य विकल्पों, सौर ऊर्जा आदि को बढ़ावा देना, अपने मोहल्ले के पार्क या अपने घर के आस-पास की वनस्पतियों के प्रति अपने उद्यान की तरह संवेदनशील होना और उसकी देखरेख करना, कूड़े को यथासंभव कूड़ेदान में ही डालना; यत्र- तत्र, खुली जगह या सड़कों पर न फेंक देना, गीले और सूखे कचड़े के लिए बने अलग-अलग कूड़ेदानों का प्रयोग करना- हमारे प्रयासों में शामिल होना चाहिए।
पौधे भेंट देने की परंपरा : हम बच्चों में जन्मदिन या किसी दिवस विशेष के लिए क्यों न पौधे भेंट देने की परंपरा का बीजारोपण करें। कार्यस्थल या छात्रों के विद्यालय गमन-जैसे मामले में पारी बांधकर एक जगह रहने वाले लोग बारी- बारी से अपने वाहन का प्रयोग बच्चों को स्कूल छोड़ने या कार्यस्थली तक जाने में कर सकते हैं।यह न केवल ईंधन के मितव्ययितापूर्ण समुचित प्रयोग को बढ़ावा देगा अपितु हमारी सड़कों पर वाहनों का कम दबाव ध्वनि और वायु प्रदूषण दोनों की रोक में मददगार भी होगा।
जल प्रबंधन, जल निकासी, वर्षा जल संचयन, स्थानीय नदी, नाले, तालाबों को प्रदूषण से मुक्त रखने में अपनी जिम्मेदारी निभाना-इसके लिए प्रशासन या सरकार की ओर नजरें गढ़ाने की अपेक्षा हर नागरिक को अपने -अपने स्तर से अपने व्यक्तिगत जिम्मेदारियों के बारे में सोचना होगा।
आसपास के वृक्षों की रक्षा और खाली जगह पर अधिकाधिक पादपों का रोपण-जहां मिट्टी के कटाव को रोकने, जल के भूगर्भीय स्तर को बनाए रखने में सहायक होगा, दूसरी ओर वायु प्रदूषण की काट तैयार करेगा।
पर्यटन - पर्यावरण मैत्री : सपाटा और भ्रमण के लिए बढ़े हमारे कदम माउंट एवरेस्ट से लेकर समुद्र तक में कचड़ों का अंबार लगा रहे हैं, तो स्थानीय निवास स्थलों की क्या बिसात? वर्तमान समय में पर्यटन केवलआनंद प्राप्ति का स्रोत न हो, अपितु पर्यावरण मैत्री के भाव से भी भरा हो। अपनी लापरवाहियों से पर्यावरण को हानि पहुंचाए बिना हम स्थानीय अर्थव्यवस्था ( विशेषकर स्थानीय हस्तशिल्प ) को मदद करते चलें।अपने आसपास कौवों और गौरैयों की संख्या में दिखाई देने वाली चिंताजनक कमी क्या किसी पर्यावरणीय संकट की ओर इशारा कर रही हैं ?
वायु- प्रदूषण : कोरोना काल में जहां लोगों की जीवन संबंधी आपाधापी पर नियंत्रण करना प्रशासन की मजबूरी हो गई तो इसका एक सकारात्मक प्रभाव यह भी देखा कि वायु- प्रदूषण का स्तर कई क्षेत्रों में अपने न्यूनतम अंक पर आकर सिमट गया। स्पष्ट है मानवीय गतिविधियां प्रदूषित करती हैं अपने आसपास के वातावरण को। अंधाधुंध प्रगति की कीमत हमारे वृक्षों , भूमि और कई बार जलीय संसाधनों ने चुकाई है और उसकी कीमत अप्रत्यक्ष रूप से मानवीय जीवन चुकाएगा। चिंतक जॉन मुइर ने कितना सही कहा है-“इन पेड़ों के लिये भगवान ध्यान देता है।इन्हें सूखे, बीमारी, हिम्स्खलन और एक हजार तूफानों और बाढ़ से बचाता है। लेकिन वो इन्हें बेवकूफों से नहीं बचा सकता।”
पारिस्थितिकी के लिए गहन चिंतन : विज्ञान के सांचे से जरा अलग हटकर विश्व पर्यावरण दिवस पर एक महत्वपूर्ण चिंतन विषय -स्वयं मानव जीवन पर भी गौर करें। इस महामारी ने शारीरिक स्वास्थ्य के साथ-साथ मानसिक स्वास्थ्य में संतुलन कायम करने पर बल देते हुए मानव जीवन के संपूर्ण पारिस्थितिकी संतुलन को स्थापित करने की सीख दी है। इस कोविड में अपनों को खो चुके, विशेषकर अनाथ हुए बच्चें और निराश्रित महिलाएं, आश्रित वृद्ध - सामाजिक पारिस्थितिकी के लिए गहन चिंतन और संवेदना का विषय है। बच्चें माता-पिता को खोकर किसी प्रकार के शोषण और यंत्रणा के शिकार न हो जाएं-इसके लिए प्रशासन और आम जनता दोनों को ही मिलकर कार्य करना होगा।
घोषित हो रही सरकारी योजनाएं लाभार्थियों तक उचित रूप में पहुंचे, इन योजनाओं के लोभ में ही केवल बच्चों को स्वीकार न किया जाए अपितु उनका भविष्य पूर्णरूपेण संरक्षित रहे-ऐसी चौकस प्रणाली अपनानी होगी।" हमारे विचार भी हमारे औषध हैं"-भारतीय संस्कार के इस मूल मंत्र को ध्यान में रखकर योग, ध्यान, चिंतन को अपने जीवन में शामिल करना मानसिक- शारीरिक स्वास्थ्य के लिए भी अत्यंत आवश्यक है।
प्रकृति का सान्निध्य , घर के आसपास और घर के अंदर हरियाली की उपस्थिति , पशु -पक्षी जैसे बेजुबान पालतू मित्रों की संगत भी शारीरिक और मानसिक दोनों ही प्रकार के स्वास्थ्य के लिए अमृत है-अब शोध भी इसे प्रमाणित करने लगे हैं। स्वस्थ तन- मन का स्वामी ही उत्तम विचारों का पोषक होगा और उत्तम विचारों का पोषक ही अपने चारों ओर के वातावरण (पर्यावरण-परि+आवरण) का सही अर्थों में संरक्षक।
" पर्यावरण सब कुछ है जो मैं नहीं हूँ।"- अल्बर्ट आइंस्टाईन।
यह वैज्ञानिक सोच जन-जन की जीवनधारा में शामिल होगी, तभी हम पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में उल्लेखनीय माहौल तैयार कर पाएंगे और तत्पश्चात ही भविष्य के लिए एक बेहतर
धरती भी।
रीता रानी
जमशेदपुर, झारखंड।
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आलेख : स्वतंत्रता दिवस . २ / ३
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स्वतंत्रता की हीरक जयंती : एक सिंहावलोकन
युवावस्था को भी पारकर परिपक्वता की राह पर है। वर्तमान समय में विश्व व्यवस्था में अपनी सशक्त भूमिका निभाता हुआ, गौरवान्वित सिर उठाए विकास के पथ पर अग्रसर। परंतु कई चुनौतियां-बाहरी और अंदरूनी- दोनों ही अपनी - अपनी जगह दृढ़ता से खड़ी दिखती हैं। अगर आज एक नागरिक के तौर पर राष्ट्र की इस सार्वभौमिक और लोकतांत्रिक यात्रा को देखने - परखने की आवश्यकता है तो देश की राजनीतिक - सामाजिक - आर्थिक व्यवस्था पर उंगली रखते - रखते स्वयं हम नागरिकों के द्वारा निभाए गए दायित्वों की ओर भी निष्पक्ष चिंतन की जरूरत से कैसे इंकार किया जा सकता है। देश की प्रगति में हमारे छोटे - छोटे प्रयास सदैव ही महती भूमिका निभाते आए हैं और निभाते रहेंगे।
जनभागीदारी से जुड़ी समस्याएं : वर्तमान में बहुत सारी ऐसी समस्याएं हैं जो जनभागीदारी से जुड़ी हैं,
यथा - वर्षा जल संग्रहण, पानी-बिजली के दुरूपयोग को रोकना , पर्यावरण संरक्षण, पके हुए अन्न की बर्बादी को न्यूनतम स्तर पर ले जाना , सार्वजनिक संपत्ति की रक्षा और अंततः राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रति जिम्मेदारी। यूं तो राष्ट्रीय सुरक्षा सरकार और संस्थागत जिम्मेदारी मानी जाती है परन्तु सुरक्षा तंत्र में जब भी किसी भी भारतीय चाहे वह किसी भी पद या क्षेत्र से संबंधित हो, के द्वारा सेंध लगती है तो यह सीधे-सीधे हम में से हर एक भारतीय के व्यक्तिगत दायित्व पर प्रश्नचिन्ह लगाता है। इतनी लंबी गुलामी को झेलकर और उसके लिए इतना कठोर संघर्ष करके भी अगर हम राष्ट्रीय संप्रभुता के महत्व को समझ न पाए तो यह वास्तव में चिंतनीय हैं और यहां पर तब यह प्रश्न खड़ा होता है कि क्या हमारी शिक्षा व्यवस्था भारतीय इतिहास, उसकी संघर्ष गाथा, उसके अभिमान और गौरव रक्षा हेतु नागरिकों के दायित्व जैसे महत्वपूर्ण विषयों के साथ पूरा न्याय कर पा रही है? इस वर्ष ही केंद्र सरकार द्वारा इतिहास के पाठ्यक्रम को लेकर सामान्य जनता से विचार मांगे गए थे ,जो अतिसराहनीय है। पर दुःखद यह भी है कि हम आलोचना तो करते हैं परंतु सुझाव देते वक्त कितने सक्रिय रहें, यह बताना मुश्किल है।
पहला स्वतंत्रता दिवस |
कोरोना संक्रमण की दूसरी लहर : स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव के अवसर पर देश कोरोना संक्रमण की दूसरी लहर से लड़ रहा है। बहुत हद तक लहर काबू में है । अब तक देश में ३ .२२ करोड़ लोग इस महामारी से संक्रमित हुए हैं जिसमें लगभग ४.३१ लाख लोग काल - कवलित हो गए। ३ .१३ करोड़ लोग इस बीमारी से जंग जीतकर ठीक भी हुए। अभी भी देश में चार लाख के आसपास सक्रिय मामले हैं। सबसे अधिक चिंता केरल राज्य को लेकर है जहां अचानक कोरोना के मामले तेजी से बढ़ने शुरू हो गए हैं। इसके अलावा महाराष्ट्र , कर्नाटक, तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश-की भी स्थिति चिंताजनक है। संपूर्ण तंत्र तीसरी लहर के आने को लेकर आशंकित है, अपने अपने स्तर से तैयारियों में लगा हुआ, वहीं आम जनता की लापरवाही और सामाजिक दायित्वहीनता हर चरण में इस रोग के प्रसार के लिए महत्वपूर्ण कारक बन कर उभरी है। अब तक लगभग ५३ करोड लोगों को देश में टीका लगाया जा चुका है, विश्व व्यवस्था के लिए एक रिकॉर्ड होते हुए भी यह अपने देश में आबादी की बड़ी संख्या के आधार पर अभी भी संतोषजनक नहीं है। अनेक प्रश्नों और सीमाओं से घिरा टीकाकरण कार्यक्रम अब तो नोजल टीकाकरण की सीढ़ी पर भी अपने पांव रख चुका है। शासन तंत्र को स्वास्थ्य सुविधाओं की बहाली पर दीर्घगामी कार्य करना होगा।
असम- मिजोरम के बीच के सीमा विवाद : आंतरिक मामलों में असम- मिजोरम के बीच के सीमा विवाद में २६ जुलाई को छह असमिया सैनिकों का शहीद हो जाना शुभ संदेश तो नहीं। अनेक राज्यों के बीच सीमा विवाद हैं, परंतु यह सीमा विवाद इतना लोमहर्षक कैसे हो गया अपने ही देश की परिधि के अंदर।
देश का संसदीय आचरण भी आजादी के ७५ वर्ष पूरे हो जाने के बाद भी मानकों पर खरा नहीं उतर पाया है - जो अपने आप में एक प्रश्न चिन्ह है। बकौल भारतीय लोकसभापति मानसून सत्र में केवल २२% उत्पादकता ही रही, जबकि संसद में १ मिनट की कार्यवाही पर लगभग २. ५ लाख रुपए खर्च होते हैं।बर्बाद हुए समय के खर्चे का हिसाब कौन देगा, भरपाई की जिम्मेदारी किसकी?
आश्चर्य यह कि लगभग २० विधेयक पास हो गए, हर में हंगामा और वाकआउट का प्रदर्शन होता रहा परंतु जब १२७ वां संविधान संशोधन (ओबीसी आरक्षण अधिनियम संशोधन) की बात हुई तो सारे राजनीतिक दलों के सुर एक में मिल गए । वोट बैंक की गंदी राजनीति -भारतीय राजनीति का विभत्स रूप। जनचेतना में घूमता एक ज्वलंत प्रश्न इन माननीयों को मिलने वाली वे सुविधाएं भी हैं जो करदाताओं के अथक परिश्रम की राशि के उपयोग का परिणाम है। राजनीति सेवा होनी चाहिए, भोग विलास की सीढ़ी नहीं-इस पर वर्तमान राजव्यवस्था को विचार करना ही होगा।
प्राकृतिक आपदा : प्राकृतिक सौंदर्य के उपादानों से भरे इस देश को प्राकृतिक आपदा भी विरासत में मिली है। बिहार, उत्तर प्रदेश ,ओडिशा आदि राज्यों में बाढ़ का प्रकोप तो हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड में भूस्खलन जैसी घटनाएं-इन प्राकृतिक आपदाओं पर भूगोलविदों और वैज्ञानिकों को कार्य करने के लिए पर्याप्त संसाधन मुहैया कराए जाएं ताकि हानि का न्यूनतम स्तर जनजीवन के करीब हो। एक सलामी आईटीबीपी के जवानों और एनडीआरएफ की टीम को पूरे देश की ओर से मिलनी चाहिए, जो जांबाजों की भांति अपनी जान की परवाह न करते हुए हर विपदा के समक्ष डट कर खड़े हो जाते हैं।
टोकियो ओलंपिक खेल : देश में हर्ष का वातावरण बनाया टोकियो ओलंपिक खेलों में भारतीय खिलाड़ियों के शानदार प्रदर्शन ने भी। एथलेटिक्स के स्वर्ण पदक से लेकर पुरुष और महिला हॉकी के शानदार प्रदर्शन तक हम भारतीय सांस थामे अपने खिलाड़ियों का बेहतरीन प्रदर्शन देखते रहें।
१२१ साल के सूखे को नीरज चोपड़ा ने अपने भाले से हरा भरा कर दिया। अभी देश में ओलंपिक
नीरज चोपड़ा |
विजेताओं का स्वागत समारोह और अभिनंदन चल रहा है ,वैसे में इस बात पर भी विचार करना जरूरी है कि कैसे देश की खेल संस्कृति को बढ़ावा दिया जाए, छुपी खेल प्रतिभाओं को खोजा जाए, नजर आई प्रतिभाओं को तराशा जाए और अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत के योग्यतम प्रतिनिधि खेलमंच पर मौजूद हों। इसके लिए एक ईमानदार कार्य नीति तैयार करनी होगी। ' राजीव गांधी खेल रत्न पुरस्कार ' का नाम बदलकर' ध्यानचंद खेल खेल रत्न पुरस्कार' कर दिया जाना एक स्वस्थ परंपरा की शुरुआत है, परंतु इस परंपरा को अन्य उदाहरणों में भी लागू होना चाहिए और इसका स्वास्थ्य तभी तक बना रहेगा जब तक इसे राजनीति का मधुमेह रोग नहीं लगेगा।
भारतीय मीडिया : एक आवश्यकता भारतीय मीडिया के निष्पक्ष और स्वतंत्र धर्म निर्वाह करने के दायित्व की भी है। जिस तरह की मर्यादाएं भारतीय संसद में तोड़ी जाती हैं, उससे कम इस पेज थ्री पर नहीं। कई टीवी चैनलों में तो संवाद और परिचर्चा के नाम पर हर गरिमा तोड़ दी जाती हैं, जो अच्छा उदाहरण पेश नहीं कर रहा।
गोगरा पोस्ट से पीछे हटी चीनी सेना |
भारत अपनी अंतरराष्ट्रीय छवि के प्रति बहुत सजग है और हमारे प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी को राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद की अध्यक्षता प्रदान किया जाना और उनके द्वारा उस मंच पर समुद्री सुरक्षा के मुद्दे को उठाना बहुत ही प्रशंसनीय है। चीन जैसे समुद्री अनुशासन को तोड़ने वाले देश अप्रत्यक्ष रूप से इस तीर से बींधे गए।
चीन के साथ तनातनी : लद्दाख पर अंतरराष्ट्रीय सीमा पर चीन के साथ तनातनी बनी हुई है। मामला पूरा सुलझा तो नहीं है परंतु भारतीय सरकार और सेना चीन के दबाव के आगे दृढ़ता से सिर उठाए खड़ी है। कुछ जगहों से चीनी सेना को पीछे हटना पड़ा है। अभी हाल में ही ४ और ५ अगस्त ,२०२१ को गोगरा पोस्ट से चीनी सेना पीछे हटी हैऔर अभी आगे के लिए और वार्ताएं प्रायोजित हैं।
सुरक्षा के क्षेत्र में एक नवीन चिंता ड्रोन के रूप में भी उभरी है, पाकिस्तान से सटी कश्मीर सीमा रेखा पर इसका सामना करना पड़ा है, पंजाब भी इससे आशंकित हुआ, स्वतंत्रता दिवस समारोह की सुरक्षा में भी ड्रोन इसलिए तैनात किए गए हैं।
स्वतंत्रता के ७४ वीं वर्षगांठ पर आइए नमन करें सबसे पहले देश के जवानों को, पुलिस को, कारखानों में लगे श्रमिकों को, खेतों में काम कर रहे किसानों को, प्रयोगशालाओं में दिन-रात जूझते वैज्ञानिकों और अनुसंधानकर्ताओं को, शिक्षकों को, चिकित्सकों को, इंजीनियरों को, हर उस ईमानदार और सार्थक प्रयास करने वाले वर्ग को जो देश के प्रगतिरथ को अपने कंधों के सहारे खींच रहे हैं ।
रीता रानी
जमशेदपुर, झारखंड
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आलेख : संस्कृत दिवस. २ / ४
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संस्कृत हमारी आदि भाषा हैं। और हमारी मातृ भाषा हिंदी की जननी मानी जाती हैं। इस आदि भाषा के पुनः संस्थापन के निमित्त ही हमने संस्कृत दिवस मनाने की शुरुआत की है । इसका औचित्य भी है। आवश्यकता भी। ऐसी आशा की जाती है कि संस्कृत से भारत में कई भाषाओं का पुष्पन और पल्लवन हुआ हैं। अतः यह आवश्यक है कि संस्कृत भाषा की महत्ता को फिर से समझा जाए।
उत्पत्ति : संस्कृत भाषा की उत्पत्ति सम्भवतः लगभग ४००० साल पहले हुई थी । हिंदू संस्कृति में संस्कृत के मंत्रों को उपयोग सैकड़ों वर्षो से हमारे विभिन्न संस्कारों में विधिवत किया जा रहा है। संस्कृत का अर्थ दो शब्दों से मिलकर बना है सम का अर्थ संपूर्ण और कृत का अर्थ है किया हुआ । यह दोनों शब्द मिलकर संस्कृत शब्द की उत्पत्ति करते हैं।
वेदों की रचना भारत में सबसे पहले वैदिक काल में १००० ईसवी से ५०० ईसा पूर्व की अवधि में हुई । वैदिक संस्कृत साहित्य में वेदों ,पुराणों और उपनिषदों का विशेष महत्व है। वेद चार अलग-अलग खंडों में विभाजित है जिसमें ऋग्वेद ( प्राचीनतम ) , यजुर्वेद ,सामवेद और अथर्ववेद है।
संस्कृत भाषा को हम कतई भूला नहीं सकते क्योंकि यह देवों की भाषा है, आर्यों की भाषा है , ऋषि महर्षियों की भाषा है। संस्कृत हमारी मूल भाषा है , जिसमें हमारे सभ्यता , संस्कार निहित है। यह हमारे संस्कृति की भाषा है, योग की परिभाषा है, जो हमें एकता के सूत्र में पिरोता है। हमारी साहत्यिक संस्कृति का अलंकार है यह कई भाषा के मूल में है। भला हम कैसे इस दिव्य भाषा से दूर रह सकते हैं जिसमें हमारी प्राचीन सभ्यता के सूक्ष्म कण समाहित है ।
संस्कृत दिवस दरअसल सावन पूर्णिमा के दिन ही क्यों मनाया जाता है ? इसके पीछे भी एक रोचक इतिहास है जब वैदिक काल में शिक्षण सत्र की शुरुआत गुरुकुल में इसी दिन होती थी। चूंकि श्रावण पूर्णिमा के दिन सत्र की शुरुआत के साथ साथ पढ़ाई का माध्यम संस्कृत ही हुआ करता था , इसीलिए इस दिवस को संस्कृत दिवस के रूप में मनाने का फैसला सन १९६९ में भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय ने लिया। और इस सन्दर्भ में केंद्रीय तथा राज्य स्तर पर संस्कृत दिवस मनाने का निर्देश भी जारी कर दिया गया तब से श्रावण पूर्णिमा के पवित्र दिन को रक्षा वंधन के साथ साथ हम संस्कृत दिवस को मनाते आ रहें हैं।
श्रावण मास की पूर्णिमा तिथि को भारत प्रतिवर्ष संस्कृत दिवस के रूप में मनाता है संस्कृत प्रेमी ही नहीं अपितु अपनी संस्कृति से अथाह प्रेम रखने वाले संपूर्ण भारतीय पूरे सप्ताह तक संस्कृत के प्रचार प्रसार में लगे रहते हैं । रक्षा बंधन के साथ साथ हम हम अपनी मूल भाषा के संरक्षण का संकल्प भी दिल से ले।
डी ए वी विद्यालय समूह ऋषि दयानंद के सिद्दांतों की अनुगामिनी है तथा संस्कृत को प्रश्रय प्रदान करने वाली कुछ शैक्षिक संस्थानों में एक है जो प्राचीन वैदिक संस्कृति के साथ साथ आधुनिक संस्कृति, ज्ञान विज्ञान को साथ लेकर चलने के दायित्व का निर्वहन कर रही है । ज्ञात हो आर्य समाज के संस्थापक ऋषि दयानंद ने वेदों की ओर लौट चलो का संदेश दिया था। यथार्थ है इससे संस्कृत भाषा का संरक्षण कहीं न कहीं मिलेगा ही।
डॉ. मधुप |
आर्य समाज की देन : प्रत्येक वर्ष श्रावणी पूर्णिमा के शुभ अवसर पर रक्षाबंधन से श्री कृष्ण जन्माष्टमी तक अभी भी आर्य समाज में वेद प्रचार सप्ताह का आयोजन होता है , हालांकि कोविड - १९ के कारण आर्य समाज के विद्यालय और आर्य सभा में प्रचार के सब काम अवरुद्ध हो ही गए हैं। लेकिन तब भी अपनी वैदिक भाषा के प्रचार प्रसार के निमित्त आर्य समाज के नियमों का पालन करने वाले सभी विद्यालयों में नई ऊर्जा के साथ यज्ञ , हवन, वेद प्रवचन , गीता पाठ, प्रश्नोत्तरी , भाषण , भजन , चित्रकला , वाद-विवाद आदि प्रतियोगिताएं आयोजित की जाती हैं और अन्य जग़ह की जानी भी चाहिए। इस संदर्भ में वेद प्रचार की दिशा में आगे बढ़कर काम होने चाहिए। संभव हो तो विद्यालय , विभिन्न शैक्षणिक संस्थानों में आर्य समाज के विद्वानों को बुलाकर यज्ञ एवं प्रवचन का कार्यक्रम वेद प्रचार सप्ताह के रूप में आयोजित किया जाए। दस में से दो तीन लोगों में हमारी मूल भाषा में रूचि होगी ही। आम लोग इस बात में रूचि ले कि सभी भाषाओं के श्रोत में संस्कृत का कहीं न कहीं योगदान अवश्य रहा है।
डॉ. मधुप रमण.
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आलेख : अमेरिकी अफ़ग़ान नीति . २ / ५
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अफगानिस्तान से भागते हुए लोग : फोटो इंटरनेट से साभार |
अफगानिस्तान: अमेरिका की सोची समझी रणनीति.
अफगानिस्तान का जो वर्तमान परिदृश्य है, उस पर मेरी सोच काफी अलग है। मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि यह अमेरिका की एक सोची-समझी रणनीति का या ये कहिए कि दूरगामी डिप्लोमैसी यानी कूटनीति का ही एक हिस्सा है।
यह बात आज सारी दुनिया समझ चुकी है कि भारत बहुत तेजी से महाशक्ति के रूप में उभर रहा है। वह दिन दूर नहीं, जब भारत अमेरिका-चीन को चुनौती देता नजर आएगा.. बल्कि चीन को तो पिछले दो साल से कई फ्रंट पर करारी चोट भी दे चुका है, जैसे चीन की सेना को बैकफुट पर ले जाना, उसके तमाम ऐप और सामानों को प्रतिबंधित करना आदि।
इसके अलावा यह पूरे विश्व ने देखा कि किस प्रकार से भारत ने न केवल कोरोना को नियंत्रित किया, बल्कि इस दौरान अपनी अर्थव्यवस्था को भी बरकरार रखते हुए पूरे देश के निम्न आय वर्ग को भोजन से लेकर हर प्रकार की सुविधाएं उपलब्ध करवाईं। तमाम बड़े देशों ने कोरोना संक्रमण के समक्ष घुटने टेक दिए, जबकि भारत में इस पर प्रभावी नियंत्रण के साथ ही, सभी काम बदस्तूर जारी हैं। तीसरी लहर फिर पूरे विश्व में पांव पसार रही है। अमेरिका भी उससे बुरी तरह प्रभावित है, लेकिन भारत ने इस पर लगाम लगा रखी है, जबकि हमारी आबादी दसियों देशों को मिला दिया जाए तो उसके बराबर या ज्यादा ही होगी।
ये सब बातें निश्चित रूप से अमेरिका की आंखों में खटक रही होंगी, तभी उसने अफगानिस्तान में एक गेम प्लान के तहत अप्रत्यक्ष तख्ता पलट करा दिया। अमेरिका बीस वर्षों से अफगानिस्तान की सरजमीं पर काबिज था। वहां की सरकार से लेकर अर्थव्यवस्था और सैन्य व्यवस्था उसके नियंत्रण में थी। फिर अचानक ऐसा क्या हुआ कि वह अफगानिस्तान को उसके रहमोकरम पर छोड़ कर भाग खड़ा हुआ, जबकि तालिबानी अफगानिस्तान पर चढ़े चले आ रहे थे। तालिबानी आतंकवादी एक-एक कर अफगानिस्तान के प्रांतों पर फतह हासिल करते गए और राष्ट्रपति अशरफ गनी और वहां की सेना मूकदर्शक बने ऐसा होते देखते रहे। अशरफ गनी पिछले लगभग सात वर्ष से राष्ट्रपति थे। उन्हीं के समक्ष अमेरिका ने वहां न केवल तीन लाख जवानों की फौज खड़ी की, बल्कि उन्हें अरबों डॉलर के आधुनिकतम हथियार, टैंक और लड़ाकू विमान देकर हर तरह से लैस व ट्रेंड किया, ताकि वह तालिबानियों को करारा जवाब दे सकें। फिर रातों-रात क्या हुआ की अफगानी सेना ने तालिबानियों के खिलाफ ना उन अस्त्रों का प्रयोग किया, ना किसी प्रकार से उन्हें रोकने का प्रयास किया और देखते ही देखते तालिबानियों ने पंजशीर को छोड़कर पूरे देश पर कब्जा कर लिया।
काबुल पर कब्जे के पूर्व राष्ट्रपति अशरफ गनी भी अपने नागरिकों को असहाय छोड़कर चोरों की तरह देश छोड़कर भाग निकले। एकमात्र पंजशीर घाटी के योद्धा आज भी तालिबानियों को चुनौती दे रहे हैं। तो जब एक छोटा सा प्रांत तालिबानियों को दहला सकता है तो इतनी बड़ी अफगान सेना ने आधुनिक अस्त्र-शस्त्रों के साथ कैसे बिना लड़े सरेंडर कर दिया- यह बात आज हर किसी के ज़हन में उठ रही है। .. और इसका एकमात्र जवाब यह है कि अमेरिका नहीं चाहता कि भारत महाशक्ति बने और इसलिए उसने तालिबानियों के माध्यम से भारत में अशांति और अस्थिरता फैलाने के एक घिनौने खेल के तहत इस पूरी कार्यवाही को अंजाम दिया है।
अमेरिका ने ३० अगस्त तक काबुल एयरपोर्ट को अपने नियंत्रण में रखा, तब तालिबानियों ने उसके सैनिकों पर हमला क्यों नहीं किया ? क्योंकि वह अमेरिका के साथ एक गुप्त समझौते के तहत बंधे हुए थे। अमेरिका पंजशीर प्रांत को सपोर्ट कर देता तो शायद आज स्थिति कुछ और ही होती। अमेरिका ने जब काबुल एयरपोर्ट छोड़ा तो सभी युद्धक विमान निष्क्रिय कर दिए तो क्या जो अन्य साजो-सामान वह अफगानिस्तान में तालिबानियों की मदद के लिए छोड़ आया, उसे निष्क्रिय या नष्ट नहीं कर सकता था। ये सामान वह पंजशीर से लेकर किसी भी मित्र देश जैसे कि भारत को भी तो दे सकता था या फिर अमेरिका स्वयं इसे वापस ले जाता।
आधुनिकतम युद्ध सामग्री के साथ अमेरिका ने अफगानिस्तान को एक बारूद के ढेर पर खड़ा कर दिया है, इससे अफगानिस्तान स्वयं भी तबाह हो सकता है और अपने आसपास के देशों समेत पाक अधिकृत कश्मीर में आतंक फैलाकर भारत के माथे पर बल भी डाल सकता है और शायद अमेरिका का यही मंतव्य है।
रवि शंकर शर्मा
वरिष्ठ साहित्यकार एवं स्तंभकार
संपर्क: इंजीनियर्स एन्क्लेव,
पीली कोठी, बड़ी मुखानी,
हल्द्वानी,नैनीताल
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देखें सीपिकाएँ : पृष्ठ ३
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आभार.
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क्या लाया, क्या ले जाएगा.पृष्ठ ३ /०
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क्या लाया, क्या ले जाएगा कल फिर सब कुछ ख़त्म , और खाली सा होगा . सीधा - साधा नर , लुच्चा मवाली सा होगा. अस्थिर मनोबल , फिर स्थिरता को तरसेगा, लहूलुहान मेघ , ज्वाला बन कर बरसेगा, द्वापर कथाएं फिर कलयुग का जाल होगी . सीता भी बेबस सी, राधा बेहाल होगी . भाई - भाई को काटता , ख़ुद के टुकड़ें बेच खाएगा , ख़ाक हो गया दिल सबका , क्या लाया ,क्या ले जाएगा ?
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उड़ते पंछी.
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दूर आसमां में उड़ते ऐ पंछी,
घर लौट के तू इक बार आना.
इस दरख्त की शाख पे है टूटा जो घोंसला ,
करने उसका दीदार आना.
बूढ़ी आंखों में रौशनी कम है,
पैरों में भी अब जान कहां,
इससे पहले कि माला टूटे, बिखरे मोती,
पिरोने रिश्तों की हार आना.
पड़ोसी भी तुमको पहचानते नहीं,
और गांव की जमीनों को तुम जानते नहीं,
कुछ मसले हैं जायदाद के,
कम से कम रखने उससे ही सरोकार आना.
तुम कहते हो परदेस में चमक बहुत है,
हर तरफ पैसों की खनक बहुत है,
अबकी बार तुझे साथ ले जाऊंगा,
ये झूठी तसल्ली देने हर बार आना.....
डॉ.रंजना.
स्त्री रोग विशेषज्ञ
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मेरी गुरु मेरी मां.
फोटो : साभार |
ईश्वर ने रचा होगा जब ये संसार ,
उसने बहुत कुछ सोचा होगा.
बना दिया होगा जननी को फिर ,
प्यार के रंगों का चित्रकार.
क़दमों की आहट ,
माँ पहचान जाती है ,
चेहरे को देख कर ही माँ ,
सब समझ ,सब जान लेती है.
माँ की थपकी गर जन्नत है ,
मिल्कियत से कम नहीं फटकार ,
लड़ जाती है दुनियां की हर मुश्किल से
रोम रोम में समाया ढेरों प्यार.
मुबारक हो शिक्षक दिवस तुमको माँ ,
सदैव से तुम मेरी प्रिय गुरु रही,
इसलिए तुमको मेरा शत शत नमस्कार.
नीलम पांडेय,
वाराणसी.
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ये बादल, ये पर्वत,
मुझे प्यार है,किससे
ये मुझे पता नहीं.
जब - जब तुम्हें देखती हूं ,
तो सोचती हूं कि मुझे प्यार है,तुमसे.
इतनी दूर हूं,तुमसे
पर मुझे प्यार है,
समेट लो मुझे अपने आगोश में
मुझे प्यार है तुमसे,
तुम बिन मेरी आंखें सुनी ,
तुम बिन मेरी सांसे थमी,
तुम हो तो हरियाली ,
तुम हो तो खुशहाली,
मुझे प्यार है तुमसे.
मुझे भी अपने संग
बादल बना ले चलो,
झूमती चलूं ,
मै तुम्हारे संग,
मुझे प्यार है तुमसे.
हर एक पहाड़ को छूती चलूं ,
रोको ना मुझे संग ले चलो ,
मुझे प्यार है तुमसे.
ये बादल, ये पर्वत,
ये ऊंचे -ऊंचे पेड़
मुझे प्यार है तुमसे
ये खिली- खिली धरती
ये सब है ,मेरे
मुझे प्यार है तुमसे.
नमिता सिंह.
रानीखेत, मजखाली.
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ग़ज़ल : पृष्ठ ४
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सहयोग.
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ग़ज़ल : पृष्ठ ४/१
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लोग बनते नहीं सहारा अब किसी का शहर में.
आ गया अजीब वक्त रहना मुहाल है शहर में
मुखौटे मुस्कुराहटों के लोग पहने हैं शहर में.
भांवरें प्रपंचों के तो चलते हैं यहां जगह जगह
शाम होते ही ये खेल खत्म हो जाएगा शहर में.
कहीं नहीं मिलेगा फिज़ा में ढूंढने पे अपनापन
दिल मिले बिन ही लोग हाथ मिलाते है शहर में.
जी तो करता है कर दूं सब कुछ पर्दाफाश
दर्द कब तलक दबाए बैठूं इस बेदिले शहर में.
गली की बहती हवा भी क्यूं उड़ा रही राख - वाख
फिर देखिए क्यूं धुआं -धुआं है चहुं ओर शहर में.
अब मिट्टी से जुड़े लोग कुछ बच गए हैं गांव में
औ कुछ झोपड़ियों में आज भी रहते हैं शहर में.
जैसे बस गया यहां लोगों में नफरतों का सुरूर
लोग बनते नहीं सहारा अब किसी का शहर में.
डॉ. आर. के. दुबे.
कवि, लेखक, गीतकार.
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ग़ज़ल : पृष्ठ ४/२
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आँखें और ख्वाब.
हर आँखें ख्वाब देखती है,
पर हर ख्वाब मुकम्मल नहीं होते,
अफसानें बहुत हैं जमानें में,
हर अफसाने हकीकत नहीं होते.
दौरे मुश्किलातों को झेलने की
सबमें कुब्बत नहीं होती,
जिन्दगी में उठते हर सवालातों
के जवाब नहीं होते.
फुर्सत कहाँ अब किसी को,
किसी से बात करने की,
इत्मीनान से कभी वो नहीं होते,
कभी हम नहीं होते.
जिन्दगी हादसों के लिहाफ से,
ढका एक खुबसूरत सफर है,
सफर ए जिन्दगी के फलसफा से,
सब मंजुर नहीं होते.
अरुण अनीश.
कवि .झारखण्ड
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पृष्ठ ५ .फ़ोटो दीर्घा : छाया चित्र.
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साभार.
लदाखी ग्रामीण सभ्यता की एक झलक : फोटो स्टैंज़िन लदाख |
सुबह की शुरुआत , सुंदरबन से : फोटो कमलेन्दु कलकत्ता
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कंडाघाट, शिमला में ढ़लती शाम : फ़ोटो सूरज. |
राजदरी फॉल , वाराणसी : फोटो नीलम पांडेय. -------------------- |
तारा देवी मंदिर : शिमला. फोटो : नितिन -------------------- |
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पृष्ठ ६.कला दीर्घा : चित्रकला.
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अभिव्यक्ति : कला. अनुभूति सिन्हा : शिमला |
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पृष्ठ ७. यात्रा संस्मरण .
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नेपाल की दिल छू लेने वाली जगह है पोखरा.
अविनाश कुमार / नेपाल . संवाद सूत्र .काफी दिनों से मुझे घुटन महसूस हो रही थी। सालों से इस कोरोना की बजह से मैं घर में जैसे क़ैद हो कर रह गया था। सोचा कहीं बाहर घूमने चलता हूं। मैंने इसके निमित ४-५ दिनों की छुट्टी भी ऑफिस से ली । और नेपाल स्थित पोखरा घूमने के लिए निकल गया। जानकारियां हासिल की और पता भी कर लिया था कि काठमांडू के बाद पोखरा ही घूमने के लिए सर्वोत्तम जग़ह है । तय हो गया कि पोखरा ही चलेंगे। काठमांडू पहुंचने के बाद हमलोगों ने वहां के स्थानीय नेपाली लोगों के साथ मिल बैठ कर बात की।
कैसे पहुंचे : उन्होंने बताया कि नेपाल में पोखरा ही घूमने के लिए सबसे बढ़िया व उत्तम जगह है और हम लोग पोखरा घूमने के लिए निकल पड़े । कुछेक ७ से ८ घंटे बाद हम सभी काठमांडू से चलते हुए
तक़रीबन २०० किलोमीटर की दूरी तय करते हुए हम नेपाल के दूसरे बड़े शहर पोखरा पहुंच चुके थे
जिसकी समुद्र तल से ऊंचाई ८२२ मीटर थी ।
पटना ,लखनऊ ,दिल्ली से काठमांडू की नियमित विमान सेवाएं हैं हम पोखरा के लिए सड़क मार्ग का भी प्रयोग कर सकते हैं ।
यह शहर पश्चिम में गण्डकी अंचल के कास्की जिला में स्थित है । वहां का मनभावन प्राकृतिक दृश्य इतना ही खूबसूरत है कि हम लोगों को यत्र तत्र घूमने में काफी सुखद अनुभूति हुई थी ।
पहवा झील : के चारों तरफ़ ही पोखरा शहर बसा हुआ है। याद करते है एक बड़ी , शांत व डरावनी झील थी जहां हम लोगों को घूमने में काफी आनंद आया था । यह वही गहरी झील है जहाँ कभी नौका दौड़ की प्रतियोगिताएं भी आयोजित करवाई जाती हैं । हमने पोखरा झील में नौका विहार के लिए १६०० भारतीय रुपए ख़र्च कर एक नाव किराए पर ली।
झील में लगभग १ घंटे के लिए वोटिंग करते हुए काफी दूर तक गए। बड़ी विशालकाय झील थी यह।काफ़ी बड़े क्षेत्रफल में फैली हुई थी इस झील की लंबाई लगभग ७ किलोमीटर के जैसी थी।
झीलों का शहर : पोखरा. फोटो इंटरनेट से साभार |
ताल बराही मंदिर : झील के मध्य में एक बहुत खूबसूरत सा मंदिर भी बना हुआ था जो दो मंजिला था जहाँ हम लोगों ने परिक्रमा कर मंदिर में पूजा भी की थी । यह एक हिन्दू मंदिर है जो मां दुर्गा ( बराही ) को समर्पित है अतः हिन्दू भक्त गण इस मंदिर के दर्शन करने जरुर आते है ।
रोमांच से भरा हवाई सफ़र : फिर हम लोगों ने सोचा कि अल्ट्रा फ्लाइट के जरिए पूरे पोखरा को ही देख लेते है। हमें आनन्द मिश्रित डर भी सता रहा था। फ़िर भी हम तो कहेंगे कि आप जब कभी भी पोखरा जाए तो अल्ट्रा फ्लाइट की हवाई यात्रा अवश्य करें। चूँकि हम लोगों के पास समय ज्यादा नहीं था इसीलिए हम लोगों ने तय किया कि पोखरा आसमान से ही देख लेते है। कम समय में पूरी यात्रा हो जाएगी। फिर हम लोग शीघ्रता से पार्श्व में बने एयरपोर्ट तक गए, और वहां से हम लोगों ने जरूरी टिकट हासिल किए और अल्ट्रा लाइट हवाई यान पर सवार होने के लिए के लिए आगे बढ़े। जब हम बादलों के मध्य थे , ऊंचाई बढ़ती गयी थी तब उपर से नीचे का इतना सुंदर नजारा था कि बता नहीं सकता। उपर से नीचे देखने में पोखरा अत्यंत खुबसूरत लग रहा था। पसरी झील उपर से सिमटी हुई कटोरे में दिख रही थी। लगभग मैंने १५ मिनट तक हवा में परिभ्रमण किया पंछियों की भांति उड़ान लेते रहे । बताते चले मुझे इस अल्ट्रा फ्लाइट के लिए १९००० भारतीय रुपए ख़र्च करने पड़े थे। बड़ा महंगा शौक था यह। १५ मिनट की उड़ान के बाद हम फ़िर से आसमां से ज़मीन पर लौट आये थे। कभी भी न भूलने वाला रोमांचक हवाई सफ़र था यह। अभी भी मैं रह रह कर याद करता हूँ। मैं चाहूंगा अन्य भी जब कभी छुट्टी लेकर नेपाल जाए , तो एक बार पोखरा घूमने जाएं यदि आप ख़र्च उठा सकते है तो पंछी बन कर हवा में ज़रूर उड़े ।
मीडिया फीचर डेस्क
डॉ. सुनीता सिन्हा.
आज मल्होत्रा जी के इकलौते बेटे वैभव का जन्मदिन है । वो आज पूरे अड़तीस साल का हो जायेगा। मल्होत्रा जी ब्लॉक ऑफिस में क्लर्क की नौकरी करते थे। तनख्वाह भी ज्यादा नहीं थी पर उन्होंने बेटे की परवरिश में कभी कोई कोर-कसर नहीं रखा । स्कूल क्या उसके कॉलेज जाने तक सुबह उठकर पॉलिश कर बेटे के जूते चमकाना वे कभी नहीं भूले । गर्मी में साइकिल से स्कूल जाने में दिक्कत होती है,समय भी ज्यादा लगता है । यह सोचकर जीपीएफ से लोन लेकर उसके लिये स्कूटर खरीदा और एजुकेशन लोन
लेकर उसे इंजीनियरिंग कराया । वे सभी को यह कहते फूले नहीं समाते थे कि इंजीनियर बनते ही उनके बेटे को कनाडा में बड़ी सी नौकरी मिल गई है ।
फोटो नेट से साभार. |
आज उसी का जन्मदिन है । उसके जन्मदिन पर घर में नियम से सत्यनारायण स्वामी की कथा होती थी और पति-पत्नी पूरे नियम से व्रत रखते थे ।
बेटा धीरे धीरे अपनी नौकरी में मशरूफ होता चला गया और वे धीमे धीमे बूढ़े और कमजोर । बीपी, अस्थमा और शुगर ने उन्हें घेर लिया । याददाश्त भी थोड़ी कम हो चली थी । लेकिन बेटे का जन्मदिन मनाना वे कभी नहीं भूले । हां इस दौरान उन्होंने स्मार्टफोन चलाना सीख लिया और यह सीखा भी इस वजह से कि विदेश में काम कर रहे बेटे से उसकी मां की बात करा सकें । वीडियो कॉल पर अपने बेटे की चलती फिरती फोटो देख दोनों पति-पत्नी पागलों की तरह खुश हो उठते थे ।
कोई कितना भी उन्हें समझाये कि इस उम्र में व्रत रखना ठीक नहीं लेकिन इकलौते बेटे की मंगल कामना के सामने ये सब खतरे उनके लिए कोई मायने नहीं रखते थे । अड़तीस का होने वाला बेटा जो आज खुद दो बच्चों का बाप बन चुका है, आज भी उनके लिए उनकी उंगली पकड़कर स्कूल जाने वाला छोटा सा विभु ही था । आज भी उसी तरह धूम धाम से सत्यनारायण भगवान की कथा हुई, पुरोहित को सामर्थ्य भर दान दिया गया और पड़ोस के अनाथालाय में बेसहारा बच्चों को टॉफी बिस्कुट, खिलौने बांटे गये ।
लेकिन आज उनका मन एक बुरी आशंका को लेकर विचलित था । आज आरती के समय वीडियो कॉल पर वैभव पूजा में शरीक नहीं हो पाया था ।
कॉल तो उन्होंने लगाया था, पर उधर से " बिजी, इन अ मीटिंग, कैच यू सून " का टेम्पलेट मैसेज आकर फोन कट गया ।
सुशीला जी का मन उदास हो गया । उनका मन पढ़ने में उन्हें तनिक भी देरी नहीं लगी ।
"अरे ! पूजा में खुशी-खुशी बैठते हैं नहीं तो भगवान जी नाराज हो जाते हैं और फिर ये सोचो उस बेचारे पर काम का कितना बोझ है । उसे भी तो बुरा लग रहा होगा । भगवान का आशीर्वाद वो नहीं ले पाया तो क्या हुआ ? हम तो हैं ।"
मल्होत्रा जी के शब्दों ने माँ के परेशानहाल दिल पर ठंडे पानी की कुछ बूंदे डाल दिया ।
दोनों पति-पत्नी ने बेटे की ओर से आरती लिया और पूरे सौ रुपए उसकी तरफ से पूजा की थाल में रखे । पड़ोस में रहने वाले आलोक की बहु दीप्ति से आरती का वीडियो बनवाया और कार्यक्रम संपन्न होने के फौरन बाद वीडियो क्लिप वैभव को व्हाट्सएप पर शेयर कर दिया ताकि जल्द से जल्द भगवान का आशीर्वाद उसे मिल जाये ।
सुबह संपन्न हुई पूजा के बाद दोपहर बीता, शाम ढली और अब रात होने को आई लेकिन बेटे का जवाब नहीं आया । वे बार-बार मोबाइल चेक करते लेकिन हर बार उन्हें निराशा ही हाथ लग रही थी । जवाब तो दूर, उनका भेजा हुआ मैसेज भी अभी तक देखा ही नहीं गया था जबकि डबल टिक का निशान बराबर से लगा था ।
"यह निशान ब्लू क्यों नहीं हो रहा ?" यह सोचकर जैसे-जैसे रात गहरी होती जा रही थी, न चाहते हुये भी बुरे-बुरे ख्याल उनके मन में आते जा रहे थे । मन ही मन अनगिनत बार उन्होंने महामृत्युंजय मंत्र का जाप भी कर डाला ।
संध्या आरती के समय उन्होंने गौर किया कि आरती के बाद काफी देर तक सुशीला भगवान के सामने चुपचाप बैठी थी । वे समझ गए कि बेटे की रक्षा के लिए वह भगवान से प्रार्थना कर रही है । रात काफी हो गई थी । कब तक कमरे में टहलते हुए चक्कर काटते आखिरकार थक कर बिस्तर पर आकर सुशीला के बगल में आकर वे लेट गए । पर नींद ! उसके आने का तो सवाल ही नहीं पैदा होता था । लगभग साढ़े ग्यारह बजे मोबाइल की नोटिफिकेशन कॉल बजी ।
बिजली सी फुर्ती से उठकर फोन चेक किया, देखा तो मैसेज वैभव का ही था । सुबह से हलक में अटकी जान वापस अपनी जगह दिल में लौट आई।
इधर भला माँ का मन भी कहाँ मानने वाला था । वे भी झट से बिस्तर से उठकर फोन में झांकने लगीं, " क्या लिखा है बाबू ने ? सब ठीक है न ।"
"हां, हां । थोड़ा धीरज रखो । बताता हूं, बताता हूँ ।" नाक पर चश्मा चढ़ाकर मल्होत्रा जी ने मैसेज को क्लिक किया ।
क्लिक करते ही एक फॉरवर्डेड पिक्चर मैसेज खुलकर सामने आ गया, लिखा था,"थैंक यू । ऑसम ।"
"और क्या लिखा है ?" सुबह से आस लगाई मां का दिल सारा का सारा मैसेज एक बार में जानने को बेचैन हो रहा था ।
मल्होत्रा जी ने उंगली से स्क्रीन को उपर सरकाने की कई बार कोशिश किया। नहीं, नीचे कुछ भी नहीं था । उनका चेहरा बुझ सा गया।
पर अगले ही क्षण खुद को संभालते ही सुशीला जी को समझाने लगे,
" चलो सो जाओ । कितना जवाब दे, बेचारा । थक कर सो गया होगा । मैसेज आ गया न । इसका माने चिंता की कोई बात नहीं है । "
एक मां के दिल को दिलासा देते हुये मोबाइल को सिरहाने रख वे सोने का उपक्रम करने लगे ।
चिरंजीव सिन्हा. ( संरक्षक )
ए.डी.सी.पी. लखनऊ.
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पृष्ठ ९.मुझे भी कुछ कहना है.
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मनोरंजन : संक्षिप्त वीडियो क्लिप के प्ले दवाएं.अनिल खेमे, रायपुर
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पृष्ठ १०.व्यंग्य चित्र .
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संपादन : डॉ.मधुप |
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पृष्ठ ११.आपने कहा.
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संपादन : रंजीता.
वीर गंज, नेपाल
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आज बच्चों को शोर मचाने दो
कल जब ये बड़े हो जाएँगे
ख़ामोश ज़िंदगी बिताएँगे
हम-तुम जैसे बन जाएँगे
गेंदों से तोड़ने दो शीशें
कल जब ये बड़े हो जाएँगे
दिल तोड़ेंगे या ख़ुद टूट जाएँगे
हम-तुम जैसे बन जाएँगे
बोलने दो बेहिसाब इन्हें
कल जब ये बड़े हो जाएँगे
इनके भी होंठ सिल जाएँगे
हम-तुम जैसे बन जाएँगे
दोस्तों संग छुट्टियों मनाने दो
कल जब ये बड़े हो जाएँगे
दोस्ती-छुट्टी को तरस जाएँगे
हम-तुम जैसे बन जाएँगे
भरने दो इन्हें सपनों की उड़ान
कल जब ये बड़े हो जाएँगे
पर इनके भी कट जाएँगे
हम-तुम जैसे बन जाएँगे
बनाने दो इन्हें काग़ज़ की कश्ती
कल जब ये बड़े हो जाएँगे
ऑफ़िस के काग़ज़ों में खो जाएँगे
हम-तुम जैसे बन जाएँगे
खाने दो जो दिल चाहे इनका
कल जब ये बड़े हो जाएँगे
हर दाने की कैलोरी गिनाएँगे
हम-तुम जैसे बन जाएँगे
रहने दो आज मासूम इन्हें
कल जब ये बड़े हो जाएँगे
ये भी “समझदार” हो जाएँगे
हम-तुम जैसे बन जाएँगे !!!
जंगल और जीव.
जंगल में पैदा लिया,
पला - बढ़ा भी जंगल में,
हुआ जंगल से भी बड़ा,
एक जीव .
वह जीव ज्यों - ज्यों बढ़ता गया,
जंगल त्यों- त्यों सिमटने लगा .
अब वह जीव परेशान है
और जंगल खुश .
न रहेगा जंगल,
न पैदा लेंगे ऐसे जीव .
राजेश रंजन वर्मा
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माँ
जो माँ की थपकियां मिलती, तो जन्नत का मजा मिलता,
खिलौना जब कोई टूटे, तो दूजा फिर नया मिलता.
तेरे आँचल की छाया में पला, अभिमान मेरी माँ,
धरा से आसमां तक है, तू ही पहचान मेरी माँ.
मेरी उंगली पकड़कर, माँ ने चलना सिखाया था,
जरूरत जब पड़ी उसको, तो मैं मुंह फेर आया था.
तेरे उपकार का बदला, चुकाया जो नहीं मैंने,
तो है धिक्कार मुझ पर भी, कि मुझको क्यों जना तूने.
न माँ होती अभागे तो, जनम तुझको कहाँ मिलता,
जो देती गर्भ माँ ना तो, भटकता जिंदगी भर को.
(पहली अभिव्यक्ति )
अनुपम चौहान
संपादक, समर सलिल.
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मां.
तेरे रूप अनेक,
तू धरती है,
तू जननी है,
तू पालनहार है.
बिन मां के जग सूना,
मां तेरा क्या कहना,
मां है तो सावन है,
मां है तो हरियाली है.
मां है तो मुस्कान है,
मां है तो संसार है,
मां ज्ञान है,
मां अनुभव है,
मां आशीर्वाद है,
मां एक सरल शब्द है.
मां रक्षक है,
मां वृक्ष है,
मां सहारा है,
मां प्रिय है,
मां एक घर की रानी है.
( दूसरी अभिव्यक्ति )
नमिता सिंह.
रानीखेत
Nice page
ReplyDeleteNice page
ReplyDeleteBANGALORE
Nice, Full of Information.
ReplyDeleteIt is a great literary page.Photo and Art gallery too excellent
ReplyDeleteमैगज़ीन काफी सुरुचिपूर्ण है डाक्टर रमन..
ReplyDeleteIt is a very interesting and informative page
ReplyDeleteAll sections are interesting. Nice
ReplyDeleteसाहित्य सर्जना के क्षेत्र में सराहनीय भूमिका । मुद्रण प्रस्तुति साज सज्जा
ReplyDeleteअति सराहनीय। हम बेहतरीन रचनाएँ
देने का आश्वासन देते है।।
हृदयाभिवादन।
डा. रमण जी को अनन्त शुभकामनाएँ ।
मैं तो आश्चर्य चकित हू। गागर में सागर जैसे लेख और सुंदर भावपूर्ण चित्र जो अपने मे हज़ारों शब्दो को समेटे हुए, दिल और दिमाग दोनों को सम्पूर्णता का अहसास देता है।
ReplyDeleteएक संपूर्ण डिजीटल पत्रिका।
मेरा आपको नमन
Bahoot achha
ReplyDeleteअति सुंदर प्रयास हैं l सभी लेखकों ,संपादक मंडल के सभी सदस्यों को हृदय से आभार l विशेष रूप से मधुप सर को इस कार्य के लिए नमन l
ReplyDeleteसारगर्भित एवं पठनीय मैगजीन .. फोटो गैलरी भी अति सुन्दर ..
ReplyDeleteInstrumental video is played very nicely .
ReplyDeleteVery nice literary pages about our hindi ancestors
ReplyDeletePratyesh Mussoorie
साहित्य सर्जना के विभिन्न विधाओं और आयामों को दिखाने वाली एक बेहतरीन
ReplyDeleteपत्रिका जो देश के कोने-कोने से कलमकारों को खोजकर निकालती और
दिखाती है।
अनन्त शुभकामनाएँ ।
अशेष मंगलकामनाएँ ।
It proves to be a great literary page
ReplyDeleteIt's really great 👍
ReplyDeleteVery nice blog sir
ReplyDeleteThis is amazing,the way of presentation is great. Thank you sir for making me a part of this family.
ReplyDeleteInspiring me and become a part of family..Dil se
ReplyDeletebehad hi rochak aur janakri se bhra hua
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