मन्दाकिनी की ख़ोज में

                 
  ए एम  तथा  प्रथम मीडिया के सौजन्य से 
   

 डॉ मधुप रमण ( व्यंग्य चित्रकार ,ब्लॉगर,यूटूबर )
 मन्दाकिनी की ख़ोज में  । उत्तराखंड यात्रा वृतांत २  


     

(...उतराखंड में पहाड़ पर आए महाप्रलय जो सन २०१३ में आया था,से विशेषतः केदारनाथ मंदिर परिसर तथा केदार घाटी में अपूरणीय क्षति हुई थी। इस महाप्रलय से कुछेक दिन पहले मैं हरिद्वार,ऋषिकेश,श्रीनगर,गोविंदघाट,फूलों की घाटी,हेमकुंड साहेब ,बदरीनाथ,केदारनाथ की यात्रा पर था यात्रा संस्मरण के दौरान ही इन जगहों की रोचक, अद्यतन स्थिति की तथ्यपूर्ण जानकारियाँ  मैंने इकठ्ठी की थी जो मैं आप तक पहुंचा रहा हूं जिससे आप पाठक जन लाभान्वित ही होंगे ऐसा मेरा विश्वास है



   धारावाहिक यात्रा वृतांत।  मन्दाकिनी की ख़ोज में  । 

चित्र इंटरनेट से साभार। मन्दाकिनी नदी 
     अंक १  
    आरम्भ : जीवन एक अंतहीन सफ़र है जो कभी भी ,किसी के लिए रुकता नहीं है। मुकाम आता है ,नए यात्री आते हैं,पुराने चले जाते हैं  । तकती आँखों से हम उन्हें दूर चले जाते हुए भी देखते है। लेकिन वह पीछे देखते भी नहीं। अल्प विराम होता है। फ़िर वही भागदौड़। क्या सफ़र रुकता भी है कहीं ,नहीं ना । रुको नहीं ,थको नहीं ,बढ़े चलो,बढ़े चलो,क्योंकि जीवन चलने का ही नाम मात्र  है। हम भी रुकते नहीं है।  किसी दूसरे मुक़ाम के लिए आगे बढ़ते है । इस बार हम मन्दाकिनी तक के लिए प्रस्थित होंगे । हमने अलकनंदा की ख़ोज तो मुक्कमल कर ली थी कब से मन्दाकिनी हमें बाहें फैलाये बुला रही थी। एक धुन जैसे कानों में बज रही थी  '.... मेरे ही पास तुझे आना हैं ,तेरे ही पास मुझे जाना है.....'  
      और हम मन्दाकिनी की ख़ोज में निकल गए थे। यह वही मन्दाकिनी हैं जो कहीं केदारनाथ में  चोरवाड़ी गांव में ग्लेशियर के आस पास रहती है। यह वह जग़ह है जहां फ़रिश्तें रहतें है,प्रकृति उसका साथ देती है। सुनते है अपने भोले शंकर भी वहीं कहीं रहतें हैं। अलहड़ सी अलवेली सी सुनते है मन्दाकिनी बहुत ख़ूबसूरत है। गंगा,अलकनंदा  की छोटी बहन है मन्दाकिनी जिसका बचपन केदार की घाटियों में बीता । तो चलिए इस अनजाने सफ़र की शुरुआत करते है जहाँ हम मन्दाकिनी की तलाश करेंगे । वह कहां रहती हैं ..,कहां वह पली बढ़ी ..कैसे वह अलकनंदा से मिली हम सब कुछ जानने समझने की कोशिश करेंगे।  उम्मीद करता हूं आपका साथ बना रहेगा। ऐसा ही हो इस उम्मीद के साथ। 
     हम न केवल मन्दाकिनी नदी के श्रोत तक़ पहुंचेगें बल्कि इस नदी से जुड़ी  सभ्यता संस्कृति के बारें में भी महत्वपूर्ण जानकारियां हासिल भी करेंगे। रास्ते के पत्थर जो हमारे पड़ाव होंगे वही हमारा ठहराव भी होगा। यह एक शहर होगा  जिसके बारें में आपको और हमें जानना जरुरी होगा।     
     ......गाड़ी अपनी पूरी रफ़्तार में थी। नदी नाले ग्लेशियर अब तक़ साथ ही दिख रहें थे।  पिछले यात्रा में हम बद्रीनाथ से आगे निकल चुके थे और जोशी मठ पहुंचने ही वाले थे। जोशी मठ के आगे से ही हमलोग मन्दाकिनी के लिए मुड़ेंगे।  
    सतोपंथ बद्रीनाथ से ठीक पश्चिम में अवस्थित केदारनाथ की आकाशीय दूरी मात्र तक़रीबन ४१ किलोमीटर की है। सिर्फ़ सतोपंथ के पर्वत के उस पार हैं केदार पर्वत वहीं कहीं मन्दाकिनी रहतीं हुई निकलती हैं। हम पर्वत लांघ नहीं सकते इसलिए हमें ज़मीनी फासलें तय करना होगा। और यह दूरी है २१८ किलोमीटर की।  


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 धारावाहिक यात्रा वृतांत।  मन्दाकिनी की ख़ोज में  । 
 १४/०५/२०२०। गतांक से आगे २। 









   रूपकुंड का रहस्य हनुमान चट्टी ,पांडुकेश्वर से आगे बढ़ते ही गोविन्द घाट आ गया था । हमलोग अभी चमोली जिले के हद में ही थे। सच कहें तो हमारी सभी पसंदीदा जग़हें चमोली में ही हैं। सतोपंथ ,माना गांव ,बद्रीनाथ ,फूलों की घाटी ,हेमकुंड ,औली और सबसे अंत में रूपकुंड भी। यहाँ देखने लायक़ बहुत सारे दर्शनीय स्थल हैं। आगे बढ़ते ही कुछ लगा छूट गया है। पीछे बैठे डॉ प्रशांत से पूछा ,....क्यों बड़े भाई हाथी पर्वत के काक भुसुंडि ताल तक़ नहीं चलेंगे ..आपके के लिए तो कुछ भी नहीं हैं। जो व्यक्ति रूप कुंड की विषम चढ़ाई के लिए हिम्मत रखता है ,उसके लिए तो यह हाथी पर्वत के काक भुसुंडि ताल तक़ पहुंचना तो बच्चों के खेल जैसा ही है...' रूप कुंड की हम आपस में बड़ी चर्चा करते थे । मन ही मन में यह तय कर लिया था कि कभी हिम्मत और तैयारी साथ रहेगी तो रूप कुंड तक़ जरूर जाऊंगा।
   रूपकुंड  हालांकि मैंने तो नहीं लेकिन आगे के दो तीन साल में मेरे सहयोगी डॉ प्रशांत ने सही में उत्तराखंड के चमोली ज़िले में स्थित इस मानव कंकालों से भरी ,दुनिया की सबसे रहस्यमयी झील की सबसे कठिन चढ़ाई पूरी कर ही ली थी। मैं इनकी हिम्मत की दाद देता हूं। मैं कब जा पाता हूं ,लगता है भविष्य की बात ही बन कर रह जाएंगी । अगर आप हौसला रखतें है ,स्वस्थ्य है ,सांसों पर नियंत्रण है तो इस झील तक़ की ट्रेकिंग जरूर करें लेकिन अनुभवी ट्रेकर के साथ ही जाएं।
कंकालों की झील ,रूपकुंड ,अनसुलझी रहस्य। चित्र इंटरनेट से साभार। 


   हमारी बड़ी इच्छा थी कि रूपकुंड तक़ भी जाऊं लेक़िन सब जगहें इतने कम समय में देख ली ही जाए संभव नहीं। इस रूप कुंड की यात्रा कोई सुगम यात्रा नहीं थी इसके लिए हमें अतिरिक्त समय और ठंढ के लिए विशेष जैकेट ,दास्तानें ,जुत्तें मोज़े और पर्वतारोहियों वाला चश्मा भी चाहिए था। और हम उसकी तैयारी कर नहीं आये थे।
    स्थिति मुर्दों की यह झील उत्तराखंड के चमोली जिले में त्रिशूल ,ऊंचाई ७१२० मीटर  और नंदा घुंटी ऊंचाई ६३१० मीटर पर्वत चोटियों के तल में ही स्थित है जो सालों भर बर्फ़ में जमी होती  है। कंकाल झील' के नाम से मशहूर यह झील हिमालय पर लगभग ,५०२९ मीटर की ऊंचाई पर स्थित है।  हर साल जब भी सितम्बर के महीने में बर्फ पिघलती है तो यहां कई सौ खोपड़ियां देखी जा सकती हैं। 
   कई कहानियां दफ़न हैं इस झील की गहराई में। इस रूपकुंड से सम्बंधित कई दन्त कथाएं सुनने को मिली।   कश्‍मीर के जनरल जोरावर की कहानी पहले कहा जाता था कहा जाता था कि यह खोपड़िया कश्‍मीर के जनरल जोरावर सिंह और उसके आदमियों की हैं, जो १८४१ में तिब्‍बत के युद्ध से लौट रहें थे,खराब मौसम की जद में आ जाने की बजह से उनकों और उनके पलटन को अपनी जान गवांनी पड़ी थी। ऐसी कई और भी कहानियां दफ़न है इस झील की गहराई में। घोड़े और मानवों के मिलने वाले कंकालों से जाने वालों की रूहें कांपती हैं। डर लगता है।  
   वैज्ञानिकों के तथ्य रूपकुंड के पास अभी भी आपकों अस्थियां व कंकाल मिलेंगी। खोपड़ियों में  पाए गए फ्रैक्चर के निशान और उसके अध्ययन के बाद,में वैज्ञानिकों ने यह तथ्य निर्धारित किया कि लोग बीमारी से नहीं बल्कि अचानक से आये हिम पात,ओला वृष्टि में आंधी से मरे थे। ये ओले,आकार में गेंदों के जितने बड़े थे और खुले हिमालय में कहीं कोई आश्रय न मिलने के कारण सभी मृत्यु को प्राप्त कर गये थे । कम घनत्व वाली हवा और बर्फीले वातावरण के कारण,कई लाशें भली भांति कई सालों तक़ संरक्षित रही ,जो आज भी अभी भी सितम्बर के महीने जब बर्फ़ पिघल जाती है तो रास्तें में मांस युक्त हाथ,पैर.खाल और केशों वाली खोपड़ियां मिलती है। उस क्षेत्र में भूस्खलन के साथ, कुछ लाशें बह कर झील में चली गयी थी जिनके नर कंकाल झील की सतह पर अब भी दिखती हैं । जो बात निर्धारित नहीं हो सकी वह यह है कि, इतनी ऊंचाई पर अस्थि अवशेष कैसे मिले। लोगों यह समूह आखिर कहाँ जा रहा था ?
   तिब्बत से व्यापार का अंदेशा इस क्षेत्र में तिब्बत  के लिए व्यापार मार्ग होने का कोई ऐतिहासिक सबूत नहीं है जिससे हम यह अनुमान लगा सके कि ये सभी यात्री व्यापारी  रहें होंगे और उनके साथ यह घटना हुई होगी।  
  नंदा देवी राज जाट उत्सव एक अंदाजा यह भी लगाया जा सकता है कि रूपकुंड,नंदा देवी पंथ की महत्वपूर्ण तीर्थ यात्रा के मार्ग पर स्थित है जहां  नंदा देवी राज जाट उत्सव लगभग प्रति १२ वर्षों में एक बार मनाया जाता था। हो सकता है इस तीर्थ यात्रा के समय अकस्मात आयी विपदा मैं श्रदालुओं ने अपनी जान गंवाई हो। 
   पत्थर नचनी एक जग़ह हैं जो रूपकुंड के ट्रेकिंग के रास्तें में पड़ता हैं कालू विनायक से थोड़ा पीछे। समझा जाता है यहीं का कोई स्थानीय राजा जो अपने लश्कर के साथ यहाँ नंदा देवी राज जाट उत्सव में भाग लेने के लिए जा रहा था। राजसी ठाठ बाट का पूरा इंतज़ाम था । रास्तें में इस धर्म  यात्रा के मध्य  राजा के मनोरंजन के लिए नर्तकियों ने ,गायन वादन के साथ साथ नृत्य की प्रस्तुति की थी ,मदिरा का भी सेवन हुआ था । कहते है पहाड़ों की देवी नंदा देवी कुपित हो गयी और शीघ्र ही उन्होंने यह प्राकृतिक आपदा की स्थिति पैदा कर दी  जिसमें राजा मय पत्नी समेत अपने दरबारियों के साथ व्यर्थ ही जान गंवानी पड़ी। डॉ प्रशांत के कहे अनुसार अभी भी पत्थर नचनी में घुंघुरुओं की आवाजें सुनाई देती है। वह रूपकुंड में एकाध घंटे रुके थे और जुनार गली तक़ भी गए थे।   


रूह कंपाने वाली बर्फ़ानी झील पहुंचने का मार्ग। चित्र इंटरनेट से साभार 

  
   पहुंचने के रास्तें  सबसे पहले मार्ग १.काठगोदाम ,अलमोड़ा, गरूड़ , ग्वालदम ,देवाल (१२२० मी ) - बगरीगाड़ (१८९० मी.),मुन्दोली गांव,लोहाजंग पास गांव (२५९० मी.),वान,घरोली पाताल,बेदनी बुग्याल (३६६० मी),घोड़ा लोटनी ,पत्थर नचनी, कालू विनायक,बगुवाबासा,रूपकुंड,जुनारगली ,शिला-समुद्र, होमकुण्ड तक़ पहुंचा जा सकता है । यह रास्ता पर्यटक जो कलकत्ता,पटना,वाराणसी ,लखनऊ तथा बरेली से आ रहें हैं उनके लिए सुविधा जनक होगा। काठगोदाम से लोहा जंग गांव २२२ किलोमीटर दूर हैं जिसे हम आठ घंटें की ड्राइव में पूरी कर सकते है । 
  जबकि मार्ग संख्या २ राजस्थान ,गुजरात ,महाराष्ट्र से आने वाले ट्रेकर्स ,पर्यटकों  के लिए उपयुक्त है इसके  जरिए हरिद्वार,ऋषिकेश,देवप्रयाग,श्रीनगर गढ़वाल,कर्णप्रयाग ,थराली,देवाल ,वान ,घरोली पाताल ,बेदिनी बुग्याल ( ३६६० मी) घोड़ा लोटनी ,पत्थर नचनी ,कालू विनायक,बगुवाबासा,रूपकुंड ,जुनारगली, शिला-समुद्र ,होमकुंड तक़ जा सकते है । इसके लिए अतिरिक्त सात दिन चाहियें। 
   अर्थात हमें कर्णप्रयाग से उतर कर ही थराली गांव जाना होता और उसके बाद लोहाजंग या वान गांव से रूपकुंड तक़ के लिए हमें लगभग २७ से ज्यादा की  किलोमीटर से की ट्रेकिंग करनी होती। 

हमारे सहयात्री डॉ प्रशांत रूपकुंड के पास। 


  क्रमशः जारी ...........

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  धारावाहिक यात्रा वृतांत।  मन्दाकिनी की ख़ोज में  । 
  १५ /०५/२०२०। गतांक से आगे ३ । 

लौहजंग ,वान ,गांव  तथा वेदनी बुग्याल तथा अली बुग्याल के दृश्य। चित्र इंटरनेट से साभार 
  
    ट्रेकिंग के लिए भी हमारे पास दो ऑप्शंस होते हैं। एक तो हम लोहाजंग गांव से डिडना गांव तक नील गंगा पार करते हुए सात से आठ किलोमीटर की दूरी तय करें। हमें छह से सात घंटे लगेंगे इसके बाद डिडना गांव से हम अलीबुग्याल पहुंचते है जो अल्पाइन के खूबसूरत चरागाहों में से एक है। इसके मध्य हमें १० से ११ किलोमीटर की दूरी हमें तय करनी होती है। 
   अलीबुग्याल के बाद हम बेदनी बुग्याल से आगे घोड़ा लोटनी ,पत्थर नचुनि,कालू विनायक भगवाबासा,रूपकुंड ,जुनारगली, शिला-समुद्र ,होमकुंड तक़ पहुंचते है  । बेदनीबुग्याल के पास ही दूसरा रास्ता भी आ कर मिलता है। चूंकि यह रास्ता संक्षिप्त है इसलिए ट्रेकर्स की पसंद में है। मैं उन लोगों के लिए लोहाजंग से रूपकुंड की अनुमानित दूरी भी दे रहा हूं जो आसमां को भी कदमों से नापने का हौसला रखते हैं। 
    लोहाजंग से डिडना ६.५ किलोमीटर 
    डिडना से अलीबुग्याल १०.५ किलोमीटर 
    अलीबुग्याल से घोडालोटनी ८ किलोमीटर 
    घोडालोटनी से पत्थर नचुनि १.५ किलोमीटर 
    पत्थर नचुनि से कालू विनायक २ किलोमीटर 
    कालू विनायक से भगवाबासा १.५ किलोमीटर  
    भगवाबासा से रूपकुंड ३ किलोमीटर 
    रूपकुंड से जुनार गली पास ५ किलोमीटर  होता है। 
    रास्तें में नील गंगा ,रोहडेडेंड्रोन,ओक के जंगल ,अली बुग्याल से त्रिशूल और नंदा घूंटी की चोटियों की ख़ूबसूरती को देखना न भूले। जुनार गली से नंदा घुंटी और त्रिशूल एकदम से पास में होंगे।  


बेदनी कुंड ,पर्वत श्रृंखलाएं और कालू विनायक। चित्र इंटरनेट से साभार 

    दूसरा ऑप्शंस लोहाजंग से बान गांव से होते हुए घरोली पाताल पहुँचते हुए हम बेदनी बुग्याल तक़ पहुंचे। बेदनी बुग्याल के बाद घोड़ा लोटनी से थोड़ा पूर्व दोनों रास्तें एक हो जाते है। 
    लोहजंग से बान गांव १५ किलोमीटर
    बान गांव से घरौली पाताल ,८ किलोमीटर
    घरौली पाताल से बेदनी बुग्याल ३ किलोमीटर 
    बेदनी बुग्याल से घोड़ा  लोटनी २.५  किलोमीटर 
    घोडालोटनी से पत्थर नचुनि १.५ किलोमीटर 
    पत्थर नचुनि से कालू विनायक २ किलोमीटर 
    कालू विनायक से भगवाबासा १.५ किलोमीटर  
    भगवाबासा से रूपकुंड ३ किलोमीटर  
    रूपकुंड से जुनार गली पास ५ किलोमीटर  की लगभग दूरी तय करनी होती है। अमूमन पर्यटक जुनार गली पास तक ही जाते है इसके बाद वापस लौट आते हैं। 
    खोपड़ी देखनी है तो आपको एक जरुरी बात बता दे कि यदि आप रूप कुंड में कंकाल ,खोपड़ियां ,नख और मांस युक्त शरीर के टुकड़ें देखना चाहते है तो सितम्बर के महीने में झील देखने जाएं  आपको सैकड़ों खोपड़ियां झील की सतह पर दिख जाएंगी। अन्यथा यदि आप जून में आते हैं तो झील पूरी तरह से जमी होने के कारण शायद ही कुछ देखने को मिले। इसे हमें जरूर याद रखना चाहिए।  
   तापमान रूपकुंड के पास १ डिग्री तक होता है अतः आपके पास एक पर्वतरोही के जैसे ही तैयारी होनी चाहिए। बाकि रास्तें में आप १४ से १५ डिग्री तक के तापमान का आपको सामना करना होगा। 


रूपकुंड से डॉ प्रशांत ,हमारे मित्र ,सहयोगी ,सहयात्री।


 घोड़ा लोटनी के सन्दर्भ में उन्होंने एक जरुरी बात यह बताई कि यहाँ तक़ घोड़े वाले सामान लेकर आते हैं लेकिन इसके बाद विषम और खड़ी चढ़ाई शुरू होती है इसलिए इस स्थान से घोड़े वापस लौट जाते है इसलिए इस जग़ह को आम उक्ति में घोडालोटनी बोला गया।
   वेदनी बुग्याल से थोड़ा नीचे तक़ बी एस एन एल के फ़ोन काम करते हैं  उसके बाद आपका संपर्क पुरी दुनियां से कट जाता है। और आप भगवान के भरोसे होते हैं।
  क्रमशः जारी ...........


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 ०५  /०६ /२०२०। गतांक से आगे ४ । 
 पंच केदार के पांचवे केदार,कल्पेश्वर 


पंच केदार के पांचवे केदार ,कल्पेश्वर का दृश्य ,चित्र इंटरनेट से साभार 
   हेलंग आपको भलीभांति याद होगा जब हम बद्रीनाथ से केदारनाथ की तरफ़ लौट रहें थे तो हमने जोशीमठ से ८ किलोमीटर आगे हेलंग की बात की थी। हेलंग आपको हरिद्वार -ऋषिकेश -बदरीनाथ के मार्ग में मिलेगा। गोपेश्वर से इसकी स्थिति २४ किलोमीटर पूर्व की ठहरती है। इसी हेलंग के समीप १२ किलोमीटर की सीमा में हैं पंच केदार के पांचवे  केदार ,कल्पेश्वर जिसका दर्शन आप अवश्य करें। 
   आपको यह भी नहीं भूलना चाहिए कि ध्यांन बद्री भी इसी हेलंग की उरगम घाटी में ही स्थित है। 
   पंच केदार में केदारनाथ,तुंगनाथ ,रुद्रनाथ,मध्यमहेश्वर आदि गढ़वाल हिमालय के केदारखंड में ही आते है। सिर्फ कल्पेश्वर ही पांचवे केदार है जहां आप सालों भर जा सकते है। भगवान शंकर की भैंसे की पीठ की आकृति पिंड रूप में केदारनाथ  में पूजी जाती है। ऐसा कहा जाता है कि जब भगवान शिव भैंसे के रूप में पृथ्वी  के गर्भ में अंतर्ध्यान हुए तो उनके धड़ का ऊपरी भाग काठमांडू  में प्रकट हुआ, जहाँ पर 'पशुपतिनाथ' का मन्दिर है।भगवान शिव की भुजाएँ 'तुंगनाथ' में, नाभि 'मध्यमेश्वर' में, मुख 'रुद्रनाथ' में तथा जटा 'कल्पेश्वर' में प्रकट हुए। अतएव यह चार स्थल पंचकेदार के नाम से विख्यात हैं। इन चार स्थानों सहित श्री केदारनाथ को 'पंचकेदार' भी कहा जाता है।
   कैसे पहुंचे कल्पेश्वर पहुंचने के लिए आप सबसे पहले हेलंग पहुंच जाए। हेलंग से पहले उरगम होते हुए १२ किलोमीटर की ट्रेकिंग करनी होती थी,लेकिन अब देवग्राम तक़ सड़क बन गयी हैं जहां तक़ मोटर गाड़ियां चली जाती हैं। इसके बाद आपको महज़ ३०० मीटर की ट्रेकिंग करनी होगी। वैसे तो ट्रेकर के लिए १२ किलोमीटर की दूरी कुछ भी नहीं है वे पैदल भी इतनी दूरी तय कर सकते हैं। अर्थात पांचवे केदार कल्पेश्वर का दर्शन अब बड़े आराम से किया जा सकता है।
   उरगम से कल्पेश्वर जाते समय आपको कल्प गंगा मिलेगी जो अलकनंदा में जा कर समाहित हो जाती है। उरगम का इलाका जंगल का है यहाँ ढ़ेर सारे सेबों के बागान है। पहाड़ों में समतल की गयी भूमि पर आलू की खूब खेती होती है।    
   कल्पेश्वर मन्दिर उत्तराखंड  के प्रमुख धार्मिक स्थलों में से एक है। यह मन्दिर उर्गम घाटी में समुद्र  तल से लगभग २१३४ मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। इस मन्दिर में  हिन्दू धर्म में मान्य त्रिदेवों में से एक भगवान शिव,भोले शंकर के उलझे हुए बालों या कहे जटा की पूजा की जाती है। 
   कल्पेश्वर मन्दिर 'पंचकेदार' तीर्थ यात्रा में पाँचवें स्थान परआता है। ऊंचाई कम होने की वज़ह से वर्ष के किसी भी महीने में  यहाँ का दौरा किया जा सकता है तथा दर्शन लाभ लिया जा सकता है । इस छोटे-से पत्थर के मन्दिर में एक गुफ़ा के माध्यम से पहुँचा जा सकता है।
   शिव पुराण अनुसार ऋषि  दुर्वाशा जो क्रोध के प्रतीक समझे जाते थे,ने इसी स्थान पर वरदान देने वाले कल्प वृक्ष  के नीचे बैठकर कठोर तपस्या की थी, तब से यह वृक्ष 'कल्पेश्वर' कहलाने लगा। केदार खंड पुराण में  तभी से यह स्थान 'कल्पेश्वरनाथ' के नाम से भी प्रसिद्ध हो गया और लोगों की धर्म और आस्था का केंद्र हो गया ।
  मुख्य मन्दिर 'अनादिनाथ कल्पेश्वर महादेव' के नाम से प्रसिद्ध है। इस मन्दिर के समीप एक 'कलेवरकुंड' भी है। इस कुंड का पानी सदैव निर्मल  रहता है और यात्री लोग यहाँ से जल ग्रहण करते हैं। इस पवित्र जल को पी कर अनेक व्याधियों से मुक्ति पाते हैं ऐसी मान्यताएं भी । यहाँ साधु  लोग भगवान शिव  को अर्घ्य देने के लिए इस पवित्र जल का उपयोग करते हैं तथा पूर्व प्रण के अनुसार तपस्या भी करते हैं। तीर्थ यात्री पहाड़ पर स्थित इस मन्दिर में अर्चना  करते हैं। कल्पेश्वर का रास्ता एक गुफ़ा से होकर जाता है। मन्दिर तक पहुँचने के लिए गुफ़ा के अंदर लगभग एक किलोमीटर तक का रास्ता तय करना पड़ता है, जहाँ पहुँचकर तीर्थयात्री भगवान शिव की जटाओं की पूजा करते हैं।


क्रमशः जारी ...........



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 धारावाहिक यात्रा वृतांत।  मन्दाकिनी की ख़ोज में  । 
 ०६  /०६ /२०२०। गतांक से आगे ५ । 



चमोली के ख़ूबसूरत नजारें 
   आगे का सफ़र  चूंकि हमें समयाभाव की बजह से रूपकुंड नहीं जाना था इसलिए जोशीमठ से हेलंग ८  किलोमीटर,हेलंग से गौरगंगा १५ किलोमीटर ,गौरगंगा से पीपलकोठी ५ किलोमीटर ,पीपलकोठी से बिराही ९ किलोमीटर ,बिराही से चमोली ८ किलोमीटर ,चमोली से गोपेश्वर १० किलोमीटर ,गोपेश्वर से मंडल ८ किलोमीटर ,मंडल से चोपटा २७ किलोमीटर की दूरी तय करने के बाद हम चोपटा तक पहुंचने का मन बना चुके थे। 
   यदि हम चमोली से वापसी हरिद्वार के लिए जाना होता तो हम नीचे उतरना होता। चमोली से कर्णप्रयाग ३४ किलोमीटर की दूरी पर अवस्थित है। कर्ण प्रयाग से थराली होते हुए हम लोहजंग गांव पहुंच कर आगे रूपकुंड के लिए बढ़ सकते थे । हम केदार नाथ के मार्ग पर थे इसलिए हमें गोपेश्वर के लिए मुड़ना पड़ा। 
   गोपेश्वर : चमोली जिला मुख्यालय  गोपेश्वर एक महत्वपूर्ण  शहर है। १९६० में जब चमोली जिले  की स्थापना की घोषणा हुई, तो इसका मुख्यालय चमोली को बनाया गया। गोपेश्वर तब चमोली से १२ किलोमीटर की दूरी पर स्थित एक छोटा सा गाँव था। १९६३  में चमोली और गोपेश्वर को जोड़ती एक सड़क का निर्माण कार्य पूर्ण हुआ। 
 अलकनन्दा घाटी में बसा चमोली अक्सर बाढ़ की चपेट में आकर इसके दुष्परिणामों से प्रभावित रहता था। दूसरी बजह से घाटी में स्थित होने के कारण चमोली नगर का भौगोलिक विस्तार भी मुश्किल था। इन्हीं सब कारणों और ,कमियों पर गौर करते हुए जिले के मुख्यालय को अन्यत्र स्थानांतरित करने के प्रयास शुरू हो गए । 
गोपेश्वर की प्राकृतिक छटा ,शहर ,और गोपीनाथ मंदिर 
   आगे के विकास के अन्तर्गत १९६६ में गोपेश्वर ग्राम में राजकीय डिग्री कॉलेज खोला गया, और फिर १९६७ में इसे नगर का दर्जा दे दिया गया। पुनः २० जुलाई १९७० को अलकनंदा नदी में आयी एक बाढ़ में चमोली नगर का अल्कापुरी क्षेत्र पूरी तरह बह गया था । इस घटना के बाद जनपद के मुख्यालय तथा अन्य सभी महत्वपूर्ण कार्यालय गोपेश्वर में स्थापित कर दिए गए थे । 
  बतातें चलें १९७४  का चिपको आंदोलन  भी इस क्षेत्र की अति महत्वपूर्ण घटना मानी जाती है। अगले कुछ वर्षों में चमोली और गोपेश्वर नगरों को जोड़कर एकीकृत चमोली-गोपेश्वर नगर पालिका परिषद् का गठन किया गया,१९८१  की जनगणना के अनुसार जिसकी जनसंख्या ९७३४ थी। तब से गोपेश्वर गढवाल हिमालय स्थित जिला मुख्यालय होने के बाद यात्रा का एक महत्वपूर्ण पड़ाव बन चुका है। 
  दर्शनीय स्थलों में हम यहां भगवान शिव को समर्पित गोपीनाथ मंदिर,चमोलानाथ मंदिर,अनसूया देवी मंदिर,चन्द्रिका मंदिर जो महिसासुर मर्दिनी मंदिर के नाम से भी विदित है के दर्शन कर सकते है। 
  सगर एक गांव है जो गोपेश्वर से ३ -५ किलोमीटर दूर गोपेश्वर -उखीमठ रास्तें में अवस्थित है। यह पंच केदार में चौथे रूद्र नाथ मंदिर जाने के मध्य का बेस कैंप के तौर पर काम करता है। सगर गांव  से ही रूद्र नाथ मंदिर के लिए २२ किलोमीटर की चढ़ाई शुरू होती है। यहां राजा सगर के नाम पर भी एक मंदिर निर्मित हुआ है।  


क्रमशः जारी ...........

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 धारावाहिक यात्रा वृतांत।  मन्दाकिनी की ख़ोज में  । 




  




  ०७  /०६ /२०२०। गतांक से आगे ६ । 
  पंच केदार के चौथे केदार ,रुद्रनाथ
   यात्रा सतत जारी थी। जीवन चलने का ही नाम है ,इस चलने मात्र के क्रम में हमें पल भर के लिए रुकना भी होता है। रुक कर भी गतिमान बने रहने की सोच भी रखनी होती है। कैसे ? हम थके,विश्रामित हो ,पैर रुके ,कल्पनाएं नहीं। मनभावन दृश्यों का अवलोकन करते रहें ,पंक्तियाँ सृजित होती रहें। मन ही मन कथा ,कहानी ,काव्य की सुन्दरतम रचना होती रहें यही तो सततता है। मध्य ही कई ठहराव आते  हैं। और हमें  यात्रा की सरसता के लिए रुकना भी है । और इस बार हम पंच केदार के चौथे केदार रुद्रनाथ के निकट थे अतएव  जानकारी इकठ्ठी करने लिए रुकते है।  
    इस यात्रा के क्रम में हम आपको उन तमाम पर्यटन स्थलों की जानकारी दे रहें हैं। मेरी कोशिश भी यही है कि आप जब कभी भी इस रास्ते से गुजरें तो आपको निकटतम बिंदुओं से उस पर्यटन स्थल की जानकारी स्वतः उपलब्ध हो जाए।आप जान ले कि आप किस महत्वपूर्ण पर्यटन स्थल के पास से गुजर रहें है। आपको देखना है या नहीं यह फ़ैसला तो आपका होगा। 
   ५ किलोमीटर के फासले पर सागर गांव से गुजरते हुए लगा कि हमें  आपको पंच केदार में से एक केदार रूद्र नाथ के बारे में बतला देना चाहिए। इसलिए हम यहाँ जानकारी संकलित करने के लिए रुकते है। 


रुद्रनाथ के ट्रेकिंग के रास्तें ,नंदी कुंड तथा पनार बुगियाल का दृश्य 
   रुद्रनाथ गांव हम रूद्र नाथ के लिए उत्तराखंड के चमोली जिले का एक जाना माना गाँव के पास पहुंचते है। यह स्थान समुद्र तल से २२८६  मीटर की ऊंचाई पर अवस्थित है और बर्फ से ढकी हुई हिमालय की तमाम चोटियां  का अद्भुत दृश्य  प्रदान करता है। हाथी पर्वत,नंदा देवी,नंदा घुंटी,और त्रिशूल आदि कई सुंदर चोटियों को इस पवित्र स्थान से देखा जा सकता है।रुद्रनाथ शब्द का मतलब होता है वह व्यक्ति जिसे गुस्सा आता है। यह गाँव अपने रुद्रनाथ मंदिर के कारण जाना जाता है तथा जो  पंच केदार तीर्थयात्रा में चौथे  नंबर पर आता है। 
  पंच केदार इस सर्किल के चार अन्य मन्दिर केदारनाथ मंदिर,तुंगनाथ मंदिर,मध्यमहेश्वर मंदिर, और कल्पेश्वर मंदिर आदि हैं। रुद्रनाथ मंदिर भगवान शिव को समर्पित है जिनकी यहाँ पर नीलकंठ महादेव के रूप में पूजा की जाती है।
  मान्यताओं के अनुसार यह मंदिर पांडवों के द्वारा बनाया गया था। कहानी के अनुसार पांडव स्वयं में अपराध बोध से ग्रस्त थे तथा अपने कर्मों के लिए भगवान् शिव से क्षमा चाहते थे। क्योंकि वे महाभारत के युद्ध में कोरवों को मारने के दोषी थे, पर भगवान् शिव उनसे मिलना नहीं चाहते थे इसलिए उन्होंने अपने आप को नंदी बैल के रूप में बदल लिया और गडवाल क्षेत्र में कहीं छिप गए।
  इसके तुरंत बाद भगवान शिव का शरीर चार अलग अलग भागों में विभाजित हो गया। जहाँ भगवान शिव का सिर पाया गया वहां पर रुद्रनाथ मंदिर बना है। यह स्थान कई पानी के कुंडों से घिरा हुआ है जिनमे सूर्य कुंड, चन्द्र कुंड, तारा कुंड, मानकुंड आदि मुख्य हैं।  
   ट्रेकिंग  यात्री इस मंदिर रुद्रनाथ मंदिर के ट्रेकिंग लिए निकटतम  सगर गाँव तक पहुंचे और फिर यहाँ से मंदिर के चढ़ाई शुरु करें।  २२ किलोमीटर की ट्रेकिंग होगी। वे हेलंग तथा उरगम गांव से भी शुरुआत कर सकते है। दूसरी ट्रेकिंग गोपेश्वर से ८ से १० किलोमीटर दूर मंडल से भी की जा सकती है। ट्रेकिंग करते समय यदि स्थानीय लोगों का साथ मिल जाता है तो अतिउत्तम होता है। भटकने की सम्भावना कम हो जाती है। कोशिश यहीं करें कि स्थानीय लोग मिल ही जाए।
  पनार बुगियाल रूपकुंड की ट्रेकिंग की तरह यहाँ भी रास्ते में कई सुंदर घास के मैदान देखे जा सकते हैं। जिनमे से पुंग बुगियाल ,ल्वीटी  बुग्याल और पनार बुगियाल है जो कि सुंदर वन्य फूलों से सजा - सवरा हुआ देखने योग्य क्षेत्र है। पुंग इस घास के मैदान के पास एक झरना और मंदिर स्थित है।  सबसे ऊँचा पॉइंट पित्रधर रुद्रनाथ ट्रेकिंग मार्ग का सबसे ऊँचा पॉइंट पित्रधर है जो कि समुद्र तल से ४००० मीटर की ऊंचाई पर है। एकाग्रता और शांति इस स्थान की सुन्दरता को बढ़ाते हैं। पित्रधर के बाद मंदिर तक का रास्ता उतराई का है जिसे आप आराम से पूरा कर सकते है। 
  नंदी कुंड इस स्थान का दूसरा आकर्षण नंदी कुंड है जो  एक मनोहारी झील है और बर्फ से ढंकी चोटियों से घिरी हुई है। पोराणिक कथाओं के अनुसार भगवान शिव की सवारी नंदी बैल इसी झील में पानी पिया करते थे। यात्री झील में चौखम्बा चोटी का प्रतिबिम्ब भी देख सकते हैं। 
 रुद्रनाथ मंदिर यथार्थतः एलोरा के कैलाशनाथ टेम्पल की तरह ही पत्थरों में तराश कर बनाया गया है जो देखने योग्य है। आपको मंदिर के पास रहने -सहने ,खाने- पीने के लिए आश्रय भी मिल जायेंगे।  


रुद्रनाथ ट्रैकिंग मैप तथा मंदिर के दृश्य 

  कैसे
जाएं रुद्रनाथ रुद्रनाथ जाने वाले पर्यटक यहाँ एयर,रेल और रोड द्वारा पहुँच सकते हैं। देहरादून स्थित जॉली ग्रांट हवाई अड्डा यहाँ का निकटतम एयरबेस है। तो आपको सड़क मार्ग का प्रयोग करते हुए हरिद्वार ,ऋषिकेश से चमोली का जिला मुख्यालय  गोपेश्वर आना होगा। गोपेश्वर से ३ -५ किलोमीटर की दूरी पर सागर गांव मिलेगा यहीं से  एक ट्रेकिंग मार्ग  रुद्रनाथ मंदिर को जाता है। 
  ऋषिकेश रेलवे स्टेशन यहाँ का सबसे नजदीकी रेलवे स्टेशन है। रुद्रनाथ के लिए बसें ऋषिकेश, देहरादून, कोटद्वार और हरिद्वार से आसानी से उपलब्ध हैं। यदि आप रुद्रनाथ जाने का मन बना रहें है सबसे अच्छा समय अप्रैल से जून ,सितम्बर से  नवम्बर का समय है आप इन महीनों का चुनाव कर सकते है । इस स्थान की यात्रा के लिए सबसे उत्तम सिद्ध समय यही है।

क्रमशः जारी ...........

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   धारावाहिक यात्रा वृतांत।  मन्दाकिनी की ख़ोज में  । 










    ०८ /०६ /२०२०। गतांक से आगे ७। 
    चोपटा,एक लोकप्रिय सैर गाह  
    गोपेश्वर से मंडल ८ किलोमीटर ,फिर मंडल से चोपटा २७ किलोमीटर की दूरी हमने तय की थी। गोपेश्वर से चोपता की लगभग दूरी ४० किलोमीटर के अंदर ही है यह तय है। 


देवरिया ताल और चोपता के खूबसूरत बुग्याल 
   कस्तूरी मृग प्रजनन फार्म  गोपेश्वर से चोपटा जाने वाले मार्ग पर हमें कस्तूरी मृग प्रजनन फार्म भी मिला । यहां पर कस्तूरी मृगों की सुंदरता को निकटता से देखा जा सकता है। मार्च-अप्रैल के महीने में इस पूरे मार्ग में बुरांश के फूल अपनी अनोखी छटा बिखेरते हैं। जनवरी-फरवरी के महीने में ये पूरा क्षेत्र बर्फ से ढका रहता है। 
   चोपटा पहुँचने वाले ही थे,हम। हमें यह एहसास हो रहा था जैसे हम बादलों से ऊपर पहुंच रहें  हो। क्योंकि पेड़ पौधे गायब हो रहें थे। ऊंचाई बढ़ रही थी जिससे जमीन दिखने नहीं लगी थी। यह चोपटा ही था,जहाँ आवारा बादल टुकड़े टुकड़े में हो कर चोटियों पर अपना डेरा जमा रहें थे । 
   चौदह हज़ार फुट की ऊंचाई पर बसे चोपता के बारे में ब्रिटिश  कमिश्नर एटकिन्सन ने कभी कह डाला  था कि '...जिस व्यक्ति ने अपने जीवनकाल में चोपता नहीं देखा उसका इस पृथ्वी पर जन्म लेना व्यर्थ है।'
एटकिन्सन की यह उक्ति भले ही कुछ लोगों को अतिरेकपूर्ण लगे लेकिन यहां का सौन्दर्य अद्भुत है,इसमें किसी को संदेह नहीं हो सकता। किसी पर्यटक के लिए यह यात्रा किसी रोमांच से कम नहीं है।
  बादलों के डेरों में ....जमीं नीचे मानो धुंध में समा गयी थी ,या सड़कें ही जैसे ऊपर उठ गयी थी। ...हम सब धुंध में लिपटे घिरे पड़े थे। ड्राइवर बड़ी सावधानी से गाड़ी चला रहा था। रह रह कर सड़क के किनारे लिखे श्लोगन पर आंखें हठात स्थिर हो जाती थी ...पहाड़ी नागिन हूँ ,धीरे चलो नहीं तो डस लूंगी। 
  नमी युक्त बादलों में अपने आप को भुला देना बड़ा कितना अच्छा लगता है। है ना ? बल्कि धीरे धीरे संसार की हर शय धुंध में समायी हुई प्रतीत हो रही थी ,चोपटा बहुत ही ऊंचाई पर ही अवस्थित है । मैं स्वतः बी आर चोपड़ा साहब की फिल्म धुंध का महेंद्र कपूर के द्वारा गाया यह गाना..संसार की हर शय का इतना ही फ़साना है ..... गुनगुनाने लगा था। कहे तो अपने मोबाइल से बल्कि मैंने गाना बजा भी दिया। महेंद्र जी का यह गाना मेरी जिंदगी का फ़लसफ़ा है, इस फिल्म के अभिनेता नवीन निश्चल मेरे पसंदीदा रहें हैं। अपने जीवन के एकाकीपन में मैं अक्सर इस तरह के गाने सुनता रहता हूँ।  
  चोपटा बारह से चौदह हजार फुट की ऊंचाई पर बसा ये क्षेत्र गढ़वाल हिमालय के सबसे सुंदरतम स्थानों में से एक है। जनवरी-फरवरी के महीनों में आमतौर पर बर्फ की चादर ओढ़े इस स्थान की सुंदरता जुलाई-अगस्त के महीनों में देखते ही बनती है। इन महीनों में यहां मीलों तक फैले मखमली घास के मैदान और उनमें खिले फूलों की सुंदरता आंखों को बड़ी सुकून देती है । इसीलिए यहाँ आने वाले तमाम अनुभवी पर्यटक इसकी तुलना स्विट्ज़र लैंड  से करने में तनिक भी नहीं हिचकते हैं । सच में ऐसा है भी। सबसे बड़ी और विशेष ध्यान देने वाली बात यह है कि पूरे गढ़वाल क्षेत्र में यह एक अकेला ऐसा क्षेत्र है जहां बस द्वारा बुग्यालों की दुनिया में सीधे प्रवेश किया जा सकता है। यानि यह असाधारण क्षेत्र श्रद्धालुओं और पर्यटकों की साधारण पहुंच में है। इसलिए अपनी टैक्सी ,मोटर कार का रुख चोपटा की बुगयालों तक़ ज़रूर करें। आराम से पहुंचते हुए चोपटा के लिए  आपके  कुछेक सुरक्षित दिन सालों की ताज़गी रखेंगे । यहाँ आना कदापि ना भूलें। 
  पहाड़,प्रकृति और प्रेम ही मेरे जीने के आयाम है,जीने का साधन है। कहे तो मेरी ख़ुशी का पर्याय पहाड़ ,पाइंस, देवदार,बर्फ़ ,झील और पहाड़ी जन ही हैं जहां मेरा तन मन धन सब कुछ बसता है । साफ़ सुथरा ,सीधा साधा,प्रदूषण रहित वातावरण मुझे सदैव भाते है । जब कभी भी वादियों से होते हुए बुगयालों से गुजरता हूँ ,हवा में डोलतें छोटे छोटे रंग बिरंगे फूलों के पौधे मेरे पैरों की आहट का इस्तक़बाल करते हैं तो बड़ा अच्छा लगता है। सोचता हूँ स्वर्ग की ख़ूबसूरती यहीं कहीं भी है इसी लोक में । 
  दिल का रिश्ता चीड़ ,देवदार,हरे भरे पहाड़ी मैदान,भेड़ें ,उनके मालिक गड़रियें पता नहीं क्यों दिल ने फ़िर याद किया है। मेरी माने तो  मेरा उनसे दिल का रिश्ता है। मैं यूँ तो समतल पटना साहिब से आता हूँ लेकिन मेरी अंतर आत्मा जैसे कई सदियों से ,कई जन्मों से पहाड़ों में ही भटक रही  है। न जाने क्यूँ ,किसके लिए,कब तक पता नहीं बता नहीं सकता । मैंने तक़रीबन हिमालय को अपना बसेरा ही बना रखा है। जब मन करता है हिमालय की गोद में चला आता हूँ। अपने जीवन के शेष क्षणों में नैनीताल की वादियों में गुजारने की ख़्वाहिश रखता हूं। 
  दौड़ती हुई गाड़ी जैसे क्षितिज के ऊपर नीले आसमान से सट कर ही चल रही थी। पेड़ों के घने सायें हट चुके थे। कभी कभी नीचे घाटियों में दरख़्त दिख जाते थे,जैसे हरी चादर किसी ने बिछा दी हो। दिल ढूंढने लगा था फिर से फुरसत के रात दिन को। 
...कुछेक पल के बाद हम किसी ढाबे में चाय पीने के लिए रुक गए थे। गाड़ी से हमलोग बाहर निकले। बाहर बड़ी सर्द हवा बह रही थी। ठंढ कम करने के लिए हथेलियां रगड़नी पड़ी थी। धुंध की बजह से उपर कुछ भी देख पाना मुमकिन नहीं था। सोचने लगा मैं यहाँ क्या क्या देख सकता हूँ।   


चोपता ,तुंगनाथ मंदिर और चंद्र शिला 
 दर्शनीय स्थल 
 तुंगनाथ मंदिर तुंग नाथ पंच केदार के एक और केदार। यहां से तीन किमी की पैदल यात्रा के बाद तेरह हज़ार फुट की ऊंचाई पर तुंगनाथ मंदिर है,जो पंचकेदारों में एक केदार है जहां तक हमें ट्रेकिंग कर ही जाना होता है ।चोपता से तुंगनाथ तक तीन किलोमीटर का पैदल मार्ग बुग्यालों की सुंदर दुनिया से साक्षात्कार कराता है जो अप्रतिम है । यहां पर प्राचीन शिव मंदिर है। 
 चंद्रशिला  इस प्राचीन शिव मंदिर से डेढ़ किमी की ऊंचाई चढ़ने के बाद चौदह हज़ार फीट पर चंद्रशिला नामक चोटी है। जहां ठीक सामने छू लेने योग्य हिमालय का विराट रूप किसी को भी हतप्रभ कर सकता है। चारों ओर पसरे सन्नाटे में ऐसा लगता है मानो आप और प्रकृति दोनों यहां आकर एकाकार हो उठे हों। तुंगनाथ से नीचे जंगल की सुंदर रेंज और घाटी का जो दृश्य उभरता है, वो बहुत ही अनूठा है। 
 देवरिया ताल चोपता से लगभग आठ किलोमीटर की दूरी तय करने के बाद देवरिया ताल पहुंचा जा सकता है जो कि तुंगनाथ मंदिर के दक्षिण दिशा में है। इस ताल की कुछ ऐसी विशेषता है जो इसे और सरोवरों से विशिष्टता प्रदान करती है। इस पारदर्शी सरोवर में चौखंभा, नीलकंठ आदि हिमाच्छादित चोटियों के मनभावन प्रतिबिंब स्पष्ट दिखाई देने लगते हैं। इस सरोवर का कुल व्यास पांच सौ मीटर है। इसके चारों ओर बांस व बुरांश के सघन वन हैं तो दूसरी ओर एक खुला सा मैदान है।
  
गाने देखने के लिंक दवाएं ,यूट्यूब शिमारो से साभार     
https://youtu.be/MrTgOE8u8Dw

क्रमशः जारी ...........
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  धारावाहिक यात्रा वृतांत।  मन्दाकिनी की ख़ोज में  । 










  ०९ /०६ /२०२०। गतांक से आगे ८ । 
  पंच केदार के तीसरे केदार,तुंगनाथ 
  पंच केदार में तीसरे तुंगनाथ सबसे ऊंचे केदार है ,जो उत्तराखंड के गढ़वाल हिमालय के रुद्रप्रयाग ज़िले में ३६८० मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। ये तुंग नाथ की पर्वत श्रृंखलाएं है जो अलकनन्दा और मंदाकिनी को अलग करती है जिनसे इन दो घाटियों का निर्माण भी होता है। आपको यह भी बता दें यह दुनियां की सबसे ऊंची चोटी पर निर्मित शिवालय है जहां भोले बिराजते हैं । 


तुंगनाथ मंदिर के आस पास के नजारें। चित्र इंटरनेट से साभार 

   काल क्रम के हिसाब से यह मंदिर १,००० वर्ष पुराना माना जाता है और यहाँ भगवान शिव की पंच केदारों में से एक के रूप में पूजा होती है। 
अद्भुत है पर्वत पर बसा 'तुंगनाथ' मंदिर, जहां आप बर्फबारी का भी ले सकते है। जनवरी फ़रवरी के महीने में शर्तियां आपकी नजरें नहीं हटेंगी। तुंग नाथ मंदिर के आसपास नवंबर के बाद से ही जब बर्फ का मख़मली,नरम  परतें बिछ जाती तो अत्यंत  सुंदर नजारा देखने को मिलता  है। जहां तक नजरें जाती हैं वहां तक मखमली घास ,पर्वत और बर्फ ही बर्फ़ नज़र आती है। देखकर यूं लगता है जैसे नीले आसमान के नीचे बर्फ की लम्बी सी ,बड़ी सी सफ़ेद चादर बिछी हो। यह नजारा इस जगह को और भी ज्‍यादा खूबसूरत बना देता है जब साथ में ही  बुरांश के फूल बेशुमार की संख्या में खिल जातें हैं आने जाने वाले पर्यटकों का जिन्‍हें देखकर आपकी नजरें ही नहीं हटेंगी उनसे।
   कथाएं मंदिर के निर्माण के बारे में जानकारी मिलती है कि इसे पाण्‍डवों ने भगवान शिव को प्रसन्‍न करने के लिए स्‍थापित किया था। इसके पीछे कथा मिलती है कि कुरुक्षेत्र में हुए नरसंहार से भोलेनाथ पाण्‍डवों से रुष्‍ट थे तभी उन्‍हें प्रसन्‍न करने के लिए ही इस मंदिर का निर्माण किया गया था। 
  इसके अलावा यह भी मान्‍यता है कि माता पार्वती ने भी शिव को पाने के लिए यहीं पर तपस्‍या की थी।तुंगनाथ की चोटी तीन धाराओं का स्रोत है, जिनसे अक्षकामिनी नदी बनती है। मंदिर चोपता से ३ किलोमीटर दूर स्थित है। धीरे धीरे चलना शुरू कीजिये और तुंग नाथ के शिखर तक़ पहुंच जाइये। 
  चंद्र शिला मंदिर में भोले के दर्शन के बाद ४००० मीटर की ऊंचाई पर स्थित चंद्र शिला तक़ भी चढ़ते जाए। लगभग डेढ़ किलोमीटर की ट्रेकिंग और करनी होगी। और आप तुंग नाथ की सबसे ऊंची जग़ह पर होंगे। जहां से हिमालय का सीधा दर्शन करेंगे। अतः चंद्र शिला तक जाने का संकल्प जरूर करें। शायद यहां से चाँद बिलकुल क़रीब में दिखता होगा इसलिए इसका नाम चंद्रशिला पड़ा होगा। 


ट्रेकिंग करते लोग ,मंदिर और बर्फवारी ,तुंगनाथ। चित्र इंटरनेट से साभार 
  कल्पना कीजिए ऐसी जगह जहां पर आप प्रकृति और अध्यात्म दोनों का एक साथ आनंद ले सकें वह जग़ह है तुंग नाथ। बर्फबारी का भी दृश्य देखने को मिल जाएगा और इसी प्रकृति के जरिये धर्म,अध्‍यात्‍म में आस्था से भी वास्ता हो जाएगा साथ में  अतिरेक सुख की अनुभूति भी होगी। तो है ना अनुपम स्थल तुंग नाथ। 
  कैसे जाएं दो रास्तों में से किसी भी एक से यहाँ चोपटा तक पहुँचा जा सकता है। एक ऋषिकेश से गोपेश्वर होकर। ऋषिकेश से गोपेश्वर की दूरी २१२ किलोमीटर है और फिर गोपेश्वर से चोपता चालीस किलोमीटर और आगे है,जो कि सड़क मार्ग से जुड़ा है। हमलोग गोपेश्वर से चोपता के लिए जा रहे थे। 
 दूसरा ऋषिकेश से उखीमठ होकर। ऋषिकेश से उखीमठ की दूरी १७८ किलोमीटर है और फिर ऊखीमठ से आगे चोपता चौबीस किलोमीटर दूर है, जो कि सड़क मार्ग से सदैव जुड़ा हुआ है।
  कब जाएं मई से नवंबर तक यहां कि यात्रा की जा सकती है। हालांकि यात्रा बाकी समय में भी की जा सकती है लेकिन बर्फ गिरी होने के कारण से वाहन की यात्रा कम और पैदल यात्रा अधिक होती है। जनवरी व फरवरी के महीने में भी यहां की बर्फ की मजा लेने जाया जा सकता है। मई से लेकर नवंबर तक यहां की यात्रा थोड़ी सरल होगी । क्योंकि आपको ज्यादा चलना नहीं पड़ेगा। यात्रा के लिए सप्ताह भर का समय पर्याप्त है। गर्म कपडे साथ में रहने चाहिए क्योंकि यहाँ पर वर्षभर ठंड रहती है जिसे आपको याद रखना होगा ।
  कहाँ ठहरें गोपेश्वर और ऊखीमठ,दोनों स्थानों पर गढ़वाल मंडल विकास निगम के विश्रामगृह हैं। इसके अलावा प्राइवेट होटल,लॉज,धर्मशालाएं भी प्राप्त हैं जो सुगमता से पर्यटकों को मिल ही जाती हैं। चोपता में भी आवासीय सुविधायें भी उपलब्ध है जहाँ आपके ठहरने की व्यवस्था हो जाएंगी।  और यहां पर स्थानीय लोगों की दुकानें हैं।
  यातायात की सुविधा के लिए ऋषिकेश से गोपेश्वर और ऊखीमठ के लिए बस सेवा उपलब्ध है। इन दोनों स्थानों से चोपता के लिए बस सेवा के अलावा टैक्सी और जीप भी बुक कराई जा सकती है।
  विशेष ध्यान चोपता स्थल  १२०००  फीट की ऊंचाई पर है। और यहां से तीन किलोमीटर की चढ़ाई  तुंगनाथ महादेव  मंदिर की ओर जाती  है। अतः इस चढ़ाई के सफर में पहुंचते-पहुंचते तुंगनाथ  की ऊंचाई तक़रीबन १३०००  फीट तक की हो जाती है। जिससे आपको श्वास लेने में दिक्कत हो सकती है। दूसरी  वजह यह है कि से यहां साल भर ठंड रहती है ,यहां जब भी जाये तो आप अपने साथ गर्म कपड़े अवश्य लेकर जाएं। आपकी श्वसन प्रणाली अच्छी होनी चाहिए, आप दम्मे के मरीज़ ना हो। प्रतिरोधक क्षमता अच्छी होनी चाहिए ही ।  
यहां मौसम काफी तेजी से बदलता है। यदि जिन लोगों की रोग प्रतिरोधक क्षमता कमजोर हो वो अपने साथ ज़रूरी दवाइयां अवश्य साथ लेकर जाएं। वैसे यहां कितनी भी दिक्कतें मार्ग में आ जाये,हौसला टूटने के कगार पर हो जाये  मगर जब एक बार आप ऊपर मंदिर का मार्ग तय कर लेते हैं ,भोले के दर्शन कर लेते है तो आप अपनी सारी थकान और समस्याएं भूल जाते हैं।चोपटा एक अत्यंत रमणीक जग़ह है आप यहाँ ज़रूर आये।

 क्रमशः जारी ...........
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  धारावाहिक यात्रा वृतांत। मन्दाकिनी की ख़ोज में 









  
  १०/०६/२०२०। गतांक से आगे ९ 
  केदार के शीतकालीन आवास ,उखीमठ 
   तुंग नाथ के बाद उखीमठ हमारी मंजिल थी। हम चोपता से उखीमठ जाने वाले थे जिसकी ऊंचाई १३११ मीटर तक की साधारण थी।
  तुंग नाथ के बाद हमें उखीमठ के दर्शन के लिए जाना था। उखीमठ केदारनाथ का  शीत कालीन आवास होता है। जब शीत ऋतु में केदार नाथ के कपाट बंद हो जाते है ,जब केदार बर्फ़ में डूब जाते है तब शीत ऋतु के बाकी छह महीने केदार उखीमठ में ही दर्शन देते है। गोपेश्वर से चोपता भाया गुप्तकाशी जाने के क्रम में आपको उखीमठ मिलेगा। उखीमठ जिसे ओखीमठ भी कहा जाता है की भौगोलिक स्थिति कुछ इस तरह है कि आप यहां से दूसरे केदार मध्यमहेश्वर,देओरीया ताल,एक ताज़े पानी की झील तथा तुंग नाथ भी जा सकते है। 
   दूरी का हिसाब चोपता से उखीमठ २९ किलोमीटर दूर है,और रुद्रप्रयाग से इसकी दूरी  मात्र ४१ किलोमीटर ठहरती  है। यहां उखीमठ में बहुत कुछ देखने लायक है  आप सभी ऋषिकेश ,श्रीनगर ,रुद्रप्रयाग से बड़ी सुगमता से यहाँ पहुंच सकते है। 


हिमालय के दृश्य और उखीमठ 
   उखीमठ भारत के उत्तराखंड राज्य के रुद्रप्रयाग जिले में स्थित एक तीर्थ स्थल है। यह १३११  मीटर की साधारण ऊंचाई पर स्थित है सर्दियों के दौरान, केदारनाथ मंदिर और मध्यमहेश्वर से मूर्तियों को जो डोली में रखी होती है,उखीमठ  में ही रखा जाता है अतः उखीमठ  उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जिले की एक पवित्र जगह है, जहाँ हिन्दू श्रद्वालुओं की भीड़ लगी होती है। यदि आप रास्ते में है तो दर्शन अवश्य कर ही ले।  
   मान्यताएं ढेर सारी है इस छोटे से कस्बे के लिए। माना जाता है कि इस जगह का यह नाम बाणासुर की बेटी ऊषा  से उत्त्पन्न हुआ है। ऊखीमठ जिसे ओखीमठ भी कहा जाता है, एक छोटा सा शहर है और रुद्रप्रयाग जिले,का  एक प्रमुख हिंदू तीर्थ स्थल है।  हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार, उषा जो वाणासुर की बेटी थी शादी  भगवान कृष्ण के पोते,अनिरुद्ध से हुई थी  वाणासुर की बेटी उषा के नाम से इस स्थान का नाम उषा मठ पड़ा, जिसे अब ओखीमठ या ऊखीमठ के नाम से जाना जाता है। 
   राजा मान्धाता ने सब कुछ त्याग कर एक पैर पर खड़े होकर भगवान शिव की कठिन तपस्या की थी । भगवान उसकी तपस्या से अति प्रसन्न भी हुए थे। भोले तब ओंकार के रूप में प्रगट होकर राजा के सामने आये। उन्होंने उसे वरदान भी दिया तब से यह जग़ह ओंकारेश्वर के नाम से भी जाना जाता हैं। सर्दियों के दौरान भगवान केदारनाथ की उत्सव डोली को केदारनाथ से इस स्थान पर लाया जाता है। भगवान केदारनाथ की शीतकालीन पूजा और भगवान ओंकारेश्वर की साल भर की पूजा यहाँ की जाती है। यह मंदिर ऊखीमठ में ही स्थित है। 
   यहाँ के पुरोहित जिन्हे हम रावल कहते है मुख्यतः केदार नाथ के पण्डे होते हैं।
   सारी गांव हिमालय की गोद में बसा एक अत्यंत मनोरम दृश्यों वाला एक गांव है जो  २००० मीटर की ऊंचाई पर अवस्थित है। अगर वक़्त हो तो सारी गांव देखा जा सकता है। 


उखीमठ ,कालीमठ मंदिर का दृश्य,प्रवेश द्वार 

  
कालीमठ उखीमठ से २० किलोमीटर की दूरी पर है। समय रहते आप सभी भक्त गण  कालीमठ में देवी माता काली का दर्शन कर सकते है।  कालीमठ १०८ शक्तिपीठों में से एक महत्वपूर्ण पीठ है। ऐसी मान्यता है कि मां देवी काली के शरीर का निम्न भाग काली मठ में पूजा जाता है जबकि माँ के दिव्य शरीर का ऊपरी हिस्सा उत्तराखंड श्रीनगर के धारी देवी मंदिर में पूजा जाता है। 
  मां यहीं रक्तबीज को मारने के पश्चात् धरा में प्रवेश कर गयी थी। जिस जग़ह में मां ने प्रवेशी पायी थी वह जगह एक चांदी के पत्तर से ढंक दी गयी है अतः यह मठ श्रद्धालुओं के लिए विश्वास ,और धार्मिक आस्था का केंद्र बन गया है। 

क्रमशः जारी ...........
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 धारावाहिक यात्रा वृतांत। मन्दाकिनी की ख़ोज में 









  ११ /०६/२०२०। गतांक से आगे १०  
  गुप्त काशी  काली मठ,सारी गांव ,उखीमठ देखने के बाद हम लोगों को कुंड भाया गुप्त काशी पहुंचना था। हम सभी शाम होने से पहले गुप्त काशी पहुंच चुके थे। गुप्त काशी दिखने में एक छोटा सा शहर ही था जहां सभी सुविधाएं उपलब्ध ही दिख रही थी। ढूंढने मात्र से एक साधारण होटल भी मिल ही गया था। हम सभी ने अपने अपने सामान होटल के कमरें में रख दिया था। 

गुप्तकाशी से दिखती हुई चौखम्भा की चोटियां ,चित्र इंटरनेट से साभार। 

   
   जहां तक हमारी दृष्टि जा रही थी वृताकार घूमे हुए हिमालय के पहाड़ दिख रहें थे। दूर कहीं बर्फ़ से ढकी चोटियां भी चमक भी रहीं थी। होटल मुख्य मार्ग पर ही था इसलिए गाड़ियों की आवाजाही  हो रहीं थी। 
   केदार खंड में गढ़वाल हिमालय के बीच १३१९ की ऊंचाई पर रुद्रप्रयाग ज़िले में स्थित है यह गुप्त काशी। चूकि इसकी उंचाई कम है चुनांचे यहाँ ठंढ नरम पड़ गयी थी। 
  हमने शाम की चहल कदमी कर शहर के बारे में पूरी जानकारी इकठ्ठी कर ली थी। किसी नुक्कड़ पर एक छोटी दूकान में मीठी,अच्छी ,सोंधी, स्वादिष्ट चाय के साथ  बिस्किट का खाना हमें याद ही रहेगा।  
   काशी गुप्त क्यों हो गयी  उत्तर भारत में काशी तीन है। एक शिव के त्रिशूल पर ,वरुणा और असि नदियों के संगम पर बसी उत्तर प्रदेश की वाराणसी -काशी। दूसरी भगीरथी नदी के किनारे बसी उत्तर काशी ,और तीसरी है उत्तराखंड की गुप्त काशी। दो काशी उत्तराखंड में ही है। लेकिन एक प्रश्न है इस काशी का नाम गुप्तकाशी ही क्यों पड़ा ? इसके पीछे भी एक पौराणिक कथा है। पांडव महाभारत के युद्ध के बाद शिव को ख़ोज रहें थे,क्योंकि उन्हें अपने कुलनाशक होने का आत्म अपराध बोध सता रहा था । वे किसी भी प्रयोजन से शिव के दर्शन करना चाह रहें थे लेकिन दूसरी तरफ़ शिव उनसे मिलना नहीं चाह रहें थे। पांडवों को यहाँ आता देख भगवान शिव इस काशी में ही गुप्त हो गए थे इसलिए इस काशी का नाम गुप्तकाशी हो गया। 
  क्या देखें यूं तो गुप्त काशी की गली गली में मंदिर है। पत्‍थर और लकड़ी से बनी इन मंदिरों की सुन्दरतम संरचना को देखकर आप अचंभित हो जाएंगें। यह शहर बर्फीली पहाडियों, हरियाली, सांस्‍कृतिक विरासत के लिए प्रसिद्ध है। और चौखंभा पहाडियों के सुहावने मौसम से घिरा है। इस वजह से पर्यटकों के लिए ये जगह एक दम परफैक्‍ट हॉलीडे डेस्टिनेशन बन जाती है। यहाँ आप काष्ट से बनी चीजों की ख़रीदारी भी कर सकते है।
  मणिकर्णिका कुंड गुप्तकाशी में एक कुंड है जिसका नाम है मणिकर्णिका कुंड। यहाँ आने वाले लोग लोग इसी कुंड  में स्नान करते हैं। इसमें दो जलधाराएँ बराबर गिरती रहती हैं जो गंगा और यमुना नाम से अभिहित हैं। 
  विश्वनाथ का मंदिर  कुंड के सामने विश्वनाथ का मंदिर है। यह दूसरा मंदिर है। आपने इस नाम से वाराणसी के काशी विश्वनाथ मंदिर का नाम आपने सुना ही होगा। 
  अर्धनारीश्वर का मंदिर इससे मिला हुआ अर्धनारीश्वर का मंदिर है। गुप्तकाशी क्षेत्र,केदारनाथ यात्रा का मुख्य पड़ाव भी है,ज्यादातर पर्यटक यहीं रुकते है। साथ ही यहां कई खूबसूरत पर्यटक स्थल भी हैं जो देखने योग्य हैं।

गुप्तकाशी  के विश्वनाथ मंदिर तथा मणिकर्णिका कुंड का दृश्य 

  
मध्‍यमहेश्‍वर मंदिर पंच केदार के दुसरे केदार  मध्‍यमहेश्‍वर मंदिर तक हम ट्रैकिंग कर जा सकते है। गुप्तकाशी से केदार नाथ रोड पर २४ किलोमीटर दूर हैं मध्यमहेश्वर । जिसमें ६ किलोमीटर की यात्रा गाड़ी से पूरी की जा सकती है इसके बाद हमें शेष दूरी ट्रेकिंग से पूरी करनी होती है। अपने इस सफर को और भी ज्‍यादा दिलचस्‍प बनाने के लिए आप पर्यटक गुप्‍तकाशी से हेलिकॉप्‍टर राइड भी ले सकते हैं। इससे पूरे शहर का सुन्दर मनोरम नजारा दिखाई देता है ।

  क्रमशः जारी ...........
  

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 धारावाहिक यात्रा वृतांत। मन्दाकिनी की ख़ोज में 






  



  मध्‍यमहेश्‍वर मंदिर १२ /०६/२०२०। गतांक से आगे ११ 

   मध्यमहेश्वर पंच केदार के दूसरे केदार हैं ,उत्तराखण्ड के गढ़वाल क्षेत्र के रुद्रप्रयाग जिले में समुद्रतल से ३२८९ मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। चारों और हिमालय पहाड़ों  से घिरे इस रमणीय स्थान की खूबसूरती देखते ही बनती है।मध्यमहेश्वर मंदिर से -  किमी० ऊपर एक बुग्याल आता है जहाँ पर एक छोटा सा मंदिर है जिसे बूढ़ा मध्यमहेश्वर कहा जाता है।
    पंच केदार में ऐसा माना जाता है कि जब भगवान शंकर बैल के रूप में अंतर्ध्यान हुए, तो उनके धड़ से ऊपर का भाग काठमाण्डू में प्रकट हुआ जहां अब वहां पशुपतिनाथ का प्रसिद्ध मंदिर है। शिव की भुजाएं तुंगनाथ में, मुख रुद्रनाथ में, नाभि मध्यमहेश्वर में, भगवान शंकर बैल की पीठ की आकृति-पिंड के रूप में श्री केदारनाथ में पूजे जाते हैं और जटा कल्पेश्वर में प्रकट हुए। इसलिए इन पांच स्थानों में सम्मिलित रूप से  को पंचकेदार कहा जाता है। आज हम पंच केदार में दूसरे केदार की चर्चा करेंगे। 


मध्यमहेश्वर का मंदिर और दिखती हिमालय की बर्फ़ानी चोटियाँ 

    मध्यमहेश्वर मंदिर की वास्तुकला उत्तर भारतीय शैली में है। मंदिर पहाड की चोटी पर एक छोटे से काला मंदिर है जहां से  शानदार चौखंबा चोटियों सीधे दिखती  है। वर्तमान मंदिर में, काली पत्थर से बना एक नाभि के आकार का शिव-लिंगम, पवित्र स्थान में स्थित है। मध्य या बैल का पेट या नाभि, शिव के दिव्य रूप माना जाता है, इस मंदिर में इस अंग की ही पूजा की जाती है। 
   इस मंदिर के कपाट अक्षय तृतीया को ही खुलते है तथा सर्दियों  में  बर्फ़ की अधिकता होने की बजह से रजत मूर्तियों को उखीमठ में स्थानांतरित कर दिया जाता है। अन्य केदार मंदिर की भांति मध्यमहेश्वर मंदिर पांडवों द्वारा बनाया गया था। दो अन्य छोटे तीर्थ हैं, एक शिव पार्वती के लिए और अन्य अर्धनारीश्वर को समर्पित है, जो आधा-शिव आधा-पार्वती का रूप है। मुख्य मंदिर के दाहिनी ओर एक छोटा मन्दिर है जिसके गर्भगृह में संगमरमर से बनी देवी सरस्वती ( हिन्दू धर्म में ज्ञान की देवी कहा जाता है) की मूर्ति है।
   कैसे पहुंचे रुदप्रयाग से केदार नाथ जाने वाली सड़क पर गुप्तकाशी से कुछ पहले कुंड नामक जगह मिलती है जहां से उखीमठ के लिए एक पृथक सड़क मिलती है। गुप्त काशी से उखीमठ की दूरी तक़रीबन १३ किलोमीटर पड़ती है। 
   इसके बाद हमें १८ किलोमीटर दूर उनियाना जो मध्यमहेश्वर का आधार कैंप है जाने के लिए उखीमठ से टैक्सियां ,जीप या बसें मिल जाती हैं। हम उनियाना गांव पहुंच जाते है। 
  अब यहाँ से २१ किलोमीटर की ट्रेकिंग शुरू होती है जो रांसी ,गौंडार होते हुए मध्य महेश्वर तक जाती है। कभी कभी  रांसी गांव तक भी गाड़ियां आती जाती है। यहाँ से मंदिर तक २१  किलोमीटर का पैदल मार्ग हैं जो आपको चलना होगा  इस मार्ग में आपको गौधार,बंटोली ,ख़तरा नानू खंभाचट्टी आदि अन्य गांव मिलेंगे जहाँ रहने ,खाने पीने की भी व्यवस्था भी हो जाती है। सबसे अच्छी बात यह है कि यहां के गांवों से ख़च्चर तथा पोर्टर भी मिल जाते हैं। 
  ट्रेकिंग के बीच में कालीमठ तथा  गौधार महत्वपूर्ण स्थल मिलते हैं। इसके उपर -  किलोमीटर की चढ़ाई करने के बाद बूढ़ा मध्यमहेश्वर की चोटी भी मिलती है जहां से केदारनाथ ,चौखम्भा ,त्रिशूल आदि चोटियां स्पष्ट दिखती हैं। 

  क्रमशः जारी .........

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 धारावाहिक यात्रा वृतांत। मन्दाकिनी की ख़ोज में 










 केदारनाथ की ओर,फाटा १३ /०६/२०२०। गतांक से आगे १२ 
 आगे की ओर  अब हम पंच केदार के पहले केदार की ओर ले चलते है। हमें गुप्तकाशी से फाटा १४ किलोमीटर ,फाटा से रामपुर ९ किलोमीटर ,रामपुर से सोनप्रयाग ४ किलोमीटर ,सोनप्रयाग से गौरीकुंड ५ किलोमीटर ,की दूरी तय करते हुए केदार नाथ के आधार शिविर गौरीकुंड तक़ पहुंचना था। तब आगे पंच केदार के पहले और सर्वाधिक महत्वपूर्ण केदार नाथ  मंदिर तक की १४ किलोमीटर की यात्रा हमें  ट्रैकिंग से  पूरी करनी थी । 

हवाई यात्रा का मैप ,फाटा तथा केदारनाथ का हेली पैड। चित्र इंटरनेट से साभार 

   फाटा का जिक्र करता चलता हूँ। हमलोग फाटा पहुंचने वाले ही थे। हमें ऊपर हवा में चीलों के भांति उड़ते हुए रंग बिरंगे हेलीकाप्टर दिखने लगे थे। लगा फाटा पहुंच रहें है। सुन रखा था कि फाटा से ही केदार के लिए हेलीकाप्टर मिलते है। अब देख भी रहा था। केदारनाथ का एक छोटा सा गांव है जो पर्यटन व्यवसाय से जुड़ा हुआ है। यह गांव हेलिपैड के लिए प्रसिद्ध है जहाँ से आपको उड़नखटोले के प्राइवेट और सरकारी इंतेजामात मिलते हैं। आप यहां से पवनहंस हेलीकॉप्टर के जरिए भी केदार नाथ के दर्शन कर सकते है। मात्र ५ से ७ मिनटों के अंतर में आप केदार नाथ धाम पहुंच जायेंगे।  
  उड़नखटोले की सवारी लंबे समय के बाद उनलोगों के लिए भगवान केदारनाथ के दर्शन के लिए हवाई सेवा भी शुरु हो गई है जो बड़े इत्मीनान से पैसे ख़र्च कर भारत सरकार के  उपक्रम पवन हंस लिमिटेड उत्तराखंड की सेवा लेना चाहते हैं। उन यात्रियों  के लिए फाटा से केदारनाथ के लिए एक दैनिक हेलीकाप्टर उड़ान सेवा प्रदान करता है। यूं तो देहरादून,अगस्तमुनि,गौचर से भी हेलीकाप्टर सेवाएं बहाल हैं। लेकिन सड़क मार्ग की खूबसूरती का लुफ्त उठाते हुए यदि फाटा से उड़नखटोले की सेवा ली जाये तो यह ज्यादा बेहतर होगा। फाटा में होटल्स और गेस्ट हाउस भी उपलब्ध है आपको तनिक भी परेशानी नहीं होगी।  
   बताते चले सरकारी हेलीकाप्टर के अलावा प्राइवेट अन्य कम्पनियां यथा पिनाकल एवं अन्य ५ से ७ सीटों वाली  हेलीकॉप्टर सेवा प्रदान करती है। 
  पवन हंस की बुकिंग वेबसाइट Pawanhans.co.in के अनुसार, पवन हंस के पास ही उत्तराखंड के फाटा से केदारनाथ के बीच हेलीकॉप्टर कनेक्टिविटी सेवाओं के संचालन का ठेका सुरक्षित है। पवन हंस केदार नाथ यात्रा  की शुरुआत में ही हवाई यात्रा के लिए बुकिंग शुरू करता है। पवन हंस बुकिंग पोर्टल के अनुसार फाटा से केदारनाथ और केदारनाथ से वापस फाटा के लिए प्रति व्यक्ति किराया थोड़े दिन पूर्व ४७९८ रुपये था  जो अन्य प्राइवेट कंपनी के द्वारा ली जाने वाली राशि से कम ही ठहरेंगी । आप वर्तमान किराया भी जान सकते है।   
  पवन हंस प्रतिदिन फाटा से केदारनाथ के लिए १२ हेलीकॉप्टर उड़ानें प्रदान करता है। पवन हंस की वेबसाइट आप जाकर आप और भी जानकारियां इकठ्ठी कर सकते है। उपलब्ध जानकारी के अनुसार, इन १२ उड़ानों में से नौ उसी दिन वापस लौट जाती हैं,जबकि तीन अगले दिन फाटा लौटती हैं. केदारनाथ के लिए पहली उड़ान सुबह ६.५० बजे फाटा से रवाना होती है और सुबह ७  बजे केदारनाथ धाम पहुंच जाती है।  फाटा के लिए वापसी की उड़ान केदारनाथ से दोपहर १२.४०  बजे रवाना होती है और उसी दिन दोपहर १२.५०  बजे फाटा पहुंच जाती है। लेकिन आज और अभी की स्थिति अलग है आप अधतन जानकारी जरूर अपने पास ज़रूर रखें ,यह मेरी वाज़िब सलाह है ।  
  यात्रियों की सुविधा को ध्यान में रखते हुए केदारनाथ से फाटा के लिए वापसी की उड़ानों में लगभग छह घंटे का अंतराल दिया गया है ताकि वे आसानी से तीर्थ यात्रा कर सकें और फिर वापस हेलीकॉप्टर से फाटा लौट जाएं। अगले दिन फाटा से केदारनाथ के लिए वापसी की उड़ान सुबह ११.४० बजे रवाना होती है। मेरी माकूल सलाह यह होगी की कम से कम एक दिन के लिए केदार नाथ तीर्थ में जरूर रहें। मेरी माने तो केदार नाथ में दो से तीन दिन रहना भी कम पड़ेगा। क्योंकि केदारनाथ छोटे से कस्वे में बहुत सारी जगहें हैं जो देखने लायक है। 

क्रमशः जारी ........

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 धारावाहिक यात्रा वृतांत। मन्दाकिनी की ख़ोज में 



सोन प्रयाग  १४  /०६/२०२०। गतांक से आगे १३  
आगे की ओर अब बाकी बची दूरी फाटा  से रामपुर किलोमीटर ,रामपुर से सोनप्रयाग किलोमीटर ,सोनप्रयाग से गौरीकुंड किलोमीटर ,ही  तय करनी रह गयी थी। हम सभी रोमांचित हो रहें थे कि बस थोड़ी ही देर में केदार नाथ के आधार शिविर गौरीकुंड तक़ पहुंचने वाले थे  तब इसके आगे पंच केदार के पहले और सर्वाधिक महत्वपूर्ण केदार नाथ मंदिर तक की १४ किलोमीटर की यात्रा ही शेष रह जाएंगी  


सोन प्रयाग में  बासुकी तथा मन्दाकिनी के संगम का दृश्य  

 सोनप्रयाग १८२९ मी की ऊँचाई पर गौरीकुंड से किलोमीटर तथा केदारनाथ मुख्य मंदिर परिसर से १९ किमी की दूरी पर स्थित है। यह वह तीर्थ स्थान है जहां पर बासुकी और मन्दाकिनी नदियाँ आपस में मिलती हैं। केदारनाथ के मार्ग पर स्थित अपने नदियों के पवित्र जल के संगम के कारण इस स्थान का अत्यधिक धार्मिक प्राकृतिक महत्व है।
  यह गाँव केदारनाथ के  मार्ग पर रामपुर   गौरीकुंड  के मध्य स्थित है गौरीकुण्ड से सोनप्रयाग -  किमी पहले पड़ता है सामान्यतः बसें यहाँ तक ही जाती हैं। यदि आपकी सवारी छोटी गाड़ियां ,टैक्सी ,कार या जीप है तब इससे आगे गौरीकुण्ड तक  किमी की दुरी भी आप तय कर सकते हैं। गौरीकुण्ड मे गर्म पानी के स्त्रोत मे स्नान करने के बाद केदारनाथ की १४ -१९  किमी की लंबी,थकान भरी ,सुखद  चढ़ाई प्रारम्भ होती है।
  २०१३ के बाद के परिवर्तन केदारनाथ आपदा को आए सात वर्ष पूरे होने को हैं। आपदा से पूर्व केदारनाथ यात्रा का अंतिम एवं मुख्य पड़ाव स्थल गौरीकुंड हुआ करता था। तब यहीं से यात्रा संबंधी सभी गतिविधियां संचालित होती थीं। लेकिन,आपदा में गौरीकुंड कस्बा पूरी तरह तबाह हो गया और यहां पर दोबारा यात्रा व्यवस्थाएं नहीं जुटाई जा सकीं। बता दें कि आपदा ने सोनप्रयाग से आगे भारी नुकसान पहुंचाया था। गौरीकुंड में बड़ी पार्किंग और सोनप्रयाग से गौरीकुंड के बीच पूरा हाइवे बह गया था। आपदा के बाद केदारनाथ समेत अन्य यात्रा पड़ावों पर तो पुनर्निर्माण कार्य तो हुए, लेकिन गौरीकुंड की ओर ध्यान नहीं दिया गया। नतीजन ,यात्रा व्यवस्थाएं आगे से सोनप्रयाग से संचालित होने लगीं। 
  तब २०१३ में हम सभी अपनी गाड़ी से सोन प्रयाग तक पहुंच गये थे। आगे के गौरी कुंड तक लम्बी जाम लगी थी। एकाध घंटे बाद जब रास्ता खुला तो हम गौरी कुंड की ओर सरक गए थे। 
  जब हम २०१३ में,ठीक त्रासदी से दस बारह दिन पहले आये थे तो हमने गौरी कुंड से ही रजिस्ट्रेशन की पर्ची कटाई थी। लेकिन अब सब कुछ तब्दील हो चुका है। यह जरुरी भी है कि हम आपको नए परिवर्तनों के बारें में भी बतला दे। अब यहां ६५ करोड़ की लागत वाली पार्किंग के साथ शॉपिग कॉम्प्लेक्स की सुविधा सहित बहुमंजिला इमारत भी बन गयी है। बाहरी राज्यों से आने वाले यात्री वाहन यहीं रखें जाते हैं।
   घोड़ा-खच्चर इसके अलावा गौरीकुंड में स्थान की कमी के कारण घोड़ा-खच्चर भी सोनप्रयाग में ही पड़ाव डालते हैं। यहां यात्रियों के लिए बॉयोमीट्रिक पंजीकरण की व्यवस्था है और राशन, सब्जी, रसोई गैस आदि सामग्री भी यहीं से केदारनाथ और पैदल मार्ग के यात्रा पड़ावों पर भेजी जाती है।
  सोनप्रयाग अब  केदारनाथ यात्रा मुख्य केंद्र बन गया है यह हमें याद रखना होगा। यहीं से केदारनाथ पैदल मार्ग समेत धाम में होने वाली सभी गतिविधियों पर उत्तराखंड प्रशासन नज़र रखता है  १६ -१७ जून २०१३ में आयी प्रलयंकारी आपदा से पूर्व गौरीकुंड यात्रा का मुख्य पड़ाव स्थल हुआ करता था,लेकिन आपदा के बाद से सोनप्रयाग ही समस्त गतिविधियों का केंद्र बनकर रह गया है। रहने के लिए यहाँ स्थान भी मिल जाते हैं। 
 क्रमशः जारी ........

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  धारावाहिक यात्रा वृतांत। मन्दाकिनी की ख़ोज में   




गौरी कुंड २०/०६/२०२०। गतांक से आगे १४    
आधार गांव गौरी कुंड  हम एकाध घंटे के उपरांत गौरीकुण्ड जैसे दिखने वाले एक छोटा से गाँव में पहुंच चुके थे। गौरी कुंड केदारनाथ के लिये ट्रेकिंग आधार का कार्य करता है। यही वो जग़ह हैं जहां से पैदल चढ़ाई की यात्रा आरम्भ होती है। यहां से एक तंग रास्ता उपर की ओर जा रहा था। दोनों तरफ़ दूकानें लगी हुई सजी थीं। इस तंग गली में ही आने जाने वाले श्रद्धालुओं की भीड़ लगी हुई थी। घोड़े टट्टुओं वालों की जमात भी वहां थी। साथ साथ चलते हुए कुछ घोड़े टट्टू वाले ने हमलोगों से जानना,पूछना शुरू कर दिया था, ...चलना है ,साहेब ...इतने पैसे लगेंगे। चलोगे ...? 


गौरी कुंड ,और माँ पार्वती का मंदिर। चित्र इंटरनेट से साभार 

   तप्त कुंड गौरी कुंड में आपको एक तप्त कुंड भी मिलेगा जहाँ आपको लोग डुबकी लगाते हुए मिल जायेंगे। कुछ पैदल ही डंडे लेकर जा रहें थे तो कुछ डोले में। मैंने पूर्व में ही तय कर लिया था कि हम चढ़ाई घोड़े ख़च्चर से ही पूरी करेंगे। उतरने समय प्रकृति का नजारा देखते हुए पैदल उतरेंगे। मेरे हिसाब से सबसे अच्छा तरीका यहीं है कि बिना शरीर को थकाएं आप चढ़ाई का रास्ता घोड़े से पूरी कर ले और उतराई में चल कर नीचे उतरें। इत्मीनान भी होगा और थकेंगे भी नहीं। 
   गौरी कुण्ड ऐसा माना जाता है कि यह वही स्थान है जहाँ देवी पार्वती ने भगवान शिव का हृदय जीतने के लिये तपस्या की थी। इस क्षेत्र में गौरी कुण्ड नाम का एक गर्म पानी का सोता भी है जिसके पानी के न सिर्फ औषधीय गुण हैं बल्कि इससे श्रृद्धालुओं को अपने पापों से भी मुक्ति मिलती है। श्रद्धालू गण इस गौरी कुंड में आस्था की डुबकी लगा कर ही श्री केदारनाथ की पैदल यात्रा शुरू करतें  हैं। यहाँ दान,तर्पण आदि का काम भी संपन्न होता है। विशेष यह है कि इस गौरी कुंड के पानी का रंग शुक्ल पक्ष में पीला और कृष्ण पक्ष में प्राकृतिक रूप से हरा हो जाता है। १९३८ मी की ऊँचाई पर स्थित इस स्थान में गौरी कुंड के पास ही  देवी मां पार्वती को समर्पित एक बहुत ही पुराना मन्दिर है। 
  रास्तें में ही एक छोटा सा कुंड दाहिनी तरफ़ मिला ,झांक कर देखा तिल रखने मात्र की जग़ह नहीं थी। चाह कर भी स्नान करने के लिए हम उस कुंड में प्रवेश नहीं कर सकें। सोचा लौट कर स्नान कर लेंगे। उस
कुंड में इतनी भीड़ में स्नान मात्र के लिए पंक्तिबद्ध हो कर एकाध घंटे व्यतीत करने की इच्छा नहीं हुई। हम शीघ्र अति शीघ्र केदारनाथ मंदिर परिसर तक़ संध्या होने से पूर्व तक़ पहुंच जाना चाह रहें थे। अतः हम सभी गौरी कुंड से आगे बढ़ गए। 
  घोड़े पंजीकरण केंद्र थोड़ी दूर आगे बढ़ने पर ही हमें दाहिनी तरफ़ घोड़े पंजीकरण करने वाले काउंटर भी दिखे,वहां भी अच्छी ख़ासी भीड़ थी। हमें उपर जाने से पहले अपनी यात्रा की पूरी जानकारी देनी होती है जो आवश्यक है। हमने घोड़े वाले से तय करके उन्हें ही पैसे दे दिए कि वे काउंटर से पर्ची कटा लें और हम लोगों के नाम दर्ज़ करवा दें । लेकिन अब पंजीकरण का काम २०१३ की आपदा के बाद सोनप्रयाग में ही होने लगा है।   माँ वैष्णो देवी की तरह यहाँ भी ज्यादातर घोड़े वाले मुस्लिम वाले ही दिखें। लगा यही तो है हमारी गंगा यमुनी तहज़ीब है सहिष्णु सभ्यता है जिस पर हम सभी भारतीय गर्व करते है । 

  क्रमशः जारी ........

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 धारावाहिक यात्रा वृतांत। मन्दाकिनी की ख़ोज में 





 २१ /०६/२०२०। गतांक से आगे १५ 
 नदियां किनारे कभी गांव ,रामबाड़ा।
  गौरीकुंड से आगे बढ़ते हुए हम लोग रामबाड़ा  की तरफ बढ़ रहे थे। हम आपको बताते चलें कि रामबाड़ा गौरीकुंड से करीब करीब  किलोमीटर की दूरी पर है और आगे आने वाले पड़ाव की बात करें तो सबसे पहले आपको गौरीकुंड से चलते हुए और रामबाड़ा के पहले आपको और जंगल चट्टी मिलेगा।  जंगल चट्टी से ही आगे की चढ़ाई शुरू होती है। 
  धीरे धीरे हम घोड़े पर सवार होकर  चढ़ाई के लिए आगे बढ़ने लगे थे। थोड़ी देर आगे बढ़ने के बाद मुझे एहसास हुआ कि मेरी ब्लू रंग की टोपी कहीं गिर गयी है। बहुत दूर तलक नजरें वापस करने से भी मुझे अपनी टोपी कहीं नहीं दिखी। मैंने मान लिया कि मेरी टोपी कहीं गुम हो गयी है। 
  जंगलचट्टी की तरफ़ हम बढ़ते हुए हम सोच  रहें थे कि शायद पेड़ पौधों की अधिकता की बजह से ही इस क्षेत्र का नाम जंगल चट्टी पड़ा होगा । ठीक हमारी  दायी तरफ़ नीचे मन्दाकिनी पतली उजली धारा में मंद मंद रफ़्तार से साथ साथ बह रही थी। इसके बहने मात्र से घाटियों में  हल्का शोर भी हो रहा था। ठीक हमारी बाई तरफ़ सीधे खड़े पहाड़ थे जिसकी तलहटी में हमारे घोड़े चल रहें थे। तो दूसरी ओर घाटी से सटे लम्बे घने पेड़ों के सायें थे। साथ आते जाते घोड़ों के चलने से पैरों में घुंघुरुओं की आबाज  रुनझुन रुनझुन बनकर घाटियों में बज रहीं थी या कहें सर्वत्र  हवाओं में तिर रहीं थी । हम ऊपर की तरफ़ आ रहें थे और मन्दाकिनी नीचे की तरफ़ बहते हुए जा रहीं थी। 
   एकाध घंटे का समय व्यतीत हुआ होगा  हम सभी लोग जंगल चट्टी पहुंच चुके थे। जब आप गौरी कुंड से आगे बढ़ेंगे तो किलोमीटर की दूरी तय करने के बाद अगला पड़ाव जंगल चट्टी ही मिलेगा। थोड़े देर रुकने के उपरांत हम फ़िर आगे की चढ़ाई के लिए बढ़ने लगे थे। 

रामबाड़ा २०१३ के पहले और बाद का दृश्य 
    
  रामबाड़ाजंगलचट्टी से आगे दो किलोमीटर दूर भीमबली है और इसके एक किलोमीटर आगे रामबाड़ा है। और रामबाड़ा यह वह गांव है जहां आज आप कुछ भी नहीं देख सकते हैं क्योंकि उसका अस्तित्व समाप्त हो गया है। साल २०१३ के बाद तो आने जाने वालों तीर्थ यात्रियों को तो रामबाड़ा का अस्तित्व भी नहीं दिखेगा इसलिए मैं आपको बता दूं कभी २०१३ के पूर्व १६ किलोमीटर के गौरीकुंड केदारनाथ पैदल मार्ग पर यहाँ रामबाड़ा नाम  का क़स्बा हुआ करता था। जहाँ घोड़े वाले आधे घंटे का विश्राम लेते थे। यहाँ पर आप मैगी आदि हल्का नाश्ता कर सकते थे। तब केदारनाथ की कुल दूरी रामबाड़ा गरुड़ चट्टी होते हुए - किलोमीटर की दूरी भी न्यून हो जाती थी। 
    मुझे याद है हमलोगों ने भी कुछ देर रुकते हुए हल्का फुल्का नाश्ता किया था। यहीं घोड़े वाले ने घोड़ों को चना खिलाया था। जब आपदा आयी रामबाड़ा की बस्ती बह गयी तो पुराने रास्तें नहीं बनें। रामबाड़ा के पास ही मन्दाकिनी नदी पर एक लोहे का पुल निर्मित कर रास्तें को मोड़ दिया गया। जिससे यह रास्ता थोड़ा अधिक लम्बा हो गया। अन्यथा हम सभी सीधे गरुड़ चट्टी तक चढ़ते हुए इसके बाद ही मन्दाकिनी को लोहे के बने पुल से पार करते हुए पहुँचते थे। आइये हम आपको  तस्वीर  में ही कभी नदियां किनारे गांव रामबाड़ा था इस की तस्वीर भी दिखला देता हूँ। आगे जिस हम पुराने रास्तें जहां से हम गए थे उस रास्तें की चर्चा करते हुए २०१३ की आपदा के बाद बने नए रास्तें और उस रास्तें के मध्य मिलने वाले पड़ावों की भी जानकारी उपलब्ध करवाते जाएंगे। बतातें चले यहीं से एक पुल मिलेगा जो नदी को पार करते हुए नए बने रास्तें के लिए बढ़ जाता है। 
   मैंने ऊपर की ओर देखा ,घने काले बादलों में  बीच उजले शिखर वाले पहाड़ कहीं गुम हो गए थे। यकीन मानिये तो कभी कभी डर भी लग रहा था न जाने क्यों किसी अनहोनी,अंदेशे से मन संशय में डूब उतर रहा था। ठीक मेरे लौटने के चार पांच दिनों के बाद ही तो सैलाव आ गया था न । रामबाड़ा से ऊपर बादलों के मध्य ही कहीं केदार होंगे न पर्वत के उस पार ? घोड़े वाले ने दूर इशारा करते हुए बतलाया ...वो देखिए साहिब वहां है गरुड़चट्टी ...हमें वहां तक जाना है ..... 

  क्रमशः जारी ........
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  धारावाहिक यात्रा वृतांत। मन्दाकिनी की ख़ोज में 






 






 केदारनाथ ,गरुड़चट्टी की ओर १३ /०६/२०२०। गतांक से आगे १६  
पुराने रास्तें हम धीरे धीरे प्रकृति के सौंदर्य का आनन्द लेते हुए गरुड़चट्टी के लिए अग्रसर थे। कभी केदारनाथ यात्रा का प्रमुख पड़ाव रहा था गरुड़चट्टी ,आपदा से पहले गौरीकुंड से केदारनाथ जाने वाला पैदल मार्ग रामबाड़ा और गरुड़चट्टी से होकर ही  गुजरता था,लेकिन मंदाकिनी नदी के उफनती लहरों ने रामबाड़ा का अस्तित्व ही समाप्त कर दिया और इसी के साथ यह रास्ता भी तबाही की भेंट चढ़ गया। वर्ष २०१४ से केदारनाथ यात्रा का मार्ग ही  बदल दिया गया। इसके बाद तब से यह चट्टी सूनी हो गई। 


गरुड़चट्टी का दृश्य ,नक्शा तथा प्रधान मंत्री की साधना गुफा। चित्र इंटरनेट से साभार 


नए रास्तें अब जब आप आएंगे तो रामबाड़ा के बाद  से मुड़ते हुए छोटा लिंचोली १.५ किलोमीटर, छोटा लिंचोली से लिंचोली २.५ किलोमीटर,लिंचोली से छानी कैंप १ किलोमीटर,छानी कैंप से रुद्रा पॉइंट २ किलोमीटर,रुद्रा पॉइंट से बेस कैंप आधा किलोमीटर, बेस कैंप से केदारनाथ मंदिर की दूरी १.५ किलोमीटर तय करनी होगी। गौरीकुंड,जंगल चट्टी ,लिंचोली तथा बेस कैंप में आपको हेलिपैड भी दिख जाएंगे। नदी के उस पार चलते हुए इस तरफ के दरकें हुए पहाड़ और उन पहाड़ों से ढही हुई भुरभुराई मिट्टी दिख जाएंगी। ये थे पुराने रास्तें जो जमींदोज हो गए। और न जाने कितनी जिंदगियां उनमें दफ़न हो गयी थीं हम और आप कल्पना भी नहीं कर सकते है । शायद मेरे लौटने में एकाध सप्ताह की देर हो गयी होती ,मैं होता या न होता यह तो भोले की मंशा और कृपा ही निश्चित करती। कदाचित हम सभी की जीवन रेखा में आयु शेष थी इसलिए हम सभी सकुशल दर्शन कर वापस लौट आये। पहाड़ों से गुजरते हुए आप उन अनजान भटकती हुई रूहों और आत्माओं को जरूर याद कर लें ,याद करते हुए श्रद्धांजलि भी दे दें। शायद इससे उन भटकती हुई आत्माओं को कुछ शांति मिले। चढतें हुए अपने सर के ऊपर मंडराते हुए टिड्डियों की भांति कई एक हेलीकाप्टर दिखें थे।
  गरुड़चट्टी के पुनः निर्माण की खबरें फ़िर से अख़बारों के हवाले से ऐसी खबरें आ रहीं हैं कि पौराणिक मान्यता वाला गरुड़चट्टी अब फिर से आबाद होगा। और एकबारगी पुनः यहाँ कि रौनक़ वापस लौटेंगी। वर्ष २०१७ से  केदारनाथ पुनर्निर्माण कार्यों ने जोर पकड़ा तो गरुड़चट्टी को संवारने की कवायद भी शुरू हो गयी थी  सूत्रों की माने तो रुद्रप्रयाग के जिलाधिकारी के प्रयासों  से केदारनाथ से गरुड़चट्टी तक़ ३ किलोमीटर मार्ग का निर्माण हो चुका है बताया जाता है कि इस मार्ग के निर्माण पर अच्छी खासी राशि भी ख़र्च हुई है । 
  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कभी भी वैराग्य के क्षणों में १९८५ -१९८६  में यहां एक गुफा में साधना भी की थी। जब अक्टूबर २०१७ में केदारनाथ में पुनर्निर्माण कार्यों के शिलान्यास को नरेंद्र मोदी पहुंचे तो स्वयं प्रधानमंत्री ने भी इस चट्टी को आबाद करने की इच्छा जताई थी ,क्योंकि पूर्व से ही केदारनाथ के आस पास के क्षेत्र उनकी दिलचस्पी,योग साधना के अभिकेंद्र रहें हैं। यह निश्चित किया गया कि केदारनाथ आने वाले यात्रियों को गरुड़चट्टी का महात्म्य बताया जाएगा। इसके लिए जगह-जगह बोर्ड भी लगाए जाएंगे।  प्रयास यह होगा कि अधिक-अधिक यात्री गरुड़चट्टी पहुंचे। आपने भी हालिया उनके केदारनाथ आने और केदारनाथ स्थित ध्यान गुफ़ा में साधना करने की बात सुनी ही होगी। यह ध्यान गुफ़ा मंदिर से २ से किलोमीटर दूर पहाड़ी में स्थित है जहां प्रधानमंत्री मोदी ध्यान साधना किया करते है। 
 गरुडचट्टी की पौराणिक मान्यता यह है कि भगवान विष्णु गरुड़ पर बैठकर केदारनाथ आए थे। तब वह इसी चट्टी पर उतरे थे। यहां गरुड़ की मूर्ति भी है। इसीलिए इसका नाम गरुड़चट्टी पड़ा। यहां गुफाएं हैं, जिनमें कई साधु-संतों ने साधना की। गरुड़चट्टी तक़ की चढ़ाई सीधी और खड़ी चढ़ाई थी और इसके बाद समतल और सपाट मैदान आने वाला था। रास्तें में अब पिघलते हुए ग्लेशियर भी मिलने लगे थे। साधुओं की टोलियाँ भी गरुड़चट्टी में दिखीं। आस पास कंदराएं देख कर लगा अवश्य ही इसमें साधु संत तपस्या करते होंगे।   

क्रमशः जारी ........
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  धारावाहिक यात्रा वृतांत। मन्दाकिनी की ख़ोज में 



  




  गरुड़चट्टी से केदारनाथ , २७/०६/२०२०। गतांक से आगे १७  
  अब हमने  चढ़ाई का रास्तां मुक़म्मल कर लिया था। थकान भरे रास्तें ख़त्म हो चुके थें । गरुड़चट्टी के बाद हमलोग बायीं तरफ़ मुड़ चुके थे। और सामने का रास्तां लगभग समतल ही दिख रहा था। आस पास हलकी पहाड़ियां उठी दिख रही थी और इसकी तलहट्टी में हमारे घोड़े बड़ी मस्ती में आगे बढ़ रहें थे। उनकी टापों की आवाजें उनके गले में लगी घंटी की मधुर ध्वनि के साथ मिश्रित हो रहीं थी।
   अब जब आप जा रहें होंगे तो ये पुराने रास्तें तथा नदी आपको बाई तरफ़ मिलेंगी । नए रास्तें में आपको मन्दाकिनी नहीं पार करनी होगी क्योंकि आप रामबाड़ा के पास ही मन्दाकिनी पार कर चुके होंगे। लेकिन हमें थोड़ी देर बाद ही पुराने रास्तें में मन्दाकिनी पर बना एक पुल दिखा जिसे हमें  पुल पार करना था ,नीचे से नदी बड़ी तेज़ रफ़्तार में पत्थरों से टकराते हुए आगे बढ़ रही थी। पुल पार करने के साथ ही हम केदारनाथ की बस्ती की तरफ़ बढ़ चले थे। 
केदारनाथ मंदिर प्रांगण में मैं और मेरे मित्र डॉ प्रशांत और मेरे सहयात्री 
   और दूर कहीं खिलौने की भांति केदार नाथ मंदिर का हमें शीर्ष भी दिखने लगा था। हम कितने आह्लादित हो गए थे ,है ना। यह सोचते हुए कि जल्द ओम नमो शिवाय के दर्शन होंगे। आगे हमारे रास्तें के  दोनों तरफ़ दूर हट कर हरे भरे पहाड़ जैसे अपनी बाहें फैलाएं बुला रहें थे। और मन्दाकिनी हमारे पार्श्व में ही बह रही थी। जैसे वह हमारे कानों में प्यारी सी धुन गुनगुना रही थी ...मेरे ही पास तुझे आना है ..मेरे ही पास तुझे जाना है। हम उसके पास ही तो जा रहें थे। 
  धीरे धीरे घोड़े वालों की कतारें दिखनी लगी थी। तीर्थ यात्रियों को भोले के यहां पहुँचाने के बाद वापसी के लिए श्रद्धालु पर्यटकों के इंतजार में खड़े दिख रहें थे। इन तीन चार महीनों में ही सालों भर के राशन पानी का इन्तेज़ाम करना होता है। अब बस्ती भी मय दुकानों की दिखने लगी थी। हम केदार के पास थे। 
  आज चलते चलते सोच रहा हूं हमारी दायी तरफ़ कोई रास्ता नहीं है सिर्फ़ और सिर्फ घास के विस्तृत मैदान हैं और उस घास के मैदान में चरती हुई कुछ भेड़ बकरियां है। सालों बाद ये रास्तें वीरान हो जायेंगे। नदी के उस पार एक नया रास्ता बन जायेगा और उस पार से ही दिखने वाले ये पुराने रास्तें है केदार के आपको केदार में आयी बाढ़ की ढ़ेर सारी अनकही कहानियां कह जाएंगे। कल्पना कर लीजियेगा उस तबाही की तस्वीर को भी।  हम सबों के  केदार नाथ में रहने का इंतज़ाम हो गया था। हमारे गुजरात के मित्र  डॉ प्रशांत ने पहले से ही छत्तीसगढ़ के वन विभाग के शीर्ष अधिकारी डॉ शैलेन्द्र के जरिये उनके परिचित पुरोहित के यहाँ ठहरने की व्यवस्था कर दी थी। हम निश्चिन्त थे की हमें ठौर ठिकाने के लिए इधर उधर भटकना नहीं पड़ेगा। हमें रहने तथा दर्शन मात्र के लिए काफ़ी पैसे भी ख़र्च करने पड़े थे। 
  तब मंदिर की संकरी गलियों से  गुजरते हुए मंदिर के क़रीब हमलोग पहुंच चुके थे। केदार ठीक हमारे सामने थे। मंदिर से भजन बजने की मधुर आबाजें आ रही थी। लोग पंक्तिबद्ध दिखे और सामने नंदी की पीठ दिख रही थी। मुख्य दरबाजे के भीतर कुछ भी नहीं दिख रहा था।  डॉ प्रशांत के पास पुरोहित जी का नंबर था उन्हें हमलोगों ने अपने आने की सूचना दे दी। थोड़े देर बाद ही पंडित जी महाराज हमारी आँखों के सामने थे। जल्द ही उन्होंने हमारे रहने के लिए कमरें दे दिए। हम बहुत ही प्रसन्न हुए यह देख कर कि  मंदिर  के ठीक सामने ही हम ठहरे थे। बिल्कुल पास एकदम  मंदिर परिसर से सटे ही हमारे कमरें थे। हम खुली आँखों से मंदिर को घंटों निहार सकते थे। यह भोले की किरपा ही कही जाए कि वह घर उस विनाशकारी बाढ़ में भी बचा रह गया था। 

यूट्यूब लिंक केदार नाथ के दृश्य देखने के लिए 
https://youtu.be/kwM2ApskJy4

क्रमशः जारी ........

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 धारावाहिक यात्रा वृतांत। मन्दाकिनी की ख़ोज में 










 

जब मेरे सामने थे केदार। ३० /६ २०२०। गतांक से आगे १८ 
हम सभी अपने कमरे में थे और हमारे सामने थे केदार। मंदिर परिसर देखने के लिए मैं बालकनी में आ गया था। एक बड़ी सर्पीली पंक्ति में लोग न जाने कितने घंटे से लगे हुए थे भोले के दर्शन के लिए । पता चला यह आम लोगों का समूह था। मंदिर एक समतल से दिखने वाले मैदान में बना हुआ था । मंदिर के मुख्य द्वार के सामने ही नंदी बैठे हुए थे। मंदिर के प्रांगण में भोले के पुजारी ,साधु ,संतों ,भूत बेताल का स्वांग धरे बहुतेरे लोग मौजूद थे। कोई भोले का भजन गा रहा था तो कोई साधु राख भभूत लगाए धूनी लगाए हुए चिलम से अलख जगा रहा था। कह सकते है सम्पूर्ण वातावरण ही शिव मय हो गया था और हम सभी जैसे कैलाश नगरी में थे। भूत ,बेताल,औघड़ शिव के बड़े प्रिय है ना ?  

बायीं तरफ़ केदार २०१३ के पूर्व। दाई तरफ़ केदार त्रासदी के बाद। चित्र इंटरनेट से साभार 

और नंदी के ठीक आगे से कुछेक सात आठ सीढ़ियां बनी हुई थी और फ़िर सीढ़ियों से जुड़ी थी एक संकरी गली। संकरी गली से ही जुड़ी है केदारनाथ की छोटी बस्ती जिसमें साधु ,संतों ,पण्डे पुरोहित ,घोड़े तथा छोटे मोटे व्यवसाय वालों का रहना होता है। इस छोटी सी आबादी में गर्मियों में आने जाने वाले तीर्थयात्री,श्रद्धालू भी शुमार हो जाते है। घरों की बात करें तो होटल ,लॉज ,रेस्ट हाउस तथा विश्रामालय ही ज़्यादातर दिखे।  
भोले के दर्शन के बारें में जानकारियां इकट्ठी की तो मालूम हुआ सुबह ६ बजे से दोपहर इसके बाद पुनः शाम से भोले का दरबार आम जनों के लिए दर्शन के लिए ही खोल दिया जाता  है। दोपहर  तीन से पाँच बजे तक विशेष पूजा होती है और उसके बाद विश्राम के लिए मन्दिर का  पट बन्द कर दिया जाता है। शाम ५  बजे के बाद पुनः जनता के दर्शन हेतु मन्दिर खोला जाता है। पाँच मुख वाली भगवान शिव की प्रतिमा का विधिवत श्रृंगार करके ७.३० बजे से ८.३० बजे तक नियमित आरती होती है। रात्रि ८.३०  बजे केदारेश्वर ज्योतिर्लिंग का मन्दिर बन्द कर दिया जाता है।
इसके बाद आम जनों के दर्शन की समय सीमा समाप्त हो जाती है। रात्रि आठ नौ बजे की आरती के बाद विशेष दर्शन की अवधि शुरू होती है। जिसके लिए आपको अच्छी खासी रक़म ख़र्च करनी होगी। सामान्य हो कर दर्शन लाभ लेने के लिए आपको कदाचित सात से आठ घंटे लगेगे। हमारे कुल सात जनों के लिए मंदिर गर्भ गृह में प्रवेश करने,और दर्शन करने के लिए पंडित जी महाराज ने रात नौ बजे का समय सुनिश्चित कर दिया था। हमें इस विशेष दर्शन के लिए दस हज़ार की राशि श्रद्धा दान में देनी थी। अभी हमारे पास अतिरिक्त समय था,इसलिए हम सभी मंदिर के आस पास के क्षेत्र घूमने देखने निकल गए। 
मन्दाकिनी की पतली धारा मंदिर के साथ पास में ही बह रहीं थीं। पानी का बहाव कम ही था। कहीं दूर ग्लेशियरों से पिघल कर मन्दाकिनी बहती चली आ रही थी। मंदिर मन्दाकिनी नदी के घाट पर ही बना हुआ हैं 
स्थिति आपको  बताते  चले कि उत्तराखंड,गड़वाल संभाग के रुद्रप्रयाग जिले में ११७५० फुट की ऊंचाई पर बल खाती सर्पिली मंदाकिनी नदी के सिरे पर बसा केदारनाथ ,खूबसूरत प्राकृतिक दृश्यों से भरपूर हिंदुओं  के लिए एक अत्यंत मनोरम व प्रमुख धार्मिक पर्यटन स्थल है। दो  किलोमीटर लंबी व डेढ़ किलोमीटर चौड़ी बर्फीली घाटी के मध्य ,ऊंचे ऊंचे  पर्वतों से घिरा यह मनोरम स्थल  किसी चित्रकार की कूचि से उकेरे गए रंगभूमि के समान है ,जहां घने चीड़ ,देबदार पेड़ों  के जंगल है। शोर मचाते झरनें हैं। बर्फ और ग्लेशियर से बनी  घाटियां  हैं। इसका  निचला हिस्सा अत्यंत मनोरम  है और पशुपक्षी विहार सा लगता है। यहां से हिमालय के भव्य दृश्य आनंददायक तथा मन्त्रमुग्ध  करने वाले हैं। 
केदारनाथ मंदिर का निर्माण काल  जनश्रुति है कि इसका निर्माण पांडवों या उनके वंशज जन्मेजय द्वारा करवाया गया था। साथ ही यह भी प्रचलित है कि मंदिर का जीर्णोद्धार जगद्गुरु शंकराचार्य  ने आठवीं शदी में करवाया था। मंदिर के पृष्ठभाग में शंकराचार्य जी की समाधि है। जबकि राहुल सांस्कृत्यान द्वारा इस मंदिर का निर्माणकाल १०वीं व १२वीं शताब्दी के मध्य बताया गया है। 
 वास्तुकला का अद्भुत व आकर्षक नमूना है यह मंदिर। चौरीबारी हिमनद के कुंड से निकलती मंदाकिनी नदी के समीप, केदारनाथ पर्वत शिखर के पाद में, कत्यूरी शैली द्वारा निर्मित, विश्व प्रसिद्ध केदारनाथ मंदिर (३,५६२ मीटर) की ऊँचाई पर अवस्थित है।
यह मन्दिर एक छह फीट ऊँचे चौकोर चबूतरे पर बना हुआ है। हालांकि २०१३ साल के बाद बहुत सारी तब्दीलियां आ गयी हैं। ऊँचे चौकोर चबूतरे अब समतल हो चुका है। मन्दिर में मुख्य भाग मण्डप और गर्भगृह के चारों ओर प्रदक्षिणा पथ है। बाहर प्रांगण में नन्दी बैल वाहन के रूप में विराजमान हैं। भीतर गर्भ गृह में काफ़ी अन्धकार रहता है और दीपक के सहारे ही शंकर जी के दर्शन होते हैं। शिवलिंग स्वयंभू है। सम्मुख की ओर यात्री जल-पुष्पादि चढ़ाते हैं और दूसरी ओर भगवान को घृत अर्पित कर बाँह भरकर मिलते हैं, मूर्ति चार हाथ लम्बी और डेढ़ हाथ मोटी है। मंदिर के भीतर जगमोहन में द्रौपदी सहित पाँच पाण्डवों की विशाल मूर्तियाँ हैं। मंदिर के गर्भ गृह में नुकीली चट्टान भगवान शिव के सदाशिव रूप में पूजी जाती है। तथा मंदिर के पीछे कई कुण्ड हैं, जिनमें आचमन तथा तर्पण किया जा सकता है।
 शंकराचार्य की समाधि  मंदिर के आसपास घूमते हुए ही हमने भी शांत कोने में जलश्रोतों के समीप  बनी शंकराचार्य की समाधि भी  देखी। मान्यता यह है आदिगुरु शंकराचार्य ने ३२ साल की अवस्था में यहाँ समाधि ले ली थी। 

यूट्यूब लिंक साभार   केदार नाथ के दृश्य देखने के लिए 

क्रमशः जारी ........
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धारावाहिक यात्रा वृतांत। मन्दाकिनी की ख़ोज में 









खिलते हैं ब्रह्म कमल यहाँ,वासुकी ताल ०१ /०७ /२०२०। गतांक से आगे १९  
अन्य दर्शनीय स्थान मैंने केदारनाथ मंदिर के पार्श्व में तथा आस पास ही देखने लायक आपके लिए कई एक जग़ह तलाश की,देखी उनमें से आप चंद्रपुरी,अनुसूया देवी टेम्पल,गाँधी सरोवर,देवरिया ताल और आठ  किलोमीटर दूर वासुकी ताल आदि प्रमुख स्थलों हैं जिन्हें आप देख सकते है। मैं तो कहूंगा जरूर देख लीजिये।
 
वासुकी ताल और आस पास खिलते ब्रह्म कमल,चित्र इंटरनेट से साभार 

वासुकी ताल  दूसरी झील या सरोवर कहें वासुकी ताल है जो मंदिर से ७ -८ किलोमीटर दूर तथा ४३१५ मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। यह झील ऊँची पहाड़ियों के मध्य अवस्थित  है। ४१३५ मीटर की ऊंचाई वाली चौखम्भा की चोटी पर मौजूदा ताल को देखने के  लिए सर्वाधिक पर्यटक जाते  है। एक बेहद खूबसूरत ताल हैं यदि आप श्रावण के महीने में आप वासुकी ताल जा रहें हैं तो जहाँ आपको दुर्लभ ब्रह्म कमल के भी दर्शन हो जाएंगे।केदारनाथ धाम ११३०० फीट से लगभग ८ किलोमीटर दूर वासुकी ताल १३३०० फ़ीट की ऊंचाई पर एक बेहद खूबसूरत छोटी झील है जो ट्रेकर्स,प्रकृति प्रेमियों  के लिए मनभावन जग़ह हैं। यह सच है कि हिमालयी के ऊपरी दुर्गम इलाकों में अनेक खूबसूरत ताल तलैयें,झील हैं जो हिमनदों से निर्मित हुए हैं। लेकिन भौगोलिक कठिनाइयों और रास्ते का पता न होने के कारण इन सभी तक पंहुचना बेहद मुश्किल है तथा जोख़िम भरा भी है। तथापि केदारनाथ से कुछ दूरी पर स्थित वासुकी ताल और बदरीनाथ - माणा से २५ किमी दूर सतोपंथ ताल ऐसे ताल हैं जहाँ तक,कठिन भौगौलिक परिस्थितियों के बाद भी पहुंचा जा सकता है। और लोग पहुंच भी रहें हैं। हिमालय की चोटियों की तलहटी में ये दोनों ताल बेहद खूबसूरत हैं और पर्यटकों के देखने लायक हैं। इनका धार्मिक महत्व भी पौराणिक ग्रंन्थों में कई स्थानों पर बताया गया है। हिमालय के ऊपरी इलाकों में स्थित और कठिन भौगौलिक परिस्थितियों के बाबजूद भी इनके रास्तों की खूबसूरती ट्रैकरों और श्रद्धालुओं का हौसला बनाएं रखती हैं,और उन्हें पास बुलाने के लिए आमंत्रित करते रहती हैं। इन दोनों तालों तक पहुंचने के बाद यहां का अनुपम सौन्दर्य देख कर यात्री,पर्यटक,ट्रेकर्स अपनी सारी थकान भूल जाते हैं,उन्हें अपनी यह कठिन चढ़ाई अत्यंत सुखद लगती हैं। यात्री तालों की सुन्दरता में और हिमालय में हर समय पैदा होने वाली अज्ञात,असाधारण आध्यात्मिक माहौल में कदाचित डूब कर तल्लीन हो जाते हैं। 
सावन के महीने में भगवान भोलेनाथ को प्रसाद के रूप में ब्रम्हकमल ही चढ़ाया जाता है यह बात हमारे साथ चलते हुए घोड़े वाले ने बताई थी। उसने कहा था श्रावण के महीने में जब आप आएंगे तो ढेर सारे लोग वासुकी ताल जाने वाले लोग मिल जाएंगे। ...सर आपको एक जरुरी बात और बता दे ...केदारनाथ से ब्राह्मण नंगे पांव ही ब्रह्मकमल को लेने के लिए वासुकीताल पहुंच जाते हैं और वहां से ब्रह्मकमल लेकर केदारनाथ धाम वापस लौट कर इन्हें भोलेनाथ के चरणों में चढ़ाते हैं। वासुकी ताल में ब्रह्मकमल की बगियां को निहारना है तो जुलाई अगस्त महीने का समय सर्वोत्तम है । 
कैसे जाएं केदारनाथ से वासुकी ताल पंहुचने के लिए मंदाकिनी के तट से लगे पुराने घोड़ा पड़ाव के पास आना होता हैं वहां से चढ़ते हुए हमें दूध गंगा के उद्गम श्रोत की ओर सीधी चढ़ाई चढ़नी होती है। नाक की सीध में ४  किमी की चढ़ाई चढ़कर खिरयोड़ धार,सबसे ऊंची जगह आती है। इस ऊंची जगह पहुंचने  के बाद पहली बार हमें खुला मैदान दिखता है,यहां से २ किमी हलकी चढ़ाई के बाद केदारनाथ-वासुकी ताल ट्रैक की सबसे ऊंचाई वाली जगह जय-विजय धार (१४००० फीट) आती है। इस जय-विजय धार से नीचे लगभग २००  मीटर उतरकर अप्रतिम ख़ूबसूरत वासुकी ताल के दर्शन होने लगते हैं। आगे की २ किमी की दूरी पर बड़े-बड़े पत्थरों के बीच चलते हुए पैरों को संतुलित करना बेहद मुश्किल काम प्रतीत होता है। 
सुबह जल्दी निकलने की जरूरत होगी। यदि आपके साथ स्थानीय गाइड साथ हों तो अतिउत्तम और इस ट्रैक के लिए केदारनाथ से प्रातः ३ से चार बजे निकलने की कोशिश करें  तो सारे रास्ते से केदारनाथ के पीछे स्थित केदारडोम (२२४०८फीट) और अन्य हिम-शिखरों की हिम-राशि पर सूरज की पहली किरण पड़ने के बाद हर पल बदलने वाले दृश्यों को आप कैमरों में कैद कर सकते हैं। साथ ही वासुकी ताल पर पड़ती उगते हुए सूरज की किरणों को भी देखा जा सकता है। 
कैंपिंग का भी विकल्प : यदि अनुभवी ट्रैकर न हों तो वासुकी ताल के पास टेंट लगा कर कैंपिग भी की जा सकती है.वासुकी ताल के पास और ऊंपर सुरक्षित और अच्छा कैंपिग ग्राउंड है,वासुकी ताल को लैंड आफ ब्रम्हकमल भी कहा जाता है। अनुपम स्थल है आपको बेहद अच्छा लगेगा। 
साथ लें जाएं खाने पीने का सामान : एक अच्छे,अनुभवी  ट्रैकर को केदारनाथ से बिल्कुल सुबह चल कर वासुकी ताल घूमकर शाम तक वापस केदारनाथ आने में  कुल १६  किमी की दूरी तय होती हैं। यह पूरा ट्रैक कठिन तो है ही साथ ही कम ही लोग यहां आते जाते दिखाई देंते हैं,इसलिए रास्ते में कोई बस्ती या कोई मकान- दुकान नहीं मिलते हैं,इसलिए अपने साथ ही खाने की सामाग्री,पानी आदि ले जाना होता है। 
खिलते हैं फूल यहाँ ,जी हाँ यहाँ आपको यहां हर तरफ दुर्लभ प्रजाति के असंख्य खिले हुए ब्रह्मकमल दिखेंगे : जय विजय धार को पार करते ही चारों और ब्रह्मकमल और अन्य जड़ी बूटियों की खूशबू आपको मंत्रमुग्ध कर देती है। उत्तराखंड के पहाड़ों में १२०००  फीट से लेकर १४००० फीट तक पुराने ग्लैशियरों के साथ आई चट्टानें  हर जगह देखने को मिलती हैं। लेकिन ट्रेकिंग के मध्य का यह कठिन सफ़र और डगर,आसपास हिमालयी घास वाले चरागाहों ,मैदानों और ढलानों में बिछे फूलों और ब्रह्म कमलों की प्राकृतिक बगिया के बीच से गुजरते हुए और वासुकी ताल के हर पल बदलते रंगो को देखते हुए कब कट जाती है पता भी नहीं चलता है। 
 पूर्णमासी के दिन यहां दिखते हैं वासुकि नाग : ऐसा स्कंद पुराण में वर्णित है। इसके अनुसार वासुकी ताल वास्तव में देव सरिता गंगा की सहायिका अंग नदी कालिका नदी के जलधारण करने निमित से बना तालाब है,जहां किस्सें हैं कि नागों के राजा वासुकी हर पल निवास करते हैं। स्कंद पुराण में वर्णित है कि श्रावण मास की पूर्णमासी के दिन इस ताल में मणि युक्त वासुकि नाग के दर्शन होते हैं,शायद इसी उत्सुकता वश भी लोग वासुकि ताल तक पहुंच जाते हैं कि उन्हें मणि युक्त वासुकि नाग के दर्शन लाभ मिल जाएं। वासुकी ताल की परिधि लगभग 700 मीटर की है इस तालाब के पानी से वासुकि गंगा नदी निकलती है। यही वासुकि गंगा,केदारनाथ से निकलने वाली मंदाकिनी से सोनप्रयाग स्थान में मिलती है। वासुकी ताल का पानी बिल्कुल साफ है. हवा के बहाव के साथ पानी में खूबसूरती के साथ बनती तरंगे बेहद खूबसूरत लगती हैं। 
धारावाहिक यात्रा वृतांत। मन्दाकिनी की ख़ोज में 
 गाँधी सरोवर मुझे याद है जब हम मंदिर की ओर बढ़ रहें थे तो हमें गाँधी सरोवर लिखी एक पट्टिका भी मिली थी तो हमें यह ज्ञात हो गया था कि उस पथरीले रास्ते का अनुसरण कर हम गांधी सरोवर पहुंच सकते है। यह केदार मंदिर के ठीक पहाड़ी में चोराबाड़ी ग्लेशियर के समीप बायीं तरफ़ स्थित है। यह  पहला सरोवर है आप चहलकदमी कर यहां जा सकते है  जो मंदिर के ठीक एक दो किलोमीटर के दायरें में है। आसपास घूमते हुए ही हमें गाँधी सरोवर या कहें  चोराबाड़ी ताल  जाने का  मार्ग भी लिखा हुआ मिल गया जो हमने रास्तें में आते हुए देखा था। यह मार्ग ठीक मंदिर के उत्तरवर्ती दिशा में ऊपर को जाता  है जहां चोरा बाड़ी हिमनद मिलते है । ठीक चोरा बाड़ी हिमनद से पश्चिम दिशा में तलहटी में चोरा बाड़ी ताल या गाँधी सरोवर है। कुछ घोड़े वाले या कहें कुछ साहसी पर्यटक भी होंगे जो गाँधी सरोवर देखना चाह रहें थे उधर जा रहें थे। 
प्रलय का श्रोत : यह वही गांधी सरोवर है जो मंदिर से थोड़ी दूर पर अवस्थित ऊंचाई चोराबाड़ी ग्लेशियर से बना है तथा जिसके किनारे टूटने से पूरी घाटी में जून में सैलाब गया था,और पूरी घाटी तबाह हो गई थी 
सोचा दुबारा आकर देखूंगा भला दुवारा आना कब संभव हो पाता है। गांधी सरोवर मुख्य मंदिर परिसर से डेढ़ किलोमीटर दूर यह एक छोटा सा सरोवर है जो चोराबाड़ी ग्लेशियर के पिघलने से निर्मित हुआ है। ऐसी किंवदन्तियाँ है या यहां की गाथाओं में है,लोग बताते हैं कि यहां से युधिष्ठिर ने स्वर्ग के लिए प्रस्थान किया था। । यहां पर्यटक पिकनिक का आनंद भी उठा सकते हैं। इस स्थल पर गांधीजी की अस्थियां प्रवाहित की गई थीं,इसलिए इस का नाम गांधी सरोवर पड़ गया। जब आप केदारनाथ आ रहें हो तो गांधी सरोवर घूमने के लिए समय अवश्य निकालें। पास में ही हैं। 
    
क्रमशः जारी ........

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[12:33 PM, 7/17/2020] -: एकाध घंटे में ही हमने पूरी केदार घाटी घुम कर देख ली थी। संकरी गलियों में घूमते हुए हमें एक दो कुंड वाले मंदिर भी दिखे जिसमें साधु बैठे हुए भी मिले जो उस कुंड के जल से आचमन कर जन्म मरण के बंधन से मुक्ति पाने की बात कर रहें थें। अध्यात्म के इस शहर का व्यवसायीकरण भी होता मैं देख रहा था।  
केदारनाथ,६ जून २०१३ की सुबह, बेहद ठंड थी.हम इस असहनीय ठंड में भी रजाई में दुबके रह कर सोने के बजाय बाहर घूम रहें थे. मैं था और मेरे साथ मेरी तन्हाई थी. और इस सुबह की तन्हाई में भी साथ देने वाले एक जन और थे वे थे मेरे अंतरंग दोस्त डॉ प्रशांत,हम सभी केदारनाथ धाम से लौटने की तैयारी कर रहें थे। 
शुभ प्रभात होते ही मंदिर परिसर में ओम नमो शिवाय मंत्रोंच्चारण की मध्यम आवाज़ पूरी घाटी में गूँजने लगी थीसोचा भोले का अंतिम दर्शन कर लूं शायद इसलिए हम और हमारे परम मित्र डॉ प्रशांत जो गुजरात से थे ,मंदिरपरिसर में सुबह सुबह सबसे पहले उठ कर चहलक़दमी कर रहें थे जबकि मेरे जत्थें  के बाक़ी अन्य लोग गिलाफ़ के अंदर अपने अपने सरों  को घुसेड़े हुए शुतुमुर्ग की तरह अभी तक़ सो रहें  थे.उनके लिए दर्शन से ज्यादा सोना महत्वपूर्ण था। 
सबकी अपनी अपनी सोच है,सबके जीने के अलग़ अलग़ तरीक़े,प्रेम भाव तब तक़ बना रहेगा जब तक़ कि आपदूसरों की स्वतन्त्रा का हनन ना करते है. सुबह सुबह शिव का नाम लेते हुए  मैं और डॉ प्रशांत ज्यादा से  ज्यादा एक दुसरे की फोटों खींच कर संतुष्ट हो रहे थे कि हम  केदार नाथ धाम की ढेर सारी  स्मृतियाँ अपने पास रख ले न जाने फ़िर कब आना हो।  फोटो खिंचवाने और खीचने आदि का काम पूरा कर लेने के पश्चात् हम भरे मन से केदार घाटी से गौरी कुंड जो नीचे काआधार कैंपहै,की तरफ लौटने लगे थे. संक्षिप्ततः इस यात्रा अनुभव के आधार पर मैं कह सकता हूँ कि उत्तराखंड अवस्थित घामों की सुरक्षित व सकुशल यात्रा परमपिता की इच्छा व उनकी दया पर ही आश्रित व आधारित है .जो लौट आते हैं वे भाग्यशाली हैं उनपर भगवान की कृपा कायम है।हमारी हेमकुंड साहिब ,बदरीनाथ से होते हुए केदारनाथ की सफल व सुरक्षित यात्रा अब और भी महत्वपूर्ण,रोमांचक और यादगार हो जाती है,जब से उत्तराखंड में मची भयंकर तबाही के उपरांत करोड़ों अश्रुपूरित आंखों से निकले आंसुओं का सैलाब थमने का नाम नहीं ले रहा है. करीब दस  हजार से ज़्यादा की संख्या में लापता हुए लोग,हजारों की संख्या में असमय काल के गाल में समा गये लोगों के प्रति हमारी नम भावभीनी श्रद्धांजली हैइस विनम्र निवेदन के साथ कि हम पर्यावरण विद् बनें प्रकृति प्रेमी हो अपनी भौतिक लालसा को नियंत्रण में रखें ताकि प्रकृति की इस भयावह , विनाशकारी , प्रलय का सामना दुबारा न करना पड़े फिर भी एक अनुत्तरित सवाल मेरे मन में बरसों से है, शिव तो शिव हैं,आखिरकार उन्होंने लोगों को विनाश से क्यों नहीं बचाया ?
हमलोग पैदल ही नीचे उतरने लगे थे। हमारे पीछे घोड़े, टट्टुओं  वालों की आती जाती कतारें दिख रही थी। यदि आप हमसे पूछेंगे तो  मेरी फ़िर से एक ही सुविचारित सटीक और अनुकरणीय सलाह होगी कि आप घोड़े या टट्टुओं के जरिए चढ़ाई के रास्ते पूरा करें। लौटते समय वापसी का रास्ता पैदल तय करें। प्रकृति के ख़ूबसूरत नज़ारें देखते हुए कब समय कट जाएगा आपको मालूम भी नहीं होगा। फ़िर अनावश्यक घोड़े ,खच्चरों से गिरने का डर भी आपको नहीं सताता रहेगा। जब तक केदार दिखे मैं पीछे मुड़ मुड़ कर देखता ही रहा। 
सुबह ६ बजे  हमने वापसी की यात्रा शुरु की। चलते हुए हमे शीघ्र ही पार्श्व में  बहती हुई  मंदाकिनी नदी मिल गयी । इसके उपर बने पुल को पार करते हुए हमें  कुछेक भक्त मिल गए जो भजन आदि गाते हुए देवी देवताओं को प्रसन्न करने के लिए भरसक प्रयास कर रहें थे। कुछेक घंटे उपरांत गरुड़ चट्टी से गुजरते  हुए रामबाड़ा पहुंचना था । फिर रामबाड़ा से गौरीकुंड। लेकिन आप यह याद रखें अब जब कभी भी आप लौटेंगे तो आपके साथ नए हमसफ़र होंगे ,नया डगर भी होगा।
गरुड़ चट्टी से उतरने के क्रम में  गरुड़ चट्टी से नीचे मुडते ही केदार हमे अब नहीं दिखने लगे थे। सिर्फ नीचे तीव्र ढलान ही था। और हम तीव्र गति से ढलानों से नीचे उतरने लगे थे। धूप तीखी थी। उष्णता हमें  लग रही थी। गरुड़ चट्टी से जब आप आगे चलेंगे तो थोड़ी देर बाद ही नीचे घाटियों में हमें रामबाड़ा दिखने लगा था । यह एक छोटें  गांव के समान  ठहराव स्थल है जहां घोड़े वाले चढ़ाई के समय अल्पविराम के  लिए विश्रामित होते है।महाप्रलय के बाद तो रामबाड़ा का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा। अब आने जाने बाले नवागंतुकों को रामबाड़ा देखने को अबसर प्राप्त ही नहीं होगा ,यह सोचना दुःखदायी था । और आप यहाँ से इत्मीनान से पैदल चलते हुए आस पास की घाटियों की नैसर्गिक ख़ूबसूरती का भरपूर आंनद ले सकते है
रामबाड़ा में आते ही हमें  सकून हुआ कि अब हम गौरीकुंड के समीप है यही कोई ५ या ६ किलोमीटर दूर और एकाध डेढ़ घंटे में गौरीकुंड पहुंच जायेंगे,अब थकान होने लगी थी.शरीर विश्राम चाह रहा था रास्ते के मध्य मैं वो जगह तलाश करने लगा जहां आते समय मेरी पसंदीदा ब्लू रंग की टोपी कहीं गिर गयी थी। 
लौटते समय मुझे मिल सकती है क्या ? अपनी  टोपी को लेकर के मैं न जाने क्यों  सतयुग की बात सोचने लगा थकि काश मेरी टोपी मिल जाए। और भोले बाबा की कृपा हो जाए। लेकिन यह मात्र एक कपोल कल्पना थी।
गौरीकुंड कुछ मिनटों के उपरांत हम तेज़ी से चलते हुए गौरीकुंड के पास थे। इस समय भी कुंड के पास काफ़ी भीड़ थी। ज्यादातर लोग सनातनी विचारधारा ,हिन्दू रीति रिवाज़ों का गहराई से पालन करते है। कुछ नहीं। मैं कबीरपंथी होने में विश्वास रखता हूं। चाह कर भी लौटते समय  स्नान करने की कामना अधूरी रहते हुए दिल में सिमट कर रह गयी क्योंकि  वहां काफ़ी भीड़ थी।  हम अपनी गाड़ी की तरफ़ बढ़ चुके थे। गौरी कुंड में स्नान करने की इच्छा अधूरी ही रह गयी।

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