गंगा से अलकनंदा तक ,बद्रीनाथ




इसके पहले पर्वत के उस पार। केदारनाथ। उत्तराखंड यात्रा वृतांत । 
तथा आस्था की नगरी,हरिद्वार। उत्तराखंड यात्रा वृतांत २। जरूर पढ़े 
गंगा से अलकनंदा तक। 
हरिद्वार से बद्रीनाथ की यात्रा। उत्तराखंड  यात्रा वृतांत १ ।
डॉ मधुप रमण ( व्यंग्य चित्रकार ,कवि ,ब्लॉगर )






      
      
  

गंगा से अलकनंदा तक। कोलाज विदिशा। 


          
   हरिद्वार २०१३ जून का महीना। शाम होते ही हम किसी टूर एण्ड ट्रैभल्स की खोज में लग गए इस बार टूर एण्ड ट्रैभल्स वालों से बात करते हुए हमने यहाँ की आस्था परंपरा के विरुद्ध उल्टी यात्रा करने को सोची थी   अमूमन लोग यमुनोत्री , गंगोत्री , केदारनाथ दर्शन के पश्चात ही बदरीनाथ की यात्रा करते हैं कोई भी उल्टी यात्रा यथा हेमकुंड साहेब , बदरीनाथ के बाद केदारनाथ के लिए नहीं जाता क्योंकि दैविक , प्राकृतिक आपदा का अनजाना डर सब के मन में समाया हुआ रहता है  
    यात्रा का प्रारम्भ : हमारे पंजाबी ड्राइवर सन्नी ने भी उल्टी यात्रा करने से मनाही कर दी थी और सख्त स्वरों में उसने कहा था  कि साहेब उल्टी यात्रा करो गाडी कहीं खड्ड में उलट जाएगी विश्वास कीजिए,पूरी यात्रा के दौरान मैं ,अनहोनी और अनदेखे अनजाने डर से सहमा रहा कि कहीं कुछ अनर्थ हो जाएं ?
   ड्राइवर ने नौ  बजे चलने की बात कर रखी थी लेकिन मैंने उसे आठ बजे ही आने को कह दिया था। साल २०१० के पूर्व अनुभवों के आधार पर ही शाम होने से पहले ही हम जोशी मठ पहुंचना चाह रहे थे। यदि विलम्ब  होता तो हमे उपर जाने की इजाज़त नहीं मिलेगी  मैं यह जानता था। 
    हमारे सहयात्री :  हम संख्या में  ११ थे। लेकिन  जा सात  ही रहें थे। चार की वापसी हरिद्वार से ही हो रही थी। सात  जनों के लिए हमने एक तवेरा गाड़ी ठीक की थी। हमारे साथ आये मेरे पूर्व  के
सहयोगी,सहयात्री मित्र संजय कुमार,वर्तमान प्रिंसिपल डी वी पब्लिक स्कूलजिनके साथ मैंने साल २००६ में दार्जलिंग की यात्रा की थी ,अपने पुत्र की अस्वस्थता की बजह से  दिल्ली लौट रहे थे। रास्ते के मध्य  में  किसी का साथ छूटना कदापि भला नहीं लगता है। लेकिन जान है तो जहान है। स्वास्थ्य हमारी सर्वोपरि प्राथमिकता में  होती  है। द्वय संजय में से एक  संजय तो  हमे रास्ते में ही छोड़ कर जा रहें थे। लेकिन एक संजय अभी भी हमारे साथ थे जो सबसे कम उम्र के थे। इस बार गंगा से अलकनंदा तक़ की यात्रा में  हमारे साथ अन्य डॉ  प्रशांत ,डॉ सुनीता सिन्हा ,विदिशा ,प्रोफ़ेसर नरेन्द्र जी अपने तीन सदस्यीय परिवार के साथ  हमारे सहयात्री थे  
    स्वतः मुझे २०१० की बदरीनाथ यात्रा के भी सहयात्री  डॉ विनीता शर्मा  हरिद्वार  की रहने वाली ,मथुरा की सन्यासन  किरण ,हनुमान और उनके साथी भी याद गए जब मैं अपने माता पिता और मित्र प्रत्येश के साथ बद्री विशाल की तीर्थ यात्रा पर पहली बार आया था। अबकी बार यह दूसरी यात्रा थी। मैं आपको अपनी इन  दोनों यात्रा की अच्छी भली यादों ,अनुभवों तथा संस्मरणों  के साथ साथ लेकर चलूँगा जिससे आपकी मेरी यह यात्रा और भी अविस्मरणीय ,रोचक,और समृद्ध  हो जाएंगी  आप मेरे अनुभवों का अवश्य लाभ उठा पायेंगे ऐसा मेरा विश्वास है ।  
   यादों के झरोखें से : अभी मेरे पास  एकाध दो घंटे का समय था। बता दू मैं सबेरे सोने तथा सबेरे उठने वाला प्राणी हूं। कहतें हैं अर्ली टू बेड अर्ली टू राइज मेक्स अ मैन हेल्दी वेल्दी एन्ड वाइज  । सुबह का  पांच बज रहा था। सभी सो ही  रहें थें। सोचा वक़्त है तो क्यों एक बार हर की पौड़ी जा कर गंगा के  पुनः दर्शन कर लूँ। सुबह की सैर भी हो जाएंगी। यही सोच कर ही मैं  गंगा घाट के लिए निकल पड़ा। 
   दूर कहीं पूरब के कोने में लालिमा छिटक रही थी। इस प्रातः कालीन घड़ी में भी स्नान करने अनेक श्रद्धालुओं  की भीड़ वहां जमा थी। कैसे इतना ठंढे पानी में भी लोग स्नान कर लेतें हैंहर हर गंगे में उनकी आस्था हैं। उनकी भक्ति हैं। उनका नित्य दिन का कर्म है । 
  हर की पौड़ी में गंगा नदी के घाट के  किनारे बैठे हुए ही कुछ स्मृत हो गया यही कहीं उत्तर दिशा में त्रिशूल लिए शिव खड़े दिखते थे इस बार नहीं दिखे शायद पिछली दफा आई  बाढ़ में शिव की विशालकाय मूर्ति बह गयी होगी सोच रहा था देवाधिदेव शिव का ससुराल है ,हरिद्वारसती का मायका भी तभी तो  कनखल में दक्षप्रजापति का वो पवित्र हवन अग्निकुंड वर्तमान है जिसमें अपने पति का अपमान सहने के कारण सती जल कर भस्म हो गई थी  यह जगह हरिद्वार के पांच पवित्र स्थानों में एक हैं  
 तभी टावर के पीछे स्थित चंडी पर्वत पर मेरी दृष्टि स्थिर हो गयी ।शीघ्र ही मेरे पीछे मनसा देवी मंदिर के पास के उड़नखटोले से आठ नौ बजे के क़रीब श्रद्धालुगणों का आना जाना शुरू हो जाएगा  नीचे विस्तृत पड़े विशाल नीलधारा पक्षी विहार में सायबेरियन क्रेनों की कतारें लगी ही होगी कितना शांत सुरम्य वातावरण हैं हरिद्वार काअप्रतिम। अतुलनीय। 
   सात बजने  को था। चलता हूँ  नहीं तो आलसी लोग नहीं उठेंगे। समय व्यर्थ ही बर्बाद हो जाएगा। यह सोच कर भरे मन से नमामि गंगे करते हुए मैं घाट से विदा हुआ।  पुरे आठ बजे  ड्राइवर सन्नी ने अपने नरसिंह धर्मशाला में आने की सूचना हमें दे दी थी। मुझे उसका कहा बार बार याद रहा था  'कोई भी उल्टी यात्रा यथा हेमकुंड साहेब , बदरीनाथ के बाद केदारनाथ के लिए नहीं जाता है साहेब ,सोच लो । 'सहमा रहा कि यदि कहीं कुछ हो गया तो मैं इन आठ नौ जनों के खोने,उनके प्राण संकट में डालने की गलती अपराध बोध से स्वयं को कैसे मुक्त कर पाउंगा ?
    सब ,गुरू और गोविंद की कृपा पर छोड़  दी। मन को दिलासा देते हुए पहले खुद समझे और बाद में ड्राइवर को भी समझाया कि सतनाम सतनाम बाहे गुरू,बाहे गुरू अर्थात गुरू का नाम ही पहला है और सच्चा है गोविंद से पहले गुरू के ही दर्शन करूगा क्योंकि स्वयं गोविंद ने ही गुरू और गोविंद में गुरू को पहले पूजने और भजने की प्राथमिकता दी है और भक्तों को गुरू का आशीर्वचन  पहले लेने को कहा है


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  क्रमशः जारी। गतांक से आगे  १। १६ /४ /२०२०  

गंगा से अलकनंदा तक आगे यात्रा की तैयारी। हमारे सहयात्री। 
      
      जीवन चलने का नाम  इस दृढ आस्था और विश्वास के साथ हमने भगवान का नाम लेकर ३० मई को गंगा से अलकनंदा की कभी न भूलने वाली यात्रा शुरु कर दी थी । शीघ्र ही भारतमाता मंदिर के बाहर भीड़ -भाड़ वाले शहरी इलाके से निकलते हुई हमारी जीप हाइवे पर दौड़ने लगी । मैंने एक बात बहुत ध्यान पूर्वक देखी और समझी कि उत्तराखंड में सड़कों पर चलते हुए टैक्सी एवं अन्य वाहनों के चालक ट्रैफिक नियमों का कड़ाई से पालन करते हैं । फिर मुझे बिहार के अन्य शहरों का भी ध्यान आ गया कि हम कितने बेतरतीब ढंग से गाड़िया चलाते हुए ट्रैफिक नियमों की धज्जियाँ उडाते है । यहाँ-वहाँ,जहाँ-तहाँ निर्भीक होकर गाडियाँ खड़ी कर देते हैं और निश्चिंत हो जाते हैं । 
    सफर कैसे कटे सब सोचते हैं। तरीकें भी ढूंढ़ ही लेते हैं। तकरीबन यह तो आठ से नौ घंटे का काफी लम्बा सफर था । यात्रा यादगार हो ,समय आराम से कटे इसलिए डॉ० प्रशांत ने समय बिताने के लिए अपनी रूचि के अनुसार अंताक्षरी का प्रस्ताव दिया जिसमें सभी लोगों ने हामी भर दी । बचपन से ही गाना उनका प्रिय शगल रहा है । स्कूल के दिनों से ही वे शुरू से ही अच्छे गायक रहे हैं । मैं गाना नहीं गाऊँगा ,सिर्फ श्रोता रहूँगा यह  कहते हुए मैंने स्वयं को अंताक्षरी से अलग कर लिया ।  
    मेरे हाल में ही सफर के दौरान नये बने मित्र प्रोफेसर नरेन्द्र,उनकी धर्मपत्नी उनका पुत्र तथा भाई समान मित्र संजय बड़ी तन्मयता से गाना गाने में लग गये थे । और मैं सरसरी निगाहों से बाहर के दृश्यों का अवलोकन करने में तल्लीन हो गया । शायद मैं बाहर की सुदर प्राकृतिक छटा को निहारते हुए एक पल भी नहीं गंवाना चाहता था । या शायद ड्राईवर की बगल वाली सीट पर बैठकर पूर्व के अनुभवों का लाभ उठाते हुए रास्ते में पड़ने वाले महत्वपूर्ण कस्वे ,शहर,पड़ावों की जानकारी से साथ आए नवागन्तुकों को परिचित करवाना चाहता था । क्योंकि मैं इन रास्तों से पूर्व परचित था । 
   सन् २०१० में बदरीनाथ जाते हुए हम इसी रास्ते से गुजरे थे ना । तब हमारे साथ इस्कॉन संप्रदाय के कुछेक कृष्ण भक्त लोग थे। उस समय भी यात्रा के दरम्यान डॉ विनीता और उनके संगी साथियों ने  कृष्ण भक्ति में गाए गए भजनों से  इतना ख़ूबसूरत शमा बांधा था  कि वो घड़ी अभी भी याद आ जाती है।  एक अच्छे जानकार, वक्ता गाईड की आवश्यकता तो सभी को होती है न  । यात्रा के दौरान उनके द्वारा दी गई महत्वपूर्ण,एवं  तथ्यपूर्ण जानकारी से यात्रा अत्यत रोचक और दिलचस्प हो जाती है । मेरा मानना है कि एक अच्छा गाईड यात्रा को रोचक बनाने के साथ - साथ समय और पैसे की भी अच्छी बचत करता है । 
    मेरी किसी भी यात्रा का विशेष उदेश्य दरअसल वहां के नए लोगों से मिलने जुलने ,वहां की सभ्यता संस्कृति के बारें में जानने के पश्चात आपको परिचित करवाना रहा  है। अक्सर बाहर पर्यटन के लिए जाते हुए रास्ते में किसी नये अंजाने साथी की तलाश करना,किसी बुझे अनबुझे ,योग्य,शालीन दिखने वाले जन को हमसफर बतौर साथी बना लेना,मेरी एक विशेष आदत रही है। हालाकि यह शौक जोखिम भरा हो सकता है, कभी लेने के देने भी पड़ सकते है । लेकिन मेरा दृढ विश्वास स्वय की पारखी निगाहों पर भरोसा रखने । भला करने और भला पाने में ज्यादा है । यह चिर सत्य है कि कर भला तो हो भला । इस अनजानेपन के पराएपन में भी मैं भारतीयता के अपनेपन ,आपसी सहयोग, लोगों की सहभागिता तथा विश्वबंधुत्व की भावना को ढूंढते हुए प्यार बांटते चलो के भावों  को संरक्षित करता हूं । 
    इस बार हमारे जाने - अनजाने सफर के हमराही थे भागलपुर विश्वविद्यालय के दर्शन शास्त्र के नेक दिल अति भद्र दिखने वाले प्रोफेसर नरेन्द्र जी, उनकी सुघड,बाचाल पत्नी,व उनका दस वर्षीय पुत्र । मैने पीछे मुड़कर देखा । मेरी नई बनी भाभी या कहें प्रोफेसर नरेन्द्र की धर्मपत्नी व मेरे मित्र नये पुराने गाने के नये - नये अंतरे दूढने में मशगूल थे । टूर गाईड होने के नाते सबों को हंसता गाता देखकर मुझे अपार ख़ुशी हो रही थी। हमने अपनी सारी चिंताएं जैसे अपने अपने घरों में ही छोड़ दी थी।एक व्यस्त डॉक्टर होने के बाबजूद भी गाने का इतना अच्छा शगल रखते है और समय निकालते है  काबिले तारीफ़ है।   


 विशेष आकर्षण :  हमारे सहयात्री डॉ प्रशांत कैसा गाते है इसके लिए नीचे दिए गए लिंक को दवाएं।
 https://youtu.be/HXTG2cPvNtQ


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    क्रमशः जारी। गतांक से आगे  २ । १७  /४ /२०२० 



ऋषिकेश से गुजरती हुई गंगा की अनुपम छटा। कोलाज विदिशा। 

   परमार्थ का तीर्थ ऋषिकेश
    
    ३० मई २०१३। सुबह के नौ बज रहे थे। हमारी गाड़ी अब शहर से निकल चुकी थी। हम ऋषिकेश के रास्ते में थे। ऋषिकेश  हरिद्वार से २४  किलोमीटर तथा देहरादून से ४२  किलोमीटर की दूरी पर है। बदरीनाथ , केदारनाथ,गंगोत्तरी यमुनोत्तरी के लिए जाने वाले रास्तों के बीच में स्थित होने के कारण भी ऋषिकेश का महत्त्व काफी बढ़ जाता है। इसे बदरीनाथ,केदारनाथ ,यमुनोत्तरी तथा गंगोत्तरी का प्रवेशद्वार भी कहा जाता है। 
    यहाँ तक रेलवे का भी विस्तार हो गया है। हरिद्वार से आगे बढ़ते ही ऋषिकेश से  पहाड़ियों के दर्शन होने उनके नजदीक होने का भी सिलसिला शुरु हो जाता है। 
    शांतिकुंज के पास से हम गुजर रहे थे। गायत्री तीर्थ शांतिकुंज मात्र गायत्री परिवार के लिए ही नहीं समस्त भारतीयों के लिए आकर्षण व उत्सुकता  का केंद्र रहा है।  यह आश्रम किसी एक पवित्र स्थल से कम नहीं है। यह एक ऐसी  पाठशाला है जहाँ आध्यात्मिक गतिविधियों के संचालन के साथ साथ जीवन के वास्तविक,व्यवहारिक मूल्यों पर आधारित उपयोगी शिक्षाएं भी प्रदान की जाती हैं । यह स्थल आपके रास्ते में ही पड़ेगा आप थोड़ी अवधि निकाल कर घूम सकते है। 
    गंगा  की मचलती हुई धारा हमारे संग संग थी। अनायास ही मेरे मन में लोकप्रिय अभिनेता  किशोर कुमार,तथा बिहार की सुप्रसिद्ध अभिनेत्री कुमकुम की अभिनीत फिल्म  ' गंगा की लहरें ' में और उनके ऊपर फिल्माये गये  एक अत्यंत लोकप्रिय गाने  'मचलती हुई हवा में छमछम  हमारे संग संग चले गंगा की लहरें ' की   याद स्वतःआने लगी । इस गाने का फिल्मांकन यहीं कहीं हुआ हरिद्वार के आस पास ही हुआ है । और इस गाने को अभिनेता गायक किशोर कुमार ने परदे पर और परदे के पीछे गाया भी है। 
    उपर गोमुख से निकल कर ऊंचे पहाड़ों और संकरे रास्तों से होती हुई तेज धार से उतरने वाली गंगा को पहली बार ऋषिकेश में ही चौड़ा पाट मिलता है। और यह शांत , स्थिर और गंभीर मुद्रा में प्रवाहित होना शुरू कर देती है। शाम को हरेभरे पेड़ों की छांव से होते हुए गंगा के किनारे किनारे सैर करने में अपूर्व आनंद आता है। 
  ऋषिकेश अपनी प्राकृतिक सुंदरता के लिए सदा से पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र रहा है। ऋषिकेश की बात आते ही मुझे लक्ष्मण झूला ,राम झूला एवं परमार्थ धर्मशाला याद आ जाता है । हिचकोलें खाते लक्ष्मण झूले पर इस पार से उस पार जाने का आनंद ही कुछ और है। दूरदूर तक बिखरती हिमालय की हरी भरी पर्वत श्रृंखलाओं की गोद में बसे होने के कारण यहां का मौसम बहुत ही सुहाना होता है , न तो बहुत गरम न बहुत ठंडा। 
    शाम को सूर्य के ढ़लने के समय हरेभरे पेड़ों की छांव से होते हुए गंगा के घाटों के किनारे सैर करने में अपूर्व आनंद आता है। परमार्थ तीर्थ में बैठने का आनंद जरूर ले। यदि आप जलक्रीड़ा के शौकीन है,नौका विहार तथा ' रिवर राफ्टिग ' का भरपूर आनंद लेना चाहते हैं तो आप इसका भी आनंद उठा सकते है। और हालिया दिनों में यहां जब से इस स्थान को पर्यटन की दृष्टि से विकसित किया गया है  यहां प्राचीन परंपराओं और आधुनिकता का एक बेजोड़ संगम देखने को मिला  है।  हर साल भारत के कोने कोने से नौका विहार तथा रिवर राफ्टिग के ढ़ेर सारे दीवाने सैलानी काफी संख्या में यहां आते हैं और  नौकाविहार तथा ' रिवर राफ्टिग ' का भरपूर आनंद उठाते  है। 
     दर्शनीय स्थलों में नीलकंठ महादेव पर्वत ,ऋषिकेश से १२ किलोमीटर दूर  है जिसकी ऊंचाई १७०० मीटर के आस पास है जहां कथाएं है कि महादेव ने सागर मंथन का विष पिया था,देखने योग्य है। 
     त्रिवेणी घाट  : अन्य में   त्रिवेणी घाट  ,गीता भवन,,स्वर्गाश्रम ,भरत मंदिर ,लक्ष्मण झूला,राम झूला या कहे शिवानंद झूला आदि प्रमुख है जिन्हें  हम देख सकते है।  त्रिवेणी घाट वस्तुतः ऋषिकेश का स्नान घाट है जहां सुबह नहाने वालों की तो संध्या समय आरती देखने वालों की बेशुमार भीड़ लगी होती है। 
     भरत मंदिर  : इसी घाट के पास प्राचीनतम भरत मंदिर निर्मित है जो ऋषि भरत की स्मृति में बनाया गया था। संभावनाएं यह भी है कि इस मंदिर का जीर्णोद्धार आदि गुरु शंकराचार्य ने करवाया था।  
     गीता भवन  : लक्ष्मण झूला पार करते ही हमे गीता भवन का दीदार हो जाता है जहां पौराणिक कथाओं पर आधारित हमे दर्शनीय चित्रकारी देखने को मिल जाती है। 
     लक्ष्मण झूला : गंगा नदी पर बना लोहे के तारों का एक लटकता हुआ झूला है,लक्ष्मण तथा राम झूला  जो हमे हावड़ा ब्रिज की याद दिला देता है। मान्यता है कि यहीं पर राम के छोटे भाई लक्ष्मण ने जूट की रस्सियों से पुल बना कर गंगा पार की थी  हालांकि इस वर्तमान झूले का निर्माण १९३९  में किया गया था। बाद में  इस पुल के समीप ही एक दूसरे  पुल का भी निर्माण किया गया है जिसका नाम राम झूला है। 
   फिल्मकारों की पसंदीदा जग़ह है ऋषिकेश,जो गंगा के  किनारे बने विभिन्न आश्रमों और मंदिरों के लिए प्रसिद्ध है। यहाँ भी रहने सहने ,खाने पीने की  उत्तम व यथेष्ट  व्यवस्था है। आप ऋषिकेश में भी एकाध दो दिन बिता सकते है। याद कीजिए अमिताभ बच्चन,रेखा अभिनीत फिल्म  ' गंगा की सौगंध '  का  झूले पर फिल्माया गया एक दृश्य जिसमें वह अपनी शिखा काट कर गंगा को समर्पित कर देते है और अन्याय के ख़िलाफ़ लड़ने के लिए गंगा की सौगंध लेते है। और इसी फिल्म के एक लोकप्रिय गाना मानो तो मैं गंगा माँ हूं को भी आप नहीं भुले  होंगे। जिसे लता जी ने गाया है वह गाना कितना मशहूर हुआ था।  हालिया फिल्म सनी देयोल की  'अर्जुन पंडित ' को भी आप नहीं भुलाये होंगे जिसके शुरुआती दृश्य ऋषिकेश की वादियों में ही शूट किये गए थे । 
  चोटी वाला रेस्टोरेंट  ऋषिकेश पहुंचने के बाद पल भर के लिए हम विश्रामित हुए। अपनी अपनी इच्छा  के अनुसार हमलोगों ने कुछ खाया पीया। आपको मैं एक बात जरूर बता दूं कि आप जब कभी भी ऋषिकेश आए तो चोटी वाले रेस्टोरेंट में नाश्ता खाना लेने का सुअवसर कदापि न गवाएं । चोटी वाले के स्वांग को धरे वहुरुपियाँ आपको रेस्टोरेंट के प्रवेश द्वार पर ही स्वागत करते हुए मिल जायेंगे। आप कुछ खाने पीने से अपने आप को नहीं रोक पाएंगे। हालांकि ऐसे नाम के बहुत सारे रेस्टोरेंटअब ऋषिकेश खुल गए हैं । और थोड़े समय के उपरांत हम गुरुद्वारें में मत्था टेकने के बाद आगे के सफ़र के लिए आगे निकल पड़ें।
  चलते चलते हम आपको यह भी बतला दें कि यदि आप स्नान करने का मन बना रहें हैं तो ऋषिकेश के गंगा घाटों पर अत्यधिक सावधानी बरतें,घाट से बंधी उपलब्ध चेन को उपयोग में लाएं। जल क्रीड़ाएं कदापि न करें। बहाव बहुत ही तेज़ है।

 आज का आकर्षण। यूट्यूब से साभार। लिंक दवाएं और गाने का लुफ़्त उठाएं।
 https://youtu.be/lMBRIMu9eJY


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  क्रमशः जारी। गतांक से आगे  ३  । १८   /४ /२०२० 





देवप्रयाग के प्रमुख दर्शनीय स्थलों का महत्वपूर्ण कोलाज। विदिशा 

     देवप्रयाग की ओर 

    हरिद्वार से चलते हुए ऋषिकेश की दूरी चौबीस किलो मीटर थी जो हमने तय कर ली थी। अब हमारा अगला मुकाम ऋषिकेश से देवप्रयाग था जो तक़रीबन ७४ किलोमीटर की दूरी पर था। पंच प्रयाग  यथा देव प्रयाग ,रूद्रप्रयाग ,कर्णप्रयाग ,नंदप्रयाग तथा विष्णुप्रयाग के नाम से विदित गढ़वाल हिमालय के वे प्रमुख तीर्थस्थल हैं जहाँ विभिन्न नदियों का संगम होता हैं। गंगा में मिलने वाली नदियों ने भारत को कई एक ऐसे परम तीर्थ दिए है जहाँ सालों भर आस्था की डुबकी लगाई जाती है। उनमें से एक था देव प्रयाग जो हमें एकाध डेढ़ घंटे के बाद मिलने वाला था।
    आशंका के बादल : इधर हम ऊंचाई की तरफ़ निरंतर बढ़ते हुए परम पिता अर्थात  प्रभु  को याद करने लगे  थे। बाकई हम डरने लगे  थे। मन के किसी कोने में किसी अनहोनी का भय सताने लगा था।  यहाँ  डर के आगे कोई जीत नहीं थी। ऋषिकेश के मंदिर अब छूटने लगे थे। सामने से दिखने वाला  भरत मंदिर कितना छोटा दिखने  लगा था। यक व यक  समतल ज़मीन से हमारा वास्तां छूटता ही जा रहा था न । हमारी टवेरा गाड़ी सात जनों को लिए पहाड़ों पर चढ़ रही थी। बहुत सारे लोग होते है जिन्हे उचाईओं से अत्यधिक भय लगता  है।मुझे भी  डर लग रहा था भय मिश्रित आनंद की अनुभूति हो रही थी।
     लिलीपुट के देश में  : जैसे जैसे हम ऊंचाई को छू रहें थें नीचे गंगा के रेतीले कछारों में लगे कई तम्बू और टेंट गुड्डे गुड़ियों के खिलौने घर जैसे प्रतीत हो रहें थें । देखते ही देखते हम अचानक बहुत ऊंचाई पर पहुंच गए थे न ?  कभी कभी नीचे की सकरी घाटियों में गंगा की पतली धारा के बीच डूबती उतराती रिवर राफ्टिंग की एकाध नौकाएं भी दिख जाती थी। उसमें पतवार खेते नारंगी रंग की लाइफ जैकेट पहने कई युवा उत्साही भी होंगे ही ।
यहाँ से ऋषिकेश के घाट ,मंदिर ,झूला उसमें आते जाते लोग लिलीपुट ही दिख रहें थे न  ?
      ऋषिकेश बद्रीनाथ के रास्तें में ही है देवप्रयाग जहाँ सरस्वती ,भागीरथी और अलकनंदा नदियों का संगम होता है। अलकनंदा बदरीनाथ की ओर से प्रवाहित होते हुए देवप्रयाग में आ कर के भागीरथी में समाहित हो जाती है तो दूसरी तरफ भागीरथी अपनी स्वच्छ नीले रंग की धारा में अलकनंदा से मिलती हुई देखी जा सकती है। प्रतीत हो तीसरी मिलने वाली नदी सरस्वती है जो  अंतसलिला ही है। देवप्रयाग में अलकनंदा और भागीरथी  के इस संगम के बाद ही गंगा अवतरित होती है  और इस नदी को एक नाम मिलता है  गंगा। स्वाभाविक है इसलिए हिन्दुओं के प्रमुख तीर्थस्थलों में देव प्रयाग का नाम विशेषतः लिया जाता है।
    हमारी मंजिल आ चुकी थी। हम देवप्रयाग में थे। हमने सबको नीचे उतर कर गंगा के दर्शन करने के लिए कहा था। हम सब बारी बारी से उतर गए थे। देवप्रयाग उत्तराखंड के टिहरी गढ़वाल जिले के अंतर्गत आने वाला एक नगर पंचायत है।
   दर्शनीय स्थलों में आप समय रहते संगम ,सस्पेंशन ब्रिज ,दशरथ शिला ,चन्द्रबदनी मंदिर ,भगवान राम को समर्पित रघुनाथ मंदिर ,महादेव मंदिर  तथा तीन धारा देख सकते है। लेकिन इसके लिए आपको एक दिन देवप्रयाग व्यतीत करना होगा।
   संगम स्थल आपको दूर से ही दिख जायेगा। इस संगम स्थल  पर बने सुरक्षित घाट में  पूरी सावधानी के साथ पवित्र स्नान भी कर सकते है।
   रघुनाथ मंदिर  देवप्रयाग में मर्यादा पुरषोत्तम राम को समर्पित यह मंदिर सर्वाधिक देखा जाने वाला स्थान है।यहाँ आने वाले लोगों की पहली पसंद होती है। कहते है भगवान राम ने रावण के मारने के आत्म अपराध बोध से मुक्ति पाने के लिए यहीं तपस्या की थी.
   दशरथ शिला शांता नाम की एक छोटी सी धारा के किनारे अवस्थित एक ऐसा पवित्र स्थल है जहाँ राजा दशरथ ने तपस्या की थी।
   सस्पेंशन ब्रिज देवप्रयाग में संगम देखने की सर्वोत्तम जग़ह है जहाँ से आपको नदियों के संगम देखने का अभूतपूर्व दृश्य देखने को मिलेगा।
   तीन धारा  तीन झीलों से अपने नामों को रखने वाली  तीन धारा ऋषिकेश देवप्रयाग के हाईवे से जुड़ी
एक जगह है जहाँ लज़ीज खाने के अच्छे ढाबे है और जहाँ की नैसर्गिक  ख़ूबसूरती आपको रुकने के लिए विवश कर देगी।
  कालेश्वर महादेव टेम्पल महादेव ,माँ पार्वती ,पुत्र कार्तिकेय  एवं गणेश को यह मंदिर समर्पित है।
  चन्द्रबदनी मंदिर  चन्द्रकूट पर्वत के शीर्ष पर बना यह मंदिर देवी सती की याद दिला देता है ऐसी अवधारणा है कि देवी सती का यहाँ धड़ गिरा था।माता के ५२ शक्तिपीठों में से एक है यह शक्तिपीठ इसलिए इसका नाम चन्द्रबदनी पड़ा। लेकिन माता भगवती का यह मंदिर श्रीनगर टिहरी मार्ग पर देवप्रयाग  से ३५ किलोमीटर दूर है।
   मुझे याद है जब हमलोग केदार नाथ से वापस लौट  रहे थे तब रुद्रप्रयाग में  लैंड स्लाइड होने की बजह से लेट हो गयी थी। उस रात हमे देवप्रयाग में ही रुकना पड़ा था।
   सबों ने अपनी अपनी सेल्फ़ी ले ली थी। मेरे लिए रिपोर्टिंग जरुरी थी तो डॉ प्रशांत व अन्य के लिए स्टील फोटोग्राफी। मेरे एक इशारे पर सबों ने गाड़ी में अपनी अपनी जगह अख़्तियार कर ली। हम आगे के लिए निकल पड़ें।

 आज का लिंक  : भागीरथी और अलकनन्दा का संगम देखने के लिए यह लिंक दवाएं।
  https://youtu.be/U0OcPkVh4Sg

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  क्रमशः जारी। गतांक से आगे  ४   । १९    /४ /२०२० 




  एक श्रीनगर यहाँ भी हैं। उत्तराखंड में। 


इंटरनेट से साभार लिए फोटो से बने श्रीनगर का कोलाज। विदिशा 


      अलकनंदा के साथ  आगे बढ़ते ही गंगा देवप्रयाग में हमसे पीछे छूट गयी थी  क्योंकि हम आप को फिर से बता दे गंगा देव प्रयाग से ही नामित होती है। और देवप्रयाग से उत्तर बदरीनाथ के रास्तें में आगे जो गंगा हमारे साथ साथ बहेगी वह अलकनंदा होगी ।  तो अब हम गंगा को छोड़ कर अलकनंदा के साथ ही आगे की यात्रा वृतांत जारी रखेंगे। उम्मीद है आप भी हमारे साथ होंगे।  गंगा की सहायक नदी अलकनंदा के पानी में मटमैलापन था।  साथ साथ नीचे की घाटियों में शोर करते हुए अलकनंदा तो ही बह रही थी न ?
      हमने दोपहर का खाना नहीं खाया था। और हमें ढ़ाबे की तलाश थी। पूछने पर सनी ने कहा रास्ते में श्रीनगर आएगा ,सर, हमलोग वहीं दोपहर का खाना खाएंगे। वहां बहुत सारे अच्छे होटल,रेस्टॉरेंट और ढाबें  है।
     श्रीनगर ! यहाँ ...! उत्तराखंड में ! मैं एकबारग़ी सोचने लगा था।
     उसने फ़िर मेरी शंका का निवारण किया ,कहा ,हा सर ,... बहुत बड़ा टाउन है ,जहाँ खाने के लिए सब कुछ मिलेगा। वहीं चलते है ।
     आप भी मेरी तरह दिकभ्रमित हो गए होंगे। आख़िर श्रीनगर नाम के कितने शहर हैं हमारे देश में। मैं भी आपकी तरह पहली बार सुन कर हैरत में ही पड़ गया था। बड़ी उत्सुकता से इस नए से शहर के आने का इंतज़ार करने लगा था। कि कब यह शहर आये और मैं देखूं।तब मेरे मन में जिज्ञासा के कितने बादल उमड़ने लगे थे न ?
कितनी काल्पनिक कहानियां शक्ल लेने लगी थी। कब आएगा यह श्रीनगर।
     चले श्रीनगर की ओर कैसा होगा यह श्रीनगर ? कहीं जम्मू कश्मीर की राजधानी श्रीनगर की तरह अत्यंत खूबसूरत तो नहीं ? बेमिसाल तो नहीं  ?  और ना जाने कितने अनुत्तरित सवाल थे मेरे मन में । जबाव तो कुछ क्षण  पश्चात ही मिलने वाला था।
     पौड़ी गढ़वाल उत्तराखंड का एक महत्वपूर्ण जिला है जिसका मुख्यालय पौड़ी है। इसी जिले में ५६० मीटर की ऊंचाई पर कभी गढ़वाल साम्राज्य की राजधानी रही  श्रीनगर है जो आज पौड़ी गढ़वाल जिला के  सबसे बड़े और एक महत्वपूर्ण शहर के रूप में जाना जाता  है।
    दर्शनीय स्थल  : कभी साधु संतों की तपस्या स्थली रही श्रीनगर में आज भी कई एक मंदिर वर्तमान है जैसे किलकिलेश्वर महादेव टेम्पल ,कमलेश्वर महादेव टेम्पल ,शंकरमठ टेम्पल ,चोपड़ा मंदिर तथा धारा देवी मंदिर आदि जहाँ समय रहते हम दर्शन कर सकते है ।इनमे से धारा देवी का मंदिर तो आपके रास्तें में ही पड़ेगा।
    एक विकसित शहर श्रीनगर  हम अब श्रीनगर में थे। सब कुछ प्रत्यक्ष था। आँखों के सामने। काफी बड़ा दिखने बाला यह शहर समतल में ही बसा हुआ है। यहाँ गर्मी थी। होटल, ढाबे,बैंक ,दुकानें ,शोरूम सब कुछ यहाँ दिख रहा था। सच में यदि आप हरिद्वार ,ऋषिकेश के बाद किसी ऐसे बड़े शहर की तलाश में होंगे जहाँ आपकी इच्छा अनुसार सभी चीज़ें मिले तो वह श्रीनगर ही है जहाँ हमारी आपकी सभी आवश्यकताएं पूरी हो सकती है। मेरी सलाह है आप  रुपए - पैसे निकालने ,खाने-पीने से ख़रीदने  आदि समस्त ज़रूरी कामों को यहीं निपटा लें तो उचित होगा।
    हमने अपनी अपनी पसंद का खाना भरपेट खाया। मेरा जहाँ तक समूह मात्र में घूमने का दीर्घ अनुभव है मैं सभी लोगों को उनकी अपनी अपनी रूचि के अनुसार खाना खाने देने की स्वतन्त्रा देने का हिमायती हूं। कम्युनिटी किचन के पक्ष में नहीं रहता हूं वह इसलिए कि सभी के खाने की फ़ूड हैबिट्स अलग़ होती हैं। चॉइस डिफरेंट होती है। तो कोई अपनी इच्छा और पसंद दूसरों पर क्यों लादे ?
   संजय नॉनवेज पर टूट पड़े थे तो  हमने दो जनों के लिए  साधारण,सादा  बिना तेल घी बाले खाना  दही ,सब्ज़ी,रोटी ,दाल ही मंगाया था । डॉ प्रशांत शायद संजय के साथ तो प्रोफेसर साहब अपने कुनबे के साथ खा रहे थे। खाना खाने के पश्चात कुछ मीठा खाने की तलब होती है तो कुछ ने मिठाइयां ली तो मैंने ठेले से आइसक्रीम कोण खाई ।
    आगे का सफ़र  थोड़े देर विश्राम कर लेने के पश्चात हम मस्तों की टोली आगे बढ़ी। हमने देवप्रयाग से अनुमानतः ३६ से ३७ किलोमीटर का फासला तय कर लिया था। अब हम अलकनंदा के साथ चलते हुए बदरीनाथ के मार्ग चलते हुए रुद्रप्रयाग पहुंचेगे। यहाँ से रुद्रप्रयाग की दूरी ३४ से ३५  किलोमीटर थी । हमारी टबेरा अगली मंजिल रुद्रप्रयाग के लिए दौड़ रही थी । यहीं कहीं आस पास में ही धर्म ,आस्था ,व अगाध श्रद्धा वाली धारा देवी का मंदिर है जिससे जुड़ी कई किस्सें,कहानियाँ जुड़ी हैं । कहते हैं शताब्दियों से माता धारा  अलकनन्दा की घाटियों में बसे शहरों ,कस्बों ,गांवो,और लोगों की रक्षा करती आयी है। इसकी कृपा अपरम्पार हैं।  हम उनकी प्रसन्नता और उनके कोप के लिए चिंतित और  कायल होते है।
   हम आपको शीघ्र ही उनसे जुड़ी एक सही वाकयात सुनाएंगे जो सन २०१३ के जून महीने में आये  उत्तराखंड के महाप्रलय से सम्बंधित है।

आज का लिंक  क्या देखें श्रीनगर में।
 https://youtu.be/zK-7kKZSk4c


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 सबसे बड़ा तेरा नाम ,धारा देवी। रुद्रप्रयाग। 
  
इंटरनेट से साभार रुद्रप्रयाग के महत्वपूर्ण दर्शनीय स्थल। कोलाज विदिशा। 
       आसमान लगभग साफ़ था। बादल के इक्के दुक्के टुकड़े उंचाईयों पर दूर कहीं पहाड़ों के शीर्ष पर टंगे पड़े थे। बारिश का कहीं कोई आसार ही नहीं था। नहीं था ना ।  टबेरा फ़िर से ऊंची पहाड़ियों पर रेंगने की तैयारी कर रही थी।
        श्रीनगर रुद्रप्रयाग के मार्ग पर बढ़ते ही कुछेक मिनट के उपरांत सनी ने पार्श्व में बने एक मंदिर की तरफ़ इशारा किया , सर ! उस तरफ़ देखिए...बायी तरफ़...धारा देवी मंदिर है।  दर्शन करेंगे  ? ...नहीं तो प्रणाम ही कर लीजिये।
      अच्छा.!.., यहीं है माता धारा देवी। सामने कोई प्राचीन मंदिर जीर्ण शीर्ण अवस्था में दिख रहा था। इसके आसपास कोई निर्माण कार्य भी चल रहा था। शायद किसी परियोजना का। मैंने मन ही मन माँ की आराधना की और सबों के लिए मंगल कामना भी की।
       धारा देवी मंदिर।   उत्तराखंड के रहने वालों की दृष्टि में धारा देवी के प्रति एक अटूट विश्वास है। अगाध श्रद्धा है।  वह यह है कि  देवी उनके चार धामों की सुरक्षा करने वाली धात्री देवी है। चार धामों की कुशल यात्रा उनकी दया और अनुकम्पा का ही परिणाम  है।
       आप यदि भूले नहीं हो तो मैं आपको विनाशकारी एक घटना के बारे में याद दिलाना चाहता हूं। १६ जून साल २०१३। अर्थात मेरी दूसरी बदरीनाथ यात्रा के समय का ही काल। हमारे मित्र संबाददाताओं  से प्राप्त समाचारों के हबाले से श्रीनगर में जल विद्युत परियोजना के निर्माण का कार्य बड़ी तेज़ी से चल रहा था।                                        अलकनंदा में निर्मित हो रहे जल विद्युत परियोजना के निर्माण के क्रम  में देवी का  प्राचीन मंदिर व्यवधान सिद्ध हो रहा था।  इसी निर्माण के क्रम में ही अंततः देवी के प्राचीन मंदिर को ध्वस्त करने का निर्णय  ले लिया गया । और मूर्ति कहीं दूसरी जगह स्थापित कर दी जाएगी यह भी तय हो गया  । 
  ...आगे मंदिर तोड़ दिया गया और मूर्ति हटा दी गयी ,दरअसल मंदिर का कहीं अन्यत्र निर्माण होना था। 
     इतिहास साक्षी है।  विस्थापित करने  के क्रम में ही कहते हैं ,जैसे ही मूर्ति  विस्थापित की गई एक-दो दिनों में ही उत्तराखंड में महाप्रलय आ गया । मंदाकिनी अलकनंदा की घाटियों में नदियों ने भयंकर तबाही मचाई  जिसमें हजारों जानें चली गई।  कई मकान ध्वस्त हो गए । करोड़ों की संपत्तियां नष्ट हो गई । अभी भी सिसकतीं हुई केदार तथा अलकनंदा की घाटियों से अकाल मृत्यु को प्राप्त हुए भूले बिसरे लोगों की  आवाजें गूंजती रहती  हैं । गुहार आती रहती  है ... हम मरना नहीं चाहतें है कोई तो मुझे बचाओं ...अरे ! कोई है ! 
    कितने लोग जिन्दा मन्दाकिनी,अलकनन्दा और गंगा की अभिशप्त धाराओं में सशरीर ही विसर्जित हो गए..मालूम नहीं । मरने के बस सरकारी आकड़ें है। दिखाने के लिए ....हक़ीक़त तो कुछ और ही है। 
   अभी तक हम केदारनाथ में आई बाढ़ की त्रासदी अलकनंदा की घाटियों में आई आपदा को नहीं भूले होंगे। कथित तौर पर , यह धारा देवी मां के प्रकोप जनित विपदा ही थी जिसे  मानव ने अपने भौतिक लालसा वश पर्यावरणीय छेड़छाड़ के जरिए आमंत्रित किया था।  माँ धारा मैं आपकी कृपा का आकांक्षी हूं तभी तो मैं  इस आपदा होने से पूर्व भगवान भोले के दर्शन करने के बाद अपने मित्रजनों के साथ से सकुशल सात दिन पहले वापस आ गया था।
     रुद्रप्रयाग की ओर बढ़ते हुए हमें  श्रीनगर से लगभग ३३ किलोमीटर की दूरी तय करनी थी। एकाध घंटे का समय लगना था। बता दें उत्तराखंड में १३ ज़िले हैं। हमने यात्रा के क्रम में हरिद्वार ,पौड़ी गढ़वाल ज़िले की सीमाएं पार की थी अब रुद्रप्रयाग ज़िले में प्रवेश करने वाले थे।  नीचे से बढ़ने के क्रम में अलकनन्दा के पंच प्रयाग में से दूसरे प्रयाग रूद्र प्रयाग का दृश्य हमें अब दिखने ही वाला था।   
    यहीं वो जगह है जहाँ केदारनाथ से बहती हुई मन्दाकिनी आ करके अलकनंदा में मिल जाती है। संगम होने की बजह से हिन्दू श्रद्धालुँ यहाँ आस्था की डुबकियां लगाते हैं।


देखने लायक प्रकृति के सुन्दर नज़ारें 
    दर्शनीय स्थल :  हम आपको रुद्रप्रयाग जिले में देखने लायक समस्त दर्शनीय स्थलों की जानकारी दे देतें हैं जिससे कि जब कभी आप यहाँ पधारें  तो क्या क्या देखें ।
    धारा देवी टेम्पल  रुद्रप्रयाग की सबसे महत्वपूर्ण जगह है जिसकी चर्चा हमने की ही है ।  इस मंदिर में माँ धारा के नाम से ज्ञात  काली माँ  की मूर्ति के ऊपरी भाग का शीर्ष मुख  दर्शनीय है। तो  माता के शरीर का निचला भाग कालीमठ में बिराजित है जहाँ वह काली माता के नाम से पूजी जाती है।   
   रुद्रनाथ टेम्पल  यह मन्दाकिनी और अलकनंदा के संगम स्थल पर ही बना हुआ है जो आपको दूर से दिखेगा भी। 
   अगस्त मुनि  मन्दाकिनी  के किनारे १००० मीटर की ऊंचाई पर बसा एक छोटा गॉव है जहां मुनि अगस्त ध्यानस्थ हुए थे। 
    गुप्तकाशी केदारनाथ मंदिर से ४७ किलोमीटर पूर्व  महाभारत में वर्णित वह स्थान  है जहाँ कई एक प्राचीन महत्वपूर्ण मंदिर है। हमें याद है केदारनाथ जाते समय हमने गुप्तकाशी में ही रात्रि का विश्राम लिया था। बल्कि हम तो कहेंगे आप भी केदारनाथ के दर्शन करते समय गुप्त काशी में ही रुकें। और अहले सुबह केदारनाथ के लिए प्रस्थान करें। शाम होने तक केदारनाथ पहुंच ही जायेंगे। 
    उखीमठ  गुप्तकाशी से १२ किलोमीटर दूर जाड़े की ऋतु में मध्यमहेश्वर और केदारनाथ  का विश्राम स्थल है यह उखीमठ। 
   सोनप्रयाग १८२९ मीटर की ऊंचाई पर मन्दाकिनी और बासुकी नदी के संगम स्थल पर बसा यह वह तीर्थ स्थल है जहाँ भगवान शिव ने पार्वती से शादी की थी। सोनप्रयाग से गौरीकुंड की दूरी ८ किलोमीटर है ज़्यादातर लोग सोनप्रयाग आकर ही रात्रि कालीन विश्राम के लिए रुकते हैं। 
   गौरी कुंड  केदारनाथ के आधार में एक कुंड है जिसका नाम गौरी कुंड है। मान्यताओं के अनुसार लोग यहाँ से स्नान करने के पश्चात् ही केदार नाथ की यात्रा शुरु करते है। 
   केदारनाथ  मंदिर रुद्रप्रयाग जिले के केदारनाथ नगर पंचायत में ही पड़ता है जहाँ  भगवान  शिव का अद्वितीय मंदिर है । जिसे देखने के लिए लाखों की तादाद में भक्त पहुंचते हैं। 
   चोरावारी ताल या गाँधी सरोवर  यह वही सरोवर है जिसके किनारे टूटने से केदारनाथ में सैलाब आया था  



देवाधिदेव शिव के मंदिरों का केंद्र रूद्रप्रयाग 

    कोटेश्वर महादेव टेम्पल  के बारें में ऐसा विश्वास है कि अलकनंदा नदी के किनारे अवस्थित गुफा में कभी भगवान शिव केदारनाथ जाने के क्रम में रुके  थे। 
   कार्तिक मंदिर  ३०४८ मीटर की ऊंचाई पर बना यह मंदिर भगवान शिव के पुत्र कार्तिकेय को समर्पित है। 
   इन्द्रासनी मनसा देवी टेम्पल का निर्माण आदि गुरु शंकराचार्य के काल में हुआ है। 
   माँ हरियाली देवी टेम्पल १४०० मीटर के ऊपर बसी हैं। इनके कई  विभिन्न नाम है जैसे बाला देवी ,सीतला देवी तथा वैष्णो देवी।   
  त्रियुगी नारायण मंदिर रुद्रप्रयाग के त्रियुगीनारायण गांव में स्थित एक हिन्दू मंदिर है जो भगवान विष्णु को समर्पित हैं। कहते है भगवान विष्णु ने भगवान शिव और देवी पार्वती की शादी के गवाह बने थे।



क्या नज़ारें। है सबको इंतज़ार। इंटरनेट से साभार। कोलाज विदिशा 

    चोपटा भारत के  मिनी स्विटरज़रलैंड के रुप में जाना जाता है जो समुद्र तल से २९०० मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। यह तुंगनाथ मंदिर का प्रवेशद्वार भी  है। यहाँ से हिमालय की बर्फाच्छादित चोटियों की प्राकृतिक छटा देखते बनती है। चंद्रशिला के लिए भी ट्रेक चोपटा से ही तुंगनाथ के रास्ते जाता है। 
   तुंगनाथ लगभग ३६८० मीटर की ऊंचाई पर १००० साल पुराना हिमालय की गोद में बसा एक गांव है जहाँ बहुत सारे श्रद्धालू जाना पसंद करते है। चंद्रशिला की चोटी के ठीक नीचे भगवान शिव को समर्पित तुंगनाथ मंदिर  सबसे ऊंचाई पर स्थित शिवालय है।   
   चंद्रशिला समुद्र तल से  ४००० मीटर की ऊंचाई पर प्रकृति के खूबसूरत नज़ारें यदि देखने हो तो तुंगनाथ से आगे डेढ़ किलोमीटर के ट्रेकिंग के लिए आगे जाएं। यहाँ से नंदा देवी ,त्रिशूल ,केदार बन्दरपूँछ और चौखम्भा की चोटियां दिखेंगी। 
  देवरिया ताल  रुद्रप्रयाग से ४९  किलोमीटर दूर मस्तूरा और सारी दो गांवों के मध्य उखीनाथ तथा चोपटा मार्ग में ३ किलोमीटर की ट्रैकिंग  पर अवस्थित है यह ताल जो देखने योग्य है। यहाँ गंगोत्री ,यमुनोत्री ,केदारनाथ बदरीनाथ ,नीलकंठ तथा चौखम्भा की चोटियां इस झील की पानी में प्रतिबिंबित होती है। 
   खिरसू की ऊंचाई १७०० मीटर है। यह रुद्रप्रयाग की प्रदूषण रहित शुद्ध जग़ह है जहाँ हम ताज़ी हवा में सास ले सकतें है। 
  वासुकी ताल  ४१३५ मीटर की ऊंचाई वाली  चौखम्भा की चोटी पर मौजूदा ताल के लिए सर्वाधिक पर्यटक जाते  है। 
   कर्ण प्रयाग : हमें  अब रुद्रप्रयाग से बदरीनाथ मार्ग में आगे बढ़ते हुए अलकनन्दा के तीसरे प्रयाग कर्ण प्रयाग की ३१ किलोमीटर की दूरी  तय करनी थी। नाम से प्रतीत होता है यह प्रयाग महाभारतकालीन अंग देश के 

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  आज का लिंक। प्रतीक्षा करें। 

   क्रमशः जारी। गतांक से आगे  ६  ।  २१   /४ /२०२० 


   फोटो दीर्घा 



चोपटा ,तुंगनाथ मंदिर और चंद्रशिला के मनमोहक दृश्य। कोलाज विदिशा। 



गुप्तकाशी ,सोनप्रयाग ,गौरीकुंड ,केदारनाथ ,वासुकी ताल तथा गाँधी सरोवर का सिलसिले बार क्रम


रुद्रप्रयाग ,अगस्तमुनि तथा गुप्तकाशी के क्रम को देखें। कोलाज विदिशा

    रुद्रप्रयाग के सभी महत्वपूर्ण दर्शनीय स्थलों की मैंने विस्तारपूर्वक जानकारी आपको दे दी। जहाँ तक शहर की बात करें रुद्रप्रयाग पंच प्रयागों में से ,नीचे से देवप्रयाग के बाद दूसरा संगम स्थल  है जहाँ अलकनंदा मन्दाकिनी से मिलती है। संगम स्थल होने की बजह से हिन्दुओं के लिए यह प्रमुख तीर्थ स्थल बन गया है।
   मूलतः शहर में भी कई दर्शनीय स्थल है जिन्हें समय रहते देखा जा सकता है।
   संगम स्थल हम थोड़े देर के लिए नीचे उतरते हुए संगम स्थल में मिलने वाले दो बहनें जैसी नदियों के मिलन को देखते रहे। अलकनंदा के पंच प्रयागों में से एक रुद्र प्रयाग में नीले रंग की मन्दाकिनी की जलधारा उजले मटमैले रंग की अलकनंदा से मिल रही थी। कितना अद्भुत ,अनुपम अलौकिक दृश्य था यह ?
   हमे याद आ गया शायद यहीं पर हमारे सहयात्री प्रत्येश ने नीचे झाड़ियों में उतरते हुए पवित्र संगम स्थल से एक बोतल में पानी लाने की चेष्टा की थी न ?  वो भी इस्कॉन के सहयात्री डॉ विनीता के कहने पर। मैंने उसे ऐसा करने से मना भी किया था। लेकिन वो नहीं माने एक बोतल पानी भर कर ले ही आये। शर्तियां वह जग़ह कोई संगम स्थल ही थी। तब साल २०१० के  मई या जून का महीना था न,जब हम पहली दफ़ा बदरीनाथ के दर्शन के लिए आये थे।
    अब तो यहाँ रिवर फ्रंट के विकास के साथ साथ  कई एक सुन्दर व सुरक्षित घाट बन गये है जहाँ हम स्नान कर सकते है। इसी संगम स्थल के ऊपर एक मंदिर भी बना है।
   कोटेश्वर महादेव मंदिर आप यहाँ कोटेश्वर महादेव मंदिर देख सकते है जो शहर से ३ किलोमीटर अलकनंदा से ऊपर थोड़ी चढ़ाई पर एक गुफ़ा में अवस्थित है।
  रुद्र प्रयाग के बारे में ऐसी पौराणिक कहानी है कि नारद मुनि ने संगीत के रहस्य जानने के लिए भोले शिव शंकर की पूजा की थी तब भगवान शिव रौद्र अवतार में प्रगट होते हुए आशीर्वाद दिया था।
पूरे प्रदेश में मंदिर ,ग्लेशियर ,नदियां ,हिम आच्छादित चोटियां  भरी पड़ी है जिससे रुद्र प्रयाग का प्राकृतिक सौंदर्य दुगना हो गया है।
इंटरनेट से साभार। संगम ,कोटेश्वर तथा पपड़ासू का दृश्य 


   पपड़ासू  जखोली तहसील में स्थित पपड़ासू युवा उत्साहियों के लिए हाल के दिनों में वाटर स्कीइंग के लिए मशहूर रहा है।  यहाँ उत्तराखंड पर्यटन विभाग से कई एक प्रतियोगिताएं भी आयोजित करवाई जाती है।
  दो रास्तें  रुद्रप्रयाग से ही निकलते है। एक रास्ता जोशीमठ,गोविन्द घाट होते हुए बदरीनाथ के लिए जाता है तो दूसरा रास्ता अगस्तमुनि,गुप्तकाशी,सोनप्रयाग होते हुए केदार नाथ के लिए मुड़ता है। हमें  अब बद्रीनाथ के लिए दूसरे रास्ते के लिए बढ़ना था।  इस सफ़र में अलकनंदा हमारे साथ ही बहेंगी।


 आज का आकर्षण। देखने के लिए लिंक दवाएं। 
  https://youtu.be/kYyl4b3ZGw8


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   क्रमशः जारी। गतांक से आगे  ७ ।  २२ /४ /२०२० 

  
  कल  का आकर्षण। जो कल नहीं देख पाए उन्हें देखने के लिए नीचे दिए गए लिंक को दवाएं। 
  https://youtu.be/kYyl4b3ZGw8

  कर्ण प्रयाग तीसरे प्रयाग की ओर


अलकनंदा का तीसरा प्रयाग ,कर्ण प्रयाग ,पिंडर और अलकनंदा का संगम स्थल 


    कर्ण प्रयाग,अलकनंदा के पंच प्रयागों में से एक अन्य प्रयाग।   जैसा नाम से प्रतीत होता है यह प्रयाग महाभारतकालीन अंग देश के राजा,दुर्योधन के मित्र कर्ण से सम्बंधित होगा।
    स्थिति रुद्रप्रयाग से ३१ किलोमीटर दूर बदरीनाथ मार्ग पर हमें अलकनंदा के पंच प्रयागों में से एक और प्रयाग की तरफ़ बढ़ना था। जिसका नाम था कर्ण प्रयाग। कर्ण प्रयाग अनुमानतः १४५१ मीटर की ऊंचाई पर अवस्थित उत्तराखण्ड के चमोली जिला में है। अर्थात अब हम रुद्रप्रयाग जिले से दूसरे जिले चमोली जिले में प्रवेश करने वाले थे। रुद्रप्रयाग की सीमा अब खत्म होने वाली थी।
   ज्ञात हुआ कर्ण प्रयाग में हमारे साथ बहने वाली अलकनन्दा में  पिंडारी ग्लेसिअर से निसृत हुई पिण्डर नदी मिलेगी और हम इसका संगम कर्ण प्रयाग में देखेंगे।
   संगम एकाध घंटे के उपरांत हमारी गाड़ी कर्ण प्रयाग पहुंच चुकी थी। पहाड़ी चढ़ाई पर दौड़ते हुई गाड़ियां भी हांफने लगती है न। इसलिए समय तो ज़्यादा लगेगा ही न। टबेरा एक जगह रुक गयी ,और मैं संगम देखने के लिए नीचे उतर गया था।
   सामने पिंडार नदी की इठलाती धारा बहती हुई अलकनन्दा में मिलकर एक हो रही थी। इसके बाद तो पिंडर नदी का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा न।सवाल है अलकापुरी से निकलती हुई अलकनंदा का नाम कर्ण प्रयाग में पिंडारी नदी से  मिलने के बाद इसका नाम पिंडारी क्यों नहीं हुआ ?  कहते है न ओ रे ताल मिले नदी के जल में ,नदी मिले सागर में अर्थात हर छोटे अस्तित्व वाले को बड़े अस्तित्व वाले में समाहित हो जाना है। शायद इसलिए पतली जलधारा वाली पिंडर नदी तेज़ तथा ज्यादा बहाव वाली ,बड़ी अलकनंदा में मिलकर अपनी पहचान ही खो बैठी।
  कर्ण शिला  पुल के नीचे एक शिला दिखी। शायद वही कर्ण शिला होगी। कहते दानवीर कर्ण अपनी पूजा पाठ के बाद यहीं स्वर्ण दान किया करते थे। इसलिए इस शिला का नाम कर्ण शिला दे दिया गया।
 कर्णशिला मंदिर  इसी शिला के ऊपर भगवान श्रीकृष्ण ,दाता कर्ण तथा राम जानकी मंदिर भी बने  है  जहां आप जाकर दर्शन कर सकते है।
 उमादेवी मंदिर के परिसर मकर संक्रांति व वैशाखी के अवसर पर श्रद्धालुओं की काफी भीड़ जमा होती हैं
 हिमालय की चोटियां यदि आप जतन करें ,आकाश साफ़ हो ,किरनें सहायक हो तो आप यहाँ से त्रिशूल ,द्रोण गिरी ,नंदा देवी , मिरगाथुनी तथा मैक्तोली की चोटियां स्पस्ट देख सकते है। यही से आदि बद्री के लिए भी रास्ता जाता है।
  आदि बद्री  कर्ण प्रयाग से  १७ किलोमीटर दूर रानीखेत मार्ग पर उत्तराखंड  के पंच बदरी का एक हिस्सा है ,जहां गुप्त काल में ५वीं  शदी से ८ वीं शदी के सोलह मंदिरों के समूह मिलते है। तथा इसके जाने का मार्ग कर्ण प्रयाग से ही जाता है। यहाँ के प्रसिद्ध नारायण मन्दिर में  ३.३ फीट ऊंची भगवान विष्णु की काले पत्थर की प्रतिमा है जिसके हाथों में एक गदा ,कमल, चक्र दिखलाया गया है। उल्लेखनीय रुप से इस स्थल ,एवं मंदिरों का रखरखाव भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा किया जाता है। अतः यह स्थल धर्म और इतिहास के समेल्लन का प्रमुख तीर्थ स्थल है। यदि आपके पास अतिरिक्त समय है तो आप यहाँ अवश्य जायें।
    चांदपुर गढ़ी  गढ़वाल का राजनैतिक इतिहास कत्यूरी राजाओं का रहा है जिनहोंने जोशीमठ से शासन किया था बाद में अल्मोड़ा चले गये थे। बाद में पवार वंश के राजा ने चांदपुर गढ़ी किले से शासन किया       था
   गंगा आरती सभी प्रयागों की तरह यहाँ भी घाटों पर गंगा आरती का प्रचलन है जो दर्शनीय है।

 फोटो दीर्घा 
  इंटरनेट से साभार 




कर्णप्रयाग ,कर्णशिला तथा कर्ण मंदिर का दृश्य 
कर्णप्रयाग में गंगा आरती का दृश्य ,अदि बद्री ,
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  क्रमशः जारी। गतांक से आगे  ८ ।  २३  /४ /२०२० 




नंदप्रयाग में नंदाकिनी तथा अलकनंदा के मिलन का अद्भुत दृश्य। कोलाज विदिशा। 

     चौथे संगम नंद प्रयाग की ओर 
     नन्द प्रयाग  कर्णप्रयाग से २०.९ किलोमीटर की दूरी पर है। और हमारी अगली मंजिल नन्द प्रयाग थी।  राज्य उत्तराखंड के चमोली जिले में लगभग औसत १३५८  मीटर की ऊंचाई पर, नेशनल हाईवे ५८  के आस पास स्थित नंदप्रयाग एक नगर पंचायत है जो कभी यदु साम्राज्य की राजधानी रही थी जहाँ कभी राजा नन्द ने पुत्र प्राप्ति के लिए  यज्ञ अनुष्ठान आदि किया था।
     यह अलकनंदा के पंच प्रयागों में से चौथा प्रयाग है जहाँ अलकनंदा में नंदाकिनी नदी मिलती है। इसलिए स्वभाविक तौर से हिन्दुओं के लिए यह संगम स्थल एक पवित्र स्थान बन जाता है।  नेशनल हाईवे ५८ जो सीधे बद्रीनाथ को जोड़ते हुए इंडो तिब्बत बोर्डर से जुड़े भारत के सीमांत गांव माना को जोड़ता है।
     आपको एक अच्छी जानकारी और दे दे कि इस यात्रा वृतांत ' गंगा से अलकनंदा तक '  में हम आपको पंच बदरी के बारे में भी बताते चलेंगे क्योंकि रास्ते में पंच बद्री के प्रदेश भी आएंगे। तो चलिए आगे बढ़ते है पंच प्रयागों के साथ साथ पंच बद्री के प्रदेशों के बारें में भी उपयोगी एवं महत्वपूर्ण जानकारियां इक्कठी करेंगे । आदिबद्री के बारे में तो हमने आपको बताया ही।
  नन्द प्रयाग में ही उत्तराखंड जल विदूयत परियोजना के द्वारा अलकनंदा नदी के ऊपर पावर प्रोजेक्ट का काम भी चल रहा है। नन्द प्रयाग एक छोटी सी जगह है जहां देखने लायक एक दो मंदिर जैसे नंदा देवी मंदिर,लक्ष्मी नारायण मंदिर तथा संगम स्थल ही  है। विशेष इसके आस पास के प्रदेश है जो या तो रास्ते में पड़ते है या थोड़ी दूर पर।
   संगम स्थल के पास आते ही हम सभी एक पल के लिए उतर गए थे। संगम को देखना जो था। नंदाकिनी बहुत ही मंद गति से आती हुई अलकनन्दा में स्थिर हो रही थी। शायद ग्रीष्म ऋतु का प्रभाव था। नंदाकिनी में पानी कम था ,तो बहाव भी आहिस्ता ही था।
   नंदाकिनी का उद्गम  श्रोत नंदा गोमती ग्लेशियर  है जो नंदा देवी सेंचुरी का ही एक हिस्सा है तो सतोपंथ  के ग्लेशियर से अलकनंदा निकलते हुए यहाँ आकर नंदाकिनी को अपने भीतर समाहित कर लेती है।
   गोपेश्वर चमोली जिले का प्रशासनिक मुख्यालय है जो नन्द प्रयाग से मात्र १६ किलोमीटर दूर है यहाँ कई एक प्राचीन मंदिर यथा शिव मंदिर ,वैतरणी कुंड है तथा हम हिमालय का विहंगम दृश्य भी यहाँ से देख सकते है।  गुप्तकाशी गोपेश्वर रोड पर गोपेश्वर से  मात्र ५ किलोमीटर दूर सागर है जहां से तुंग नाथ की ट्रेकिंग भी शुरु होती हैं। यह वही तुंगनाथ है जहाँ सबसे ऊंचा शिवालय है।
  चोपटा जाहिर है भारत के उत्तराखंड  का मिनी स्विट्ज़रलैंड समझा जाने वाला एक ख़ूबसूरत प्रदेश है जो  नंदप्रयाग से ५३ किलोमीटर दूर पड़ता है।
  जोशीमठ को आदि गुरु शंकराचार्य ने ही बनाया था जो भगवान बद्री विशाल का शीत कालीन विश्राम स्थल है। यह मठ हमे रास्ते में ही आगे बढ़ते हुए नन्द प्रयाग से ६९ किलोमीटर दूर  मिलेगा। यहाँ कई महत्वपूर्ण मंदिर जैसे कल्पवृक्ष ,नरसिंह मंदिर तथा विश्वप्रसिद्ध चरागाह औली है जिसकी चर्चा हम जोशीमठ पहुंच कर करेंगे।
  विष्णुप्रयाग नन्द प्रयाग के बाद पंच प्रयाग का आखरी प्रयाग होगा जो जोशीमठ के आगे पड़ता है
  बदरीनाथ जहाँ हमें पहुंचना है जो हमारी मंजिल है नन्द प्रयाग से १०९ किलोमीटर दूर पड़ती है।

  आज का लिंक। उत्तराखंड को देखने के लिए दवाएं। 
   https://youtu.be/61KKlL001BI


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  क्रमशः जारी। गतांक से आगे  ९  ।  २४  /४ /२०२० 
  आज का लिंक। उत्तराखंड को देखने के लिए दवाएं। 
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इंटरनेट से साभार। औली ,रूपकुंड ट्रेकिंग के मध्य तथा फूलों की घाटी का मनमोहक दृश्य। 

      मेरा प्रिय गंतव्य स्थल चमोली हमारी गाड़ी नन्द प्रयाग से ६९ किलोमीटर तय करने के लिए चमोली तहसील से गुजरते हुए गरुड़ गंगा ,पीपलकोटी,हेलंग के रास्ते जोशीमठ की तरफ बढ़ रही थी। चमोली जिला में तीन तहसीलें चमोली ,गैरसैण तथा जोशीमठ हैं । उत्तराखंड के सबसे बड़े जिले के रूप में चमोली जिला जाना जाता है जिसकी सीमाएं उत्तर में तिब्बत से मिलती हैं तो दक्षिण में अल्मोड़ा से। पूर्व में पिथौरागढ़,बागेश्वर,पश्चिम में रुद्रप्रयाग,उत्तरपश्चिम में उत्तरकाशी तथा दक्षिण पश्चिम में पौड़ी गढ़वाल ज़िले की सीमाएं मिलती है। 
    ध्यानबद्री जब आप हेलंग के रास्तें बढ़ रहे होंगे तो हेलंग के नीचे उरगम वैली में  कल्प नदी के किनारे बसे गांव से ३ किलोमीटर मात्र दूर एक स्थान ध्यान बद्री पड़ता है जहाँ चार भुजा वाली विष्णु की काली प्रतिमा है।     
    मेरी पसंदीदा जगहों में गोपेश्वर जिला मुख्यालय,फूलों की घाटी,हेमकुंड,जोशीमठ,३०५० मीटर की ऊंचाई पर  स्थित चरागाहों वाला औली,बद्रीनाथ,माना गांव,रूपकुंड,कल्पेश्वर ,विष्णु प्रयाग ,बसुंधरा फॉल तथा गोविन्द घाट इत्यादि बहुत सारी जगहें चमोली जिले में ही मौजूद हैं जो देखने लायक है। पर्यटकों के लिए अतीव आकर्षण का केंद्र हैं । इसलिए उत्तराखंड के चमोली जिला को मैं बहुत पसन्द करता हूं क्योंकि यहाँ फूलों की घाटी है, बदरीनाथ है,और हेमकुंड साहिब भी । 
     जोशी  मठ ज्योतिर्मठ के रूप में जाना जाने वाला ६१५०  फीट की ऊंचाई पर अवस्थित एक म्युनिसिपल  बोर्ड है। यह  कई हिमालय पर्वत श्रृंखलाओं की चढ़ाई ,ट्रैकिंग के रास्तें  तथा प्रमुख तीर्थ स्थलों यथा बद्रीनाथ आदि के लिए प्रवेश द्वार समझा जाता है। यहाँ कई मंदिर और शिवालय है जो दर्शनीय है। 
     योगी झरना शहर  में प्रवेश करते ही एक कलकल करता हुआ एक झरना मिलेगा जिसे यहाँ के लोग  योगी झरना कहते है। कहते हैं तीर्थ यात्रा के दौरान योगी तथा साधु ठंडे जल में स्नान करने के लिए यहां रुकते थे।             मुख्य सड़क के ऊपर पुराना शहर बसा है। जहां ज्योतिर्मठ  कल्पवृक्ष तथा आदि शंकराचार्य के पूजा स्थल की गुफाएं हैं तो इसके नीचे बद्रीनाथ की और बाहर निकलने पर नरसिंह मंदिर तथा वासुदेव मंदिर है 
   कल्प वृक्ष  एवं आदि शंकराचार्य गुफा ताते चलें यहां जोशी मठ में एक मूल एक कल्प वृक्ष है जो बारह सौ साल पुराना है।  कहते है  आदि गुरु शंकराचार्य ने इसी वृक्ष के नीचे बैठकर तपस्या की थी और यहीं उन्हें दिव्य ज्ञान ज्योति की प्राप्ति हुई थी। यह मूलतः शहतूत का वृक्ष है।इसी कल्प  वृक्ष के ओर ज्योतेश्वर महादेव का मंदिर है जहाँ सदियों से एक दिया जलता रहता है।
   इसी पेड़ के नीचे आदि शंकारचार्य की गुफा है जिसमें आदि गुरु की मानव के आकार में मूर्ति स्थापित है। 
  नरसिंह मंदिर लकड़ी से बने नरसिंह मंदिर एक हिंदू मंदिर है जो भगवान विष्णु के अवतार नरसिंह को समर्पितहै।  कालक्रम से ऐसा प्रतीत होता है कि इसका निर्माण आदि गुरु शंकराचार्य ने करवाया था तथा इसकी तिथि आठवीं सदी के आसपास पड़ती है।
   वासुदेव मंदिर नरसिंह मंदिर के सामने ही मौखिक परंपरा के अनुसार करीब २२०० पुराना एक अति प्राचीन मंदिर है जो भगवान विष्णु के अवतार वासुदेव या भगवान श्री कृष्ण को समर्पित है। इस मंदिर की सीमा के साथ ही परिक्रमा मार्ग पर कई छोटे छोटे मंदिर जैसे गणेश ,सूर्य ,काली ,शिव ,भैरव,गौरीशंकर तथा नौ प्रतिमाओं वाली  नवदुर्गा के मंदिर है।  
  द्वार प्रणाली चूकि जोशीमठ की सकरी सड़क पर काफी भीड़ लगी रहती है। इसलिए परिवहन के द्वारा जाने और आने की द्वार प्रणाली नियमित की जाती है। यहां से बद्रीनाथ के लिए निकलने का समय ६  से ७  तथा ९ से १० बजे सुबह, ११ -१२ बजे दिन तथा २ से ३ बजे बजे दोपहर एवं ४.३० से लेकर ५.३० तक शाम में निश्चित होता है।आप जोशीमठ आते समय इसका ख्याल अवश्य रखें। 
   मुझे अच्छी तरह से याद है जब हम २०१३ की बदरीनाथ यात्रा  में जोशीमठ विलंब से पहुंचे थे तो आगे जाने के लिए हमें अनुमति की आवश्यकता थी। क्योंकि आर्मी वाले सायं  काल ५  बजे के बाद आपको लैंडस्लाइड के खतरों को देखते हुए आगे बढ़ने की अनुमति नहीं देते है। शायद द्वार प्रणाली का समय भी समाप्त हो जाता है।  मुझे याद है बमुश्किल डॉक्टर प्रशांत ने आर्मी वालों को संतुष्ट करने में कामयाबी हासिल की थी कि  ' वह एक डॉक्टर है ,बद्रीनाथ तीर्थ यात्रियों की सेवा के लिए जा रहे हैं। तब जाकर ही अपने रिस्क पर हमें आगे बढ़ने की अनुमति मिली थी। क्या करते हमें रात्रि ८ से ९  बजे तक बद्रीनाथ पहुंचना जरूरी था।
   तो हमें २०१० का साल का भी समय अब याद आ गया। जब हम इस्कॉन संप्रदाय के लोगों के साथ आये थे तो  जोशीमठ संध्या ५ बजे से पहले ही पहुंच गए थे और हमने समयबद्ध सीमा पार कर लिया था। तब हमें इस बार जैसी  परेशानी का सामना नहीं करना पड़ा था। 
   आपको फ़िर से बतला दें  जोशीमठ से निकलने के बाद आपको कहीं रोक-टोक नहीं मिलेगा। यदि आप जोशीमठ से संध्या होने के पूर्व निकल जाते हैं तो आपका बद्रीनाथ पहुंचना तय है। 
   औली    समुद्रतल से  २९१५  मीटर की ऊंचाई पर बसा यह पर्यटकों के लिए सर्वाधिक पसंदीदा जगह है। आप को बतला दे औली जोशीमठ में ही है बस जोशीमठ से १२ से १३  किलोमीटर दूर।  गर्मियों  में औली की अनुपम  सुंदरता और खुशगवार मौसम  पर्यटकों को अपनी ओर खींचता है ,तो सर्दियों में बर्फ पर फिसलने के शौकीनों के लिए औली एक उपयुक्त क्रीड़ा स्थल है।  यहां स्कीइंग करने वाले ढलान ५  से ७  वर्ग किलोमीटर के दायरें  में फैले हए हैं। जनवरी से मार्च तक औली के ये ढलान तक़रीबन ३ मीटर गहरें बर्फ से ढ़कें रहते हैं जो स्कीइंग के लिए सम उपयुक्त है। 
   गढ़वाल मंडल विकास निगम यहाँ स्कीइंग के लिए  ढ़ेर सारी  सुविधाएं उपलब्ध कराता है। आज के दिनों में औली देश का एक ऐसा पर्यटन स्थल बन गया है जहाँ सालों भर पर्यटकों की भीड़ लगी होती है। महत्त्वपूर्ण पर्यटन व स्कीइंग रिसोर्ट बन गया है यह औली। यहाँ २४  घंटे पर्यटकों के लिए मेडिकल की सुविधाएं उपलब्ध होती है। अतः पर्यटकों को रास्तें  में मात्र अपने कपड़ों और रोजमर्रा की जरूरत की चीजें ही ले जानी पड़ती है।
   एशिया के सबसे लम्बे और ऊंचे रोपवे  या गाड़ी से आप औली जाना कदापि न भूलें। गर्मियों में सुबह ८ बजे से शाम ६.५० तक तथा जाड़े में सुबह ८ बजे से शाम ४ .३० बजे तक़ रज्जु मार्ग से सैकड़ों पर्यटक आते जाते रहते है। यह रोपवे  ४.१५  किलोमीटर का आकाशीय मार्ग तय करते हुए जोशीमठ को औली से जोड़ता है। इसका किराया अनुमानित ५०० रुपए से अधिक ही होगा। आप इस रोपवे का आनंद जरुर उठाएं। 
    औली का रास्ता प्राकृतिक दृश्यों से भरा पूरा और अत्यंत मनमोहक है। इस आकर्षक जग़ह में आकरआपको शर्तियां ख़ुशी ही होगी।आसपास के सुंदर,मनभावन ,प्राकृतिक दृश्यों के अलावा औली में हिमाच्छादित अत्यंत विशाल पर्वत चोटियों जैसे द्रोणगिरि ,नीलकंठ नंदा देवी ,कामेत आदि पर्वतों के दर्शन होते है।  इसी नंदा देवी  की पहाड़ी ढलानों में है फूलों की घाटी। 
   बातों ही बातों में जोशीमठ कब का आ चुका था मुझे प्रतीत भी नहीं हुआ । हम जोशी मठ से गुजर रहें  थे। काफी विस्तृत है यह शहर,है ना ? आर्मी कैंट भी यहाँ दिखा। रास्तें में सैनिकों की उपस्थिति भी दिखी। 
  जोशी मठ से गुजरते हुए ही हमें जे पी ग्रुप के पॉवर प्रोजेक्ट दिखे तो अनायास ही हमें इस ग्रुप के डूबे हुए शेयर के भाव भी याद आ गए। हमने शेयरों में  काफ़ी पैसा नाहक़ ही  फूंक दिया था । अब हम आपको जोशीमठ के आस पास के दर्शनीय स्थल की भी जानकारी देते चलते है। 
     हेमकुंड साहिब  सिखों के लिए एक अत्यंत पवित्र तीर्थ स्थल रहा है ,रहा है न  ? यहाँ गुरु गोविन्द जी  ने अति विषम परिस्थितियों में कठिन तपस्या की थी। यधपि सिखों के अंतिम गुरु गोविन्द सिंह का जन्मस्थान पटना साहिब है जो संयोग से मेरी भी जन्म स्थली रही है। अतः हम सिख धर्म के सिद्धांतों ,सेवाभाव और उनके सेवादारों में हद से ज्यादा विश्वास करते है। और हमारी कोशिश जरूर होती है कि यदि हम सिखों के धर्मस्थल से गुजर रहें  हों तो गुरु के दर्शन जरूर करें। हम आपको हेमकुंड साहिब भी ले चलेंगे। 
    हम तो कहेंगे कि यदि आपको इधर आने का अवसर प्राप्त होता है तो चमोली में  एक से दो सप्ताह का समय अवश्य व्यतीत करें ताक़ि आप इत्मीनान से इन विश्व प्रसिद्ध सैरगाहों को देख सकें। 

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   क्रमशः जारी। गतांक से आगे  १०   ।  २५   /४ /२०२० 

  विष्णु प्रयाग अलकनंदा का आख़िर प्रयाग 

जोशीमठ का नरसिंह तथा वासुदेव मंदिर का दृश्य। 

      चढ़ाई या कहे ट्रेकिंग के लिए यहाँ कई चढ़ाईयां है इनमें फूलों की घाटी ,नंदप्रयाग के पास से कुआंरी पास तथा नंदा देवी पक्षी विहार की ट्रेकिंग सबसे पसंदीदा चढ़ाई है। 
    अन्य निकटवर्ती दर्शनीय स्थलों में  जोशी मठ के आस पास अनेक दर्शनीय स्थल है जिन्हें समय रहते  घुमा जा सकता है।
    तपोवन यदि आप जोशीमठ से 15 किलोमीटर दूर पूरब की तरफ बढ़ते है नीति घाटी के मार्ग पर स्थित एक अत्यंत दर्शनीय स्थल तपोवन है । जब आप पर्यटक जोशीमठ से बद्रीनाथ से हट कर  एक पृथक रास्ते का सहारा लेते हुए तपोवन जाते है तो आप एक मौन और शांत घाटी में पहुंच जाते हैं,जहां हरे एवं पीले चबूतरी खेतों के अलावा द्रोणगिरि एवं भविष्य बद्री के पर्वतों के भव्य दृश्य होते हैं । वहां प्रकृति की अतुलनीय शोभा होती है। आप बोल पड़ते है अद्भुत ! अकल्पनीय !
   तपोवन अपने गर्म कुड़ों एवं जलाशयों के लिये विश्व प्रसिद्ध है। यहां गुनगुने पानी का एक बड़ा जलाशय है जो वर्षभर गर्म जल में तैरने योग्य रहता है। अन्य दो,जल की झरनों की तरह हैं, जिनके चारों ओर सीढ़ियों द्वारा पहुंचने के रास्ते हैं। एक पुरूषों के लिये है जो वास्तव में गर्म जल है तथा दूसरा महिलाओं के लिये है जहां पानी थोड़ा कम गर्म रहता है। कहा जाता है कि इन किसी भी ऐसे गर्म जलाशय में स्नान करना स्वास्थ्य के लिये अति लाभकारी होता है क्योंकि पानी में गंधक आदि खनिज पर्याप्त मात्रा में होते हैं जिससे त्वचा सम्बंधित विकार दूर होते हैं।
   गौरी शंकर मंदिर यदि आपने शादी,विवाह,प्रेम  या कोई ऐसी आकांक्षा जो आपने अपने भीतर पाल  रखी है,उसे पूरा करना चाहते है तो तपोवन के गौरी शंकर मंदिर के दर्शन जरुर करें।आपको मन दायक फल की प्राप्ति होगी।भगवान शिव एवं उनकी पत्नी पार्वती को समर्पित इन जलाशयों के निकट एक गौरी शंकर मंदिर है। गाथाएं है हालांकि इसकी प्रमाणिकता की पुष्टि मैं नहीं करता हूं। मैं आपको एक सुनी हुई लोक गाथा ही सुना रहा हूं कि भगवान शिव को पतिरूप में पाने के लिये इसी जगह पार्वती ने यहाँ ६०००० वर्षों तक तप किया था। उनके संकल्प की परीक्षा लेने भगवान शिव ने एक ब्राह्मण का रूप धारण किया। उसने पार्वती को बताया कि उसका तप निरर्थक है,क्योंकि भगवान शिव 88,000 वर्षों से तप कर रहे हैं और वह उतना तप नहीं कर सकती। उसने यह भी बताया कि भगवान इन्द्र या विष्णु की तरह देने को भगवान शिव के पास कुछ भी नहीं है। पार्वती ने परेशानी एवं क्रोध में तत्काल चले जाने को कहा। तब भगवान शिव असली रूप में आये और पार्वती से कहा कि उसकी तपस्या सफल हुई है और वह उनसे विवाह करेंगे। इसीलिये यह कहा जाता है कि जो कोई भी किसी इच्छा से इस मंदिर में पूजा करेंगे तो पार्वती की तरह उसकी इच्छा भी पूरी होगी।



फूलों की घाटी ,औली का रोपवे तथा तपोवन की एक झलक 

   सलधार-गर्म झरना जोशीमठ से 18 किलोमीटर दूर एवं तपोवन से 3 किलोमीटर दूर आप यदि बढ़ते है तो तपोवन से मात्र 3 किलोमीटर दूर आगे सड़क के दाहिने किनारे आपको एक गर्म जल का स्रोत मिलता है, सलधर या सलधार । यहां कि लाल मिट्टी से उबलते पानी का बुलबुला फूटता रहता है, जिसे छूआ भी नहीं जा सकता। गर्म झील के निकट का कीचड़ लोगों द्वारा ले जाया जाता है क्योंकि मान्यता है कि यह कई रोगों को ठीक कर देता है। इस स्थान से संबंधित भी रामायण की एक दिलचस्प कहावत है वो भी आप सुन ही लीजिये । कहा जाता है कि जब रावण (मेघनाद) के साथ युद्ध में घायल हो लक्ष्मण मरणासन्न अवस्था में थे, तब राम ने हिमालय से संजीवनी बूटी लाने के लिये हनुमान को भेजा जो लक्ष्मण को पूरी तरह स्वस्थ कर देता, जो संभवत: पुष्पों की घाटी में ही होगी। इस बीच रावण ने एक भयंकर राक्षस कालनेमि को वहां भेज दिया, ताकि हनुमान उस बूटी को न ला पाएं।कालनेमि ने रूप बदलकर तपोवन के निकट उन्हें देख लिया तथा उन्हें आस-पास के प्राकृतिक सौंदर्य में फंसाकर उन्हें उद्देश्य विमुख करने का प्रयास किया। हनुमान ने पास की एक शिला पर अपने वस्त्र रखकर,नदी में स्नान करने का निर्णय किया। वह शिला एक शापग्रस्त सुंदर परी की थी, हनुमान के उस शिला पर पैर रखते ही उस शापित परी का उद्धार हो गया तथा उसने मायावी राक्षस कालनेमि के बारे में हनुमान को बतला  दिया। हनुमान ने वहां कालनेमि  को मार डाला और इसीलिये यहां का कीचड़ एवं जल रक्त की तरह लाल है।प्रसंग तो रामायण का है लेकिन फूलों की घाटी की प्रमाणिकता सिद्ध है।
   नीति घाटी  नीति घाटी कभी तिब्बती व्यापारिक पथ का व्यस्त स्थल था और यहां के वासी भोटिया, मरचा एवं तोलचा आदि उन्नतशील व्यापारी थे। इस घाटी से कैलास मानसरोवर के प्रवेश का एक अन्य वैकल्पिक रास्ता निकलता था,जो कुछ लोगों के अनुसार सर्वाधिक सहज था। इसलिए सीमा बंद हो जाना इस क्षेत्र एवं यहां के लोगों के लिए एक बड़ा झटका था जिसने उनके जीवन, जीवन शैली तथा जीविका को प्रभावित किया। नीति घाटी विश्वप्रसिद्ध पर्वतीय नंदादेवी पक्षी-विहार का प्रवेश द्वार भी है।आज यह यूनेस्को का विश्व-विरासत स्थल है, जिसे नंदादेवी जैविक संरक्षण के नाम जानते हैं जो पर्यावरणीय जैविक विविधता एवं सांस्कृतिक परंपराओं का अलौकिक खजाना है।
   लाटागांव और चिपको आंदोलन लाटा गांव की तरफ़ बढ़ते हुए ही हमें एक दिलचस्प जानकारी मिली थी जो आपको भी मैं बतला रहा हूं। यह एक शोध का विषय हैं। यहां के एक गांव लाटा में जहाँ नंदा देवी को समर्पित एक पुराना मंदिर भी है से ही पर्यावरण बचाओं के आंदोलन की शुरुआत हुई थी। यह जानना महत्त्वपूर्ण होगा कि वर्ष 1970 के दशक में वनों के संरक्षण के लिए लोगों के अलौकिक जागरण का प्रयास सुन्दर लाल बहुगुणा ने किया था। उनके द्वारा छेड़ा गया चिपको नामक सत्याग्रह आंदोलन का केंद्र लाटा गांव तथा पड़ोस का रेनी गांव ही था। चिपको आंदोलन लोगों के हिमालयी पर्यावरण संरक्षण जागरूकता का प्रतीक था जिसने लोगों में पर्यावरण के प्रति रूचि तथा चौतरफा जागरूकता पैदा की थी जिसके परिणामस्वरूप हिमालयी पर्यावरण एवं विकास की नई नीति निरूपण में आयी थी। इसने हिमालय के जंगलों में जिन्दा हरे भरे पेड़ों को असमय काटने से बचाया था जो समुद्र तल से १५००  मीटर की ऊंचाई पर थे।भारत के इस भाग के अंतिम गांव नीति में पहुंच की एक सड़क है आप इसे भी देखने अवश्य जाएं। मैंने आपकी सुविधा के लिए एक यात्रा नक्शा दे  दिया है जिससे आपको उस स्थान पर पहुंचने पर एहसास हो जाएगा कि आप कौन सी जग़ह के नजदीक पहुंच गए है और आपको क्या देख लेना चाहिए।
   वृद्ध-बदरी ऋषिकेश बद्रीनाथ मार्ग पर ही जोशीमठ से मात्र ८  किलोमीटर दूर वृद्ध बदरी या पुराना बदरी है। भगवान विष्णु को समर्पित यह प्राचीन मंदिर गढ़वाल के पंच बद्रियों में से एक है। मुख्य सड़क पर मंदिर द्वार के नीचे आधा किलोमीटर पैदल जाने पर ऊनीमठ गांव है जिसे  वृद्ध बद्री कहा जाता है क्योंकि भगवान विष्णु वृद्ध स्वरूप में यहां नारद के सम्मुख प्रकट हुए थे।एक छोटे शांत गांव में एक विशाल बरगद के पेड़ की छाया में मंदिर स्थित है। यह स्पष्टत: एक प्राचीन मंदिर है, जिसका निर्माण कत्यूरी शैली में हुआ है। यह एक महत्वपूर्ण तीर्थस्थल है जो इस बात से प्रमाणित होता है कि कभी यहां का प्रबंधन दक्षिण भारत के एक रावल के हाथों था। आजकल यह मंदिर बद्रीनाथ-केदारनाथ मंदिर समिति की देखरेख में है। कई बार भगवान विष्णु की सुंदर कमलरूपी शालीग्राम की प्रतिमा की चोरी की गयी, पर उसे फिर पा लिया गया। मूर्ति की सुरक्षा के लिये अभी स्वयं पुजारी ने गर्भगृह के प्रवेश द्वार पर लोहे का एक घेरा डाल दिया है। पास ही एक अन्य मंदिर भी है, पर अंदर की प्रतिमा गायब है।


विष्णु प्रयाग  के पास धौली गंगा तथा अलकनंदा के संगम का दृश्य तथा कल्प वृक्ष
 भविष्य बद्री मंदिर एक हिन्दूओं का प्रसिद्ध एव प्राचीन मंदिर है। भविष्य बद्री मंदिर भारत
के उत्तराखंड राज्य के जोशीमठ से १७ किलोमीटर की दूरी पर गांव सुभाई में स्थित है। यह मंदिर समुद्र तल से २७४४ मीटरकी ऊंचाई पर स्थित है। भविष्य बद्री मंदिर घने जंगल के बीच स्थित है तथा यहां  तक केवल
ट्रेकिंग द्वारा ही पहुंचा जा सकता  है। यह धौली गंगा नदी के किनारे कैलाश और मानसरोवर पर्वत के एक
प्राचीन तीर्थ मार्ग पर स्थित है। पंच बद्री में आदि बद्री ,ध्यान बद्री,वृद्ध बद्री,योगबद्री,बद्रीनाथ,आदि हैं जो अलकनंदा नदी के किनारे सटे हैं। जब कि सप्त बद्री में आदि बद्री ,ध्यान बद्री,वृद्ध बद्री,अर्ध बद्री ,भविष्य बद्री ,योगबद्री,बद्रीनाथ,आदि तीर्थ  में अर्ध बद्री ,भविष्य बद्री रास्तें से अलग़ हट कर हैं ।  ऐसा माना जाता है कि इस मंदिरों का निर्माण आदि गुरु शंकराचार्य ने किया था। उत्तराखंड क्षेत्र में कई मंदिरों के निर्माण के लिए आदि शंकराचार्य को श्रेय दिया जाता है। आदि शंकराचार्य द्वारा इन मंदिरों के निर्माण का उद्देश्य देश के हर दूरदराज हिस्से में हिन्दू धर्म का प्रचार करना था। यहां मंदिर के पास एक शिला है, इस शिला को ध्यान से देखने पर भगवान की आधी आकृति नजर आती है। यहां भगवान बद्री विशाल शालिग्राम मूर्ति के रूप मे
विराजमान हैं। पौराणिक कथा के अनुसार जब कलयुग के अन्त में नर और नारायण पर्वत के आपस में मिलने पर बद्रीनाथ धाम का रास्ता अवरुद्ध व दुर्गम हो जायेगा। तब भगवान बद्री इस भविष्य बद्री मंदिर में भी दर्शन देगें। बद्रीनाथ मंदिर के बजाय यहां पूजा की जाएगी। इस मंदिर में भगवान विष्णु के एक अवतार नरसिंह की
मूर्ति के पूजा की जाती है। भविष्य बद्री जोशीमठ से लगभग ११  किलोमीटर दूर सलधर तक मोटर वाहन से
जाया जाता है। इसके बाद मंदिर तक पहुंचने के लिए ६  किलोमीटर पैदल का रास्ता है।
   अर्ध बद्री  जोशीमठ से दूर जोशीमठ तपोवन मार्ग पर कहीं दूर में अर्ध बद्री मंदिर हैं जहाँ केबल ट्रैकिंग के जरिये ही पहुंचा जा सकते है।
   विष्णु प्रयाग जोशी मठ से ६ से ७ किलोमीटर दूर यह हिन्दू धर्म  के प्रसिद्ध पर्वतीय तीर्थों में से एक है जो हमे विष्णु प्रयाग हाइड्रो प्रोजेक्ट से एक किलोमीटर दूर से ही दिखाई दे जाता है । यह नीचे से ऊपर बढ़ने के क्रम में पंच प्रयागों में से आख़िर पांचवा प्रयाग है। धौली गंगा जो कामेत ग्लेशियर से निकलती है तथा अलकनंदा जो अलकापुरी के सतोपंथ ग्लेशियर से निःसृत होती है इन दोनों नदियों के संगम पर ही विष्णुप्रयाग स्थित है। संगम पर भगवान विष्णु जी प्रतिमा से सुशोभित प्राचीन मंदिर और विष्णु कुण्ड दर्शनीय हैं। यह सागर तल से १३७२ मी० की ऊंचाई पर स्थित है। विष्णु प्रयाग जोशीमठ-बद्रीनाथ मोटर मार्ग पर स्थित है।









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    क्रमशः जारी। गतांक से आगे  ११ । २६ /४ /२०२० 

    जोशीमठ से गोविंद घाट ,घांघरिया



गोविंदघाट घाघरियाँ के रास्ते। इंटरनेट से चित्र साभार। 


     आगे की यात्रा जोशीमठ से आगे निकल जाने के बाद हमारे सामने कोई समस्या नहीं थी। 
जोशीमठ से गोविन्द घाट की दूरी  २२ किलोमीटर पड़ती है । हम तेज़ी से बद्रीकाश्रम की तरफ़ बढ़ रहे थे। मुझे अनायास ही २०१० का साल भी याद आ गया जब हमारे साथ प्रत्येश और इस्कॉन वाले लोग थे।    
    साल २०१०। मई का महीना था । ठंढी हवाएं शोर कर रही थी। तब हल्की बूंदाबांदी हो रही थी । बादल जमीन पर यत्र तत्र बिखरे पड़े थे । जमीन कहां है और बादल कहां है, कह पाना मुश्किल था । शाम के पांच बज रहे होंगे, हमें बदरीनाथ धाम तक शीघ्र ही पहुंचना था । हमें शायद यह भी मालूम था कि तंग,पथरीले खतरनाक रास्तों से गुजरते हुए हमें अभी और भी ऊंचाई पर जाना है । रात के आठ और नौ भी बज जायेंगे ,जबकि दूरी मात्र २५ किलोमीटर से ज्यादा की नहीं रही होगी ।
     जोशीमठ के गोविंद घाट से बढ़ते हुए हमने घोड़े वालों की कतारें देखी थी तब हम गोविंद घाट में थे । फूलों की घाटी ,और हेमकुंड साहिब के नीचे से गुजरते हुए हमारे मन में बलवती इच्छा थी कि काश हम हेमकुंड साहिब के दर्शन कर पाते ।
     अत:मन मसोस कर भीतर ही भीतर दृढ़ संकल्प लिए आगे बढ़ते गए किअगली बार आया तो गुरु साहेब के दर्शन जरुर करुंगा। बलवती इच्छाओं का ही यह परिणाम ही था कि हेमकुंड साहिब - बदरीनाथ होते हुए केदारनाथ की यात्रा करने का हमें पुनः २०१३ में दुवारा आने का सुअवसर प्राप्त हो गया था।
    हरिद्वार से बद्रीनाथ यात्रा करते समय आपको एक सावधानी रखनी होगी। वही कि जब कभी भी आप हरिद्वार से बद्रीनाथ की तरफ प्रस्थित हो रहे हों तब आपको यह कोशिश करनी होगी कि सायं काल से पहले ही जोशीमठ पहुंच जाएं। क्योंकि यह पूरी संभावना होती है कि यदि आप जोशीमठ सायंकाल के बाद पहुंचते हैं तो आपको आगे बढ़ने की इजाजत नहीं दी जाएगी।ऐसे निर्णय पहाड़ों में होने वाले अकस्मात भूस्खलन और रात्रि के समय को देख कर यात्रियों की सुरक्षा के लिए ही ली जाती हैं। 



गोविंदघाट ,फूलों की घाटी तथा हेमकुंड का दृश्य। चित्र इंटरनेट से साभार। 

     गोविन्दघाट हम शाम होने के पूर्व गोविन्द घाट पहुंच चुके थे। अभी सूरज की किरणें चोटियों के उपर दिख रही थी। रात पूरी तरह से हुई भी,नहीं भी हुई थी। कुछ हिस्सा अंधेरे में डूब चुका था तो कुछ हिस्सें पर किरणें सिमटी हुई थी। पहाड़ों पर शाम देर तक़ ठहरती है ना ? 
    गोविन्दघाट घांघरिया के निकट स्थित चमोली जिले का एक कस्वा है जो सिक्खों का प्रमुख तीर्थ स्थल है।  अलकनंदा और लक्षमण नदी के संगम पर स्थित यह एक बहुत ही खूबसूरत हिल स्टेशन है। समुद्र तल से लगभग ६००० फीट की उंचाई पर स्थित इस आकर्षक स्थल से ही आप पर्यटक फूलों की घाटी के लिए ट्रैकिंग की शुरुआत कर सकते है। यह ट्रैकिंग के लिए सबसे अच्छे स्थानों में से एक है।
    लेकिन अमूमन होता यह है कि लोग पहले घाघरियाँ आते हैं,वहां रुक जाते है स्थानीय जगहों को घूमतें हैं । दूसरे दिन फूलों की घाटी तीसरे दिन हेमकुंड साहब दर्शन कर वापस गोविन्द घाट लौट जाते है। 
   अच्छी सुन्दर जगह है गोविन्द घाट। यहाँ थोड़े बहुत होटल हैं और एक छोटा सा गुरुद्वारा भी है । पास में ही कल कल बहती हुई अलकनंदा नदी है और उस पर बना एक सुन्दर झूले वाला पुल है । आप अलकनंदा नदी पर बने पुल को पार करें और आगे बढ़ते जाए। चलते हुए हेमकुंड साहिब और फूलों की घाटी के समीपस्थ गांव घाघरियां पहुंच जायेंगे। अतः फूलों की घाटी और हेमकुंड साहिब के लिए जाने वाले पर्यटक और सैलानियों के लिए  गोविन्द घाट एक महत्वपूर्ण पड़ाव है जहां से आप घाघरियाँ होते हुए आप हेमकुंड साहिब और फूलों की घाटी जा सकते है। नतीज़न  फूलों की घाटी और हेमकुंड साहिब जाने वाले पर्यटकों को गोविन्द घाट में रुकना ही पड़ेगा। हम भी यहाँ रुके थे।
   सबों के लिए एक छोटे से होटल में ही हमने आसरा ढूंढ लिया था। मुझे याद है सात जनों के लिए तीन कमरें लिए गये थे । एक कमरे में डॉ प्रशांत और संजय थे, एक कमरा प्रोफेसर नरेंद्र जी को दे दिया गया था तो  बचे शेष एक कमरें मैं और मेरी  तीन जनों वाली छोटी सी फैमिली थी। 
   सुबह होने के साथ ही हम लोगों ने चाय नाश्ता आदि किया और कुछ जरुरी सामान ले कर निकल पड़ें घाघरियाँ की ओर। हमने अपना बड़ा और भारी सामान तबेरा में ही रख दिया था क्योंकि हम होटल छोड़ चुके थे। व्यर्थ में ही न केवल सामान रखने के लिए होटल में पैसे लगते। है ना ? पैसे जो बचाने थे। हमलोग साल भर की कमाई में से कुछ न कुछ बमुश्किल थोड़ा ही बचा पाते हैं ना घूमने के लिए। मध्यमवर्गीय लोगों के लिए शौक़ियां घूमने के निमित खरच करना कितना कठिन होता है। 
    गोविन्द घाट एक छोटा सा कस्वा ही है जो मुख्य सड़क से नीचे अलकनंदा के पूर्वी तथा पश्च्मिी दोनों किनारे पर बसा हुआ है। सिखों के प्रमुख तीर्थ स्थल होने के नाते मई जून के महीने में यहाँ सिख श्रदालुओं की भारी भीड़ जमा होती है क्योंकि बदरीनाथ की आधिकारिक यात्रा की घोषणा  के साथ ही हेमकुंड साहेब दर्शन यात्रा की भी शुरुआत हो जाती है। इसलिए आप जब कभी भी बदरीनाथ यात्रा के लिए आये तो फूलों की घाटी तथा हेमकुंड के दर्शन के लिए दो से तीन दिन जरुर से निकाले। मेरा दावा है,आपकी यात्रा भी मेरी यात्रा की तरह कभी न भूलने वाली होगी।  
  पुल पार कर लेने के पश्चात हम में से तीन जन संजय ,डॉ प्रशांत तथा डॉ सुनीता ने तय कर लिया कि वे पैदल ही घाघरियाँ के लिए रास्ता तय करेंगे जबकि मैं ,विदिशा,प्रोफ़ेसर नरेंद्र और उनकी पत्नी और बच्चें ने घोड़े लेना उचित समझा। क्योंकि मैं थोड़ा ही सही मगर एक आरामपसंद व्यक्ति रहा हूं ,शारीरिक श्रम और कष्ट से बचना चाहता हूं। सोचा ,घोड़ा लेने से मैं थकूंगा भी नहीं,रास्ते में उतर कर विडियोंग्राफी भी हो जाएंगी और सफर भी मुक़्म्मल हो जाएगा । मै अक्सर पहाड़ी चढ़ाई के लिए घोड़े लेना पसंद करता हूं चाहे मैंने केदारनाथ की यात्रा की हो या माता वैष्णो देवी की। 
      घांघरिया उत्तराखंड राज्य के चमोली जिले में स्थित बहुत ही खूबसूरत घाटी है। घांघरिया पुष्पावती और हेमगंगा नदी के बीच संगम पर स्थित है। पुष्पावती नदी को फूलों की घाटी से आने वाली और हेमगंगा नदी को लक्षमण गंगा नदी के नाम से भी जाना जाता है।
     हेमकुंड साहिब के रास्ते में स्थित घांघरिया समुद्र तल से ३००० मीटर से भीअधिक उंचाई पर स्थित है और यह स्थान सिक्खों का तीर्थ स्थल है। घांघरिया में बर्फ से ढंकी चोटियाँ पर्यटकों को बहुत आकर्षित करती है। बर्फ से पहाड़ी पूरी तरह ढंक जाने के कारण घांघरिया दिसंबर से अप्रैल माह के बीच बंद रहता है यह केवल मई से नबम्बर के बीच ही खुला रहता है।
      नंदा देवी राष्ट्रीय उद्यान यहाँ कुछ दूरी पर बहुत सुन्दर फूलों से सजा हुआ नंदा देवी राष्ट्रीय उद्यान है। पर्यटक इस शानदार चोटी पर स्थित फूलों की घाटी के लिए १० किलोमीटर की ट्रैकिंग कर सकते है। 
     हेमकुंड साहब यहाँ का सबसे बड़ा आकर्षण का केंद्र है शायद आप कभी भी भूल पाए। हम भी आपको गुरु गोविन्द सिंह जी की तपस्या स्थली लेकर चलेंगे। 
     गुरूद्वारें  घांघरिया के इतिहास को लेकर ज्यादा कोई प्रमाण नही आये है। आज भी बहुत लोग ऐसे है जो इस अद्भुत स्थान के बारे में नहीं  जानते हैं । यह स्थान कई मंदिरों के लिए प्रसिद्ध है। घांघरिया सिक्खों का प्रमुख तीर्थ स्थल है, यहाँ सिक्खों के दसवें गुरु श्री गुरु गोविन्द सिंह ने ध्यान लगाया था। तब से ही यहाँ बहुत सारे गुरूद्वारें  बनाये गए हैं । इस प्रदेश में गुरु गोविन्द सिंह जी से जुड़ी कई पौराणिक कथाएं है। इसलिए हजारों भक्तों की यात्रा का यह स्थान बहुत अद्भुत है। 
    प्राकृतिक सौंदर्य घांघरिया में प्राप्त यहाँ के आकर्षक पहाड़ी  झरने आपकी यात्रा में चार चाँद लगा देते हैं। घांघरिया में पर्यटकों को देखने के लिए बहुत कुछ है यहाँ पर भगवान राम और लक्षमण के मंदिर स्थित है।

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    क्रमशः जारी। गतांक से आगे  १२  । २७  /४ /२०२० 



   घाघरियाँ की ओर 


मेरे सहयात्री डॉ सुनीता ,डॉ प्रशांत और संजय  घाघरियाँ की ओर 

     १४ किलोमीटर की ट्रेकिंग गोविन्द घाट से घांघरिया के मध्य ट्रेकिंग की दूरी लगभग १४ किलोमीटर के आस पास होती है जो कच्चे पथरीले रास्तें से ही होकर गुजरती है। आप पैदल या टटुओं के जरिये ही जा सकते है। २०१३ के महाप्रलय के बाद रास्ते कुछ नए निर्मित किये गए है जो थोड़ा लम्बा हो जाता है । पुलना गांव से घोड़े,ख़च्चर मिल जाते हैं ।  
   जैसे जैसे आप घांघरिया की तरफ़ बढ़ेंगे आपको आपकी दाहिनी तरफ लक्ष्मण गंगा बहती हुई मिलेंगी। इसकेआगे घांघरिया में ही पुष्पावती नदी और भ्यूंडार नदी का संगम होता है जो बाद में लक्ष्मण गंगा नदी कहलाती है।और यही लक्ष्मण गंगा झरनें के रुप में आप के साथ होगी। 
   रास्ते चलते हुए सतनाम,सतनाम कहने वाले सिखों  के साथ  ' सत श्री अकाल ' ' वाहे गुरु जी की फ़तह 'का अभिवादन होता रहा। हम बढ़ते रहे सफ़र कटता रहा। 
    बाई तरफ कई दरकतें हुए ग्लेशियर हिम खंड रास्तें में सरक कर मार्ग को बाधित कर रहें थे। हम मैदानी इलाकों वाले लोगों के लिए इन ग्लेशियर हिम खण्डों को देखना,छूना,इसके इर्द गिर्द फोटो खींचना कितना अच्छा लग रहा था  ? लग रहा था  ना ?
    हमारे सहयोगी साथी डॉ प्रशांत ने पैदल चलते हुए रास्तें में ढ़ेर सारे सेल्फी और फोटो निकाले थे जो उन्होने घांघरिया पहुंच कर दिखाया था। बता रहें  थे रास्ते में उन्होंने खूब मस्ती की थी। संजय तो बर्फ में जैसे लोट लोट कर आये थे , बच्चें जो ठहरें। हम भली भांति समझतें है घर के मुंडेरों पर जब गरमियों में ओलें पड़तें हैं तो हमें कितना अतिरेक आंनद होता है। 
    हम दो घंटे में ही  घांघरिया पहुंच गए थे और डॉ साहब ११ बजे तक़  पहुंचे थे। हमारे पास उनके पहुंचने  तक के इंतज़ार करने के अलावा कोई चारा भी नहीं था।इंतज़ार की घड़ियां भी कितनी लम्बी होती है..ना ? 
    रहने का प्रबंध हमने इसी बीच कोई सस्ता सा होटल देख लिया था। कोई श्री नन्द लोक पाल होटल था। मुझे याद है होटल वाले ने होटल छोड़ने के क्रम में हमें होटल के नाम की लिखी केसरियां रंग की दो तीन टोपियां भी दी थी जिनमें से एक टोपी मैंने आज तक़ संभाल कर रखी है। इसी बीच हम आपको बता दे कि घांघरिया में आपको लो-बजट से लेकर हाई-बजट तक के रेंज में ढ़ेर सारे  होटल मिल जाएंगे । आप अपनी सुविधा और बजट  के अनुसार किसी भी होटल का चुनाव कर सकते है। इश्वरी नारायणी होटल ,होटल ड्रीम माउंटेन रिसोर्ट, जोशीमठ त्रिशूल ,जोशीमठ हिमालयन इको लॉजन्यू ,सिद्धार्थ लॉज आदि बहुत सारे होटल हैं। खाने पीने की भी कोई कमी नहीं है। थोड़ा महंगा होगा लेकिन सब कुछ मिलेगा। आखिर सारा सामान तो नीचे गोविन्द घाट से घोड़े ख़च्चर से ही आता है ना। 



इंटरनेट से चित्र साभार। घाघरियाँ के मनमोहक घाटियों के खूबसूरत दृश्य के कोलाज । 

     घांघरिया की चहलकदमी  शाम हो गयी थी। हमलोगों ने शाम की चाय इकट्ठे ही पी और आस पास की जगहों को देखने निकल पड़े। सामने की उठी हुई चोटियां और उसपर ठहरें गहरे काले बादलों से हमें कितना डर लग रहा था ? पता नहीं किसी अनहोनी की आशंका बार बार हो रही थी। और ठीक उन चोटियों के पीछे सूरज की लालिमा शीतोष्ण हो गयी थी। मरी हुई सूरज की किरणों में न कोई जान थी और न ही कोई उष्णता। 
    मालूम हो पास की घाटियों में कुछ शोर हो रहा था जैसे पानी की के तेज़ धाराओं के बहने का शोर  । शायद पुष्पावती नदी फूलों की घाटी से होकर आती हुई घांघरिया में भ्यूंडार नदी से  मिल रही थी। इसके बाद ही लक्ष्मण गंगा कहलायेंगी न  ? 
    मई जून में भी हड्ड़ी कंपाने वाली कड़ाके की ठंड थी। हम तीन हज़ार मीटर से भी उपर थे।  ठंड रोकने में स्वेटर और जैकेट भी कम पड़ रहे थे। संजय ने तो बन्दर टोपी भी लगा ली थी।  
    संगम स्थल घांघरिया की स्थिति पुष्पवती नदी का जल स्वच्छ और साफ़ है जोकि चांदी के समान चमकता हुआ दिखाई देता है। एक बहुत ही प्राचीन पठार जिसका नाम कुण्डलिनिसन पठार है इसी नदी के किनारे पर स्थित है। पुष्पवती नदी हेमकुंड गंगा कहे या भ्यूंडार नदी के साथ घांघरिया में ही मिलती है। ३०४९ मीटर की ऊंचाई पर इन दो नदियों के  संगम स्थल पर ही बसा हुआ हिल स्टेशन है घांघरिया। पर्यटन की दृष्टि से यह स्थान बहुत ही रोचक है। 
   हमलोग ने पैदल चलते ही आस पास के कुंड और गुरुद्वारे का दर्शन किया,रात्रि नौ दस बजे के पहले होटल लौट आये। होटल में ही खूब भरपेट खाना खाया और दो तीन रजाई अपने उपर डाल कर सो गए। इस कड़ाके की  ठंड में तीन रजाईआं भी कम पड़ रहीं थी न ? आख़िरकार नींद आ ही गयी। 
   उचित समय घांघरिया घूमने जाने का सबसे अच्छा समय मई माह से सितम्बर माह के बीच का होता है। घांघरिया में बर्फ बहुत ज्यादा गिरती है इसी बजह से यहाँ के पहाड़ बर्फ से ढँक जाते है। घांघरिया को दिसंबर से अप्रैल माह के बीच बंद कर दिया जाता है। आप घांघरिया की मनोरम पहाड़ियों में शाम के समय डूबते सूरज के दर्शन करना ना भूले।
  दूसरे दिन हमें फूलों की घाटी जाना था। हमने इसकी तैयारी शुरू कर दी। 


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 क्रमशः जारी। गतांक से आगे  १३ । २८   /४ /२०२० 


 फूलों की घाटी





फूलों की घाटी का खूबसूरत दृश्य। चित्र इंटरनेट से साभार 
       
    लो सुबह हो गयी. दो मई प्रातः काल की बेला। सुबह की ताजगी पेड़ों  पर विखरी पड़ी थी। हम लोग उठ चुके थे। सामने दो पहाड़ियों के बीच में स्थित हिमच्छादित चोटियों से सरकते हुए विशाल हिमखंड नीचे तक आ पहुंचे थे,आ गए थे ना ? एकाध आवारा बादल के टूकड़े  हवाओं  में तैरते हुए इधर उधर आ जा रहें थे। किरणें अभी प्रस्फुटित हो ही रही थी। हमने जल्दी जल्दी ब्रेड टोस्ट चाय का नाश्ता किया और बढ़ गए पोस्ट की तरफ़। हमें पर्ची जो कटानी थी। आठ से ज्यादह बजने वाले थे।
   आसमान लगभग साफ था हम सभी टोलीमय होकर आगे बढ़ने लगे थे। सभी ने अपनी अपनी पर्ची वन विभाग से कटाई साथ बढ़ने लगे। बता दे  आपको फूलों की घाटी में प्रवेश करने के पहले वन विभाग के अधिकारियों से अनुमति लेनी होती है।  हमने भी खानापूर्ति की। वन विभाग में पर्ची कटा कर  तंग दरियाई रास्तों से फूलों की घाटी की तरफ से चल पड़े  ।
    फूलों की घाटी,जाने की तैयारी.हमें ताकीद की  गई कि  सायं के पहले हमें इसी  वन विभाग के पोस्ट पर लौटने की हाजिरी भी  देनी है । क्योकि वन विभाग वाले जाने और आने वाले लोगों का पूरा व्योरा रखते है। शाम होते ही उपरी सुनसान जंगल के रास्ते में भालुओं,तेंदुओं आदि जानवरों का स अधिकार प्रवेश हो जाता है जिनसे हमें बचना होता है  । हम पूरी सावधानी व सतर्कता के साथ सम्भलते हुए छोटे छोटे झरनों को पार करते हुए तंग और निर्जन रास्ते से बढ़ने लगे थे  ।

फूलों की घाटी के विहंगम खूबसूरत दृश्य 

     लोगों  की आवा जाही बहुत ही कम थी , न के बराबर। ऐसे में हमारे जैसे कुछ जिज्ञासु या विदेशी पर्यटक ही थे जिनकी संख्या बहूत ही कम थी जो फूलों की घाटी देखने जा रहें थे। शायद कुछ एक लोग जो प्रकृति प्रेमी होते हैं वे ही यहां  आना पसंद करते है ।
    हमारे संगी साथी  : कदाचित डा प्रशांत हमसे बहुत आगे निकल गए थे। संजय उनके साथ ही होगा। शायद उन्हें फूलों की घाटी पहुँचने की बहुत जल्दी थी या वे हमसे ज्यादा फूलों की घाटी में समय बिताने का लोभ सम्भरन नही कर पा रहे  थे । रही बात प्रोफेसर साहब की तो वे हमसे थोड़ा ही पीछे थे।
    चलते चलते रास्ते में एक पुलिया मिला। माने तो यह पुष्पावती नदी ही थी जो नीचे से होकर बह रही थी। बहाव बहुत ही तेज़ था। प्रोफेसर नरेंद्र जी डंडे के सहारे वहीं पुल पर टिक कर खड़े हो गए थे। शायद हांफने लगे थे। हम सबों में वे ही ज्यादा वृद्ध थे। डॉ सुनीता और हम इधर उधर प्रकृति  की ख़ूबसूरती का नजारा देखते हुए साथ साथ ही चल रहें थे। हमें साथ रहते फोटोग्राफी भी करनी थी। 
   पुष्पावती की धाराएं  : मैंने पुल के नीचे एकबारगी देखा ,छोटे से लोहे के पूल के नीचे से पुष्पावती नदी वेगवती होकर बह रही थी बहाव इतना तेज था कि हम किनारे पर भी क्षण भर के लिए भी हम अपने पैर जमा नहीं सकते थे।  पुष्पावती नदी के निर्मल प्रवाह ने ही विश्व प्रसिद्ध फूलों की घाटी को पोषित किया है न । फूलों की घाटी के  शीर्ष भाग हिमनदों से अटे पड़े  है। इसी श्रृंखला के टिपरा बांक से ही पुष्पावती नदी का उदगम होता है। लगभग ४ किलोमीटर का फासला तय करने के बाद यह घाघारियाँ  में यह लक्ष्मण गंगा में मिल जाती है।
   जंगल जंगल बात चली है :  ज्ञात हो हेमकुंड साहिब की आधिकारिक यात्रा की धोषणा के पश्चात ही फूलों की घाटी में मजदूरों द्वारा हिमनदों को काटकर आने जाने भर रास्ता बनाने का काम शुरू हो जाता है । रोजाना मजदूर पर्यटकों के लिए हिमखंडो को काटकर आने जाने के लिए रास्ता बनाते है  ताकि पर्यटक आ जा सकें। दो बजे अपराहन के बाद इक्का दुक्का ही मज़दूर नजर आते है क्योंकि तब उनके लौटने का समय हो चुका होता है। देखा,बहुत सारे मजदूर इस काम में लगे हुए थे।
    पता चला सायं चार बजे के शायद ही कोई मिलता है। सब लोग नीचे उतर जाते है। वनकर्मी गिनती पूरी करके वो भी वापस लौट जाते है। सच जानिये यह एक ऐसा एकांतिक सफर था जिसमें हमें अन्जाने इन्सानी चेहरों  को देखकरअपार खुशी हो रही  थी। क्योंकि अब तक जाने या आने वाले बहुत कम लोग ही दिख रहें थे । अन्यथा अनदेखे अनबुझे रास्ते पर चलते हुए डर मिश्रित रोमांच का साया ही हमारे साथ था। मैं आनंदित तो जरूर था लेकिन सहमा हुआ भी था। रह रह के  इन्सानी छाया देखकर ही हम हर्षित हो उठते थे कि लगता था , कोई तो है। तभी रास्ते में लौटते हुए हमें एक अमेरिकी पर्यटक माइक से मुलाकात हुई । वह लौट कर आ रहा था। उसे फुलों की घाटी बहुत अच्छी लगी थी। घाटी कैसी लगी ? इस बाबत पुछे जाने पर उसकी टिप्पनी थी  ' बहुत ही खुबसुरत ! अतुलनीय ! '
     प्रकृति का साथ  : करीबन एकाध दो घंटे चलने के पश्चात हम एक ग्लेशियर के समीप पहुंच गए थे । संजय ग्लेशियर देखते ही फिसलने की तैयारी करने लगा था। यह ख़तरनाक हो सकता था। हिमनदों  में बने गड्ढें का हमें अनुमान नहीं हो पाता हैं न। हम हिम गह्वर में समा सकते थे। हमने उसे ऐसा करने से सख़्त मना किया ,लेकिन वो माना कहाँ ।
    प्रकृति के इस अनुपम सौंदर्य देखने के बाद हम और आगे बढ़ने के लिए प्रेरित हो गए थे। हमने शीघ्रता से अपने अपने कदम बढाने शुरू कर दिये थे । थोडे समय के पश्चात ही थोड़े थोड़े अन्तराल पर हमें नाना प्रकार के फूलों के गुच्छें दिखने शुरू हो गए  थें। लाल , पीले  , बैगनी , नीले , गुलाबी फूल जिसके लिए फूलों की घाटी अन्तराष्ट्रीय स्तर पर विश्वविख्यात रही है । नई उभरती कोपलें ,शैशवावस्था में अभी के खिले फूलों को जैसे जुलाई अगस्त की बारिश की बूंदों का ही  इंतजार था ,मानो । मेरी माने तो फूलों की घाटी आने का सही माकूल समय अगस्त सितम्बर ही है ,जब कि थोड़ी  बारिश हो जाये और नम हवाओं में बेशुमार रंग बिरंगे फूल खिल जाए । 


फूलों के रंग से मैंने लिखी तुझकों पाती। फूलों की घाटी। चित्र इंटरनेट से साभार 

     फूलों के रंग  : समुद्रतल से ३६५८  से ३९६२  मीटर की उचाई पर स्थित फूलों की घाटी का अनुपम प्राकृतिक सौदर्य अगस्त महीने में ही चरम पर होता है जब विभिन्न प्रकार के फूल कई रंगों में खिल जातें  हैं ।  जून में सफेद ,जुलाई में  लाल गुलाबी तो अगस्त महीने  में पीले फूलों की भरमार होती है और इन फूलों की महक से चतुर्दिक वातावरण सुगंधित एवं  मादक हो जाता है । मार्च तक घाटियों में बर्फ होने की वजह से फूल नहीं खिल पाते है। अप्रैल के बाद पिघलती हुई बर्फ की परतें जब सूर्य की रश्मियों से उष्ण होती तो जमीन से पुष्प बीज अंकुरित होने लगते है। कुछ जल्दी खिलने वाली फूलों की प्रजातियां  हमें राह चलते ही दिख रहीं  थी । मई से ही फूलों के खिलने का सिलसिला जारी हो जाता है ,जो अगस्त सितम्बर तक रहता है ।
    कई जलधाराओं का निःसरण :  २० किलोमीटर क्षेत्रफल में फैली फूलों की घाटियों  से गुजरते हुए हमें कई नन्ही जलधाराएं नीचे की ओर प्रवाहित होती दिखी जो निश्चिततः पुष्पावती में समाहित हो जाती होगी। 
    यही पुष्पावती धाधरिया में लक्ष्मण गंगा से मिल जाती है और लक्ष्मण गंगा का समागम गोविंद घाट में अलकनंदा से हो जाता है । नन्ही जलधाराओं  का बड़ी धारा  में मिलने का क्रम  तदोउपरांत छोटी नदी का बड़ी नदी में मिलने  का दस्तूर यहाँ भी जारी ही था।  ऐसे ही जैसे  सांप सी बलखाती मध्यम गति  से चलती अलकनंदा रूद्रप्रयाग में मंदाकिनी से मिल कर ,आगे देवप्रयाग में भागीरथी से मिलकर जब तक गंगा न हो जाती है तब तक । 
     हम अब थक से गए थे ,हमारे साथी एक दूसरे से बिछड़ कर पीछे भी छुट चुके थे। क्योंकि कुछ आहिस्ता चल रहे थे तो कुछ तेज़। कुछ हॉफ रहे थे, तो एकाध पत्थरों पर टिके होंगे। मैं भी अकेला हो गया था ,डर मिटाने के लिए अकेले  ही अचानक दिखे मिले श्रमिकों के साथ बात करता हुआ मैं उनके साथ बढ़ने लगा था।  उनके साथ साथ चलते हुए मैं काफ़ी  आगे चला आया था , स्थानीय काम करने वाले प्रकृति के संरक्षक मजदूर ही मेरे लिए श्रेष्ठ गाइड का काम कर रहे थे । 


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   क्रमशः जारी। गतांक से आगे  १४  । २९   /४ /२०२० 



फूलों की घाटी। चित्र इंटरनेट से साभार 




     काठ की पुलिया और फूलों की घाटी : मुझे भरोसा दिलाया कि चित प्रतीक्षित घाटी अब ज्यादा दूर नहीं है बस मुझे अब काठ की पूलिया ही पार करनी है।  मैंने उनसे साथ चलने का आग्रह किया तो उन्होंने कार्य की व्यस्तता एवं समय की अल्पता की बात कही, और कहा कि उन्हें  मार्गेट की कब्र तक जाना है ,एवं रास्ते में पड़ने वाले कुड़े-कचड़े को इक्कठा कर, इस जगह को साफ करते हुए फिर वापस भी लौटना है । बहुत ही नेक और प्रशंसनीय कार्य था उनका । 
    सुनकर पीड़ा हुई कि हमने इतनी ऊंचाई पर भी रैपर,प्लास्टिक,पौलोथीन बिखेर कर स्वंय के अमानुष होने की छाप छोड़ ही दी है | सोचता हूँ भगवान ने हमें कितना सुंदर तोहफा दिया है और बदले में हमनें क्या दिया ? चार हजार मीटर की उचाई पर अजैविक कचड़ा और कभी न खत्म होनेवाला प्रदूषण। रंग बिरंगे ढ़ेर सारे फूल खिले थे यहाँ वहां । उड़ती हुई तितलियाँ फूलों पर मंडरा रही थी। जैसे हम परियों के देश में थे। 
    काठ की पुलिया पार कर लेने के बाद थोड़ी सी ऊंचाई  पर हमारे सामने प्रकृति का अदभूत नजारा था छोटी सी काठ की तख्ती पर लिखे हुए फूलों की घाटी से हम निश्चिंत हो चुकें  थे कि हम फूलों की घाटी में पहुंच चुके है ।  काठ  की पुलिया पार करने के पश्चात थोडी सी ऊंचाई  पर हमारे समाने प्रकृति का अदभुत नजारा था ।  थोड़ी दूर  पर मुझे मेरे परम मित्र डॉ प्रशांत लेटे हुऐ दिख गए। 
    मैंने उन्हें आवाज लगाई  ...क्या कर रहे है ,बड़े भाई ..कब पहुंचे ?  मैं उन्हें ऐसे ही कह कर सम्बोधित करता हूं ना।
    उनका हवा में तैरता हुआ जवाब मिला था, ' मैं तो कब से लेटा हुआ इस घाटी का नजारा देख  रहा हूँ । बड़ी देर लगा दी ... तुमलोगों ने  ? 
    मैने कहा , ' आपको अकेले आना था ,और हमें सब को देखना था । ग्रुप का भी ख्याल तो  करना है कि कौन आ रहा है कौन नहीं।'
    प्रोफ़ेसर नरेंद्र जी और उनकी फैमिली अभी पीछे ही थी। थोड़ी देर तो लगेगा  ही पहुंचने में। 
    हमने उनसे पूछा , ...हम फूलों की घाटी में पहुंच गए है न बड़े भाई ? 
    उनका जबाव था ' हाँ  ' तो अब हम निश्चिन्त हो गये थे। फूलों की घाटी में शीर्ष स्थान पर पहुँच कर हम पत्थर पर बैठ गयें । हमारे शेष साथी भी वहाँ पहुच चुके थे । हमारे सह यात्री प्रो .नरेन्द्र ने अपने हाथों में कई एक जड़ी बूटी वाले पत्तें  इक्कठें  कर रखें  थे । पूछने पर उन्होंने बताया कि यह भोजपत्र आदि है । 
   दूर तलक उपर नीचे अगल बगल सिर्फ पर्वत दिख रहे थे और घाटी ही घाटी दिख रही थी । आगे से एक रास्ता पगडंडी जैसा अर्द्धवृताकार रूप में ढलानों तक जाता था । शायद नीचे ढलानों के बीच  नीचे कोई नदी बह रही थी । हम कुल जमा वहाँ दस की संख्या में थे । एक विदेशी पयर्टक उस पगंडडी पर आगे बढ़ने लगा था । कहीं दूर - दूर पर उजले नीले फूलों के  समूह नजर आ रहें  थें  । 
    कथाएं परियों की  : यहाँ आते ही हमें फू लों भरी डालियां  घाटी के ढलानों में उगे फूलों की लंबी अंतहीन कतारें । ठंडी हवाओं के झोकों का  लहराना , तितलियाँ का मंडराना हमें किसी दंतकथाओं में वर्णित परीलोक का एहसास करा ही दे रहा था । कभी शायद यहाँ परियां रहती थी न  । फूलों की घाटी में प्रचलित परी कथाओं से भयभीत हो कर ही तो  यहाँ के रहने वाले वे उस क्षेत्र में प्रवेश नहीं करते थे,यही बात थी  न । यह प्रदेश उनके के लिए वर्जित समझा जाता था क्योंकि उन का मानना था कि वहां जाने पर परियां उन्हें गायब कर देंगी। 
   फूलों की घाटी की खोज  इस सुन्दर फूलों की घाटी को खोजने का श्रेय १९३१  में एक उत्साही अंग्रेज पर्वतारोही फ्रेंक स्माइथ को जाता है। यह दीगर है कि अपने साथी पर्वतारोही होल्ड्सवर्थ के साथ हिमालय की कामेत नाम की चोटी पर सफल अभियान से लौटते समय उसे दूरदूर तक घाटियों में नाना प्रकार के सुंदर फूल ही फूल खिले दिखाई दिए। फ्रेंक स्माइथ रंगबिरंगे फूलों की इस वादी का खूबसूरत नजारा देख कर और वहां की खुशगवार आबोहवा से इतना प्रभावित हो गये  कि उन्होंने इस ख़ूबसूरत  घाटी को नाम दिया  ' फूलों की घाटी '  उन्होंने इस घाटी पर एक ' फूलों की घाटी ' नामक पुस्तक की रचना भी कर डाली ।  इस पुस्तक के प्रकाशन के बाद तो उत्तरांचल राज्य का यह भाग जैसे  देशविदेश में पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र बन गया ,पर्यटकों के बीच आने जाने की होड़ सी लग गई। 
   उतावली मारग्रेट लेग  फ्रैंक स्माइथ की पुस्तक में ' फूलों की घाटी ' की खूबसूरती का जिक्र पढ़ कर ही मारग्रेट लेग नाम की एक अंगरेज युवती साल १९३९  में भटकते हुए  फूलों की घाटी आ गयी  और वहां कई दिन तक घाटी के अप्रतिम सौंदर्य और कुदरत के इस वरदान का आनंद उठाती रही।  लेकिन कहते है एक दिन जैसे ही मारग्रेट फूल तोड़ने के लिए आगे बढ़ी , अपना संतुलन खोने से गहरी खाई में जा गिरी और उस की मृत्यु हो गई। जहां मारग्रेट मरी फूलों की घाटी वहीं उसे दफना दिया गया और समाधि पर लिखा गया , ' मेरी आंखें इन फूलों की घाटियों को सदा निहारती रहेंगी . ' तब से फूलों घाटी जाने वाला हर पर्यटक मारग्रेट की समाधि पर अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करता है। 



रंग बिरंगे फूलों से भरी घाटियां। बर्फीले पहाड़ों के दिखते दृश्य। चित्र इंटरनेट से साभार। 

    फूलों की घाटी  शंकुआकार १० किलोमीटर लम्बे २ किलोमीटर चौड़े  भूभाग  में  विस्तृत क्षेत्रफल में  फैले इस घाटी की इन पर्वत श्रृंखलाओं से कई छोटी छोटी जलधाराएं निकल कर पुष्पावती नदी में गिरती हैं। इन्हीं जलधाराओं में एक जलधारा का नाम इंदिरा गांधी के नाम पर प्रियदर्शिनी जलधारा रखा गया  है ।  इसी के आसपास सुंदर व अति विरले फूल  ब्रह्म कमल खिलते हैं।  यों तो कमल पानी में उगते हैं मगर ब्रह्म कमल परंपरा से हट कर मिट्टी में उगते हैं।  ट्रेकिंग के शौकीन के लिए निःसंदेह यह फूलों की घाटी रोमांच से भरपूर है।  
    अभी पूरी घाटी फूलों से नहीं भरी थी। फूल खिल ही रहें थे। सोचने लगा , सही में फूलों की घाटी देखने का उपयुक्त समय जुलाई अगस्त का महीना ही होगा ।  जब असंख्य तरह क फूल खिल कर घाटी को और सुंदर बढ़ा देते होंगे  । तब घाटी के ढलानों पर उगे फूलों की लंबी  कतारें और ठंडी हवाओं के झोंकें से लहराते फूलों की भरी डालियां और ज्यादा ताज़गी  का एहसास करा देती होगी।  हिमालय की बर्फीली चोटियों का दृश्य और अधिक मनोरम जान पड़ता होगा  ।
   दुर कही पहाड़ी श्रृंखलायें आपस में गुथी हुई थी । सामने प्रकृति का अलौकिक नजारा दिख रहा था । कुछ एक की चोटियों पर चाँदी जैसे बर्फ की टोपियां  रखी हुई थी 
   मारग्रेट लेग की कब्र  मेरी आंखे मारग्रेट की तलाश कर रही थी। कहाँ हो मारग्रेट ? यहीं कहीं न ?
और दूर  कहीं  ढलानों में बमुशकिल दिखती हुई ब्रिशिट मूल की युवती मारग्रेट लेग की कब्र थी । यह वही ब्रिटिश युवती थी न  जिसने  इस घाटी के  खोजकर्ता  प्रसिद्ध ब्रिटिश पर्वतारोही  फ्रेंक स्माईथ की  लिखी  एक प्रसिद्ध पुस्तक ' वैली ऑफ फ्लावर्स ' पढ़ी थी और अत्यन्त प्रभावित उत्सुक और उतावली होकर सन १९३३  में फूलों की घाटी देखने भारत आ गई थी । नन्दादेवी श्रृखंला और घाटी का अदुतीय नंदादेवी  पर्वत श्रंखला में भटकते हुए और घाटी का अद्वितीय सौंदर्य देख कर वह इतना मंत्रमुग्ध हो गयी कि उसे फिसलन का भान ही नहीं रहा। एक खिले आकर्षक़ फूल तोड़ने के क्रम में उसका पांव फ़िसल गया और इस घाटी में सदा के लिए चिर निद्रा में सो गयी।  
 जहाँ मारग्रेट  मरी उसी वहीं  कब्र  में दफना दिया गया और हम उसी कब्र को ख़ोज रहे थे । जानकारी मिली थी आने वाले तमाम जानकार पर्यटक उसकी समाधी पर श्रद्धा के दो चार फूल अवश्य चढ़ातें  हैं । हमे भी श्रद्धा के दो चार फूल चढ़ाने थे । और कब्र पर लिखी उसकी इवारत को भी अपनी आँखों से देखना था  जिस पर यह लिखा है ' मेरी आँखे इन पर्वतों को सदैव निहारती रहेगी ' । हमें अनायास ही  भावुक बना देती है । हमारे साथी डॉ प्रशांत और संजय उस ओर बढ़ गये थे जहाँ मारग्रेट लेग की कब्र थी। मैं पत्थर पर बैठा उन्हें जाता देखता रहा। 
   फूलों की प्रजातियां  फूलों की घाटी में चारों ओर महक बिखेरते रंगबिरंगे फूलों का मंजर देखने योग्य होता है। कहीं आकाश गंगा की तरह जमीन पर फैले ऐनोमोन तो कहीं टेरेस और कहीं  फ्रेंच ब्लू प्रिमुला चारों ओर मीठी सुगंध बिखेरते ये फूल कभी न भूलने वाली अनुभूति देते हैं।  फूल अब खिलने वाले ही थे ।
   यहां लगभग २००  से अधिक दुर्लभ प्रजातियों के फूल . चिकित्सकीय पौधों की किस्में पाई जाती है । कुछ तो अंतराष्ट्रीय स्तर पर दुर्लभ है । कुछ उल्लेखनीय फूलों की किस्में है जिन्हें हम जान पाए वे है - एकोनाइट , डैक्टीलोरिजा , मार्शा , ट्राइसिमन , गेंदा स्पीसस एनोनोस , फाक्सग्लोब , पिटूयूनिया , डैक्टीलोरिजा . जीनिया , जैबी , हौली , कैलोडुयला , जिरेनियम , प्रिमूला . डायथस , पाटनटाला गुलबहार सीडियम लिली सेक्सा फज आदि । फिर भी हमें अन्जाने खूबसूरत ,मोहक दिखने वाले फूलों की महक सूंधने से बचना चाहिए क्योकि यहां जगह - जगह लिखी चेतावनी हमें सावधान करते रहती है । कही सूंधने के क्रम में आप अपनी सुध बुध न खो दे। 
    तभी वहाँ से आते हुए मजदूरों का एक समूह दिखा । ये वहीं के कामगार थे जिनसे मैं मिला था, जिनके जिम्मे नंदा देवी नेशनल पार्क अवस्थित फूलों की घाटी की साफ सफाई ,संरक्षण ,रख रखाव का दायित्व सौपा गया था । शायद वे मारग्रेट की कब्र के पास से कुड़ा कचड़ा इक्ट्ठी कर लौट रहें  थें  ।
     कानों से छू कर ठडी हवा सर्र सर्र कर बह रही थी । यदि अभी की बारिश हो जाए ,बर्फबारी हो जाए तो हम कहां जायेंगे ? कहीं भी नहीं । छुपने के लिए कहीं कोई स्थान नहीं था ना ? हमारे लिए ठंड में भीगने के सिवाय कोई और चारा ही नहीं होगा । 
  दुपहर का तापमान १० से १२  डिग्री रहा होगा । हम स्वपनलोक सी दिखने वाली इस घाटी को एक टक आँखों से निहार रहे थे । यहाँ घाटी में ठहरने की कोई व्यवस्था नहीं है । अतः सुबह सबेरे ही यहाँ का भ्रमण कर शाम तक चार बजे से पहले लौटना ही लाजिमी होता है.


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     क्रमशः जारी। गतांक से आगे  १५  । ३०/४ /२०२० 



चल कहीं दूर निकल जाएं। चित्र इंटरनेट से साभार। 


      मैं और मेरी तन्हाई  : मैं अन्ततः मन से ब्रिटिश वनस्पतिशास्त्री और पर्वतारोही फैंक स्माईथ और स्कूल के प्राधायापक होल्डसवर्थ का तहेदिल से आभार प्रगट कर रहा था जिन्होंने हिमालय की प्रसिद्ध चोटी कामेत के पर्वतारोहरण के सफल अभियान के बाद लौटने के क्रम में रेस अत्यंत खूबसूरत फूलों की घाटी वाली वादी की खोज की थी।और हमें प्रकृति के नायाब तोहफे से हमें परिचित करवाया था,जिसे आज दुनियाआज फूलों की घाटी बतौर जानती है ।
यह जगह अपने देश में ही नहीं विदेशों में भी एक आकर्षण का केंद्र है। तथ्यों की मानें तो  यहाँ  लगभग २०० से अधिक दुर्लभ प्रजातियों के फूल ,चिकित्सकीय पौधों की किस्में पाई जाती हैं जिनमें कुछ तो अंतराष्ट्रीय स्तर पर दुर्लभ है। कुछ उल्लेखनीय फूलों की किस्में ही - एकोनाइट, डैक्टीलोरिजा , मार्शा , ट्राइसिमन , गेंदा ,स्पीसंस,एनोनोस जिन्हें हम जान पाए और देख पाये थे।
    ज्ञात हो बदरीनाथ से पूर्व १० किलोमीटर लंबी और २ किलोमीटर चौड़ी समुद्र तल से ३६५८ मीटर की उँचाई पर अवस्थित इस  शंकुआकार फूलों की घाटी यूनेस्को प्रतिबंधित व संरक्षित घाटी कर रखा है जिसे १९८२ भारतीय सरकार ने नंदा देवी राष्ट्रीय पार्क घोषित कर दिया गया था।आपको भी हम बता दें कि यहां कैंप लगाना ,मवेशी चराना, खानाआदि बनाना मना है ।
     नहीं दिखे ब्रहमकमल  : हमें वो दुर्लभ घाटी से निकलती हुई जलधारा ,प्रियदर्शनी  जलधारा तथा इसके पास ही खिलते अति दुर्लभ ब्रहमकमल नहीं दिखें । कोई जलधारा दिखी ,मिली भी होगी तो हम उसे कैसे पहचान पाते ? इसके लिए तो हमें ब्रिटिश  वनस्पतिशास्त्री और पर्वतारोही फैंक स्माईथ जैसे शोधार्थी का साथ चाहिए था न जो इन चीज़ों को पहचान सके ।
    साधारणतः यू पानी में बढ़ते पनपते और खिलते कमल तो हमने बहुत बार देखें है लेकिन पानी में न खिलकर मिट्टी में पनपने वाले ब्रहम कमल के बारें में बहुत कुछ सुन रखा था। अतः देखने की हमे बड़ी तीव्र इच्छा थी कि यदि इस के दर्शन हो जाते तो कोई और बात होती। बड़ी देर तक घाटी एवं फूलों के इर्द गिर्द स्थलों को निहारते रहें,कि हमें कुछ दिख जाए ,लेकिन हमलोगों  को ब्रहम कमल कही नज़र नहीं आया । ये हम थे और यह  थी हमारी कल्पनाएं।
    इसी बीच दिल्ली व मेरठ के दो चार सैलानी भी वहाँ आ पहुंचे थे । एक विदेशी पर्यटक पगंडडियों के सहारे पहाड़  की तलहटी की तरफ आगे बढ़ने लगा था ।
    दुपहर का एक बज रहा होगा, हमलोग ने साथ लाया हुआ पराठा ,विस्कुटआदि खाया। पास के ही झरने से  शुद्ध ठंडा पानी पी कर अपनी प्यास बुझाई और पॉलिथीन ,रैपर ,कपड़े आदि अवशिष्ट एक झोले में इकठ्ठी कर वापस लौटने की तैयारी करने लगे ।
    डाँ प्रशांत, संजय कुछ दूर तक नीचे ट्रैकिंग के लिए जा कर वापस आ चुके थे।  शायद मारग्रेट की कब्र तक गए थे। बता रहें थे आगे कोई नदी थी ,रंग बिरंगे ढ़ेर सारे फूल थे। और एक क़ब्र भी दिखी थी उन्हें।
    जबकि अनबूझे - रास्ते झाड़ियों और भूरभूरी जमीन पर चलने,थकने  से परहेज करने की चाहत में  मैं वही पत्थर पर बैठा रुका रह गया था । फिर अन्तः मन के किसी कोने में हमे मारग्रेट का भूत भी डर बन कर समाने लगा था  ' हमारे साथ ... कहीं ऐसा न हो कि हमसे से कोई चट्टान से ही फिसल आए और कोई अनहोनी न हो जाए। ' मन में तो अच्छे से ज्यादा बुरे ख्याल ही आते है न  ? यह हम सबों की स्वाभाविक वृति है।


रूत है पहाड़ों का। खिलते हैं फूल यहाँ। चित्र इंटरनेट से साभार 

    आ अब लौट चले  : मैंने अपनी टीम की तरफ़ देखा जैसे सब के मन की थाह पा लेने की कोशिश कर रहा था कि अब वापस लौटें। नीचे चले यह कहते हुए मैंने अपना झोला डंडा उठाया और अकेले ही उतरने के लिए थके क़दम बढ़ा दिए।  सब लोग भी धीरे धीरे नीचे उतरने लगे थे ।
    लेकिन उतरते हुए अब सोचने लगा था ,' थोड़ी हिम्मत करके मारग्रेट की कब्र तक मुझे भी जाना चाहिए था । उसके कब्र पर श्रद्धासुमन के दो फूल चढ़ा देते से तो कुछ और बात होती। न जाने अब कब मौका मिले ? '
   हम छ जन तेज़ी से  वापसी के लिए ढ़लानों पर आराम से रूकते सुस्ताते उतरने लगे थे। आने वाले कुछ और भी हमारे साथ  नीचे उतरने लगें थे । राष्ट्रीय उद्यान का दर्जा पाए इस घाटी में प्रकृति ने कब की अपनी अनुपम छटा विखेर दी थी । ओक देवदार और भोजपत्रों के धने जगल पार करते हुए हमें कहीं  एनोमोन ,टेरेस , फ्रेंच ब्लू प्रिमुला तो कहीं पॉपी केअसंख्य फूल खिले दिख रहें थें। कितनी ख़ूबसूरत है यह फूलों की घाटी ?
     थोड़ी मस्ती थोड़ी शरारत  : ३-४ किलोमीटर दूर निम्न पड़ाव घाघरियां की तरफ उतरते हुए हम फिर से ग्लेशियर मिले। कटे रास्तें बंद हो चुके थे आते समय तो  बर्फ़ ताज़ी थी,भुरभुरी भी तो नए बने रास्तें दिख रहें थे। चलते हुए हमलोगों के  पैर भी धस रहें  थे। लेकिन लौटते समय लोगों की आवाजाही ,उष्णता से ग्लेशियर की सतह सख्त हो गयी थी फ़िसलन से भरी हुई। हमें और भी  संभल के पार करना पड़ रहा था। पास पहुंच कर संजय पुनः बच्चों की भांति उछलने लगा था। पता नहीं क्यों वह बर्फ देख कर इतना उतावला क्यों हो जाता है ? किसी शिशु की तरह।
   ' फिसला जाए...'  जैसे उसने हमसे फिसलने की अनुमति मांगी ।
    डाटने के क्रम में ही मैने सख्त स्वरों में मनाही कर दी कि ' वह बचपना न करें ...फिसलने की भूल कर के हमलोगों को व्यर्थ की परेशानी में न डाले ।' भुरभुरी हिमपरतों पर बने अनजाने हिम गहवर हमारे लिए खतरनाक सिद्ध हो सकते थे, हो सकते थे न ? थोड़ी सी चूक हम सबों को संकट में डाल सकती थी। हमने पूरी सावधानी से बर्फ की चिकनी सितह पर पंजे दबाते चलते हुए ग्लेशियर पार किया ।
    फूलों की घाटी से लौटते हुए मैं मारग्रेट के बारें में ही सोच रहा था कैसे  सन् १९३९  में फूलों की घाटी दिखने को उतावली मारग्रेट इतनी व्यग्र हुई होगी कि उसने जोशी मठ से गोविंदघाट , फूलना गांव , भ्यूडार गांव तक का लम्बा रास्ता पैदल ही तय कर लिया था । उसके जज्बें को सलाम करना चाहिए। प्राचीन धर्म ग्रंथों में वर्णित गंधमादन अर्थात फूलों की घाटी की खुशबू चतुर्दिक दिशाओं में फैल रही थी । 
    तीन या चार बजे तक हमलोग वन विभाग के चेक पोस्ट के पास पहुंच चुके थे। सब ने अपनी पर्ची थमाई उन्होंने हमारी गिनती की हम सब सही संख्या में लौटे है या नहीं। 
    लोक पाल होटल लौटने के पहले हमने कही ढाबें में ही जम कर रोटी ,तड़का दाल,चावल सब्ज़ी,आमलेट का खाना खाया। एक ग्लास लस्सी भी पी।  सब आराम करने के लिए होटल के लिए बढ़ने लगे थे ,बिस्तर पर गिरे ,कब उठे मालूम नहीं।  सब को आराम भी चाहिए था। 
     मैं यायावर एकाध घंटे के बाद फिर से अपना कैमरा ले कर घूमने निकल पड़ा था। गुरुद्वारा में मत्था टेकने या फिर हेमकुंड साहिब की यात्रा के बारे में पता लगाने के निमित जानकारियां इकट्ठी करने के उद्देश्य से। 
  हमे कल  हेमकुंड साहिब की यात्रा के लिए निकलना था न ?

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     क्रमशः जारी। गतांक से आगे  १६ । ०१ /०५  /२०२० 


चित्र इंटरनेट से साभार। गुरुद्वारा हेमकुंड साहब का दृश्य। 



      पर्वत से भी उपर सुबह के छह बज रहे थे। किरणें चटक रहीं थीं। सामने की  घाटियों में झुके दोनों  पहाड़ अपनी दोनों बाहें खोल कर मुझे बुला रही थी ,जैसे। हमें आज और भी उपर जाना था ,था  न ?  आज हमें हेमकुंड को देखने जाना था। अभी तक की सबसे दुर्गम चढ़ाई के लिए हमलोगों को तैयारी करनी थी। यकीन मानिये तो हमें फूलों की घाटी से भी अधिक एक हज़ार ऊंची चढ़ाई करनी थी। मैंने सबों के कमरें की कुण्डी खटखटा दी और कहा जल्द से जल्द तैयार हो जाए। 
    अहम जानकारियां  हेमकुंड घांघरिया से ६ किलोमीटर की दूरी और समुद्र तल से लगभग ४३२१ मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। लोकपाल झील के नाम ज्ञात झील पूरी तरह से ग्लेशियर के मध्य बनी एक बर्फ़ की ही झील है इसलिए  हेमकुंड के नाम भी जाना जाता है।  
      हेमकुंड के नाम से प्रसिद्ध यह स्थान सिखों का सब से अधिक ऊंचाई पर बसा तीर्थ स्थान है।  घांघरिया से हेमकुंड जाने का स्थान भी खासा दुर्गम है।  पर्यटकों द्वारा बरती गई जरा सी असावधानी भी उनके लिए जानलेवा साबित हो सकती है। अतः मैं आपको यह जरुर ताक़ीद करता हूं यहाँ कोई शरारत कोई मस्ती ना करें।  फूलों की घाटी की तरह घांघरिया से हेमकुंड का रास्ता भी सुंदर फूलों की विभिन्न प्रजातियों से भरा  पड़ा है। यथार्थतः यह समस्त क्षेत्र ही फूलों के लिए ही जाना जाता है। दुर्लभ ब्लू पौपी फूल फूलों की घाटी में ही उगता है।   
    यहां पर एक गुरुद्वारा और मंदिर है जो  बर्फ के हिमशिखरों से घिरी है , डेढ़ किलोमीटर के क्षेत्र में फैली स्वच्छ नीले रंग की इस झील के साथ अनेक धर्मकथाएं जुड़ी हैं।  यह स्थान अपने अनुपम सौंदर्य और आकर्षक दृश्यावली के कारण पर्यटकों को आकर्षित करता है।  यहां स्थित गुरुद्वारे में पर्यटक अपने सफर की थकान उतार सकते हैं।  हमने अच्छी खासी जानकारियां इकठ्ठी कर ली थी। बस अब तैयारी थी चलने की। 
    आगे की तैयारी। नाश्ता से फरागत होने के बाद हमलोग बाज़ार के रास्तें उस जगह के लिए निकल पड़ें जहाँ से घोड़े ख़च्चर किराये पर लिए जा सकते है। चढ़ाई दुर्गम थी इसलिए कोई भी पैदल जाने के लिए तैयार नहीं हुआ। हम सब ने घोड़े ले लिए। हालांकि कुछ श्रदालू पैदल भी जा रहें थे। और यदि आप में दम ख़म है तो पैदल भी ट्रेकिंग कर ही सकते है। 
    मैं अपने घोड़े पर सबसे आगे था। रास्तें में ज्यादातर सिख ही दिखे। पास ही में कोई झरना पहाड़ की ऊंचाई से बड़ी वेग गिर रहा था। वैष्णो देवी में जय माता दी के नारें के लगते है तो यहाँ आने जाने वाले लोगों के मुख से आप  जो बोले सो निहाल सत श्री अकाल के ' के जयकारे सुनेंगे।  
    निशान साहिब हेमकुंड साहिब भारत में उत्तराखंड के चमोली जिला,स्थित हिमालय में १५२०० फुट  की ऊँचाई पर सिखों का एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थान है जो एक बर्फ़ीली झील के किनारे सात पहाड़ों के बीच स्थित है। इन सात पहाड़ों पर निशान साहिब झूलते हैं। निशान साहिब या निशान साहब सिखों का पवित्र त्रिकोणीय ध्वज है। यह पर्चम कपास या रेशम के कपड़े का बना होता है, इसके सिरे पर एक रेशम की लटकन होती है। इसे हर गुरूद्वारे  के बाहर, एक ऊंचे ध्वजडंड पर फ़हराया जाता है। परंपरानुसार निशान साहब को फ़हरा रहे डंडे  में ध्वजडंड का शिखर के रूप में एक दोधारी  खंडा कहें या तलवार  होता है, एवं स्वयं ही डंड को पूरी तरह कपड़े से लपेटा जाता है। झंडे के केंद्र में एक खड़ा  चिह्न (☬) होता है।
     मान्यता  यह है  कि यहाँ पहले एक मंदिर था जिसका निर्माण  भगवान राम  के अनुज लक्ष्मण  ने करवाया था। बाद में सिखों के दसवें गुरु गोविन्द सिंह  ने यहाँ पूजा अर्चना की थी तत्पश्चात इसे गुरूद्वारा घोषित कर दिया गया। इस दर्शनीय तीर्थ में चारों ओर से बर्फ़ से ढंकी आसमान छूती  ऊँची चोटियों का प्रतिबिम्ब विशालकाय झील में स्थिर रहता है जिससे यहाँ का दृश्य अत्यन्त मनोरम एवं रोमांच से परिपूर्ण हो जाता है। इसी झील में हाथी पर्वत और सप्त ऋषि पर्वत श्रृंखलाओं से पानी आता है। एक छोटी जलधारा इस झील से निकलती है जिसे हिमगंगा कहते हैं। झील के किनारे स्थित लक्ष्मण मंदिर भी अत्यन्त दर्शनीय है। अत्याधिक ऊँचाई पर होने के कारण वर्ष में लगभग ७ महीने यहाँ झील बर्फ में जमी ही रहती है। पानी भी झील की सतह को खोद कर ही निकाला जाता है। 
   पड़ाव एकाध घंटे के बाद हम सभी एक ऐसे स्थान पर पहुंच चुके थे जहां घोड़े वाले ने हमें उतार दिया था। यह उनका आख़िर ठहराव था ,यहाँ से वे आगे नहीं जाते है। उसने कहा  'अब यहां से पैदल ही जाना है। पैदल जाओ या ...फ़िर पिटठू ले लो। पिटठू वे इंसान होते है जो आपको अपनी पीठों पर बने डोलें में लाद कर ले जाते है। 
   पिटठू वाले   गोल घूम कर एक लम्बी कतार गुरुद्वारे के दर्शन के लिए लगी हुई थी। लोग बर्फ़ में बनी पगडंडियों में चल रहें थे। चल नहीं बल्कि कहेंगे खिसक मात्र रहें थे। दूर से सरकती हुई भीड़ ऐसी लग रही थी जैसे हम बर्फ़ पर स्कींइग कर रहें हो। लगा चलने में मैं इतनी सावधानी नहीं रख पाऊंगा। इसलिए तय किया पिटठू ले लेता हूं। तीन सौ रुपए में दो जनों के लिए बात बनी। कम ही थी। दूर कहीं उसी उंचाई पर ही हमें जाना था ना ? अनुमान से करीब तीन सौ खड़ी सीढ़ियां और चढ़नी थी हमें गुरुद्वारे तक़ पहुंचने के लिए। 
यह हमे वहां तक ले जाएगा जीर्ण शीर्ण दिखने वाले पिटठू को देख कर हमें काफ़ी दया आ रही थीं। उसने अपने पीठ पर कुर्सियां बना रखी थी,इसकी एक सिरा उसकी कमर से बंधा पड़ा था ,तो दूसरी सिरा उसके माथे से टंगा था। सब अपने अपने पिटठू पर टंग गये थे। सिर्फ संजय को छोड़ कर क्योंकि उसने तय किया था कि वह पैदल ही जाएगा । हमलोगों में सबसे युवा था वह ऐसा कर भी सकता था। 

रास्तें की चढ़ाई और पीछे पड़ाव का दृश्य। चित्र इंटरनेट से साभार। 

   मैंने डॉक्टर साहब की तरफ़ देखा , ' आप भी..! आप तो ट्रेकिंग के शौक़ीन है ...आपको तो उस रास्तें से जाना चाहिए था ..! '
  जवाब में वह हंस कर रह गए। शायद कल रात से उनकी तबीयत ठीक नहीं थी। 
  पिटठू वाला हांफता हुआ खड़ी सीढ़ियां चढ़ने लगा था। जैसे जैसे वह उपर चढ़ रहा था उसने अपने कम्बल  गर्म कपड़े उतारने शुरू कर दिए थे। उसकी सांसे धौकनी जैसे चल रही थी। चेहरा लाल हो कर तमतमाने लगा था। पापी पेट के लिए इतनी मशक्कत तो करनी ही पड़ेंगी ना ?

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  क्रमशः जारी। गतांक से आगे  १७ । ०२  /०५  /२०२० 
  ग्लेशियर के बीच


चित्र इंटरनेट से साभार दर्शन से पहले हेमकुंड में स्नान करते श्रद्वालु 

      खड़ी चढ़ाई सामने देखा ,लोग सांप की आकृति वाली कतार में डंडों के सहारे धीरे धीरे बढ़ रहे थे।अगल बग़ल की जमीन और गढ्ढों में  डंडों से तफरका करते हुए सावधानी के साथ अपने पांव बढ़ा रहे थे। उसके नीचे सिर्फ़ बर्फ़ की घाटियां ही दिख रही थी। हमलोग स्नोलाइन के आस पास ही थे,पहली बार इतनी ऊंचाई पर जा रहे थे न ? केदारनाथ से भी ऊंचा। अभी तक़ के मेरे जीवन में यह सर्वाधिक ऊंची चढ़ाई थी। 
    थोड़ी सी चूक हमें सीधे फिसलते हुए गहरी खाई में ले जाती जहां से हम कभी भी वापस नहीं आ पाते। शायद बिना मदद के एक दो दिनों में मर भी जाते भूखे प्यासे । घोड़े वाले बतला रहें थे ऐसे हादसे होते ही रहते हैं। 
  बर्फ़ के मैदान आधे घंटे की कठिन चढ़ाई के बाद हमलोग दरबार साहिब तक पहुंच चुके थे। बहुत अच्छी ख़ासी वहां भीड़ जमा थी।  सामने ही एक झील  थी जो बर्फ़ से ही बनी दिख रही थी। प्रथम दृष्टि में झील तो कहीं दिख भी  नहीं रही थी। ऐसा लग रहा था जैसे हम फ़िसलती हुई बर्फ़ानी झील के हिलते डुलते मैदान के उपर खड़े  थे। सूरज माथे के उपर बड़ी तेज़ी से चमक रहा था,दिन के एग्यारह या बारह बज रहे होंगे। झील की सतह से लौटती हुई सूरज की किरणों से ऑंखें चुंधिया रहीं थीं। हमें इन चोटियों पर चढ़ने से पूर्व कोई अच्छा सनग्लास लेना कदापि नहीं भूलना चाहिए।
   बर्फ़ की चिकनी सतह पर टहलते हुए मैं बार बार सोच रहा था सच में झील  कहां है ।कहीं तो नहीं।  ये तो हिमनद है  वृताकार कहें या अंडाकार भूभाग पर आकर पसर गए है । इस तरफ़ गुरुद्वारा बना हुआ था तो दूसरी ओर तो सिर्फ पहाड़ ही पहाड़ था। 
 नहाने की प्रथा जैसे ही हम ग्लेशियर की चोटी पर पहुंचें सामने हेमकुंड और गुरुद्वारा साहिब के विहंगम दृश्य ने हमारी सारी थकान हर लिया । सिख दर्शन करने से पहले अमूमन पवित्र सरोवर में डुबकी लगाते हैं। यहां भी किनारें में जमी झील की सतह को खंडित कर कुछ सरदार कुछ सिख  श्रद्धा और आस्थां की डुबकियां लगा रहें थे। एक ने तो छप्प से अपने बच्चें को भी सरोवर में डुबो दिया था।  कैसे वह,बच्चा  एकबारगी सन्न रह गया था ? तनिक रोया भी नहीं। जब झट से उसे तौलिए से लपेट कर उसके बदन की मालिश की गयी तो उसकी रुलाई निकली। मैंने देखा कुछ लोटे से स्नान कर रहें थे तो कुछ चार पांच की संख्या में डूबकी मार रहें  थे ।  

   गुरुद्वारा और गुरुबाणी  उपलब्ध जानकारी उल्लेखनीय है कि हेमकुंड गुरुद्वारा सर्वाधिक ऊंचाई पर बसा एकमात्र गुरुद्वारा है जो इतनी ऊंचाई पर अवस्थित हैं । शायद इतनी ऊंचाई पर कोई और भी गुरुद्वारा न बनने पाए। गुरूद्वारे में शबद कीर्तन चल रहा था लोग पंक्तिबद्ध हो कर दर्शन कर रहें थे। गुरुओं ने जो सही कही वही गुरु वाणी हैं,सुनने और मानने योग्य है। जिन्हें हमें अपने जीवन में उतारना चाहिए। 
   हमने भी सर रुमाल से ढंक कर गुरु साहिब के दरबार और सिंहासन का दर्शन किया। श्री हेमकुंड ट्रस्ट के अथक प्रयासों से निर्मित और संचलित सुंदर दरबार के जब श्रद्धालुओं को दर्शन होते हैं तो हर कोई आत्मविभोर हो जाता है । श्री गुरु ग्रन्थ साहिब की पवित्र गुरुबाणी का गायन पूरे माहौल में रूहानियत भर देता है । सच में हेमकुंड के बर्फीले पानी में स्नान के बाद दर्शन पाकर हम सब खुद को धन्य ही मानते हैं ।

    खिचड़ी श्री हेमकुंड ट्रस्ट ने इस ऊंचाई पर तमाम दिक्कतें  झेल कर जो प्रबंध संगत के लिए किये हैं वे सराहनीय हैं । दर्शन के बाद सबको बिना किसी भेद भाव के खिचड़ी का लंगर परोसा जाता है और पंजीरी का ख़ास प्रसाद दिया जाता है । हमें भी प्रसाद मिला। खिचड़ी खाने के बाद हमलोगों ने अपने अपने वर्तन धो दिए थे।   समुद्र तल से अत्यधिक ऊंचाई के कारण ट्रस्ट यहां किसी को रात में रुकने की इज़ाज़त नहीं होती है ,जिससे कि कोई अप्रिय स्थिति न होने पाये । सभी को शाम होने से पहले गोबिंद धाम,घाघरियाँ वापस भेज दिया जाता है।  सिख धर्म में सेवादारों के सेवा भाव देखने समझने योग्य है। उन्हें सेवा करने के दरमियाँ ऊंच नीच किसी का भान नहीं होता है ,वे सभी कामों को पूरी तन्मयता के साथ करते है। जैसे ही सेवादारों से बात चीत के क्रम में मैंने उन्हें पटना साहिब से आने की बात कही तो हमारे लिए उनकी आँखों में विशेष प्यार उमड़ पड़ा। उनहोंने हमें एक ग्लास और चाय पीने की पेशकश की तो मैंने दुवारा चाय ले ली। 
    ट्रस्ट इतनी ऊंचाई पर पर्यावरण बचाने के लिए यह अपील भी करता है कि संगत या आने वाले श्रद्धालू  किसी किस्म का कचरा या अवशेष यहां छोड़कर न जाएँ ताकि स्थान की पवित्रता बनी रहें। 
     मान्यता के अनुसार  यहां श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने बरसों तक इस स्थल पर  महाकाल की आराधना की थी , यही वजह है कि  और वे तमाम दिक्क्तों के बावजूद भी भारत के सुदूर प्रान्त से यहां दर्शनार्थ पहुंचते हैं । हेमकुंड साहिब यात्रा की घोषणा के साथ ही श्रद्धालुओं का सैलाब यहां उमड़ने लगता  है। सिक्ख समुदाय की इस तीर्थ में अगाध श्रद्धा है
    लक्ष्मण मंदिर पास में ही लक्ष्मण मंदिर था। हेमकुंड साहिब की बर्फिली वादियों में बसा लक्ष्मण मंदिर को लक्ष्मण लोकपाल मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। अगर पौराणिक मान्यता की मानें तो कहा जाता है कि प्राचीन समय में इस स्थान पर जहां आज मंदिर स्थापित हैं वहां शेषनाग ने तपस्या की थी। जिसके बाद उन्हें त्रेता युग में राजा दशरथ के यहां लक्ष्मण के रूप में जन्म मिला था।
    लक्ष्मण मंदिर घांघरिया के प्रमुख आकर्षक स्थानों में से एक है। यह मंदिर हेमकुंड झील के किनारे पर स्थित लक्षमण जी को समर्पित मंदिर है। इस मंदिर को उत्तराखंड में लोकपाल मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। ऐसा कहा जाता है कि रामायण में जब रावण के पुत्र मेघनाद ने लक्ष्मण जी को शक्ति लगा दी थी तो लक्ष्मण जी ने इसी स्थान पर अपनी शक्ति बापस पाने के लिए ध्यान लगाया था। हमने लक्ष्मण जी के नाम पर बने मंदिर का दर्शन पूरा किया। 




लक्ष्मण मंदिर ,लक्ष्मण गंगा तथा हेमकुंड का अद्भुत दृश्य 

   लक्ष्मण गंगा का श्रोत  हमने आपको एक नदी के बारे में बतलाया था जो घाघरियाँ में पुष्पावती के साथ मिलती है वह नदी लक्ष्मण गंगा ही है जिसका उदगम श्रोत हेमकुंड साहिब के आस पास का ही जल निकाय है। यहीं से यह नदी निकलती हुई कभी झरनें की शक्ल में प्रवाहित होते हुए अपने भीतर पुष्पावती की धाराओं को समेटे हुए गोविन्द घाट में अलकनंदा के साथ मिल जाती है।  
   दर्शन के सब काम खत्म हो गए थे। शाम से पहले हमें  लौटना भी था वो भी पैदल। लौटने से पहले हमलोगों ने कुछ मैगी भी खाया था । जब लौटने के रास्तें उतराई के हो तो सफ़र कितने आराम का हो जाता है ना ? हम लोग टोली बना कर आगे पीछे नीचे के लिए निकल चुके थे। दो से ढाई घंटे लगे होंगे हमें लौटने में हम सभी घाघरियाँ पांच बजने से पहले पहुंच चुके थे।
   पीछे मुड़ कर मैंने हेमकुंड साहिब की तरफ़ फ़िर से एकबारगी देखा। मन से जयकारा निकला जो बोले सो निहाल सत श्री अकाल। सही में हमलोगों ने  हेमकुंड साहिब का दर्शन पुरा कर लिया था।

  आज का लिंक। फूलों की घाटी के सौंदर्य देखने के लिए नीचे दिए गए लिंक को दबाए
  https://youtu.be/PZgce_p5rFc


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  क्रमशः जारी। गतांक से आगे  १८ । ०३   /०५  /२०२० 


   पांडुकेश्वर योग बद्री की ओर


चित्र इंटरनेट से साभार। पांडुकेश्वर के योग बद्री मंदिर  के दृश्य 

    गोविन्द घाट की वापसी आज घाघरियां  में रुके हमें चौथा दिन हो रहा था और हम सुबह गोविंदघाट की तरफ लौटना था फिर से हमने गोविंदघाट पैदल लौटने का फैसला किया था।  उतराई का रास्ता था और हम इत्मीनान से नीचे उतर सकते थे। सुबह ८ बजे हमने होटल छोड़ दिया। और होटल वाले ने हमें फिर से आने की बात कह कर के पीली रंग की चार या पांच टोपियां दी जो हम सभी के अपने अपने हिस्से की थी।
   और हम मस्तों की टोली नीचे की ओर निकल पड़ी भ्यूंडार ,पुलना गांव के पास से गुजरते हुए हम आराम से ३ घंटे में गोविंदघाट पहुंच गए थे। लक्ष्मण गंगा ने यहां पर अपना साथ छोड़ दिया था। क्योंकि वह अलकनंदा में समा गई थी।
   गोविंद घाट के पुल पार करते समय हमने नीचे बहती अलकनंदा को देखा और सोचा यह वही अलकनंदा होगी जो आज़  से तेरह चौदह  दिनों के पश्चात रौद्र रूप धारण कर लेंगी। बस कुछेक दस बारह दिनों के बाद,
और गुरुद्वारे के आसपास समतल  के समीप खड़ी  कई तमाम गाड़ियों को अपने साथ बहा ले जाएगी।  तब कितनी विनाश की रेखाएं छोड़ जाएंगी  अलकनंदा। यह  प्रलय की बात थी जो ठीक अलकनंदा घाटियों में १६ या १७ जून को आ गई थी। १६ -१७ जून की आई बाढ़ में हमने समाचार में सुना और देखा भी था कि क्रिकेटर हरभजन सिंह हेमकुंड दर्शन घूमने आए थे और उस प्रलय में किस तरह गोविंदघाट में फंस गए थे। 
   गाड़ी के पास ही ड्राइवर सनी हमारा इंतजार कर रहा था। हमने अपना सामान गाड़ी में रख दिया और निकल पड़े आगे कीओर।अब हमारी मंजिल थी पांडुकेश्वर योग बद्री,हनुमान चट्टी होते हुए बद्रीनाथ पहुंचना। बता दे गोविंदघाट से बद्रीनाथ की दूरी मात्र २५ किलोमीटर की है और गोविंदघाट से योग बद्री जो पांडुकेश्वर में है मात्र ४ से ५ किलोमीटर तथा हनुमान चट्टी से ९ की दूरी पर अवस्थित है। हमें बद्रीनाथ पहुंचने से पहले योग बद्री का भी दर्शन करना था।  
   साल २०१० भी याद आ गया जब हमलोग प्रत्येश और इस्कान वाले पहली बार बद्रीनाथ आ रहे थे तो पांडुकेश्वर रात में ही गुजर गया था। लेकिन इस बार हमें पांडुकेश्वर देखना था। याद है तब ऊंचाई पर अवस्थित गांवों से जलते हुए बल्ब आकाश में जुगनूओं की भांति चमक रहे थे। 
   पांडुकेश्वर योग बद्री की ओर चमोली के ग्राम पांडुकेश्वर में जो गोविंद मठ से ३  से ४  किलोमीटर की दूरी पर अवस्थित है योग बद्री जो एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक और धार्मिक स्थल है। यह वहीं स्थल है जहां पांडव पैदा हुए थे और राजा पांडु ने यहां पर भगवान विष्णु की मूर्ति स्थापित की थी तथा उन्होंने मोक्ष की भी प्राप्ति भी की थी। जब भगवान बद्री विशाल के कपाट खुलते हैं तो यहीं से उद्धव और कुबेर की मूर्ति ले जाकर बद्री विशाल मंदिर के प्रांगण में रखी जाती है और हम आपको  यह भी बता दें कि यही शीतकाल में भगवान बद्रीविशाल की  ६ महीने तक पूजा-अर्चना की जाती है।
    पांडुकेश्वर मंदिर ना केवल एक पौराणिक कथा के लिए जाना जाता है। बल्कि कत्यूरी राजाओं के ताम्रपत्र अभिलेख तथा शिलालेखों के प्राप्त होने की वजह से यह एक ऐतिहासिक स्थल भी हो गया है। यदि आपको पांडुकेश्वर में योग बद्री के दर्शन करने हैं तो आपको रास्ते में अवस्थित पांडुकेश्वर से थोड़ा नीचे उतरना होगा तब इस मंदिर के दर्शन होंगे इसकी ऊंचाई १८२९  मीटर की है।
    योगध्यान बद्री मंदिर हिन्दूओं का प्रसिद्ध प्राचीन मंदिर में से एक है। यह मंदिर भारत के राज्य उत्तराखंड के पांडुकेश्वर में स्थित है जो मंदिर अलकनंदा नदी के गोविंद घाट से दूर पर तथा समुद्र तल से लगभग १९२० मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। इस मंदिर का नाम पवित्रसप्त बद्रीमें से आता है तथा आपको यह मंदिर बद्रीनाथ मंदिर की यात्रा के दौरान मिलेगा। ऐसा माना जाता है कि महाभारत के नायक पांच पांडवों के पिता राजा पांडु ने इस स्थान पर भगवान विष्णु की कांस्य की मूर्ति  स्थापित की थी। यही वह स्थान है जहां पर पांडव पैदा हुए थे। तथा राजा पांडु ने इस स्थान पर ध्यानस्थ हो कर मोक्ष को भी प्राप्त किया था। इस मंदिर भगवान विष्णु की मूर्ति एक ध्यान मुद्रा में स्थापित है इसलिए इस स्थान को योग-ध्यान बद्री कहा जाता है।
   महाभारत की पौराणिक कथा के अनुसार, महाभारत युद्ध में अपने चचेरे भाई कौरवों को पराजित करने और मारने के बाद पांडव यहां पश्चाताप करने आए थे। उन्होंने अपने राज्य हस्तीनापुर को अपने पोते परीक्षित को सौंप दिया और हिमालय में तपस्या करने के लिए गए थे।शीत काल में बद्रीनाथ मंदिर के कपाट बंद होने पर भगवान बद्रीनाथ की उत्सव-मूर्ति के लिए योगध्यान बद्री को शीतकालीन निवास माना जाता है ,तथा उद्धव,कुबेर और भगवान विष्णु की उत्सव मूर्ति की पूजा इस मंदिर में रख कर की जाती है। इसलिए, यह धार्मिक रूप से सिद्ध किया  गया  कि इस स्थान पर प्रार्थनाओं के बिना श्रद्धालुओं की तीर्थयात्रा पूरी नहीं होगी। दक्षिण भारत के भट्ट (पुजारी) मंदिर में मुख्य पुजारी के रूप में धार्मिक कार्य संपन्न करते हैं।

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  क्रमशः जारी। गतांक से आगे  १९। ०४  /०५  /२०२० 


   
   हनुमानचट्टी के दर्शन  


हनुमान चट्टी ,अलकनंदा और अलकनंदा के किनारे बद्रीनाथ धाम। चित्र इंटरनेट से साभार 


    पांडुकेश्वर योग बद्री के दर्शन के पश्चात हमारी जिज्ञासा हनुमानचट्टी को लेकर थी जहां हनुमान ने बलशाली भीम का अहम चूर चूर कर दिया था। कहते है या ऐसी किंवदंती है कि द्वापर युग में वनवास के दौरान बदरीनाथ क्षेत्र में द्रोपदी ने भीम को लक्ष्मी वन से फूल ले आने का आग्रह किया तो भीम अलकनंदा नदी के किनारे से होकर लक्ष्मी वन पहुंचे। यहां रास्ते में पवन पुत्र हनुमान जी आराम कर रहें  थे। उनकी पूंछ मार्ग को घेरे हुए थी,कहीं कोई रिक्त जग़ह नहीं थी जिससे कि निकला जा सके । भीम  वानरराज बजरंग बली को पहचाने में असफल रहे थे ,ने बिना आदर के उन्हें पूंछ हटाने के लिए कहा। लेकिन वानरराज ने अपनी असमर्थता जताई ,उन्होंने स्वयं भीम को पूंछ हटाने के लिए कहा। भीम लाख कोशिशों के बाद भी वह उनकी पूंछ हटाने में नाकाम रहे। तब उन्हें तनिक संदेह हुआ,उन्होंने उनसे विनती की कि वह अपनी पहचान बताएं। इसके उपरांत ही हनुमान ने अपना विराट रूप दिखाकर भीम का अहम चूर कर दिया था साथ में आशीर्वाद देते हुए बतलाया कि वह उस फूल की प्राप्ति कहाँ से कर सकते है ? 
    तभी से यह स्थान हनुमान चट्टी के नाम से विख्यात है ,बदरीनाथ आने वाले लोग रास्ते में ही पड़ने वाले इस पवित्र मंदिर का दर्शन करना कदापि नहीं भूलते है। आप भी दर्शन कर ही ले ,कहते है बजरंग बली की कृपा की नितांत आवश्यकता है। 
   हनुमान चट्टी में बंड क्षेत्र के ब्राह्मण पूजा-अर्चना करते हैं। बदरीनाथ-केदारनाथ मंदिर समिति यहां पूजा का समस्त सामान उपलब्ध कराती है। बदरीनाथ के धर्माधिकारी के कथनानुसार हनुमान चट्टी एक पवित्र स्थल है जहां बदरीनाथ धाम आने वाले सभी श्रद्धालुओं की तीर्थयात्रा व पूजा हनुमान चट्टी में पूजा-अर्चना के बाद ही पूर्ण होती है। 
   बदरीनाथ यात्रा के प्रमुख पड़ाव हनुमान चट्टी से ही तीर्थयात्रियों की चहल-पहल शुरू हो गई थी । साधुओं की टोली अब कुछ ज्यादा दिखने लगी थी। यकीन माने ,उनकी उपस्थिति तो हमें देवप्रयाग से ही दिख रही थी लेकिन अब इनकी संख्या और घनत्व पास आकर कहीं और अधिक हो गयी थी। ये पहाड़, में रहने वाले ऐसे जीव हैं जो नदी -नाले,समतल-असमतल सभी स्थानों को पैदल ही नाप देते है। हम सनातनी भारतीय साधु संतों के इस हौसलों का जो हिमालय से भी ऊंचा है यथेष्ट सम्मान करते है। 
     हमें बचपन की कहानी भी याद आ गयी जो हमारी माँ ने मुझे सुनाई थी कि हमारी दादी माँ ,राजेश्वरी देवी ने भी कभी बदरीनाथ धाम की यात्रा पैदल ही पूरी की थी। तब उन्हें गांव के लोग गांव की सीमा पर छोड़ने आये थे यह सोचते हुए कि वह धाम की यात्रा पर जा रहीं हैं पता नहीं लौटेंगी कि नहीं। तब उस समय तीर्थाटन जीवन का आखिर पड़ाव समझा जाता था सन्यास आश्रम की ओर । बहुत दिनों तक बद्रीनाथ वाले पंडा भी साल में एकाध बार हमारे घर पर आ ही जाते थे। हम अब तक नहीं भूलें हैं हमलोग उनके जजमान जो ठहरे थे। आखिर हम गृहस्थों के सहारे ही साधु सन्यासियों का जीवन यापन होता है न  ?
     हम सभी ने उतर कर पवन पुत्र हनुमान का दर्शन किया ,और निकल पड़े इस सफ़र के आखिर पड़ाव बद्री विशाल की ओर। नजदीक पहुंचने के साथ ही भीड़ बढ़ने से गाड़ियां कतारबद्ध होने लगी थी। हम बद्री नाथ पहुंचने ही वाले थे ,है न ? 
   बद्री विशाल के आस पास हम बद्रीनाथ से कुछेक किलोमीटर की थोड़ी दूरी पर होंगे । आपको यहाँ हम यह भी बता दे कि उत्तराखंड में हनुमान चट्टी के नाम से दो जगहें हैं। एक तो यमुनोत्री में है और दूसरी बदरीनाथ के मार्ग में जो आपको बद्रीनाथ जाते समय ही ठीक मुख्य मंदिर बद्री विशाल के कुछेक किलोमीटर पूर्व मिलेगी। यहां तीर्थयात्री बदरीनाथ के दर्शनों के बाद भी या यात्रा पर जाने से पूर्व भी हनुमान जी के दर्शन करने पहुंचते है और पवन पुत्र हनुमान का कृपा प्रसाद ले कर आगे की तरफ़ प्रस्थान करते है । आपको हम अभी तक की तय की गयी दूरी का ज्ञान फिर से दे देते है , गोविन्दघाट से मात्र ३ किमी की दूरी पर है पांडुकेश्वर,पांडुकेश्वर से १० किमी आगे है हनुमानचट्टी,और वहां से ११ किमी की दूरी पर स्थित है बद्रीनाथ।
    याद आ गया वर्ष २०१० का वक़्त ,रात के समय होने की बजह से हम बद्री नाथ की यात्रा में बाहर कुछ भी देखने ,पता कर सकने में असमर्थ थे। लेकिन २०१३ में तो सब कुछ अपनी आँखों के सामने था। सब कुछ दिख रहा था। मंदिर के पहले से ही लम्बा जाम लगना शुरू हो गया था। मिनट गुजरें होंगे हम बदरीनाथ कस्बें में प्रवेश कर चुके थे। 
   बद्री विशाल के प्रांगण में लोगों का रेला जैसे उमड़ पड़ा था। बद्री विशाल के दिव्य वातावरण की तस्वीर हमारी आँखों के समक्ष थी ,शाम होने वाली थी। प्रतीत हो रहा था सब भीड़ किसी एक दिशा में जा रही थी। सायं के दर्शन का समय होने वाला था । लोग दर्शन के लिए पंक्तिबद्ध हो रहें थे । घंटे के स्वर अब कानों में गूंजने लगे थे। शाम के धुंधलके में जलते दूधिया बल्ब की रोशनी में मंदिर के कपाट दिखने लगे थे। मन निष्काम हो चला था सामने बद्री विशाल जो थे। नीचे अलकनन्दा नदी के पानी के बहने का कुछ शोर भी सुनाई दे रहा था। 
  मंदिर से थोड़ी दूर पर ही नियमित टैक्सी स्टैंड में हमारी गाड़ी आकर रुक गयी थी। एक बारगी उतरने के साथ ही मैंने बद्री विशाल की तरफ मुख कर भगवान विष्णु का आशीर्वाद लेना चाहा। दीर्घ सांसें ली ,कहीं भी थकान का एहसास मुझमें नहीं था। 
     परमार्थ तीर्थ हमारा विश्राम स्थल  सब ने उतर कर अपना अपना सामान उतारा और सीधे हमलोगों बद्रिका आश्रम के लिए परमार्थ तीर्थ की ओर निकल पड़े। २०१० के वर्ष में हमलोग वहीं रुके थे इसलिए पुराने अनुभवों के आधार मैं कह सकता हूं कि यदि आप जब  कभी भी यहाँ आये और आप ज़्यादा पैसे खर्च करने की स्थिति में नहीं हैं तो सीधे बद्री नाथ धाम में परमार्थ तीर्थ आश्रम में आश्रय ले सकते है। यहां अच्छे होटल की कमी हैं। ज्यादा तर होटल साधारण तथा मध्यम ही हैं। अच्छे होटल खोजने में समय व्यर्थ न गवाएं। 
  हमने अपनी वोटर कार्ड जैसी कोई आई डी दिखलाई ,उसका फ़ोटोस्टेट जमा किया तब जाके हमें रहने के लिए कमरा मिला। याद रखिये आप भी अपने साथ कोई आई डी रखना न भूले।  
  सब ने अपना अपना सामान अपने अपने कमरें में रखा और तय किया कि एकाध घंटे के बाद खाना खाने निकलेंगे। पिछली बार तो हम,प्रत्येश माँ ,बाबूजी और बेटी के लिए एक ही कमरा मिल पाया था न ? दूसरे कमरें में इस्कान वाले डॉ विनीता ,सन्यासिन किरण,तथा अन्य लोग रुके थे। तब हमें पहली दफ़ा परमार्थ तीर्थ में जग़ह नहीं मिल पाई थी शायद दूसरे दिन ही हम परमार्थ तीर्थ जा पाए थे। 

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      क्रमशः जारी। गतांक से आगे  २० । ०५  /०५  /२०२० 

       




 स्वयं के वद्री विशाल के दर्शन लाभ का दृश्य 
      सुबह हो चुकी थी ,सामने दृष्टि गई नर नारायण बादलों में खो गए थे। हवा छूते हुए निकल रही थी,जबरदस्त ठंढ का एहसास हो रहा था। मैंने सोचा,सब अभी सो रहें हैं तो क्यों न टहल लिया जाये,इसी बहाने सैर भी हो जाएंगी और इस शहर को भी देख लेंगे। यह सोच कर हम निकल पड़ें। 
     अलकनंदा आप बद्रीविशाल की घाटियों में जहाँ कहीं जायेंगे नदी अलकनंदा आपके साथ होगी। हमारे साथ भी बह रही थी इसके बहने का तीव्र शोर हमें स्पष्ट सुनाई दे रहा था। गंगा की अलबेली ,प्रवाहमयी 
सहायिका अलकनंदा नदी इस घाटी में ऊपर से बहकर आती है तथा इसके किनारे पर ही बद्री विशाल का भव्य मन्दिर निर्मित है। माने तो मन्दिर और यह छोटा सा शहर अलकनन्दा और इसकी सहायिका ऋषिगंगा नदी के पवित्र संगम पर स्थित हैं। मन्दिर अलकनन्दा नदी के दाहिने तट पर,इसके पश्चिम में,स्थित है और मंदिर से कुछ ही दूर आगे दक्षिण में ऋषिगंगा नदी पश्चिम दिशा से आकर अलकनन्दा में मिलती है। अलकनंदा के ऊपर कई स्थानीय घाट भी बने हुए हैं जहां हम नहा सकते हैं । 
     नर नारायण  यदि आप बद्रीनाथ जाते है तो आपको नर नारायण पर्वत मिलेंगे क्योंकि इसी नर नारायण पर्वत के मध्य में बसा है बदरीनाथ तीर्थ धाम।  मुख्य मन्दिर के ठीक सामने ही नर पर्वत है,जबकि इसके ठीक पीछे की ओर नीलकण्ठ शिखर दिखता है।  इसी नीलकंठ के पीछे नारायण पर्वत स्थित है तथा  इसके पश्चिम में ही २७ किलोमीटर की दूरी पर स्थित ७,१३८ मीटर ऊँचा बद्रीनाथ शिखर स्थित है।
     नारद कुण्ड और सूर्य कुण्ड बद्री विशाल मन्दिर के ठीक नीचे दो तप्त कुण्ड हैं जिन्हें क्रमशः नारद कुण्ड और सूर्य कुण्ड कहा जाता है। सच माने तो यहां आने वाले यात्रियों के लिए इस भयानक सर्दी में ये कुंड वरदान साबित होते हैं । सल्फर युक्त पानी के इस कुंड में स्नान आदि कार्य को औषधीय माना जाता है तथा कई तीर्थयात्री मन्दिर में जाने से पहले इस चश्मे में स्नान करना आवश्यक मानते हैं। इन कुंडों का सालाना तापमान ५५ डिग्री सेल्सियस होता है, जबकि बाहरी तापमान आमतौर पर पूरे वर्ष १७ डिग्री सेल्सियस से भी नीचे रहता है। हम भी इस तप्त कुंड में प्रवेश करने के पहले हिचक रहें थे कि कहीं त्वचा न जल जाएं लेकिन जल्द ही इसके गर्म पानी ने हमारी सारी थकान मिटा दी थी। कुंड में उतरते ही कटि स्नान के बाद बहुत ही आराम महसूस हुआ।  
     बद्रीनाथ मन्दिर अलकनंदा  से लगभग ५० मीटर ऊंचे धरातल पर निर्मित है, और इसका प्रवेश द्वार नदी की ओर है। मन्दिर में तीन संरचनाएं हैं: गर्भगृह, दर्शन मंडप, और सभा मंडप। 
     मुझे याद है सन्यासिन किरण की बजह से हमलोगों का दर्शन साल २०१० में आसानी से हो गया था। चूकि वह पहले भी कई दफ़ा आ चुकी थी तो उन्हें दर्शन करने के तमाम तरीकें मालूम थे। हम सभी ,प्रत्येश,माँ बाबूजी ,डॉ विनीता और किरण तब आराम से मंदिर के सभा मंडप में पहुंच गये थे और हमने दर्शन भी कर लिया था। लेकिन तब माँ और इस्कान वाली डॉ विनीता दर्शन नहीं कर पाई थीं,कितनी रुआंसी हो गयी थी वे दोनों। हताशा इतनी कि उन्हें अब भगवान दर्शन ही नहीं देंगे। लेकिन बहुत मान मनोव्वल के बावजूद ही वहाँ के पण्डे ने उन्हें भगवान के गर्भ गृह में जाने की इजाज़त दी थी तब जा कर उनके दर्शन पूर्ण हुए । इस्कान वाले तो भगवान कृष्ण को मानने वाले लोग होते है और कृष्ण विष्णु के अवतार है इसलिए भगवान विष्णु के तीर्थों में भी उनका अगाध विश्वास है। 
    चहलकदमी से लौटने के बाद मैंने सभी लोगों को तैयार होने के लिए कह कर नहाने नारद कुंड चला गया । तय हुआ दर्शन के बाद खायेंगे। पूजा ,प्रसाद लेने के बाद जब मुख्य द्वार तक पहुंचे लेकिन २०१० से  २०१३ के तीन सालों की अवधि में  में व्यव्यस्थाऐं  काफ़ी बदल चुकी थी। मंदिर के पीछे के रास्तें हमें नहीं मिल पाए थे तो हमें कतार में लग कर ही दर्शन करना पड़ा था।  काफ़ी लम्बी लाइन थी ,दर्शन में ही चार पांच घंटे लग गए थे। 
बद्रीनाथ मंदिर के दृश्य। चित्र इंटरनेट से साभार 

   प्रवेश द्वार के पास खींची हुई फोटों अभी तक मैंने सुरक्षित रखी हैं। स्थापत्य कला की जहाँ तक बात की जाए मन्दिर का मुख पत्थर से बना है,और इसमें धनुषाकार खिड़कियाँ हैं। चौड़ी सीढ़ियों के माध्यम से मुख्य प्रवेश द्वार तक पहुंचा जा सकता है, जिसे सिंह द्वार कहा जाता है। यह एक लंबा धनुषाकार द्वार है। इस द्वार के शीर्ष पर तीन स्वर्ण कलश लगे हुए हैं, और छत के मध्य में एक विशाल घंटी लटकी हुई है। 
   मंडप अंदर प्रवेश करते ही मंडप है: एक बड़ा, स्तम्भों से भरा हॉल जो गर्भगृह या मुख्य मन्दिर क्षेत्र की ओर जाता है। हॉल की दीवारों और स्तंभों को जटिल नक्काशी के साथ सजाया गया है। इस मंडप में बैठ कर श्रद्धालु विशेष पूजाएँ तथा आरती आदि करते हैं। सभा मंडप में ही मन्दिर के धर्माधिकारी, नायब रावल एवं वेदपाठी विद्वानों के बैठने का स्थान है। गर्भगृह की छत शंकुधारी आकार की है, और लगभग १५ मीटर लंबी है। छत के शीर्ष पर एक छोटा कपोला भी है, जिस पर सोने का पानी चढ़ा हुआ है।
   गर्भगृह में भगवान बद्रीनारायण की १ मीटर लम्बी शालिग्राम से निर्मित मूर्ति है, जिसे बद्री वृक्ष के नीचे सोने की चंदवा में रखा गया है। बद्रीनारायण की इस मूर्ति को विष्णु के आठ स्वयं प्रकट हुई प्रतिमाओं में से एक माना जाता है। मूर्ति में भगवान के चार हाथ हैं - दो हाथ ऊपर उठे हुए हैं: एक में शंख, और दूसरे में चक्र है, जबकि अन्य दो हाथ योगमुद्रा (पदमासन की मुद्रा) में भगवान की गोद में उपस्थित हैं। मूर्ति के ललाट पर हीरा भी जड़ा हुआ है। गर्भगृह में धन के देवता कुबेर,देवर्षि नारद उद्धव,नर और नारायण  की मूर्तियां भी हैं। मन्दिर के चारों ओर पंद्रह और मूर्तियों की भी पूजा की जाती हैं। इनमें लक्ष्मी विष्णु की पत्नी ,गरुड़,नारायण का वाहन, और नवदुर्गा नौ अलग-अलग रूपों में दुर्गा  की मूर्तियां शामिल हैं। इनके अतिरिक्त मन्दिर परिसर में गर्भगृह के बाहर लक्ष्मी-नृसिंह और संत आदि  शंकराचार्य ७८८–८२० ईसा पश्चात, नर और नारायण, वेदांत देशिक ,रामानुजाचार्य और पांडुकेश्वर क्षेत्र के एक स्थानीय लोक देवता घण्टाकर्ण की मूर्तियां भी हैं। बद्रीनाथ मन्दिर में स्थित सभी मूर्तियां शालीग्राम से बनी हैं। मंदिर परिसर के भीतर भी हमने अच्छा खासा समय व्यतीत किया सभी चीज़ों का बारीकी से देखा समझा। जहां बातें समझ में नहीं आई स्थानीय लोगों से पूछा भी ,पंडों से जानकारियां इकठ्ठी भी की। हम पत्रकार ब्लॉगर इसी  तरह से अपनी जानकारियां अपडेट करते हैं। 
    खाना हम सभी ने जब बद्री विशाल का दर्शन लाभ कर लिया तो पास के ही वैश्णवी ढाबें में बैठ गए और कचौड़ी जलेबी ,छोले भटूरे का भरपेट नाश्ता कर लिया। या जिसे जो अच्छा लगा उसने अपनी इच्छा के अनुसार खाया।यहाँ रेस्टुरेंट की भरमार है खाने की सभी चीज़ें यहाँ मिलती हैं। 
 पेट भर लेने के बाद हम सभी इकठ्ठे ही आस पास ही शहर घूमने निकल गए। यह एक छोटा सा शहर है जहां की आबादी मूलतः पर्यटकों से ही बनती है। थोड़ी देर घूम लेने के पश्चात् हमलोग वापस परमार्थ तीर्थ लौट आए।  अब अगले दिन हमें बद्री नाथ के सात आठ किलोमीटर के दायरें में पड़ने वाली दर्शनीय स्थलों को देखना था।   
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     क्रमशः जारी। गतांक से आगे  २१  । ०६   /०५  /२०२० 

     बदरीनाथ से आगे भी 

बद्रीनाथ से सीमांत गांव माना की ओर 


     दर्शनीय स्थल  बदरीनाथ के आसपास के क्षेत्र में अनेक झीलें ,ताल तथा मनोहारी स्थल बिखरे पड़े हैं जहाँ जाना आप न भूलें । यहां नौकायन तथा फोटोग्राफी का भी आनंद उठाया जा सकता है।  
     माना गांव  बदरीनाथ से आगे ३ से चार  किलोमीटर दूर  भारत तिब्बत सीमा पर एक सीमांत गांव है जिसे माना गांव के नाम से दुनिया जानती हैं।यहां रडंपा और भोटिया जनजाति के लोग रहतें  हैं ,जो इस सरहदी क्षेत्र केआखिरी गांव में ६ महीने ही निवास करते हैं तो मंदिर के पट खुल जाने के बाद मंदिर के आसपास जा कर बस जाते हैं। माना भी अच्छा खासा मशहूर गांव  है जहां अक्सर बद्रीनाथ आने वाले पर्यटक यहाँ आना पसंद करते हैं । पहले बद्रीनाथ से कुछ ही दूर गुप्त गंगा और अलकनंदा के संगम पर स्थित इस गांव के बारे में लोग बहुत कम जानते थे लेकिन अब सरकार ने यहां तक पक्की सड़क बना दी है । इससे यहां पर्यटक आसानी से आ जा सकते हैं, और इनकी संख्या भी पहले की तुलना में अब काफी बढ़ गई है । काफ़ी पर्यटक भारत की उत्तरी सीमा पर स्थित इस गांव तथा के आसपास कई दर्शनीय स्थल यथा जिनमें व्यास गुफा ,गणेश गुफा ,सरस्वती मन्दिर , भीम पुल ,वसुधारा आदि मुख्य हैं देखने आ जाते हैं । 
    केशव प्रयाग  माना गांव के पास ही सरस्वती नदी तथा अलकनंदा नदी का संगम है जिसे हम केशव प्रयाग के नाम से जानते है यहाँ भी संगम में लोग आपको स्नान करते हुए मिल जाएंगे। 
    प्राकृतिक गुफाएं  माना गांव के पास यहां पर कई प्राकृतिक गुफाएं हैं ,जैसे व्यास गुफा, गणेश गुफा , मुच कुंद गुफा आदि । 
    गणेश गुफा  एक गुफा माता पावर्ती और भगवान शिव के पुत्र, मंगलकर्ता और ज्ञान एवं बुद्धि के देवता गणेश जी के नाम पर उनको समर्पित है । जब भी कोई नया काम शुरू किया जाता है तो सबसे पहले गणेश जी का स्मरण किया जाता है और श्री गणेशाय नमः बोला जाता है। जब वेदव्यास जी ने भी जब महाभारत महाकाव्य की रचना शुरू की तब उन्होंने न सिर्फ गणेश जी का स्मरण किया बल्कि गणेश जी को इस बात के लिए भी तैयार कर लिया आप महाभारत खुद अपने हाथ से लिखें । गणेश जी ने हामी भरते हुए पूरी महाभारत कथा जिस एक छोटी सी गुफा में बैठकर लिखी वह गुफा उनके नाम से जानी गयी । जहां यह कथा लिखी गई थी वह गुफा आज भी अलकनंदा और सरस्वती नदी के संगम तट पर मौजूद है और आप उसे देख सकते हैं । हमने भी यह गुफा देखी हैं।

व्यास गुफा ,गणेश गुफा एवं मुचकुन्द गुफा। 

   व्यास गुफा  माणा ग्राम के ऊपर दो सौ मीटर की दूरी पर एक विशाल पत्थर के नीचे है । इसी गुफा में रह कर व्यास जी ने भारत - संहिता ( महाभारत ) श्रीमद्भगवत आदि अष्टादश पुराणों की रचना की थी ।अतः इस  गुफा का नामकरण भी महर्षि वेद व्यास के नाम पर ही हो गया। आप इस गुफा को बड़ी ध्यान से देखिएगा इस गुफा की आकृति भी किसी क़िताब के  पन्नों की भांति ही लगेगी  । व्यास जी ने इसी गुफा का प्रयोग व निर्माण अपने शिष्यों के  वेदाध्ययन के लिए करवाया था । 
   मुचुकुन्द गुफा जिस तरफ व्यास गुफा है ,उस पहाड़ की चोटी परअवस्थित एक और गुफा भी गुफ़ा है वह है मुचुकुन्द गुफा। जब कालिय यवन को मुचुकुन्द की दृष्टि से भस्म कराके भगवान कृष्ण  मुचुकुन्द के सामने प्रकट हुए थे तब मुचुकुन्द ने उनकी स्तुति की । भगवान ने उससे तप करने की सलाह दी ,और उससे कहा कि  , तुमने बहुत शिकार आदि खेल कर हिंसा की है, अगले जन्म में तुम ब्राह्मण होगे , तब तुम्हारी मोक्ष होगी । यह सुनकर भगवान की प्रदक्षिणा करके मुचुकुन्द श्री बदरिकाश्रम की ओर चले आये । और उन्होंने आकर यहीं पर तप किया था । बड़ी भारी गुफा है यहां  टूटे फूटे पत्थरों के  खण्ड बहुत भरे हैं । भीतर वर्षा का जल भी भर जाता है।आवणी जन्माष्टमी के अवसर पर बहुत लोग दर्शन करने यहाँ आते हैं । 
 भीमपुल इन गुफाओं को देखने के बाद जैसे ही आगे बढ़ते हैं तो हमें दुग्ध धवल सरस्वती नदी नजरआती है जिस में बड़ेछोटे हर तरह पत्थरों का अंबार भरा पड़ा है।  इस नदी पर  प्राकृतिक रूप से एक विशाल चट्टान से बना एक पुल है, जिसे भीमपुल कहते है।  दर्शनीय स्थलों में सरस्वती नदी पर बना भीमपुल एक प्राकृतिक पुल है। बदरीनाथ के आस पास पर्यटन स्थलों में देखने लायक पौराणिक कथाओं में डूबा हुआ यह  पुल भी है जिसे आप जरूर देखे ।किंवदंती के अनुसार कहते है स्वर्गारोहण जाने के क्रम में रास्तें में पांडवों को सरस्वती नदी मिली थी । सभी पांडव इस नदी को पार कर गए परन्तु पांडवों की पत्नी द्रौपदी ये नदी पार नही कर पा रही थी। अतः द्रौपदी के नदी पार करने के निमित ही भीम ने एक पत्थर उठा कर नदी के उपर रख दिया था जो बाद में भीम पुल के नाम से जाना गया। द्रौपदी के पुल पार करने के बाद  बाद पांडव स्वर्गारोहण को गए थे। आप इसके नीचे से वेगवती सरस्वती की तेज़ धारा को देख  सकते  है। 



बहती हुई सरस्वती नदी ,उस पर बना भीम पुल ,तथा सरस्वती मंदिर 

    सरस्वती नदी आपको एक महत्वपूर्ण जानकारी दे दे कि यदि आपको सरस्वती नदी का दर्शन करना है तो आपको माना गांव आना होगा। हमें याद आ गया प्रत्येश कैसे जोखिम उठाते हुए एकदम से इस प्रवाहमयी धारा के बहुत पास चले गए थे। यहीं पर आपको हिदुस्तान की अंतिम दूकान भी मिलेगी जहाँ से आप बिस्कुट चाय आदि ख़रीद सकते हैं ।  
   सरस्वती मन्दिर हम सरस्वती मंदिर को हम भला कैसे भुला सकते हैं। यहीं पर हमने अन्तःसलिला नदी सरस्वती नदी के दर्शन भी किये थे और मंदिर में प्रवेश भी किया था। यह मंदिर भीम पुल के पास ही बना है आपको अन्यत्र जाने की जरूरत महसूस नहीं होगी। 

   आज का लिंक बद्रीनाथ,माना गांव ,सरस्वती नदी देखने के लिए निम्न दिए गए लिंक दवाएं 
    https://youtu.be/n-wjqFjrfL4

    क्रमशः जारी ......... 

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     क्रमशः जारी। गतांक से आगे  २२ । ०७  /०५  /२०२० 



एरिअल व्यू बद्रीनाथ के आस पास का ,वसुधारा के गिरते जल प्रपात। चित्र इटरनेट से साभार। 

     पुण्य की धारा ,वसुधारा है जहाँ पापियों के पाप नहीं धोये जाते है। यकीन मानिये यदि आपके ऊपर पानी की एक भी बौछार नहीं गिरी तो आप पापी है। यदि पानी की बूंदें आपके निर्मल शरीर पर गिरी तो आप पुण्यात्मा है। ऐसा लोग कहतें है और ऐसे प्रमाण लोगों ने देखा है सुना है। तो आईये चलते है पुण्य की धारा वसुधारा। 
     महाभारत की कथाओं में वर्णित पांडव बंधुओं में से सहदेव ने यहाँ अपने प्राण त्यागे थे। 
     कैसे पहुंचे बदरीनाथ धाम से नौ किमी आगे लगभग ४००  फीट या कहें १४५ मीटर की  ऊंचाई से गिरने वाले  वसुधारा झरने का पानी मोतियों की बौछार करता हुआ सा नजर आता है। वसुधारा पहुंचने के लिए आपको माना गांव से पश्च्मि उत्तर की तरफ़ ट्रैकिंग करनी होगी। दिशा ज्ञान में यह सरस्वती नदी की वायी तरफ़ है। सरस्वती नदी के बाद ट्रैकिंग मुश्किल हो जाती है क्योंकि सीधी चढ़ाई है । 
    यदि आप बसुधारा फॉल देखने का मन बना रहे है तो आप दोपहर से पहले सरस्वती नदी के भीम पुल तक पहुंच जाये और तब आप ट्रैकिंग शुरू कर दे। यहाँ से तक़रीबन आपको दो घंटे जाने में लग जायेंगे और आप वहां थोड़ी देर रुक कर शाम तक वापस माना गांव लौट सकते है । 
   माना गांव से वसुधारा फॉल ६ किलोमीटर ,तथा भीम पुल से इस की दूरी  ५ किलोमीटर की पर ठहरती  है। 
  रहस्मय स्थान वसुधारा देवभूमि  उत्तराखंड में ऐसे कई रहस्मय और पवित्र स्थान भी हैं , जहां से लोगों की उनकी धार्मिकआस्थाएं  जुड़ी हुई हैं । धार्मिक तीर्थ स्थलों,चार धामों यथा गंगोत्री यमुनोत्री ,केदारनाथ ,बदरीनाथ जो भारत के चार धामों में से भी एक है को अपने भीतर सहेजने वाली उत्तराखंड की देवभूमि कई बेहद खूबसूरत झरनों के लिए भी जाना जाती है । तो यहां मौजूद असंख्य झरनें  पहाड़ी इलाकों से नीचे गिरते हुए हर आने वाले  पर्यटकों  के ऊपर अपनी एक अलग ही छाप छोड़तें हैं और प्रकति की अनकहीं अनदेखी खूबसूरती की बेमिसाल झलक दिखला जाते हैं ।
   इनमें से एक झरना ऐसा भी है जिससे पापी व्यक्ति दूर रहते हैं वहां जाना पसंद नहीं करते है.क्योंकि उनकी पोल खुलने की आशंका भरपूर होती है ,वह है वसुधारा । इसलिए मैं आपसे कहता हूं अपने जीवन के खाते में पाप पुण्य के हिसाब को समझने के लिए एक बार बसुधारा अवश्य जाएं, जिसके बारे में बहुत कम लोग जानते हैं । क्योंकि भीम पुल देखने के लिए आम पर्यटक तो यहाँ तक जरूर आते है लेकिन उसके बाद वसुधारा फॉल तक के लिए ट्रैकिंग कर जाने और देखने की साहस और घड़ी विरले लोग में ही होती है। यह पवित्र झरना अपने आप में ही अंदर कई रहस्य समेटे हुए है ।  करीब ४००  फीट या १४५ मीटर की  ऊंचाई से गिरने वाला वसुधारा झरने की सफ़ेद जलधारा गिरते समय मोतियों के समान प्रतीत होती  है । अतः इस झरने की सुंदरता आपके  देखने लायक है ,यहां आकर आप पर्यटकों को स्वर्ग में होने की ही अनुभूति होगी ऐसा मेरा विश्वास है । यहां पहुंचकर हर पर्यटक अपनी थकान भूल जाते हैं । इस झरने की खासियत यह है की हर व्यक्ति के पाप पुण्य का हिसाब लगाते हुए इसके नीचे जाने वाले हर व्यक्ति पर यह झरना नहीं गिरता है । कहा जाता है की इस झरने का पानी सिर्फ़ और सिर्फ़ पुण्यात्मा लोगों पर ही गिरता है ,पापी लोगों पर नहीं। है ना आश्चर्य भरी ये बातें।
   हालांकि इस झरनें के पानी में चमत्कारी शक्तियां हैं कि इस झरनें के पानी में नहाने से आदमी निरोग हो जाता है।यहाँ से नीलकंठ ,चौखम्भा ,बलाकुन की पहाड़ियां दिखती है।

लक्ष्मी वन तथा सतोपंथ जाने के रास्तें के मध्य का दृश्य। चित्र इंटरनेट से साभार। 

   लक्ष्मी वन वसुधारा फॉल से आगे है लक्ष्मी वन जो वसुधारा फॉल से ४ किलोमीटर आगे पड़ता है अर्थात आप ने यह तय कर लिया कि आपको लक्ष्मी वन भी देखना है तो भीम पुल से ५ किलोमीटर आगे वसुधारा फॉल तथा वसुधारा फॉल से लक्ष्मी वन की दूरी ४ किलोमीटर और जोड़ ले तो कुल मिला कर आपको आने जाने में दूरी १८ किलोमीटर तय करनी होगी। अतः आपके लिए ट्रैकिंग सुबह में ही शुरू करनी होगी तब सायं काल तक बद्रीनाथ या माना गांव लौट सकेंगे।
और इसके आगे है अलकापुरी ......
क्रमशः जारी .................
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   क्रमशः जारी। गतांक से आगे २३।  ०८  /०५  /२०२० 

  यक्षों और गंधर्वों की नगरी अलकापुरी


बसुधारा ,अलकापुरी तथा सहस्त्र धारा का दृश्य। चित्र इंटरनेट से साभार। 

  लक्ष्मी वन लक्ष्मी वन में लक्ष्मी जी प्रकृति का ही रूप बनाकर वास करती हैं वहाँ उनकी कोई मूर्ति नहीं हैं । बड़े बडे भोजपत्र के वृक्ष लक्ष्मी जी की शोभा की याद दिलाते है । सतोपंथ ट्रैकिंग जाने वाले यात्री एक दिन यहीं निवास करते हैं । इससे सुन्दर जगह कोई नहीं । अलकनन्दा यहाँ बहुत शान्त दिखती है । एक छोटा झरना भी हैं जिसे लक्ष्मी - धारा कहते है ।

   अलकापुरी  माना गांव से १२ किलोमीटर,लक्ष्मी वन से ३ किलोमीटर की दूरी पर है ,अलकापुरी जहां मात्र ट्रैकिंग के जरिये ही पहुंचा जा सकता है । दरअसल अलकापुरी हिमनदों से बना एक क्षेत्र है जिसकी दिशा लक्ष्मी वन से उत्तर पूर्व ठहरती है ,जिसे देखने भी बहुत सारे उत्साही पर्यटक आते है। धार्मिक कथाओं में वर्णित कुबेर ,यक्ष तथा गंधर्वों की नगरी है ,यह अलकापुरी। कहते हैं यहाँ अदृश्य रूप से यक्ष गन्धर्व रहते हैं ।और यही से उत्तर गंगा जैसी एक सहायक धारा अलकनंदा में आकर मिल जाती है। इसलिए अलकापुरी हिमनदों वाले क्षेत्र को ही अलकनंदा का उदगम श्रोत माना जाता है।
   वस्तुतः नारायण पर्वत पूरे अलकापुरी क्षेत्र में वर्तमान विशाल हिमनदों को दो भागों में विभाजित कर देतें हैं जिनमें एक से गोमुख बनता है तो दूसरे से अलकापुरी।
   सहस्त्र धारा  अलका पुरी से आगे सतोपंथ के मार्ग में ही नारायण पर्वत की दीवारों से कई सहस्त्र धाराएं निकलती है जो शीत ऋतु में जम जाती है।  उधर बरफ के नीचे भी जल निकासी के बहुत सारे  स्त्रोत्र हैं जो अंदर ही अंदर वह रहें होते  हैं  । 



लक्ष्मी वन के पास लगे कैंप ,अलका पुरी तथा चक्र तीर्थ सतोपंथ झील के पास  का आखिर पड़ाव 

  चक्र तीर्थ  मनुष्य चक्रतीर्थ में स्नान करके विष्णुलोक को प्राप्त करता है । चक्र तीर्थ में स्नान करने के महात्म्य से ही अर्जुन ने अस्त्र विद्या प्राप्त करके अपने शत्रु दुर्योधन आदि को रण में परास्त किया था। चक्र तीर्थ बहुत ही सु रम्य स्थान हैं चक्र के आकार का चारों ओर तालाब की तरह मैदान है । उसमें एक जल की धारा भी बह रही है ।  .इन सब धाराओं को पार करने पर चक्र तीर्थ आता है । 
 यहां आपको एक अति महत्पूर्ण बात बता दे साल २०१८ के बाद उत्तराखंड हाई कोर्ट के आदेशानुसार अब कोई भी कैंप अल्पाइन क्षेत्र वाले बुग्याल में नहीं लगाए जा सकते है इसलिए सतोपंथ आने वाले ट्रैक्कर्स को अपना कैंप चक्र तीर्थ में ही लगाना होता है। आगे ५ किलोमीटर की ट्रैकिंग कर सतोपंथ पहुंचते है और वहां एकाध घंटे व्यतीत कर फ़िर वापस चक्र तीर्थ लौट आते है  
 आगे सतोपंथ .......
 आगे क्रमशः जारी 

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    क्रमशः जारी। गतांक से आगे २४। ०९ /०५  /२०२०   
    


चित्र इंटरनेट से साभार। चौखम्भा की चोटियां तथा सतोपंथ झील का अदभुत दृश्य 
    
   सत्य पंथ की तलाश सतो पंथ 
   ट्रेकिंग का आख़िर पड़ाव  हम सफ़र के दूसरे आख़िर पड़ाव तक पहुंच चुके हैं। हम फिर से आप को बता दे लक्ष्मी वन से आगे जाने  के लिए आपको पर्वतारोहण का अच्छा अनुभव होना चाहिए ,हौसला के साथ साथ बेहतर स्वास्थ्य की भी आवश्यकता है । उम्मीद की जानी चाहिए आपने पहले कैलाश पर्वत या ,लद्दाख के खारदुंगला पास तक़ की ऊंचाई तक़ की चढ़ाई को आपने अनुभूत किया हुआ है। क्योंकि यहां सिर्फ़ आपको अपनी हिम्मत और सांसों का ही भरोसा रखना होगा। अगर आप सांस की बीमारी ,ह्रदय रोग आदि बीमारी से पीड़ित है तो वापस लौट जाए.क्योंकि ४००० मीटर से भी ऊंचाई वाले क्षेत्र में ऑक्सीजन की कमी हो जाती है। 
   सतोपंथ व भागीरथी हिमनद यह दोनों ग्लेशियर नीलकंठ पर्वत के पूर्वी भाग में आराम कुर्सी की भांति स्थित है, इस स्थान को अलकापुरी कहा जाता है।सतोपंथ ग्लेशियर से सतोपंथ झील बन गयी तो गोमुख का निर्माण भागीरथी ग्लेशियर से हुआ। यदि हम सीधे पर्वतों के ऊपर चढ़ जाये तो दूसरे पश्चमी सिरे पर हमें गंगोत्री का उदगम श्रोत गोमुख मिल जाएगा। 
   तीन दिन सतोपंथ तक पहुंचने और वहां से वापस लौटने में कम से कम तीन दिन लग जाते है। माना गांव से चलते हुए आपको एक दिन लक्ष्मी वन में रुकना होगा। दूसरे दिन चक्र तीर्थ में कैंप लगाना होगा। लक्ष्मी वन से चक्र तीर्थ की दूरी ११ किलोमीटर है तथा लक्ष्मी वन से माना गांव की दूरी ९ किलोमीटर है याने अभी तक २० किलो मीटर का सफ़र केवल ट्रैकिंग मात्र से पूरा हो चुका है। 
   आइये यहाँ से शुरू करते हैं हम सतोपंथ झील तक़ की शेष यात्रा जो पांच किलोमीटर की होगी और हमें वापस भी लौटना है क्योंकि वहां प्रचंड ठंढ है और हम रुक भी नहीं सकते है। पांच किलोमीटर की मुश्किल की ट्रेकिंग है  लेकिन चार से पांच घंटे लग जाते है।
   


चित्र इंटरनेट से साभार। चढ़ाई का सफर और सतोपंथ झील। 

  सतोपंथ झील उत्तरखंड में हिमालय पर्वत में अवस्थित  एक हिमानी  झील है जो भौगोलिक स्थिति में चौखंबा शिखर की तलहटी पर हिमनदों के पिघलने से बना है। यह उत्तराखंड के सुरम्य,प्राकृतिक झीलों में से एक है जहां ट्रेकिंग के लिए सर्वाधिक पर्यटक जाते है अक्सर प्राकृतिक झीलों का आकार गोल या चौकोर होता है लेकिन यह अद्वितीय झील त्रिभुजाकार या तिकोने आकार में है। भारतीय पर्यटकों को तो यह झील तो अपनी ओर लुभाती ही है, विदेशी पर्यटकों को भी अपनी ख़ूबसूरती  से भी अछूती नहीं रखती है। 
   दो कथाएं,त्रिदेवों की डुबकी  सतोपंथ झील को लेकर दो दन्त कथाएं प्रचलित हैं। उनमें से एक यह है कि स्थानीय लोगों के मुताबिक, त्रिदेव- ब्रह्मा, विष्णु देव लोक से महेश एकादशी के दिन इस झील में स्नान हेतू पधारे थे। तीनों देवताओं ने झील के अलग-अलग कोनों पर खड़े होकर पवित्र डुबकी लगाई थी,इसलिए यह झील त्रिभुज के आकार में हो गयी । इन्हीं कथाओं की वजह से सतोपंथ झील का हिन्दू धर्म में एक खास और बड़ा धार्मिक महत्व है,जिसे हम नजरअंदाज नहीं कर सकते है ।
   सत्य पंथ झील का  नाम सतोपंथ क्यों पड़ा ,इसका भी एक मतलब  है। इसके पीछे भी एक अन्य कहानी है,   'सतो' का मतलब होता है 'सत्य' और 'पंथ' का मतलब होता है 'रास्ता' ,यानि 'सत्य का रास्ता'। कथाओं के अनुसार महाभारत के पांडव ज्येष्ठ  युधिष्ठर इसी स्थान में 'स्वर्ग के रास्ते' से होते हुए स्वर्ग की ओर गए थे, इसलिए इस झील का नाम सतोपंथ झील पड़ गया। इसे धरती पर स्वर्ग जाने का रास्ता भी कहा जाता है।विदित हो कि युधिष्ठिर को इसी झील के आस पास स्वर्ग तक जाने के लिए 'आकाशीय वाहन' की प्राप्ति हुई थी और इसलिए यह झील सत्यपंथ झील कहा जाने लगा। हम भली भांति  जानते है युद्ध में स्थिर रहने वाले युधिष्ठर ने कभी असत्य नहीं बोला था। 
 स्वर्गारोहिणी सीढियाँ इस झील के किनारे सामने यदि मौसम साफ़ हो ,और आप भाग्यशाली रहे तो आपको यहीं सतोपंथ से सीढियाँ भी स्पष्ट नज़र आएंगी। यहीं है स्वर्गारोहिणी सीढियाँ जिसे चढ़ कर मात्र युधिष्ठर ही जिन्दा स्वर्ग गए थे । 

चित्र इंटरनेट से साभार। सतोपंथ झील और सामने दिखती स्वर्गारोहिणी सीढ़ियां

 कठिनाई सतोपंथ झील की ऊंचाई ४६०० मीटर है ,हेमकुंड साहिब की ४६३२ मीटर ,तो खारदुंगला पास की  ५३५९ मीटर।  अर्थात जो लोग हेमकुंड साहिब तक गए हैं उनके लिए स्वास्थ्य अच्छा होना चाहिए वह यह ट्रेकिंग पूरी  कर ही लेंगे । बता दे यहां घोड़े ख़च्चर आदि नहीं जातें हैं। 
  आपको चिकित्सीय सुविधा भी नहीं मिल पाएंगी। एकाध दो घंटे व्यतीत करने के बाद लौटने की  प्रक्रिया शुरू कर दें। 
वापसी .....
क्रमशः जारी 
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   क्रमशः जारी। गतांक से आगे २५ । १ ० /०५  /२०२०   

   वापसी का सफ़र 


क्रमशः केशव प्रयाग ,माता मूर्ति मंदिर और शेष नेत्र का दृश्य। चित्र इंटरनेट से साभार 
     बर्फ़ानी बाबा  लौटते समय किसी कंदरा में राख भभूत लगाए बर्फ़ानी बाबा भी मिले।रोचक मुद्रा थी उनकी, ,क़रीब क़रीब नंग धड़ंग ही थे। पता चला सालों भर यहीं रह जातें हैं। ,जब मैंने उनसे इंटरव्यू लेने की बात की वह मायावी दुनियाँ की बात कह कर सीधे भड़क गए।  दोनों ने एक दूसरे की सोच में ख़लल डाली थी। 
    केशव प्रयाग में मिल रहे सरस्वती नदी के अलकनंदा में समाने का दृश्य फिर से लौटने के क्रम में भीम पुल से बढ़ते ही माना गांव में दिखा। इतनी ठंढ में भी लोग संगम में स्नान ध्यान कर रहें थे। यहां के बाद सरस्वती नदी आपको नहीं दिखेंगी ,नहीं दिखती है ना ? इस अंतःसलिला सरस्वती नदी को पुनः देखने के लिए आपको इलाहाबाद में प्रयाग के त्रिवेणी स्थल तक जाना होगा।  
    सोचा थोड़ा आगे बढ़ कर सरस्वती को छू लूं। जब उस संगम स्थल तक़ पहुंचा तो देखा सूखी बजरी वाले रेतीले भूभाग पर बहुत सारे मानवीय उपले यत्र तत्र बिखरे पड़े मिले । मन तनिक खिन्न हो गया यह सोच कर इतनी ऊंचाई पर भी हमने गंगा आदि जलश्रोतों को कैसे प्रदूषित कर दिया है ?  
शोध के आंकड़ें भी कहते हैं गंगा जल अब रखने लायक नहीं रहा। शायद हमें शुद्धता के लिए गंगोत्री से भी  उपर गोमुख तक जाना होगा। राम तेरी गंगा मैली हो गयी ...पापियों के पाप धोते धोते,अनायास ही राज कपूर याद आ गए।  
    माना गांव और वहां रहने वाले भोटियाँ संघर्ष शील जनजाति की गाथा भी सुन लीजिये। इतनी ऊंचाई और इस भयानक ठंढ में भी ये लोग अपनी छोटी मोटी  दूकान चला कर अपना जैसे तैसे जीवन यापन करते है।  परिसम्पत्तियों के नांम ले दे कर उनके पास एक टूटी फूटी झोपड़ी कुछ भेड़ बकरियां आदि मवेशियां ही होती है। वेलोग हम जैसे पर्यटक के ऊपर ही आश्रित होते हैं अतः हमारा भाईचारे के अंतर्गत यह दायित्व होना चाहिए कि हम छोटी मोटी खरीदारी उनसे भी कर ले और उनका सहारा बने । 
   मातामूर्ति मंदिर लौटते समय अलकनन्दा नदी की दाहिनी तरफ़ माना गांव के आस पास ही माता मूर्ति का मंदिर है। अवधारणा यह है की मातामूर्ति नर और नारायण दो पुत्रों की माता है । कभी माता मूर्ति  ने भगवान विष्णु से प्रार्थना की थी कि वह उनके गर्भ से पैदा हो तो भगवान विष्णु ने माता मूर्ति की इच्छा वश  ही नर और नारायण के रुप में उनकी कोख से जन्म लिया था।  



अलकनन्दा ,बद्रीविशाल तथा ब्रह्म कपाल का दृश्य। चित्र इंटरनेट से साभार। 

   ब्रह्म कपाल  बद्री नाथ बस स्टैंड से मात्र एक किलोमीटर ,बद्रीविशाल मंदिर से मात्र १०० मीटर की दूरी पर अलकनन्दा नदी के किनारे एक घाट है ,जिसका नाम है ब्रह्म कपाल ,जहाँ ब्रह्मा का निवास समझा जाता है। कहते है अपने पितरों के श्राद्ध कर्म पूरे करने से पितरों को जन्म मरण के चक्र से मुक्ति मिलती है तथा मोक्ष की प्राप्ति होती है। अर्थात बिहार स्थित गया के फल्गू नदी के अतिरिक्त यदि पिंड दान की कोई जगह है तो वह है बद्रीविशाल के निकट अलकनंदा नदी के किनारे ब्रह्म कपाल का घाट। 
   शेष नेत्र  बद्रीनाथ बस स्टैंड से मात्र १ किलोमीटर की दूरी पर अलकनन्दा नदी की दाहिनी तरफ़ मुख्य मंदिर के बिल्कुल पास में एक शिला आकर्षण का केंद्र है जो शेष नेत्र कहलाती है। शेष नाग जिसकी शैया पर विष्णु लेटते थे उसी शेष नाग की आकृति में दिखती है यह शिला। 
   शाम हो चुकी थी हम मंदिर तक पहुंच चुके थे। इस समय पुनः आरती और दर्शन के लिए हम में एक पंक्ति में लग गया बाकी सब परमार्थ लोक चले गए। यह कहते हुए कि आते है लौट कर नहा धो कर दर्शन करेंगे। कल हमें बदरीनाथ से केदार नाथ के लिए प्रस्थान भी करना था। तय यह भी हुआ कि प्रातः चरण पादुका के भी दर्शन कर लिए जाएंगे।   
प्रस्थान ......
क्रमशः जारी 
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   क्रमशः जारी। गतांक से आगे २६  । १ १  /०५  /२०२०   

   सुबह का  वक्त  मैं सबेरे ही उठ गया था। जब कभी भी मैं पहाड़ों की सैर करता हूं तो थोड़ा और सबेरे ही उठ जाता हूं। परमार्थ तीर्थ से मैं बाहर निकला। सामने नर नारायण पर्वत पर सुबह की ताज़ी धूप खिली हुई थी। रह रह कर चोटियां चांदी जैसी चमक रही थी। बादल कब आ जाएंगे कोई नहीं कह सकता था। मैंने रात्रि में ही सबों को कह दिया था कि सब अपना सामान तैयार कर लें। 
 नारायण पर्वत और चरण कमल सात बजे का समय नियत हो गया था। सामने चरण पादुका के पहाड़ दिख रहे थे। हमने नारायण पर्वत की ओर देखा घने काले बादल वहीं जाकर टिक गए थे। ठंढ अपने पूरे शबाब पर थी इसी नारायण पर्वत पर ही है ना चरण पादुका। भगवान विष्णु के चरण कमल। क्यों पहाड़ों पर टंगे बादल हमें पर्वत के उस पार जाने से रोकते है। 


नारायण पर्वत पर भगवान विष्णु  की चरण पादुका। चित्र इंटरनेट से साभार।  



  चरणपादुका यदि आप बद्रीविशाल में रहते है और आप चार से पांच घंटे निकाल लेते है तो चरण पादुका तक की ट्रेकिंग जरूर कर लीजिये। मुख्य मंदिर से आगे बस स्टैंड की तरफ़ से अलकनन्दा नदी की वा यी ओर नारायण पर्वत पर  किमी की चढाई पूरा करने के बाद हमे चरण पादुका मिलती हैं जो एक अत्यंत दर्शनीय स्थल हैं जहां हम ट्रेकिंग कर आसानी से जा सकते हैं । वहां तक पहुंचने में लगभग हमें एक दो घंटे या थोड़ा अधिक समय भी  लग सकता  है।लौटने के आधे घंटे जोड़ ले तो कुल मिला कर चार से पांच घंटे लग जाएंगे लेकिन रास्तें के पत्थर,झरनें,बादलों का जमाबड़ा,गिरती पानी की बूँदें आपको यह सोचने के लिए विवश कर देंगी कहीं आप नहीं आते तो गलती तो नहीं करते। तो इसे देखने जरूर जाएं। यह मंदिर के पास में बिलकुल पीछे हैं। 
   समुद्र तल से ३३८०फीट की ऊंचाई पर स्थित,चरणपादुका शिलाखंड बद्रीनाथ में एक माना हुआ आध्यात्मिक स्थल माना जाता है। शिलाखंड बद्रीनाथ मंदिर से लगभग किलो मीटर दूर स्थित है।एक खड़ी चढ़ाई हमें औरआपको रंगीन फूलों से भरे सुंदर घास के मैदान से घिरे स्थान पर ले जाती है।
   कथाएं दो कथाएं प्रचलित हैं। एक जहां एक प्राकृतिक शिला खंड है ऐसा माना जाता है कि इस शिलाखंड में भगवान विष्णु के पैरों के निशान हैं। वे निशान उस समय उकेरे गए थे,जब उन्होंने वैकुंठ से नीचे पृथ्वी पर कदम रखा था और अपने दिव्य पैरों को पृथ्वी पर रखा था। 
   एक और कहानी यह बताती है कि भगवान कृष्ण ने अपने मंत्री उद्धव को अपनी चप्पल या चरणपादुका के साथ बद्रीनाथ की यात्रा करने का सुझाव दिया था,और इसी तरह उनका पदचिह्न शिलाखंड में ढाला गया था। इस घटना का भागवत पुराण में भी उल्लेख मिलता है।
  यहाँ मैं चरण पादुका की कुछ तस्वीरें दे रहा हूं मूल शिलालेख की और उस स्थान की भी जहां एकल चरण पादुका दिखती है। 
 दूसरे सफ़र की तैयारी ग्यारह बजे के आस पास का समय हो रहा था। अब दूसरे सफ़र की तैयारी थी। हमलोग ने क़रीब क़रीब तमाम दर्शनीय स्थलों की जानकारी इकठ्ठी कर ली ही थी जो मैंने आपसे साझा की । अब बद्रीनाथ को अलविदा कहने का समय आ गया था। हमारी सवारी गाड़ी  दूसरे मुक़ाम के लिए निकल चुकी थी। निकलते वक़्त एक बार फ़िर से बद्री विशाल को देखा कभी अवसर मिला तो अपने स्वजनों के साथ पुनः आऊंगा। 
  हनुमान चट्टी के पास फ़िर से जाम लगा हुआ था। थोड़े समय के बाद जाम हटा तो गाड़ी फिर से गोविन्द घाट होते हुए जोशी मठ की तरफ बढ़ने लगी। गोविन्द मठ पहुँचते ही अनायास ही फूलों की घाटी याद आ गयी। चलते चलते आपको गोविन्द घाट से जुडी एक बात और बता दूं। गोविन्द घाट के पास ही एक ताल जिसे हम कागभुशुण्डि ताल कहते है वह भी यहीं से जाया जा सकता हैं। हालांकि हम इसे नहीं देख पाए लेकिन जो जानकारियां उपलब्ध हुई वह हम आप लोग को साझा कर रहें हैं।  



काग  भुसुंडी ताल की चढ़ाई और ताल का फोटो। चित्र इंटरनेट से साभार 


   कागभुसंडी ताल  भारत में उत्तराखंड के उच्च हिमालयी क्षेत्र में कांकुल दर्रा ,ऊंचाई ४९६० मीटर, के पास, ४७३० मीटर की ऊँचाई पर स्थित एक पवित्र झील है। एक छोटी-सी आयताकार झील जो लंबाई में लगभग १  किलोमीटर है यह ताल हाथी पर्वत के तल पर फैली हुई है। इसका पानी हल्का हरा होता है और इसके किनारे विभिन्न शेड्स- गुलाबी, मौवे, ऑरेंज, प्यूरीज़, पेरीविंक ब्लू, क्रिमसन, गेरू, रंग नाना प्रकार के फूल खिलते हैं। 
    यह क्षेत्र प्राकृतिक विविधता के लिए संयुक्त राष्ट्र की विश्व धरोहर स्थल नंदा देवी बायोस्फीयर रिजर्व के अंतर्गत आता है। यह ताल हाथी पर्वत में ,६७३० मीटर की ऊंचाई पर स्थित है | यहाँ तक पहुचने के दो रास्तें  हैं  एक भुइंदर गांव से, घांघरिया के पास से तो दूसरा गोविन्द घाट के विष्णु प्रयाग से जाया जा सकता है।                कागभुसंडी झील के ऊपर, दो विशाल आकार की चट्टाने हैं इनको हाथी पर्वत के किनारे पर बैठकर देखा जा सकता है। स्थानीय लोककथाओं के अनुसार, वे कागा (कौवा) और गरुड़ (ईगल) हैं |
    उम्मीद करता हूं आपको यह ब्लॉग अच्छा लगा होगा। हमने आपको पूरी जानकारी बहुत ही रोचक अंदाज में उपलब्ध करवाने की कोशिश की  हैं। अगर आपको जानकारी और यात्रा वृतांत अच्छा लगा तो ब्लॉग के कमेंट बॉक्स में कमेंट जरूर करें ।
  मिलता हूं अगले ब्लॉग में तब तक़ के लिए साथ बने रहिये।  आपके कमेंट की प्रतीक्षा में। नीचे फोटो दीर्घा के लिए प्रतीक्षा रत रहें .......
  आपका शुभाकांक्षी डॉ मधुप रमण

  फोटो दीर्घा 





  

Comments

  1. वाह , आपने अपने संस्मरणों को इतनी अच्छी तरह पिरोया है कि लगता है मै आपके साथ ही यात्रा कर रहा हूं। बहुत प्रवाह के साथ यात्रा के प्रवाह को बनाए रखा है।

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  2. My old memories became alive. Very nice.

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  3. Commendable job!!!!Keep it up..

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  4. This blog gives the true idea of the experience which the traveler has to give in detailed manner.

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  5. अति सुंदर प्रस्तुति। शब्दों का चयन और भाषा प्रवाह अत्यंत प्रभावी हैं।

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  6. सर आपका यह यात्रा वृतांत सुपर से भी ऊपर है ऐसा लगता है जैसे पढ़ने वाले स्वयं तीर्थ यात्रा कर रहे हो इसी तरह यात्रा वृतांत लिखते रहिए- बहुत-बहुत धन्यवाद आपका शुभेच्छु

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  7. बेहद ही खूबसूरत संस्मरण। हालांकि एक बार ऋषिकेश देखा लेकिन अब दुबारा जाने की इच्छा प्रबल हो उठी है। इस नए श्रीनगर के बारे में आज पता चला ,एक जिज्ञासा जगी है । तीन धारा का छाया चित्र मनोरम है ,बहुत ही उत्कृष्ट लेखन शैली।
    धन्यवाद सर

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  8. I liked your easy flowing narrative. Gives an insight of intrigue of the unknown when we're in a journey. Cheers.

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  9. Reading it and enjoying in lockdown

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  10. Very well and almost complete information.

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  11. Style of writing and description of sites gives a live experience of the places .Keep it up .

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  12. काफी सटीक एवं उन्नत भाषा का प्रयोग। सारे सब्दों का काफी कुशलता पूर्वक एक दूसरे में समाहित

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  13. बहुत ही सटीक वर्णन
    पढ़ते पढ़ते लगता है चारो तरफ गगां गगोग्री
    का अनुपम सगंम और देव दर्शन की अनुभूति हो रहा है। यशवंत कुमार

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  14. Very informative and nice blog sir...liked a lot

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  15. Remaining too much helpful for travellers and keeps all sorts of necessary information regarding tourism.

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  16. न जाने क्यों ऐसा लगता है जिस दृश्य को मैं 25 वर्ष पूर्व देखा था आज मैं घर बैठ देख रहा हूँ। मै धन्यवाद देता हूँ सर आपको जो आपने अपने लेखन के माध्यम से पुनः याद को ताजा कर दिया।
    एसे कथन को देखकर ऐसा लगता है कि मैं सचमुच तीर्थ ही कर रहा हूँ। एक बार फिर से धन्यवाद करता हूँ तथा आपको बार-बार नमन करता हूँ कि आप इसी तरह हमसबों का मार्ग दर्शन करते रहें।
    आपका शुभेक्षु

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  17. Well scripted mr madhup, enjoyed reading. Keep up the good work.

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  18. Outstanding tour and forever memorable event. Whatever you trying to picturise like a reporter. Wonderful. .. Love you alot

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  19. It is a very good travel account that will help us too much.

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  20. सुंदर चित्रण। लिखना जारी रखो ।

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  21. Wah apani kahaniya jari rakho

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