Aye Jate Hue Lamho Jara Thehro : Alvida 2021.
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Aye Jate Hue Lamho Jara Thehro.
A Complete Cultural Account over Travel.
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Volume 1.Section.A. Page.1.Cover Page.
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साल १९९९ की बात थी। सर्दियां शुरू हो गई थी। यही कोई नवंबर का महीना था ,जब हिमाचल लोक सेवा आयोग से लेक्चरर पद की परीक्षा के लिए बुलावा पत्र आया था। शिमला जाने की तैयारी हो रही थी। मसूरी और नैनीताल के बाद यह पहाड़ों की तीसरी यात्रा थी। मन में जबरदस्त उमंग था कि इस परीक्षा में पूरे मनोयोग से शामिल होंगे और शायद भगवान की कृपा हो तो चुन भी लिए जाए। यह स्वयं में अकेले की यात्रा थी ,थोड़ा घबराया हुआ भी था। पटना से पंजाब मेल हमने सुबह ५ बजे के आसपास पकड़ी। ट्रेन के इस तन्हा सफ़र में यह लग रहा था कि काश इस यात्रा में कोई हमारे साथ होता तो कुछ और बात होती। कहते हैं ना दिल से मांगी हुई दुआ जरूर पूरी होती है।
वाराणसी स्टेशन पर हमारी तरह ही कोई बेरोजगार प्रतिभागी पूछ रहा था , .क्या यह ट्रेन शिमला जाएगी ?
मैंने तत्क्षण सोचते हुए जवाब दिया, ...हाँ , आ जाइए ,सोचा यह भी मेरी तरह कोई परीक्षार्थी ही है ,शिमला जा रहा है शायद लेक्चरर पद की परीक्षा के लिए.....
' जनाब भीतर आ जाइए ' , हमने पूछा , कहां से है और कहां जा रहे है ?
बातचीत के सिलसिले में मालूम हुआ, बनारस से डॉक्टर राजेश पाठक है जो लेक्चरर परीक्षा देने के लिए शिमला जा रहे हैं। टीका लगाए हुए ब्राह्मण देवता देखने से ही ब्राह्मण लग रहे थे और बड़े भोले दिख रहे थे ।
सोचा , अच्छा है ...साथ रहेंगे तो अकेलापन भी कट जाएगा। सफर का मजा भी आ जाएगा साथ ही सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि रहने सहने सैर सपाटे के खर्चे में हिस्सेदारी भी हो जाएगी।
आगे मेरे बर्थ पर बैठते ही उन्होंने कहा , ' मेरा टिकट कंफर्म नहीं है ...वेटिंग लिस्ट में है ..
मैंने कहा , चिंतित न हो ब्राह्मण देवता , एक सीट हैं ना दोनों एडजस्ट कर लेंगे ...कम से कम साथ तो रहेंगे।
एक से भले दो। शाम होते ही सन्नाटा गहरा गया था। ट्रेन अपने पूरे रफ़्तार से आगे बढ़ रही थी.
गतांक से आगे १ पढ़े.
दूसरे दिन अंबाला ट्रेन पहुंच चुकी थी। हमने अंबाला में ही ट्रेन छोड़ दी , क्योंकि पंजाब मेल कालका नहीं जाती थी। और दूसरी ट्रेन से सुबह के ५ बजे के आसपास हम कल कालका पहुंच चुके थे। कालका स्टेशन पर शिमला जाने के लिए पहली ट्रेन खड़ी हुई थी। हमने जल्दी से दो टिकटें ले ली ,साधारण डिब्बे में सवार हो गए। एक छोटी सी ट्रेन , जिसमें गिनती से चार पांच डिब्बें ही रहे होंगे। डिब्बा पूरी तरह से स्थानीय, पहाड़ियों तथा पर्यटकों से भरा पड़ा था।
कुछ ही पल में ट्रेन कालका से रवाना हो गई। और हम पहली बार ब्रिटिश भारत की ग्रीष्मकालीन राजधानी शिमला के लिए प्रस्थान कर चुके थे। ऊंचाई की ओर ट्रेन सरकने लगी थी । ट्रेन की रफ़्तार हम मध्यम ही कह सकते है । हमें थोड़े अंतराल के पश्चात ही हिमाचल का पहला औद्योगिक शहर परमाणु मिला।
we passed through many bridges, 102 tunnels, and stations. Badog Station in between Kalka and Shimla. |
सुबह की धुंध अभी छटी नहीं थी। या कहे हमें दिख नहीं रही थी। बाहर खिड़कियों से पेड़ ,पौधें ,घर मकान सरकते नज़र आ रहें थें । कहीं धुआं उगलती चिमनियां दिख रहीं थी। कोटी , बड़ोग , सोलन, कंडाघाट, शोगी, तारा देवी ,समर हिल , शिमला तब यही कुछ झोपड़ी नुमा ,छोटे छोटे रेलवे स्टेशन होते थे ना ,शिमला और कालका के बीच में ? शायद अब कुछ और हो गए होंगे।
मुझे याद है शिमला से तारा देवी स्टेशन यही कोई तकरीबन १२ से १५ किलोमीटर की दूरी पर था, है न ? और हमें फिर से ट्रेकिंग के लिए यही आना था। लेकिन पहले यह तय हुआ कि हम इंटरव्यू देंगे और उसके बाद निश्चिंत होने के पश्चात ही तारा देवी आएंगे। जल्दी हम लोग समरहिल के बाद शिमला पहुंच चुके थे।
गतांक से आगे २ पढ़े.
एक दिन के इंटरव्यू और उससे फरागत पा लेने के बाद हमने शिमला की स्थानीय जगह देखने की सोची।स्कैंडल पॉइंट, गैटी थिएटर , रिज ,मॉल रोड तथा इसके बाद प्राचीन कैथोलिक चर्च देखना काफी अच्छा लगा था। यह सभी महत्वपूर्ण फिल्मी जगहें हैं जहां अक्सर हम फिल्मों की शूटिंग में यथा ,लव इन शिमला , वो कौन थी , दोस्त , माया मेम साहब आदि कई फिल्मों में निर्माताओं को दिखलाते हुए देखा है। जाहिराना तौर पर इसके पास घूमना मन को खूब भाता है। और यहां की भवन निर्माण शैली देख कर हमें किसी ब्रितानी उपनिवेश की याद आ जाती है।
लगता है हम लंदन या फिर स्कॉटलैंड की पहाड़ियों में ही घूम रहें हो. शिमला का रिज एक छोटा सा न्यूनतम समतल जगह है जहां सुबह स्थानीय व शाम में पर्यटकों की अच्छी खासी भीड़ इकठ्ठी हो जाती है। और ताजी हवा के झोंकें लेने के लिए यदि आप चाहते हैं तो शिमला के रिज जरूर जाइए। पास की सीढ़ियों से चढ़ते हुए जाखू हिल्स अवश्य जाइए जहां पवन पुत्र हनुमान की विशालकाय मूर्ति देखने को मिलेंगी। यह विशालकाय मूर्ति बहुत दूर से ही आने जाने वालों को यह अहसास करा देती है कि आप शिमला की पहाड़ियों के नजदीक है।
जाखू हिल जाते समय सावधान रहें बंदर और लंगूर के काफी तादाद है अतः आप के लिए बजरंगबली का आशीर्वाद पाना और लेना नितांत आवश्यक भी है।
गतांक से आगे ३.पढ़े
साल १९९९ की सुबह। नवंबर का महीना। दिन बेहद सर्द और खुश्क था। दूसरे दिन हम सभी तारा देवी मंदिर जाने के लिए तैयार होकर शिमला के ऐतिहासिक धरोहर समझे जाने वाले रेलवे स्टेशन पहुंच चुके थे। हमें कालका जाने वाली पहली ट्रेन ही पकड़नी थी।
यह तारा देवी मंदिर शिमला और शोघी स्टेशन के मध्य पड़ता है। हमने सुनिश्चित किया था कि हम रेल के जरिए तारा देवी स्टेशन पहुंचेंगे और वहां से ट्रेकिंग करते हुए तारा देवी मंदिर तक़ पहुंचेंगे। तारा देवी मंदिर जो शिमला के तारा पर्वत पर लगभग २५० साल पूर्व बना एक अत्यंत आकर्षक मंदिर है जहाँ पहुंचना हरेक को बहुत अच्छा लगेगा। वहां से शिमला शहर और पहाड़ियां बेहद मनमोहक लगती है।
it's an inspirational song of a hit film Dost Gadi Bula Rahi ..drew our attention to come to Shimla. |
दूरी का अनुमान : शिमला द मॉल से लगभग १८ किलोमीटर की दूरी पर है शिमला का तारा देवी मंदिर जो तक़रीबन १८३१ मीटर की ऊंचाई पर अवस्थित है। जहां आज आप कार टैक्सी के जरिए इत्मीनान से पहुंच सकते है। यदि ट्रेकिंग करनी हो तो तारा देवी रेलवे स्टेशन से २० से ३० मिनट तक का समय लग सकता है। यह आपके शारीरिक अवस्था और आपकी गति पर निर्भर करता है।
तारा देवी की ओर जाता हुआ पगडंडी का रास्ता : दस बजे के आस पास हम तारा देवी रेलवे स्टेशन पहुंच चुके थे। सामने पहाड़ी दिख रही थी। और एक ऊंचाई की ओर जाता हुआ पगडंडी का रास्ता।
हमने साथी डॉ राजेश पाठक की तरफ़ देखते हुए कहा , ...क्या गुरु पैदल चलने का निर्णय ठीक हैं ना ? ...डर था अनजाने जंगल के रास्ते कहीं हम गुम तो नहीं हो जाएंगे । किसी स्थानीय के साथ हो लेते है। '
देखा दो तीन युवा उस चढ़ाई की तरफ़ जा रहें थे , पूछने पर मालूम हुआ वह भी हमारी तरह पर्यटक ही हैं। तारा देवी मंदिर ही जा रहें थे। सोचा एक से भले दो। हिम्मत थोड़ी और बढ़ी। हमने नीचे बाजार से दो तीन पानी की बोतलें ,और बिस्किट ले ली और चल पड़े।
चढ़ाई : धीरे धीरे क़दम बढ़ाते हुए हम एक साथ ही आगे बढ़ रहें थे। जहां तक एक पगडण्डी दिखती तब तक़ तो ठीक लगता लेकिन जैसे से ही एक पगडंडी से तीन चार रास्तें बनते दिखते हम दिकभ्रमित हो जाते। हमें डर लगता कहीं भटक न जाए। तब हम वहीं पर ठहर लेते। किसी स्थानीय का इंतजार कर लेते , उससे दरयाफ़्त कर लेते ,तब आगे बढ़ते ।
समय का भी भान ले लेते कि और कितनी देर लगेगा। साँसे धौकनी की तरह चल रही थी। मैं ऐसे भी एसोनोफिल का मरीज़ ठहरा। कुछ दूर चलते ही मैं सुस्ताने किसी पत्थर पर बैठ जाता।
मुझे जंगलों से गुजरते हुए अनायास ही मनोज़ कुमार ,नन्दा की फ़िल्म गुमनाम का दृश्य याद आ रहा था। हम अनजाने मंजिल की तलाश में अनदेखे डगर पर चले जा रहें थे।
लम्बे लम्बे पेड़ों के साये में ...जंगलों के बीच। रह रह कर सूरज की किरणें पेड़ों से छनती हुई हमारे मार्ग को प्रशस्त कर रहीं थी। यदा कदा जंगली जानवरों का डर फिर भी सता रहा था।
हमारे साथ तो कोई फिल्म की बॉबी भी नहीं थी, जो यह कहती कि ... ' शेर से मैं कहूं .... कि तुम्हें छोड़ दे ...और मुझे खा जाए ...यहां तो हम सभी छकड़े ही थे ....
हम सभी मैदानी इलाके से थे हमारी आदत पहाड़ियों जैसी नहीं थी इसलिए स्वाभाविक था की हमें २० मिनट से ज्यादा समय लगना था। और लग भी रहा था।
गतांक से आगे ४ .पढ़े
कुछ दूर चलते ही हमें लगा कि हम रास्ता भटक गए हैं क्योंकि मंजिल का पता ही नहीं चल रहा था। दूर कहीं घंटे की आवाज़ तो सुनाई दे रहीं थी लेकिन मंदिर नहीं दिख रहा था। एक पल के लिए लगा कहीं ग़लती तो नहीं कर गए। थोड़े से हताश हो गए थे हम।
तभी पार्श्व की पगडण्डी से चलते हुए कोई साया आता हुआ दिखा जो इस तरफ़ आ रहा था । या कहें कोई युवती ही थी चलती हुई दिखी। समीप आए तो वह कोई २४ - २५ साल की लड़की थी । नीले लिबास में। पीले दुपट्टे से सर ढका हुआ था। उसके नम चेहरे से नूर टपक रहा था। लगा जैसे अँधेरे में से कोई रौशनी मिल गयी हो। रास्ता भूले को पथ प्रदर्शक मिल गया हो। जब हमदोनों के रास्तें एक मिल गए तो देखा हमारे समक्ष कोई दिव्य सुंदरी थी , देवियों जैसी। नाक नख्श बहुत तीखे। गोरा वर्ण। मध्यम कद काठी। झील सी गहरी आँखें।
तत्क्षण पूछ बैठा , '...तारा देवी मंदिर कितनी दूर है ? ' ....मसीहा ही बन कर आयी थी न वो। भटके पथिक के लिए ध्रुव तारे की तरह।
' मंदिर जा रहें हैं ? ... ज्यादा दूर नहीं हैं ...पास ही है ...दो कदम के बाद आ ही गया ...'
' आप भी उधर ही जा रहीं है क्या ? ' मेरी नजरें जैसे उनके ख़ूबसूरत दिव्य चेहरें से हट ही नहीं रहीं थी।
..जी ! ' ....अत्यंत मधुर वाणी थी। .. मैं जैसे सम्मोहन में था।
मेरा अनुरोध था , ' आपके साथ हम भी चले ?
तो हँसते हुए वह बोली , ....जरूर, ... क्यों नहीं ? ' चलते चलते रास्तें भर वह हमें मंदिर ,अध्यात्म और इसके इतिहास के बारे में बतलाते रही। हम मूक दर्शक ,श्रोता की भांति उसका नैसर्गिक चेहरा देखते हुए उसकी बातें सुनते रहें।
कुछ मिनटों के बाद हम मंदिर परिसर में पहुंच गए। उसने इशारा करते हुए बतलाया मंदिर का प्रवेश द्वार वहां है ..पूजा के लिए प्रसाद वहां से ले ले। और माँ का दर्शन करें। ...इतना कहते हुए वह नीचे जाने वाले रास्तें की ओर कोहरे में गुम हो गयी।
मैं एकटक उसे जाते हुए देखते रहा। दूसरे क्षण भान हुआ मुझे कम से कम नाम पता तो पूछना चाहिए था। ...वो कौन थी ? कहाँ से आयी थी ? कहाँ गयी ? ऐसे कई एक सवाल थे जिनका जबाव मेरे पास नहीं था।
हम प्रसाद लेने के लिए आगे बढ़े इसके पहले मंदिर परिसर के आस पास भ्रमण करने की सोची। इधर उधर देख लेने के पश्चात् माँ के दर्शन के लिए पंक्तिबद्ध हो गये ...
गतांक से आगे ५ पढ़े
कुछेक मिनटों में हम माँ तारा के समक्ष थे। सामने जो भी दिखा मैं सुखद अचरज में पड़ गया। सामने वही पुजारिन के रूप में मौजूद थी। मुझे याद है धीऱे से मैंने पूजा की सामग्री बढ़ा दी थी , मेरी तरफ़ से माँ के चरणों में फूल चढ़ाना , संकल्प दिलवाना फिर चढ़ाया गया प्रसाद लौटना ....जैसे मैं कुछ भी नहीं भुला था।
कहते है शिमला के साथ लगती चोटी पर बिराजने वाली मां तारा का मंदिर हर किसी की मनोकामना को पूरी करती है। क्या मेरी भी सोची समझी मनोकामना कभी पूरी होगी ... यहीं कहीं पहाड़ों में पुनर्जन्म लेने...बस जाने ...और न जाने कितनी अनकही बातें ..
पूजा की रीत समाप्त कर लेने के बाद मैं पंक्ति से बाहर आ गया। सोचने लगा ..क्या नाम हो सकता उसका ? ...कहीं पूजा तो नहीं ...यदि उसका नाम पूजा हो सकता है तो मेरा नाम पुजारी भी हो सकता हैं ना ? केवल कल्पना ही मात्र तो थी अपनी। हैं ना ?
मैं किसी तन्द्रा में समा गया था , किसी सम्मोहन की दुनियाँ में ।
शिमला शहर से करीब ११ किलोमीटर की दूरी पर बनाया गया या यह मंदिर काफी पुराना है हर साल यहां लाखों लोग मां का आशीर्वाद लेने पहुंचते हैं। कहा जाता है २५० साल पहले मां तारा को पश्चिम बंगाल से शिमला लाया गया था सेन काल के एक शासक मां तारा की मूर्ति बंगाल से लाकर शिमला स्थापित की थी। जहां तक मंदिर बनाने की बात है शायद कोई नृप भूपेंद्र सेन ने इस मंदिर का निर्माण करवाया था।
ध्यान तो तब भंग हुआ जब मेरे साथी डॉ. राजेश पाठक मेरे पास आ कर कुछ कह रहें थे , '...गुरु तुम तो बड़े भाग्यशाली निकले ! ..देवी से पूजा करवा ली और सिद्ध हो गए..अपनी क़िस्मत में कहाँ ...। '
'...क्यों क्या हुआ... ? ' मैंने पूछा।
' ...समझों जन्म निरर्थक ही हो गया ,गुरु..। ...तुम्हारी पूजा तो पुजारिन ने करवाई ..मेरी पूजा के समय न जाने कहां चली गयी ...? ...अपनी सिद्धि तो किसी ब्राह्मण देवता ने करवाई...। '
वह बोले जा रहें थे और मैं कहीं और किसी की कल्पना में खोया हुआ था। ...शायद तुम ही थी न ..
फिर से नीचे गलियारें की तरफ़ बढ़ने ...तुम्हें खोजने ...थोड़ा कुछ भी तुम्हारे बारे में जान लेने मात्र की कोशिश भी नाकामयाब रही। तुम ढूंढने से भी दोबारा न मिली। जानकारी अधूरी ही रह गयी।
हम लौटने के लिए ढ़लान पर थे। जंगल के रास्तें ही वापिस लौट रहें थे। अनुत्तरित प्रश्न बना ही रहा था ...वो कौन थी ..? कोई पुजारन .. या शायद मेरे लिए अवतरित कोई इष्ट देवी ...या कहें मेरी पथ प्रदर्शिका .. मेरे फ़लसफ़ा मेरी जिंदगी की सार...न जाने क्या क्या ?
हम नीचे चढ़ाई तो उतर रहे थे ...लेकिन जैसे सब कुछ पीछे छूट गया था।
गतांक से आगे ६ पढ़े अंतिम क़िस्त
दस साल बीत गए थे। वर्ष २००९ में हम पुनः शिमला आए थे। इस बार मेरे साथ एकदम से नए युवा लोग थे। तारा देवी स्टेशन से गुजरते हुए जैसे सब कुछ याद आने लगा था । जैसे किसी की तलाश मुझे फिर से मंदिर आने के लिए अभिप्रेरित कर रही थी। दस साल तो एक अरसा होता हैं न ? मुझे फिर से मंदिर आने के लिए आमंत्रित कर रही थी ...वो कौन थी की पहेली अभी तक नहीं सुलझी थी। सिर्फ़ आँखों में उसकी धुंधली तस्वीर ही तो शेष थी न । मिलेंगे भी तो कैसे पहचानेंगे ? क्या कहेंगे ?
लेकिन अब लेखक पत्रकार होने के नाते हिम्मत थोड़ी ज्यादा हो गयी थी। अब हम फिर से तलाश जारी कर सकते थे। ...फिर भी यह अंधेरें में तीर मारने जैसा ही था।
तय किया एक बार फिर से तारा देवी मंदिर जाएंगे। लेकिन सड़क मार्ग से। हम सभी बस से तारा देवी के लिए रवाना हो गए थे। कई तीखे मोड़ से बस गुजरते हुए ऊंचाई की ओर जा रही थी।
पार्श्व में बैठा हुआ स्थानीय अपने साथ आए हुए मेहमान को बतला रहा था , शायद तारा देवी मंदिर का इतिहास ही बतला रहा था ' ... ऐसा माना जाता है कि एक बार भूपेंद्र सिंह तारा देवी के घने जंगलों में शिकार खेलने गए थे। इसी दौरान उन्हें मां तारा और भगवान हनुमान के दर्शन हुए माता रानी ने इच्छा जताई कि वह इस स्थल में बसना चाहती है ताकि भक्त यहां आकर आसानी से उनके दर्शन कर सकें। कहते है इसके बाद राजा ने यह मंदिर बनवाना शुरू किया ,राजा ने अपनी जमीन का एक बड़ा हिस्सा मंदिर जाने के लिए दान कर दिया। कुछ समय बाद मंदिर का काम भी पूरा हो गया और मां की मूर्ति भी स्थापित कर दी गई। इसके बाद कई शासक हुए भी जिन्होंने मां के दर्शन किए जिनके प्रयास से बाद में माँ की अष्टधातु की मूर्ति भी स्थापित कर दी गयी ....।
मंदिर पहुंचने पर लगा वहां सब कुछ बदल गया था। मंदिर के स्थापत्य में भी काफ़ी कुछ बदलाव आ गया था। एकदम से नया दिख रहा था। समतल जगहें बढ़ा दी गयी थी। दूसरी तरफ़ घने जंगल तो दिख रहें थे जिस ओर से हम आये थे न ? जबकि साथ में हम लोगों ने शिव की बाबड़ी भी देखी लेकिन तुम कहीं नहीं दिखी ? दिखती भी तो मैं कैसे पहचान लेता ? परिवर्तन तो तुमने भी देखा होगा न ?
परिसर में सिर्फ़ पुजारी ही दिखे। मैंने एक से पूछा , ' बाबा , यहाँ कोई महिला पुजारिन थी ..जो पूजा करवाती थी।
'...नहीं तो ...', सीधा जबाव था ' पूजा तो हमलोग ही करवाते है ...
'...बाबा याद कीजिए दस साल पहले कोई तो होगी जो पूजा का विधि विधान करवाती होगी। '
'..अरे नहीं बेटा ! तुम्हारा भ्रम है ....हा ... हो सकता है , मुख्य पंडित जी किसी काम के लिए गए होंगे तब उनके काम में सहयोग करने वाली उनकी बेटी ने कार्य संपन्न करवाया होगा ..अन्यथा पूजा की विधि तो हम ब्राह्मण लोग ही करते है।
ऐसा ही हो सकता था न ? उनके ऐसा कहते ही जैसे डूब गयी आशा की किरण। पहाड़ों का आँगन कई सदियों से फिर से सूना ही रह गया।
मैं थक हार कर एक प्रस्तर पर बैठ गया। बहुतों से जानकारियां इकठ्ठी की। कई लोगों से पूछा मगर तलाश अधूरी ही रह गयी आख़िर वो कौन थी । बगल में ही कोई पहाड़ी दिखने वाला दिव्य बड़ा प्यारा सा गोरा बच्चा खेल रहा था। मैं उससे यू ही बातें करने लगा।
तभी अपने बच्चें को खोजती हुई उसकी माँ भी वहां आ गयी। अत्यंत ख़ूबसूरत दिखने वाली महिला थी वह दिव्य ,गोरी चिट्टी सी । मैंने पूछा , ..बच्चा ..आपका है ? '
' ...जी मैं इसे ख़ोज रहीं थी ...'
...बड़ा प्यारा बच्चा है। ..आप कहाँ से है मतलब कहाँ से आयी हैं आप ...? मैंने धीरे से पूछा
...यहीं शिमले की हूँ ....मंदिर दर्शन के लिए आयी हूं ..' कहते हुए बच्चें को गोद में लिए वह सीढियाँ उतरने लगी ...
...सुनिए ....आपका .. नाम ....क्या है ...? जैसे मैं कह पाता और वह सुन पाती तब तलक वह दूर जा चुकी थी।
...धीरे धीरे वह भी पगडंडियों से उतरते हुए ओझल हो गयी थी पहले की तरह ही ।
न जाने क्यों ऐसा बार बार लग रहा था कहीं कहीं ये वो तो नहीं। वो तुम तो नहीं थी तो कौन थी । तुम्हारी तलाश में हर ख़ूबसूरत दिखने वाला चेहरें में सिर्फ तुम ही क्यों दिख रहीं थी ? न जाने ऐसा क्यों लग रहा था जैसे फिर कोई मिल कर फिर से जुदा हो गया ... गुम हो गया हमेशा के लिए
मन में अनगिनत शंकाएं थी ... कहीं ये वो तो नहीं ...
डॉ. मधुप रमण
इति
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गद्य संग्रह पृष्ठ ७ / २. किरौली यात्रा संस्मरण
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बेरीनाग की सुनहरी वादियों के बीच मेरा छोटा सा गांव किरौली.
पिथौरागढ़ की अनभूली मधुर यादें.
बेरीनाग की सुनहरी वादियों के बीच छिपा हुआ मेरा छोटा सा गांव किरौली ,मेरे लिए मेरे पूरे बचपन का पर्यायवाची है। पापा सी बनने की होड़ में अपनी दादी को मैं आमा नहीं बल्कि ईजा कह कर पुकारती हूँ बिल्कुल अपने पापा की तरह।
हर साल की तरह शीत ऋतु का इंतजार खत्म होते ही शीतकालीन अवकाश से मन प्रफुल्लित हो उठता मानो सदियों से इंतजार हो रहा हो ईजा से मिलने ,अपने गाँव जाने का।
सुबह चार बजे की कड़ाके की ठंड में बस का इंतजार और मेरा ढेरों कॉमिक किताबों का चयन करना मेरी सबसे प्यारी यादों में से एक है।
कभी कभी पहाड़ों, पेड़ों, सड़क के तीव्र मोड़ और बलखाती कोसी नदी का चित्र बनाने को व्याकुल मेरी नटराज पेंसिल मेरी तरह ही स्टॉप का इंतजार करती और कभी कभी तो मेरी कोरे कागज वाली कॉपी उन कॉमिक किताबों की जगह ले लिया करती थी।
शहर की धुंध को भुलाने में असमर्थ मैं, और मुझे अपने आगोश में डुबोती महकती हवाएँ खिड़की से बाहर कोहरे की चादर ओढ़े पर्वत सृंखलाओं को एकटुक देखने को बार बार विवश करती।
इन सभी के बीच खैरना ( गरमपानी ) का अद्भुत दृश्य देखने मिलता,जहां ओस की बूंदों से ढ़के हुए आड़ू, खुमानी, पुलम और काफल सूर्य की किरण पढ़ते ही ऐसे चमक उठते जैसे सुनहरी पॉलिश से चमकाए गए हों।
खैर इत्मिनान से ठंडे वातावरण का लुफ्त उठाती मैं फिर इंतज़ार करती करीबन इग्यारह बजे के धौलछीना के गरमागरम आलू के पराठे एवं मसालेदार चने और साथ में राई की महक से लबालब रायता, जिसे मात्र सोच कर ही मुँह में पानी आने लगता है।
बेरीनाग चाय के सुंदर बागान : करीबन दो बजे बेरीनाग में चाय के सुंदर बागानों के बीच टेड़ी-मेड़ी सड़क का सफर अविस्मरणीय होता।
वहीं फिर उड़ियारी बैंड से मात्र तीन किमी का किरौली तक का सफर सबसे लंबा लगता।
'..... पापा और कितना दूर है ......? ' यही सवाल बार बार करती
और ...' बस पहुँचने ही वाले हैं ...' इतना सुनते ही उत्सुकता से मैं हर मोड़ में सीट में खड़े हो जाया करती।
चौकोड़ी को यहीं से सड़क कटती है, जो कि एक बहुत सुंदर पर्यटक स्थल है। हिमालय श्रृंखलाओं का अत्यंत सुंदर नज़ारा मन प्रफुल्लित कर देता है। यहीं चौकोड़ी की तलहटी पर बसा है मेरा सुंदर गाँव जहां चारों ओर देवताओं का वास और बीच में ' किरौली '। इस भूमि को ' नाग-भूमि ' भी कहते हैं, पिगलीनाग देवता यहां के ईष्ट देव हैं।
गतांक से आगे १
फोटो : मानस
यहां का इतिहास भी काफ़ी पुराना है,जिसकी वंशावली शाके १५१५ सन १५९४ में ताम्रपत्र में लिखी है,जब मनिकोटी राजा आनन्द चंद ने किरौली गाँव जागीर में दिया था। कहा जाता है कि किरौली के पन्त महाराष्ट्र से यहां आकर बस गए थे। आखिरकार ज़मीन में पाँव पड़ते ही नौ घण्टे के सफर की थकान अचानक खत्म हो जाया करती।
यहीं रोड़ के किनारे पत्थर पर बैठी दोपहर से हमारा इंतजार करती ईजा का आशीष पाते, और ' जी रैये,जग रैये,भल हरैये ' के साथ बड़ी सी मुस्कान लिए हम करीबन चार-पांच झोलों के साथ दस-पन्द्रह मिनट की खड़ी चढ़ाई चढ़ कर घर की ओर जाने लगते।
सबसे सौभाग्य की बात ये की हमारा घर सबसे आखिरी में पड़ता और रास्ता लगभग सभी बिरादरों के आँगन से होकर निकलता । शास्त्री जी के आँगन में पानी का नल टपकता देख थोड़ी निराशा हो जाती की शायद अब जाते ही नौले का ठंडा पानी लाने का मौक़ा नहीं मिलेगा। सपरिवार गगरी भर भर के नौले से पानी लाना सबसे यादगार क्षण था।
वहीं फिर प्रकाश ताऊजी के घर से गुजरते चाय पानी पी लिया करते, वे लोग भी कुशल स्वरूप पापा मम्मी से पूछते, ' नान-तीन ठीक छैना, हलदवाणि में मौसम कस हैरो ? ( बच्चे ठीक-ठाक हैं, हल्द्वानी में मौसम कैसा हो रहा है? )
उनकी ये आत्मीयता दिल को छू जाती। हम सभी का आशीष लेते हुए घर की ओर प्रस्थान करते। बाँज के जंगलों से घिरा हुआ किरौली अत्यंत सुंदर है।
मेरा सुंदर गाँव किरौली : हर जगह नींबू,माल्टा,संतरा एवं काफ़ल के पेड़ देखने को मिलते। फूलों से भरे हुए खेत, पेड़ों में लबालब माल्टे एवं संतरे, कहीं कहीं तो लाल चमकते हुए पुलम मन को भा जाते।
वहीं दूर से दिखता हमारा छोटा सा घर, वही पत्थर की छत पर एंटीना नज़र आता, नीली खिड़की सफेद चूने की शोभा बढ़ाती हुई, सामने गाय के गोबर से लीपा हुआ सुगंधित आँगन, पीछे से गुहार लगाते गाय - बछिया ।
थके हुए हम खाट पर आराम से बैठते, और ईजा रसोईघर से गरमा-गर्म भट्ट के डुबके, झोली, राम-करेला, गिट्टी की सब्जी, और भात (चावल ) परोस कर लाती।
कोडग्याडी या कोकिला मैया : यहां से लगभग २० किमी दूर पांखू गांव में प्रसिद्ध भगवती मंदिर है, जिसे कोडग्याडी या कोकिला मैया के नाम से भी जाना जाता है, मां भगवती न्याय की देवी हैं,और देश विदेश से भक्त अपनी फरियाद लेकर यहाँ आते हैं ।
पूरे एक सप्ताह का ये सफर अलग ही उत्साह से भर देता है। सामूहिक भोज, कभी भंडारा, या कभी शादी-व्याह के बहाने सभी एकत्रित होकर मिलते, यूँ आधुनिकता की दौड़ में गाँव से पलायन होने के कारण गाँव की दशा तो बदल रही है,पर गांव के प्रति स्नेह भाव ना ही कभी किसी शहर की जगह ले पाया है,और ना ही कभी ले पाएगा। सबसे सुंदर सबसे मनोहर और सबसे अनूठा मेरा गांव मेरी यादों में यूं हमेशा ही आत्मसात रहेगा और ये सुनने के बाद शायद आपके भी।
मानसी पंत.
नैनीताल.
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गद्य संग्रह. पृष्ठ ७ / ३ .यात्रा संस्मरण. झारखण्ड पढ़े.
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यात्रा : वर्तमान से विगत की.
दलमा पहाड़ की तराई में बसा यह एक छोटा सा गांव . माचाबेड़ा. संथाल विद्रोह.
आज जवाद ( झारखंड, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा में आया तूफान ) ने जाड़े की गुनगुनी धूप को अपनी कैद में छुपा रखा था। अठखेली करते मेघ अपना साम्राज्य पूरे आकाश पर स्थापित कर इठला रहे थे, मुलायम हवा के साथ कदम खेतों की पगडंडियों से होते हुए एक संथाल गांव की ओर बढ़ रहे थे जो हमेशा से ही, उस स्थान पर जब भी हुई, आकर्षण का केंद्र बिंदु था। रास्ता अनजाना था परंतु पता था कि घूम- फिर कर अपनी मंजिल तक हम पहुंच ही जाएंगे। हम मतलब मैं और मेरे साथ दो सहकर्मी और।
रास्ते में खेतों में धान की फसल पटी हुए मिली , कहीं बंडल बांधे जा रहे थे, कहीं बंडल बांध कर उठा भी लिए गए थे, वैसे खेतों में केवल ठूठ दिख रहा था, जहां पहले फसल कट गई होगी, वहां उन ठूठों में नवकोपल भी फूट रहे थें। कभी-कभी छोटी सी चीज वृहत संदेश परोस देती है-प्रकृति की गर्भ में जीवन हमेशा पलता है,धरती ने उपकार- प्रत्युकार की भावना से ऊपर उठकर केवल और केवल देयता में विश्वास किया है, अगाध विश्वास। इस जीवन सीख में, सार्थकतापूर्ण जीवन के इस पाठ में, मां का कैसा महतम संदेश है।
छोटा सा गांव - माचाबेड़ा : रास्ते में ग्रामीण, जो संथाल आदिवासी समुदाय से हैं, अपने धान की व्यवस्था में लगे दिखें, कुछ तत्परता जवाद के उग्र रूप की संभावना को लेकर भी अवश्य होगी। ज्यादा देर की मंजिल न थी वह, दलमा पहाड़ की तराई में बसा यह एक छोटा सा गांव - माचाबेड़ा - बस पहाड़ की ढलान खत्म होती है, उसके बगल से एक कच्ची सड़क गुजरती है-और उस सड़क के किनारे -किनारे १५ - २० घर मिट्टी और पत्थर से मिलकर बने हुए, जिनकी छत पर या तो खप्पड़ की ढलान थी या एस्बेस्टस अथवा फूस की। इस तरह की लिपाई मानो प्लास्टर ऑफ पेरिस से लीपा गया हो।
घरों की बाहरी दीवार रंगों से सुसज्जित और तरह-तरह की कलाकृतियों से भी। एक घर के बाहर एक विशिष्ट भाषा में लिखा हुआ कुछ मिला, गृहस्वामी से पूछने पर पता चला कि यह ओलचिकी भाषा में लिखा हुआ है,----- ᱴᱩᱰᱩ ᱵᱟᱠᱦᱩᱞ , अर्थ पूछा तो बताया गया- टुडू बाकुल, टुडू गृहस्वामी का सरनेम और बाकुल का मतलब घर - पूर्ण अर्थ ग्राह हुआ - टूडु जी का घर । लिपि विन्यास पर तो आश्चर्यचकित थी ही, अर्थ जानकर मुस्कान होठों पर फैली।
गतांक से आगे १ .
फोटो इंटरनेट से साभार. |
दलमा उनका राजकीय अभयारण्य : सुरम्य वातावरण, जंगल के बिल्कुल पास, पूछने पर पता चला कभी-कभार केवल इक्का-दुक्का बार ही हाथी इधर की ओर आए हैं, हाथी -झारखंड का राजकीय पशु, दलमा उनका राजकीय अभयारण्य, जैसे-जैसे हम उनके निवास स्थान का अतिक्रमण कर रहे हैं, वे भी मानव बस्तियों की ओर बढ़कर यदा-कदा उत्पात मचा जाते हैं, मानो स्थिति बर्दाश्त से जब- जब बाहर दिखती होगी , अपने रोबीले अंदाज में सबक सिखाने की बात कह कर चले जाते हैं।
जन से अधिक ढोर भी दृष्टिगत होते रहें, खेतों के अलावा पशुधन जनजातीय जीवन प्रणाली का प्रमुख आधार है-मिश्रित खेती-खेती के साथ पशुपालन। कई बार स्कूली छात्र-छात्राएं भी केवल इसलिए विद्यालय में अनुपस्थित होते हैं कि उन्हें घर में किसी और के न होने पर पशुओं को जंगलों में लेकर चराने के लिए जाना होता है।
जीवन शैली आज भी इतनी शुद्ध है -जो प्राय: भोर के ४ - ५ बजे से प्रारंभ होकर रात के ७ - ८ बजे तक सिमट आती है, नियमित समय पर भोजन ग्रहण कर लिया जाता है, पांव हमेशा मिट्टी,ओस के संपर्क में रहते हैं, हवा की शुद्धता ऐसी कि दिल्ली जैसे शहरों की कल्पना से भी बाहर, अपने विगत चार साल के अनुभव में मैंने आज तक किसी ग्रामीण की आंखों पर चश्मा चढ़ा नहीं देखा, आज तक किसी भी ग्रामीण छात्र की नेत्रदृष्टि जांच के क्रम में कभी भी चिकित्सा की मोहताज नहीं दिखी।
मैंने जितने दिन भी इस १२ किलोमीटर की सड़क की यात्रा की है, दोनों और बसे गांव में आज तक इन ४
सालों में केवल तीन व्यक्ति ही मुझे दिखे जिनके शरीर में मैं चर्बी की अधिकता कह सकती थी। प्रतिदिन के जीवन की प्रकृति से ऐसी तारतम्यता है जो हमारे लिए अकल्पनीय भी है और दुरूह भी। बाजारवाद की परिकल्पना से दूर ,जीवन निर्वाह के कौशल के बहुत करीब। आसपास जो उपलब्ध है उसी से जीवन नैया खेही जा रही है। सामने हरे-भरे वृक्षों को अपने सीने पर उगाए उच्च स्थली आमंत्रित कर रही थी, बच्चों के संग पथरीले रास्ते पर चढ़ाई के आकर्षण ने अपनी ओर खींच ही लिया। पता चला इस पहाड़ के पीछे भी एक और पहाड़ है, लगता था अब पहुंचे ,तब पहुंचे, परंतु जल्दी ही समझ में आ गया कि यह तो मृग मरीचिका से कम नहीं।
कुछ शारीरिक सीमाएं और कुछ समय की सीमा-दोनों ने नीचे की ओर लौटने के लिए विवश किया। चढ़ना जितना दुष्कर, उतरना भी उससे कम चुनौतीपूर्ण नहीं - संतुलन बिगड़ा तो फिसलकर चोटिल होने का पूरा खतरा, बगल की तेज ढलान पर अगर गिरे तो परिणाम में क्या-क्या सामने आना था पता नहीं। कष्ट चाहे जो हो प्रकृति के सानिध्य का आनंद हमेशा उच्च परिमाप में होता है।
दलमा हिल्स : फोटो इंटरनेट से साभार.
दलमा - जैसे स्थितप्रज्ञ कोई, दूर से कितना कठोर दिखता है पर समीप से जीवन को अपने सीने पर उगाए हुए, संघर्ष को निमंत्रण देता हुआ, आत्मीयता रखने वालों को कठोरता में भी राह बनाने का संबल देता हुआ। विद्यालय में जितने भी बच्चों से संवाद हुआ, सबने कहा वे छुट्टियों के दिन जलावन की लकड़ियां लाने इन पहाड़ों पर जाते हैं, बस कल्पना ही किया मैंने-सिर पर लकड़ी का बोझा और संतुलन स्थापित करते हुए अवरोहित कदम। संघर्ष कितना कठोर है।
गतांक से आगे २ . इतिहास की ओर.
गांव में एक प्राथमिक विद्यालय था, था इसलिए क्योंकि पूर्ववर्ती राज्य सरकार ने अपने एक फैसले में, उन सभी विद्यालयों को बंद कर निकट के एक बड़े विद्यालय में विलीन कर दिया जहां छात्रों की संख्या २० या ३० से कम थी। किसी समय झारखंड के राजनीतिक तापमान को बढ़ाने में यह मुद्दा बड़ा ही सहायक रहा है। मैं जब भी इन बंद भवनों को देखती हूं, विवेक एक ही प्रश्न करता है क्या इन सरकारी भवनों का कोई अन्य बेहतर उपयोग नहीं हो सकता ? ये बंद पड़े भवन करदाताओं की श्रमराशि के दुरुपयोग की मौन गाथा कहते हैं ।
कंपनी के योगदान : गांव में टाटा आयरन एंड स्टील कंपनी के ग्रामीण विकास विभाग द्वारा स्थापित जल संयंत्र दिखा, तो पेयजल एवं स्वच्छता विभाग द्वारा सोलर प्लेट से संचालित होने वाला एक जल वितरण केंद्र भी । जमशेदपुर के शहरी क्षेत्र में टाटा आयरन स्टील कंपनी के योगदान को शब्दों में नहीं बांधा जा सकता तो ग्रामीण क्षेत्रों में भी जगह_ जगह पर उनके कल्याणकारी कार्यक्रमों की उपस्थिति दिख ही जाती है।
गांव में कैनाल भी है, चावल की खेती झारखंड में प्रमुखता से होती है, इसलिए सिंचाई के लिए भी जाल बिछा हुआ है कैनल का। खेती के समय हर जगह पानी इनमें सतत प्रवाहित होता है।
सादगी, संतुष्टि, परंपराएं, सामाजिकता , प्रकृति के साथ लयबद्धता-बस ऐसे ही कुछ सुरताल है इस संथाल जनजाति के।
संथाल जनजाति भारत का सबसे बड़ा आदिवासी समुदाय है जो मुख्य रूप से झारखंड ,पश्चिम बंगाल, मध्य प्रदेश ,उड़ीसा और असम राज्य में रहते हैं ,जो आमतौर पर जंगलों और नदियों के करीब केंद्रित बस्तियों में रहना पसंद करते हैं।
दामिनी को : संथाल परगना ( झारखंड ) का पूर्ववर्ती नाम ‘ दामिनी को ’ था यह नाम ब्रिटिश शासकों ने दिया था। ‘ दामिनी को ’ क्षेत्र पहले बीहड़ जंगल था। अंग्रेज शासक जंगल की कटाई कर खेती लायक जमीन बनाने के लिए आसपास के क्षेत्र के संथाल आदिवासियों को मजदूरी करने के लिए प्रलोभन देकर लाए थे। संथाल आदिवासियों ने पहले अंग्रेजी हुकूमत के आदेशानुसार जंगल-झाड़ साफ किया और खेती लायक जमीन बनाई। उस जमीन पर जब संथालों ने खेती करनी शुरू की तो ‘दिकू महाजन’ लगान वसूलने लगे। इसके साथ ही ब्रिटिश पुलिस संथालों पर अत्याचार व शोषण करने लगी। जब संथालों पर ब्रिटिशों के हुकूमत ,शोषण ,जुल्म ,अन्याय, अत्याचार की अति हो गई, तब संथालों को विद्रोह के लिए विवश होना पड़ा।
अंग्रेजों भारत छोड़ो : उस समय दुमका ( झारखंड ) स्थित बरहेट प्रखंड के अंतर्गत भोगनाडीह गांव में चुन्नू मुर्मू की छह संतान, जिनमें चार लड़के और दो लड़कियां थीं - सिद्धू
सिद्धू मुर्मू, कान्हू मुरमू |
संथाल विद्रोह ही वास्तव में भारत के स्वतंत्रता संग्राम की मूल पृष्ठभूमि थी : भोगनाडीह गांव में ३० जून को करीब ३०,००० संथाल जुटे थे। इतिहासकारों का मानना है कि ३० जून १८५५ से १८५६ तक करीब एक साल तक महायुद्ध हुआ था। उस लड़ाई में अंग्रेज सिपाहियों के हाथों करीब १०,००० संथाल शहीद हुए थे। कहा जाता है कि सिद्धू मुर्मू और कान्हू मुर्मू को अलग-अलग जगह फांसी दी गई थी, जबकि चांद मुर्मू, भैरव मुर्मू और दोनों बहन फूलो मुर्मू व झानो मुर्मू लड़ाई में शहीद हुई थीं। भारतीय इतिहासकारों ने भले ही १८५७ में सिपाही विद्रोह को ही भारत के स्वतंत्रता संग्राम की पृष्ठभूमि माना है, लेकिन वास्तव में अगर इतिहास की तह तक जाया जाए तो पता चलेगा कि संथाल विद्रोह ही वास्तव में भारत के स्वतंत्रता संग्राम की मूल पृष्ठभूमि थी। संथाल विद्रोह के परिणाम स्वरूप ‘ दामिन-ई-को ’ का नाम संथाल परगना में परिणत हुआ। संथाल आदिवासियों की , त्याग और बलिदान बेकार नहीं गई, उनके विद्रोह से संथाल परगना काश्तकारी अधिनियम - १९४९ बना। इसके तहत आदिवासियों की जल, जंगल, जमीन आज भी सुरक्षित है। ३० जून को ‘ संथाल हूल ’ के नाम से न सिर्फ झारखंड, बल्कि उड़िशा, बंगाल, बिहार, असम के अलावा देश-विदेश में भी ' हूल दिवस ' मनाया जाता है। भारत सरकार ने २२ दिसंबर , २००३ को संथाली भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में स्वीकृति प्रदान की । भारत सरकार ने सिद्धू मुर्मू- कान्हू मुर्मू के नाम से डाक टिकट भी जारी किया है। झारखंड सरकार ने ३० जून को हूल दिवस के नाम से सरकारी छुट्टी भी स्वीकृत की है। आज की तारीख में संथाल विद्रोह यानी संथाल हूल के इतिहास को पुनर्मूल्यांकन की जरूरत है।
रीता रानी ,
लेखिका . जमशेदपुर.
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गद्य संग्रह. पृष्ठ ७ / ४. क्रिसमस विशेष .नैनीताल.
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डॉ.नवीन जोशी.
सेंट जॉन्स इन द विल्डरनेस : ‘ जंगल के बीच ईश्वर का घर. ’
नैनीताल का सबसे पुराना चर्च.
सेंट जॉन्स इन द विल्डरनेस चर्च नैनीताल का सबसे पुराना सूखाताल क्षेत्र में स्थित चर्च है। १८४१ में नैनीताल में बसासत से शुरू होते ही नगर में अंग्रेजों के पूजास्थल के रूप में इस चर्च की स्थापना के प्रयास प्रारंभ हो गए थे। इस हेतु कुमाऊं के वरिष्ठ सहायक कमिश्नर जॉन हैलिट बैटन ने चर्च बनाने के लिए सूखाताल के पास इस स्थान को चुना। मार्च १८४४ में कोलकाता के बिशप डेनियल विल्सन एक पादरी के साथ नैनीताल आए। विशप को चर्च के लिए चुनी गई इस जगह पर ले जाया गया तो उन्हें पहली नजर में यह जगह इतनी पसंद आ गई कि उन्हें यह जगह जन्नत जैसी लगी, इसलिए बिशप ने इस चर्च को नाम दिया ‘ सेंट जॉन इन द विल्डरनेस , यानी ‘ जंगल के बीच ईश्वर का घर ’।
कुमाऊं के तत्कालीन कमिश्नर जीटी लूसिंगटन के आदेश पर अधिशासी अभियंता कैप्टन यंग ने चर्च की इमारत का नक्शा बनाया। अक्टूबर १८४६ में चर्च का नक्शा पास हुआ और विशप के कार्यकाल के १३ वर्ष पूरे होने के मौके पर १३ अक्टूबर १८४६ को चर्च की इमारत का शिलान्यास हुआ।
सेंट जॉन इन द विल्डरनेस : फोटो नवीन जोशी |
चर्च के शिलान्यास की पूरी कहानी एक कांच की बोतल में लिखकर बोतल को इमारत की बुनियाद में रख दिया गया। आगे चर्च की इमारत तो दिसंबर १८५६ में बन कर तैयार हुई, परंतु इससे पहले ही २ अप्रैल १८४८ को निर्माणाधीन चर्च को पहले ही प्रार्थना के लिए खोल दिया गया। चर्च के निर्माण में १५ हजार रुपए खर्च हुए। यह धनराशि १८०७ में चंदे के रूप में जुटाई गई वहां मौजूद कमरों के किराए से जुटाई गई। चंदे से जुटाए गए ३६० रुपए से रुड़की के कैनाल फाउंड्री से चर्च के लिए पीतल का घंटा भी बनवाया गया, जिसमें लिखा गया- एक आवाज - शून्य में चिल्लाना।
१८ सितंबर १८८० को नैनीताल में हुए प्रलयंकारी भूस्खलन में ४३ यूरोपियन सहित १५१ लोग मारे गए। इनमें से कुछ को चर्च में लगे कब्रिस्तान में दफनाया गया और इस भूस्खलन में मौत के मुंह में समा गए यूरोपियन नागरिकों की याद में चर्च मे एक पीतल की पट्टी पर सभी यूरोपियन मृतकों के नामों का उल्लेख किया गया, जिसे आज भी यहां देखा जा सकता है।
क्रिसमस विशेष .आलेख .नैनीताल
नैनीताल में है अमेरिकी मिशनरियों द्वारा बनाया गया एशिया का पहला मैथोडिस्ट चर्च.
नैनीताल माल रोड का मैथोडिस्ट चर्च : फोटो डॉ नवीन जोशी
सर्वधर्म की नगरी नैनीताल : सरोवरनगरी को सर्वधर्म की नगरी भी कहा जाता है। यहां मल्लीताल स्थित ऐतिहासिक फ्लैट्स मैदान के चारों ओर सभी धर्मों के धार्मिक स्थल एक तरह से एक-दूसरे की बांहें थामे साम्प्रदायिक सौहार्द का संदेश दिखाई देते हैं। यह स्थल हैं नगर की आराध्य देवी माता नयना का मंदिर, गुरुद्वारा गुरु सिंह सभा, जामा मस्जिद, आर्य समाज मंदिर और मैथोडिस्ट चर्च।
मैथोडिस्ट चर्च : इनमें खास है मैथोडिस्ट चर्च, जिसके बारे में बाहर के कम ही लोग जानते होंगे कि देश-प्रदेश के इस छोटे से पर्वतीय नगर में देश ही नहीं एशिया का पहला अमेरिकी मिशनरियों द्वारा निर्मित मैथोडिस्ट चर्च स्थित है। नगर के मल्लीताल में बोट हाउस क्लब के पास माल रोड स्थित मैथोडिस्ट चर्च को यह गौरव हासिल है। इस चर्च की स्थापना और इसके अमेरिकी मिशनरियों द्वारा एशिया में सबसे पहले स्थापित किए जाने की कहानी भी बड़ी रोचक है।
यह वह दौर था जब देश में १८५७ के पहले स्वाधीनता संग्राम की क्रांति हो रही थी। मेरठ अमर सेनानी मंगल पांडे के नेतृत्व में इस क्रांति का अगुवा था, जबकि समूचे रुहेलखंड क्षेत्र में रुहेले सरदार अंग्रेजों के खिलाफ एकजुट हो रहे थे।
इसी दौर में बरेली में शिक्षा के उन्नयन के उद्देश्य से अमेरिकी मिशनरी रेवरन बटलर पहुंचे। कहा जाता है कि रुहेले सरदारों ने उन्हें भी देश पर राज करने की नीयत से आए अंग्रेज समझकर उनके परिवार पर जुल्म ढाने शुरू किये। इससे बचकर बटलर अपनी पत्नी क्लेमेंटीना बटलर के साथ १८४१ से शहर के रूप में विकसित होना प्रारंभ हो रहे नैनीताल आ गये।
और यहां उन्होंने शिक्षा के प्रसार के लिये १८५८ में नगर के पहले स्कूल के रूप में हम्फ्री कालेज ( वर्तमान सीआरएसटी स्कूल ) की स्थापना की, और इसके परिसर में ही बच्चों एवं स्कूल कर्मियों के लिये प्रार्थनाघर के रूप में चर्च की स्थापना की। तब तक अमेरिकी मिशनरी एशिया में कहीं और इस तरह चर्च की स्थापना नहीं कर पाऐ थे। इसलिए यह एशिया का पहला अमेरिकी मिशनरियों द्वारा स्थापित किया गया चर्च हो पाया।
The Mall Nainital : collage Vidisha |
चर्च का निर्माण अक्टूबर १८६० में पूर्ण हुआ। इसके साथ ही नैनीताल उस दौर में देश में ईसाई मिशनरियों के शिक्षा के प्रचार-प्रसार का प्रमुख केंद्र बन गया। अंग्रेजी लेखक जॉन एन शालिस्टर की १९५६ में लखनऊ से प्रकाशित पुस्तक ‘ द सेंचुरी ऑफ मैथोडिस्ट चर्च इन सदर्न एशिया ’ में भी नैनीताल के इस चर्च को एशिया का पहला चर्च कहा गया है। बताया जाता है कि रेवरन बटलर ने नैनीताल के बाद पहले यूपी के बदायूं तथा फिर बरेली में १८७० में चर्च की स्थापना की।
उनका बरेली स्थित आवास बटलर हाउस वर्तमान में बटलर प्लाजा के रूप में बड़ा बाजार बन चुका है, जबकि देरादून का क्लेमेंट टाउन क्षेत्र का नाम भी संभवतया उनकी पत्नी क्लेमेंटीना के नाम पर ही है।
डॉ.नवीन जोशी.
संपादक, नवीन समाचार.
नैनीताल.
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गद्य संग्रह. पृष्ठ ७ / ५. पूना का इस्कॉन टेंपल
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रवि शंकर शर्मा.
आस्था का केंद्र पूना का इस्कॉन टेंपल.
इन दिनों मैं पेशवा के शहर पूना में था। सोचा इस्कॉन टेंपल देख लेते है। इस्कॉन टेंपल की भव्यता और अध्यात्म सदैव से चर्चा का विषय रहा है। पूना के तारापोर रोड कैंप स्थित राधा कुंज बिहारी मंदिर यानी इस्कॉन टेंपल जहां आस्था का केंद्र है, वहीं मन की शांति भी प्रदान करता है। इसकी स्थापना आचार्य कृष्ण कृपा मूर्ति श्रीमद् एसी भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद ने की थी तथा २४ फरवरी २०१३ को तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने इसका उद्घाटन किया था।
फोटो : रवि शंकर शर्मा
मंदिर के कार्यक्रम भोर में ही शुरू हो जाते हैं। ५.१५ बजे मंगल आरती से लेकर तुलसी पूजा, फिर श्रृंगार दर्शन और गुरु पूजा। दोपहर १२.३० बजे भोग आरती होती है। इसके बाद शाम को ४.३० बजे पुष्प आरती और संध्या आरती के बाद रात्रि ८.५० बजे शयन दर्शन के बाद ९ बजे मंदिर के कपाट बंद हो जाते हैं। मंदिर के मुख्य हाॅल में जहां राधा-कृष्ण की मनोहारी मूर्तियां स्थापित हैं, वहां जमीन पर बैठकर भक्त
अपने प्रभु से एकाकार होकर अलौकिक शांति प्राप्त करते हैं। साथ ही राधा-राधा, कृष्ण-कृष्ण के भक्तिमय स्वर गूंजते रहते हैं, जिसमें वे अपने आप को आत्मसात कर लेते हैं। शहर के मध्य स्थित होने के बावजूद मंदिर कोलाहल से दूर है तथा भक्तों को आंतरिक और मानसिक शांति प्रदान करता है। सुबह और शाम लगातार बंटने वाला हलुवा और खिचड़ी भी विशेष आकर्षण है, क्योंकि यह प्रभु के प्रसाद के रूप में परिवर्तित होकर बेहद स्वादिष्ट हो जाते हैं।
इस्कॉन इंटरनेशनल सोसायटी फॉर कृष्णा जैसे लोकप्रिय रूप में हरे कृष्ण आंदोलन के प्रचारक रूप में जाना जाता है वित्तीय आध्यात्मिक धार्मिक समाज है जिसकी स्थापना जुलाई १९६६ में न्यूयॉर्क में भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद ने की थी इस कौन वैष्णव संप्रदाय के अंतर्गत आता है जो वैदिक संस्कृति के भीतर एक राष्ट्रवादी परंपरा का संरक्षक है आज इस्कॉन में ४०० से अधिक मंदिर ४० ग्रामीण समुदाय और १०० से अधिक शाकाहारी रेस्तरां शामिल है। यह दुनिया भर में विशेष योजनाएं संचालित करती है जिनमें दुनिया का एकमात्र मुफ्त शाकाहारी राहत कार्यक्रम भी शुमार है।
रवि शंकर शर्मा
हल्द्वानी.
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गद्य संग्रह. यात्रा संस्मरण . पृष्ठ ७ /६ . भानगढ़ ,राजस्थान का भूतिया किला
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डॉ. भावना.
डॉ. भावना |
मैं कई दिनों से राजस्थान की यात्रा पर थी। अभी मेरा ठहराव जयपुर में ही था। आज हमें भूतिया शहर भानगढ़ देखने जाना था। सुबह हो चुकी थी। धूप निकल कर निखर चुकी थी। हमारी गाड़ी पूरी रफ़्तार से अरावली पहाड़ी की तरफ़ जा रहीं थी। इस जाने सफ़र में हमारे साथ जयपुर स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया के अधिकारी अनुराग और अम्बालिका थी।
सुनते है अरावली की पहाड़ियां बहुत पुरानी है न ? हम जयपुर से ८० किलोमीटर दूर उत्तरी पूर्वी दिशा में अलवर जिले में अवस्थित भानगढ़ के रहस्यमयी क़िले की ओर जा रहें थे। हम समय के साथ थे और हम चाह रहे थे कि समय तू धीरे धीरे चल। क्योंकि हमें इतिहास जानना था ,कहानियों की उलझी गुत्थियां सुलझानी थी। क़िले का रहस्य खंगालना था। और हमें शाम ढलने से पूर्व ही समस्त किला ,शहर देख कर सुरक्षित वापस घर लौटना भी था।
क्योंकि हम भारत के सबसे अधिक अभिशापित जग़ह का भ्रमण करने वाले थे जहाँ शाम चार बजे के बाद भ्रमण करने की किसी को इजाज़त नहीं मिलती है, रातें सुरक्षित नहीं हैं । हमारे लिए चेतावनी थी कि यदि समय के पूर्व क़िले में प्रवेश नहीं कर पाए तो हमें भी निशांत एक परिचित पर्यटक की तरह वापस बिना देखे लौटना होगा।
भानगढ़ का किला भारत सरकार की देखरेख में आता है। किले के भीतर व चारों तरफ भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की टीम सदैव मौजूद और तत्पर रहती है जिससे सूर्यास्त के बाद किसी भी सैलानी को अंदर न रहने दे। अनहोनी की आशंका में किसी को भी यहां रुकने की मनाही होती है। सभी पर्यटकों को शाम से पहले परिसर से निकाल दिया जाता है।
कारण यह है कि यह स्थान भारत के सर्वाधिक चर्चित प्रेत बाधित स्थानों में से एक है मोस्ट हॉन्टेड प्लेस के तौर पर यह स्थान भारत में जाना जाता है।
अनसुलझे रहस्य, ऐतिहासिक कहानियां , वीरान पड़ा शहर , सूनी सडकें , किले की अद्भुत दीवारें , महल का सूना आंगन ,रहस्य की परतों में छिपे शांत , डरावने खंडहर, मंदिरें और कई सुनी अनसुनी कहानियां और किस्सें हम सभी को यू ही आकर्षित करती हैं। हमें भी बुला रहीं थीं। साथ ही इसके चारों तरफ से खेलने वाली पहाड़ियां इस स्थान को और भी नैसर्गिक सौंदर्य प्रदान करती है। लगभग ११ बजे के आस पास हम भानगढ़ क़िले के भीतर थे।
गतांक से आगे १ .
हमने चालीस रुपए मात्र की टिकट ली और हम सभी भीतर प्राचीन नगर में प्रवेश कर गए। विदेशियों के लिए यही टिकट की कीमत लगभग २०० रुपए की है। नगर शांत वीरान पड़ा था। इसका भग्नावशेष ही बतला रहा था कि इसे सुनियोजित तरीक़े से बसाया गया था। हमने इतिहास खंगाला और कई लिखी तख्तियां पढ़ी तो इतिहास की महत्वपूर्ण जानकारी मिली ।
भानगढ़ का इतिहास : भानगढ़ के प्राचीन नगर की स्थापना आमेर के शासक राजा भगवंत दास ने १६ वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में की थी जिसे बाद में राजा मान सिंह के भाई माधों सिंह की रियासत की राजधानी बना दिया गया। माधों सिंह मुगल सम्राट अकबर ( १५५६ - १६०५ ईस्वी ) के दरबार में दीवान के पद पर कार्यरत थे।
भानगढ़ के भग्नावशेष : भानगढ़ नगर के मुख्य अवशेषों में प्राचीर , द्वार ,बाजार ,हवेलियां ,मंदिर , शाही महल, छतरियां ,मकबरा आदि हैं जो अभी भी देखे जा सकते हैं।
मंदिर : मुख्य मंदिरों में उपलब्ध गोपीनाथ, सोमेश्वर, केशव राय , मंगला देवी प्रमुख मंदिर हैं जो उत्तर भारत में प्रयुक्त नागर शैली में बने हुए हैं। और गोपीनाथ तथा अन्य मंदिरों की दीवारों और खंभों पर बहुत ही खूबसूरत नक्काशी की गई है।
शाही महल : कहा जाता है कि यहाँ एक शाही महल भी था जो सात मंजिला था ,परंतु अब इसकी ४ मंजिलें ही शेष रह गयी हैं । शाही महल से नीचे का दृश्य दिखता है। जगह जगह पर्यटकों को आगाह करती तख्तियां भी लिखी दिखी जिसमें सख़्त मनाही की गयी थी कोई भी सूर्योदय व सूर्यास्त के बाद यहां रुकने की कोशिश न करें। आदेश की अवहेलना करने पर क़ानूनी कार्यवाही की जाएगी। यहाँ तक किसी प्रकार के मवेशियों का प्रवेश कराना भी वर्जित माना गया।
बाह्य सुरक्षा प्राचीर : पूरी बस्ती एक के बाद एक तीन सुरक्षा प्राचीरों से सुरक्षित की गई है। बाह्य सुरक्षा प्राचीर में प्रवेश हेतु ५ द्वार बने हुए हैं जिन्हें उत्तर से दक्षिण की ओर क्रमश: अजमेरी , लाहौरी , हनुमान ,फूलवारी तथा दिल्ली द्वार के नाम से जाना जाता है।
स्थानीय लोगों से बात करने पर कई कहानियां सामने आयी। उम्मीद की जाती है कि इस नगर को उजड़े हुए लगभग चार सौ साल हो गया होगा।
बैंक अधिकारी अनुराग जो इस यात्रा के साक्षी थे उनका कहना था कि उन्हें यहाँ कोई अनहोनी ऐसी बात नहीं लगी , न दिखी । प्राचीरों ,दीवारों, मंदिरों से गुजरते हुए हमें किसी भूत ,प्रेतात्मा ,चुड़ैल से भेंट नहीं हुई,...फिर हंसते हुए कहा कि काश कोई भूतनी मिल जाती ।
अम्बालिका कहती है, ' ...शायद जंगली जानवरों या फिर चोर उच्चकें की बजह से भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने पर्यटकों की सुरक्षार्थ ऐसी चेतावनी जारी कर रखी है। '
भानगढ़ बसने के ३०० सालों बाद तक यह नगर आबाद रहा मान्यता है कि एक तांत्रिक की बुरी
नीयत इस नगर के विनाश का कारण बनी , परंतु इतिहासकारों के अनुसार कुछ प्राकृतिक आपदा जैसे अकाल आदि भानगढ़ के उजड़ने का कारण थे।
गतांक से आगे २.
कहानियां पढ़ने और सुनने में तो बहुत रोमांचक लगती है लेकिन जरा सोचिए अगर ऐसी ही कुछ आप के साथ घटित होने लगे तो क्या आप उससे रोमांचित होंगे । डरेंगे नहीं क्या ? आखिर भानगढ़ के क़िले में ऐसा क्या हुआ था ? जिसमें ऐसी चेतावनी लिखी हुई मिलती है कि सूर्य उदय होने से पहले और सूर्यास्त के बाद कोई भी यहाँ नहीं रुकेगा और नहीं आएगा।
तो आखिर भानगढ़ में ऐसा क्या है जो वहां जाने से रोका जाता है। अगर कुछ है, तो उसके पीछे क्या कारण है ? हालांकि कोई भी पुख्ता तौर पर घटने वाली दुर्घटना का कारण नहीं बता पाया लेकिन स्थानीय लोगों के बीच कहानियां प्रचलित है जो साबित करती है कि यह जगह अभिशप्त हैं। तो कोई न कोई जरुर है इस दुर्घटना के पीछे। कोई तो है ?
लोगों का मानना है कि भानगढ़ में रत्नावती नाम की बहुत सुंदर राजकुमारी रहती थी जिस पर काला जादू करने वाले तांत्रिक की कुदृष्टि थी। तांत्रिक ने अपने जादू से राजकुमारी को वश में करके उसका शारीरिक शोषण करने की कोशिश की। लेकिन किसी दुर्घटना वश चलते उसकी मृत्यु हो जाती हैं। और उसकी उस क़िले में आत्मा भटकती रह जाती है। कहते है उस तांत्रिक की अकाल मौत थी , इसलिए उसकी आत्मा को मुक्ति नहीं मिली ,वह अभिशप्त हो कर प्रेत बाधा बन कर घूमता रहता हैं । उस तांत्रिक के दिए गए शाप के अनुसार उस स्थान में रहने वाले की किसी न किसी कारण वश मृत्यु हो जाती है। तथा उनकी आत्मा को मुक्ति नहीं मिलती है। इसलिए यह जगह रहने मात्र के लिए वर्जित है।
प्रचलित कहानी के अनुसार सिंधू सेबड़ा नाम का एक दुष्ट तांत्रिक महल के पास रहता था। महल के पास की निर्जन पहाड़ी पर एकांत तांत्रिक क्रियाएं व काला जादू किया करता था। वह रानी रत्नावती के रूप मोहित था,आसक्त था और उसे किसी भी तरह पाना चाहता था।
कहते हैं एक बार रानी की दासी महल से बाहर रानी के श्रृंगार के लिए तेल लेने गयी। सिंधु सेवड़ा ने तेल को अभिमंत्रित कर इसके जरिए रानी को अपने वश में करना चाहा। लेकिन रानी बहुत ही सिद्ध थी वह समझ गई थी उस दुष्ट तांत्रिक की मंशा क्या है ? कहा जाता है कि रानी ने दासी को उस तेल को शीघ्र ही फेंक देने के लिए कहा। तब दासी ने उस तेल को एक चट्टान पर फेंक दिया। उस अभिमंत्रित तेल ने चट्टान को उड़ा कर सिंधु सेवड़ा की ओर रवाना कर दिया और इधर तांत्रिक को वहम हो गया कि रानी उस चट्टान पर बैठ कर उससे मिलने आ रही हैं। उसने उस चट्टान को अपनी छाती पर उतरने की इच्छा ज़ाहिर की। लेकिन शीघ्र ही उसे दुर्घटना का भान हो गया और उसी चट्टान से दब कर तांत्रिक की मृत्यु हो गई।
भानगढ़ का अभिशप्त किला : चित्र नेट से साभार |
कहते हैं मरने से पहले उस तांत्रिक ने इस नगर को उजड़ने का शाप दे दिया। भानगढ़ की स्थिति आगे निरंतर खराब हो लेकिन इसके पहले रानी रत्नावती ने आम अवाम को उस नगर को खाली करने का आदेश दे दिया। कहते है यही वजह है कि भानगढ़ का किला अभिशप्त है और उजड़ा हुआ है आगे यह भी सच है कि उसके तांत्रिक के अभिशाप की रानी भी भेंट चढ़ गई।
सह लेखिका
डॉ. सुनीता सिन्हा.
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Page 8. Photo Gallery.
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photo : Dr. Sunita. Collage : Vidisha. |
Himalayan View from Kirauali, Pithoragarh . photo Manas
The most haunted Bhangarh Fort Remains Jaipur : photo Dr. Bhwana.
Nainital where, I have to take my rebirth : photo Dr. Sunita.
towards Kedarkhant Summit. photo Dr. Prashant.
a few steps to win the Kedarkhant top : photo Dr Prashant.
Shimla Ridge at Christmas Celebration 2021 : photo Archana. Shimla Christmas celebration in the USA : courtesy photo snowfall at Pandukholi , Almora : photo Abhimanyu. dawn at Almora village : photo Abhimanyu. witnessing first time the heavy snowfall in my life : photo Abhimanyu News Section. ---------------------------------- Page 9. Brief News Clippings / Photo / Around. --------------------------------- Aye Jate Hue Lamho Jara Thehro : Alvida 2021. Omicron's shadow over picnic spots in Rajgir. Closed for public gatherings from 31st to 2nd January. glass bridge Rajgir : photo Dr. Madhup. Nalanda / CR. As per updates till 28th of December 2021, India has reported more than 213 Omicron Cases (Coronavirus). Sensing the threat of Omicron cases that are increasing in Bihar day to day Government has decided to close all tourist spots in Rajgir. Reportedly to restrict the public gatherings from 31st of December to 2nd of January all parks and botanical gardens as Nature Safari Park, Jai Prakash Udhyan , Venuban , Pandupokher , Ghoda Katora, and Eco Park will be completely closed in the coming happy new year 2022. ---------------- the Holy Trinity of Christianity the Father, the Son and the Holy Spirit. USA / CR . So far keen observations are as USA people enjoy celebrating the birth of Jesus Christ, people decorate the outsides of their houses with bright, colourful lights, a Christmas tree and sometimes even statues of Santa Claus, Snowmen and Rendieer. Feasts are prepared and which are shared with all like relatives, neighbours and friends indeed. Celebrated on December 25 every year, our favorite festival Christmas marks the happiness inside us as we commemorate the birth of Jesus Christ, the Son of God, and the second of the Holy Trinity of Christianity (the Father, the Son and the Holy Spirit).Christmas is also known as the ‘Feast of Nativity’ and has a cultural as well as religious significance for the Christian, as well as non-Christian community. In the pandemic, the celebrations may look a little different. But if you take all necessary precautions, you may be able to bring festive cheer with your near and dear ones. Just follow all Covid protocols. ---------------- a bride left no stone to make her wedding unique photo Anushka. Patna / CR A few days ago at Gaya in Bihar a bride left no stone to make her wedding unique and unforgettable for all of us. An air hostess of Indigo Airlines, Anushka Guha taking her Barat broke all the stereotyped culture of the orthodox society. With due consent of her groom she led her marriage procession on a horse to the house of her groom Jeet Mukherjee a Kolkotta based businessman. In a talk with us her mother Sushmita Guha, a music teacher speaks about this marriage event with a great joy , ' She does not have any differences between the sons and daughters ..I am proud of my daughter. I have never restricted her to do what she wishes right ..' Anushka Guha also shares her feelings with me in this regard that she has no fear of being a girl, equally possesses to have a flight in her dream like a boy. While in an another opinion Jeet Mukherjee, a broadminded and progressive youth also promotes such a brilliant idea supporting her bride's feelings and sentiments. Tourist rush on the historic Ridge in Shimla today |
gathering in Christmas around Shimla Ridge area : photo Archana
Shimla / CR. Tourist rush on the historic Ridge in Shimla today .....although hopes for white X' mas dashed this year with weather playing hide and seek.The ridge is a large open space , located in center of Shimla,the capital city of Himachal Pradesh,India.The Ridge is the hub of all sorts of cultural, social and political activities. Through this christmas and coming year a huge gathering may be noticed.
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Christmas celebrated in Dehradun with gayety and ferver.
Dehradoon / CR. With the celebration of Merry Christmas and a Happy New Year
festivities have begun with the onset of Christmas celebrations. Christmas indeed is celebrated with the idea of sharing and caring for all ! One should share happiness without expecting anything in return.…….. this is what Santa Claus did and we should also do for the same.
Adding to this our corresepondent says that Christmas was celebrated in Dehradun with gayety and ferver following the strict norms of Covid.
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Page 10. News Clippings / Video Gallery.
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Page 10.You Said It.
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What a beautiful scene given in the painting .😀
ReplyDeleteThanks to madhup sir for this blog and to make my day better.
It is a too interesting blog page
ReplyDeleteIt is a very nice page and too much interesting
ReplyDeleteअति सुंदर, रोचक पेज
ReplyDeleteIt is too interesting and natural beauty of Shimla.I have read this blog carefully and learnt a lot from this blog.
ReplyDeleteReally an enthralling spot for eco-friendly environment lovers,nice place to please your eyes .
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteAmazing information
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ReplyDeleteIts awesome
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ReplyDeleteVery innovative and reflects the dawn of a new era in the field of digital journalism.
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