तुम्हारे लिए .साहित्यिक हिंदी पत्रिका.

 

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कृण्वन्तो विश्वमार्यम. 
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तुम्हारे लिए. 
Tumahre Liye. 
A Complete Cultural Literary Account over Travel, Literature, Culture & Society.
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Volume 1.Section.A.Page.0.Cover Page.
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देखें आवरण पृष्ठ. ० 

कोलाज  : साप्ताहिक हिंदुस्तान पत्रिका के कुछेक फोटो से निर्मित.साभार   
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आवरण : पृष्ठ ०.आज की : कृति : मयंक. तस्वीर : अशोक कर्ण. पाती : रेनू शब्दमुखर. प्रसन्ना झा. 
सम्पादकीय : पृष्ठ १. विषय सूची. पहली, दूसरी, तीसरी, कविता
आलेख : पृष्ठ २.आज का सुविचार. 
 छाया चित्र : पृष्ठ ३.आज कल 
 गद्य : पृष्ठ ५.१.आप बीती. निकल गयी सामने से मेरी मौत. डॉ.सुनीता .
गद्य : पृष्ठ ५.२.लघु कथा .बदलती हवा.डॉ.रंजना.
गद्य : पृष्ठ ५.३.यात्रा वृतांत.लद्दाख के ठंडे रेगिस्तान.डॉ. मधुप.
गद्य : पृष्ठ ५.४.आलेख. दधीचि  के देश में.रीता रानी.
द्य : पृष्ठ ६.सीपिकाएं,ग़जल. कविता. मानसी पंत. 
कला दीर्घा : पृष्ठ ७. चित्र
फ़ोटो दीर्घा : पृष्ठ ९.छाया चित्र.  
समीक्षा : पृष्ठ.१०
व्यंग्य चित्र : पृष्ठ ११ 
आपने कहा : पृष्ठ १२.

supporting 
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आज की कला कृति : पृष्ठ ०. 
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संपादन. 
अनुभूति सिन्हाशिमला.

ये वादियां ये फिजाएं बुला रही है तुम्हें : कला कृति : मयंक 

 

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मुझे भी कुछ कहना हैं :  सुविचार. पृष्ठ ०. 
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 संकलन. 

प्रिया. 
दार्जलिंग.
 


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आज की तस्वीर : पृष्ठ ०. 
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उड़ने से पहले थोड़ा आराम फरमा लें : फोटो अशोक कर्ण 

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पृष्ठ ०.आज की पातीकविता  
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संपादन 

रेनू शब्दमुखर.
जयपुर.

तुम्हारे लिए.

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बातें. 


नैनों में डोलती बातें,
दिल से चल कर दिल तक पहुंचती हैं बातें, 
जीवन के हर रस की संवाहिका,
मन के स्पंदन की धारिका बातें ,
हिलकोरती भावनाओं की सरिता,
श्रवण से हृदय में मधु घोलती बातें,
और कभी ख़ामोशी के जोड़ें में सजी,

फोटो साभार 

नैनों में डोलती बातें,
वैसे तो हर रिश्तें की नींव होतीं,
मगर वो रिश्ता है अटूट जिन्हें 
महसूसती बातें,
कभी कभी बिन बोले ,कभी अत्यल्प शब्दों में,
हथेली पर कलेजे को बिछा देती है बातें,
करो बात भले जितनी,वजन तौला करो हरदम,
कभी मजबूत रिश्ते भी दड़क कर तोड़ती बातें,
है बातों से भरा जीवन ,बिना बातें भला क्या है,
रहे विश्वास मन में तो बड़ी अनमोल हैं बातें !  

प्रसन्ना झा. 
विशाखापत्तनम.

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तुम्हारे लिए. हिंदी पत्रिका.
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अपने अन्तर्मन का साहित्य.
भावनाओं की अटूट कड़ी, यादों के सुनहरें पन्नें.  
अंक १.
देखें सम्पादकीय. पृष्ठ १.


सम्पादकीय.
पहली कविता.
समसामयिक. 
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मैं तुझे फिर मिलूंगी..

कन्चन पन्त.
नैनीताल.  

मैं तुझे फिर मिलूंगी....
तेरे अधरों पर खिलती हंसी बनकर,
तेरे अट्टहास से मिलती ख़ुशी बनकर,
तेरी चमकती आँखों के झरोखों से.
झांकती मैं ,झांककर छुप जाती
मैं तुझे फिर मिलूंगी.....
छोटी सी तेरी आँखों के बड़े बड़े सपनों में,
कभी राही बनकर कभी तेरे अपनों में,
तेरी ऐनक की एक कोर पर बैठी मैं,
सब कुछ तेरे संग देखा करूंगी,
मैं तुझे फिर मिलूंगी.....
तेरे हाथों की लकीरों में छुपकर कहीं,
तेरे भविष्य से रूबरू होने का सौभाग्य पाकर,
तेरे आज में तेरे कल में घुलती रहूंगी,

फोटो : डॉ.मधुप 


जब चाहे तेरी हथेली से झांककर तुझे मिलती रहूंगी,
मैं तुझे फिर मिलूंगी.....
सूरज की पहली किरण बनकर,
तेरी सुबह को खुशनुमा बनाती मैं,
चन्दा की चांदनी बन फिर,
तेरी नींद को सुकून दे जाती मैं ,
क्षितिज के एक छोर पर तुझे मिलूंगी मैं,
मैं तुझे फिर मिलूंगी.....
एक अनछुई सी याद बनकर,
तेरे जेहन में आती रहूंगी हर पल,
एक अनकही सी बात बनकर,
तुझसे बतियाती रहूंगी हर पल,
तेरे ख्यालों में,तेरे हर विचार में,
अनपुछे सवालों में, जीत में , हार में,
मैं तुझे फिर मिलूंगी.....
मैं तुझे फिर मिलूंगी.....          
                                                                  

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दूसरी कविता. समसामयिक.
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चाँद से खूबसूरत कुछ भी नहीं .

मानसी पंत. 
नैनीताल. 


कहते है चाँद से खूबसूरत 
कुछ भी नहीं ,
किसी का चाँद होना या 
चाँद सा महसूस करना ,
सभी चाहते है. 
मगर मुझे चांद नहीं बनना ,
मैं तो रहना चाहती हूं ,
जुगनू सी इस अंधेरी रात में ,
जब सब शांत सो जाते हैं ,
मैं निकल पड़ती हूं लालटेन लिए 
अपनी तलाश में .
अतीत के दिन या आने वाली सुबह नहीं ,
मैं बस आज की रात उड़ना पसंद करती हूं ,
कभी किसी गहरे हरे पत्ते पर 
या उस सूखी टहनी पर बैठ कर 
मैं पल भर को आराम करती हूं 
फिर उड़ जाती हूं पंख फैला कर .

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तीसरी  कविता. समसामयिक.
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पर सोच मुझ सी है अमर.

एक पल लगा की, 
इस समय को काश अब मैं रोक दू , 
सूर्य को तक आसमाँ की तप विरह में झोंक दू .
चाँद से कह दूं कि, 
एक पल दूर रह ना राह में,  
ओज से कह दूं लिपट जाना तिमिर की बांह में . 
देख ना खुद से विरह के इन हरे से घाव को, 
भू जकड़ जंजीर बन चलने न दे इन पाव को .
मेघ से कह दू 
बरस जा भीगने दे खूब अब ,
या जला आकाश चाहे 
आंख जाए सूख सब. 
हूँ नदी जैसे मुझे अब पार करना है सफर, 
हों शिला कितनी अडिग, 
मैं चीरती कोमल लहर. 
वो हवा नव तेज़ मैं रूड़ी जड़ों का काल हूँ ,
मैं धरा नूतन भले माटी नहीं कंकाल हूँ, 
हूं शून्य भी मैं ही सदा 
मैं हूं अनन्त हर प्रहर 
देह मर जाए भले 
पर सोच मुझ सी है अमर. 
   
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प्रथम मीडिया. 
एम.एस.मीडिया.
ए.एंड.एम. मीडिया. 
के सौजन्य से. 
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समर्पित 
निर्मला सिन्हा ,एम. ए. हिंदी ,पटना विश्वविद्यालय 
प्रधानाध्यापिका, हरनौत प्रोजेक्ट स्कूल.   
गीता  सिन्हा. एम. ए. द्वय हिंदी ,संस्कृत. पटना विश्वविद्यालय 
पूर्व शिक्षिका.टेल्को ,जमशेदपुर.
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अतिथि संपादक
 

मानसी.कंचन 
नैनीताल 
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प्रधान संपादक 
डॉ. मनीष कुमार सिन्हा 



सहायक संपादक 
डॉ. आर. के. दुबे.


डॉ. शारदा सिन्हा , पूर्व हिंदी विभागाध्यक्ष ,नालंदा महिला कॉलेज.
डॉ. रूप कला प्रसाद ,प्रोफेसर, अंग्रेजी विभाग. 
डॉ. रंजना, स्त्री रोग विशेषज्ञ.
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कार्यकारी संपादक. 
डॉ. शैलेन्द्र कुमार सिंह. 
सेवा निवृत्त  अपर प्रधान मुख्य वन संरक्षक,वन विभाग, छत्तीसगढ़.
डॉ. नवीन जोशी ,नैनीताल
नीलम पांडेय.


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फोटो संपादक 


अशोक कर्ण. पूर्व  फोटो एडीटर ( एजेंडा ,नईदिल्ली ),
छायाकार, हिंदुस्तान टाइम्स ( पटना ,रांची संस्करण )
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विधि सलाहकार.
रजनीश कुमार सिन्हा ( अधिवक्ता उच्च न्यायलय )
सुशील कुमार ( विशेष लोक अभियोजक. पाक्सो. )
रवि रमण  ( वरिष्ठ अधिवक्ता )
सीमा कुमारी  ( अधिवक्ता )
दिनेश कुमार ( वरिष्ठ अधिवक्ता )
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सरंक्षक.
चिरंजीव नाथ सिन्हा, ( ए.डी.सी.पी.) लखनऊ.  
राज कुमार कर्ण  ( सेवानिवृत डी. एस. पी. ).पटना 
डॉ. मो. शिब्ली नोमानी. डी. एस. पी. नालंदा 
कर्नल  सतीश कुमार सिन्हा ( सेवानिवृत ) हैदराबाद.
कैप्टन अजय  स्वरुप, देहरादून , इंडियन नेवी  सेवानिवृत ). 
डॉ. आर. के. प्रसाद , ( ऑर्थोपेडिशयन ) पटना.
अनूप कुमार सिन्हा, ( उद्योगपति ) नई  दिल्ली. 
डॉ. भावना, ( व्याख्याता )
अनुपम चौहान ( संपादक ), समर सलिल, लखनऊ.

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 पृष्ठ २.आज का सुविचार. 
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प्रशांति निलयम से.
जितना अधिक धन तुम जमा करते हो उतना ही अधिक बंधनों में बंध जाते हो 
और उतनी ही अधिक चिंता ,उत्कंठा और भय तुम्हारे अन्दर घर कर जाती है ..'
 

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 पृष्ठ ३.छाया चित्र.आज कल  
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भूखे चूजों में  खाने की चाहत : छाया चित्र अशोक कर्ण 

नैनीताल से खुरपा ताल की खूबसूरती : फोटो मानसी पंत 


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पृष्ठ ४.साभार.
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पृष्ठ ५. हिंदी अनुभाग. गद्य  
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सहयोग. 

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पृष्ठ ५ .१  गद्य : यात्रा वृतांत.
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डॉ. मधुप
यात्रा वृतांत : लद्दाख के ठंडे रेगिस्तान.
लेखक. डॉ.मधुप रमण.

लद्दाख के ठंडे रेगिस्तानआज के इस यात्रा वृतांत में हम लोग आपको ऐसे कोई कोल्ड डेजर्ट की तस्वीर देंगे जिसके अंतर्गत मरुद्यान,बालू के छोटे छोटे रेतीले टीले उड़ते हुए धुल के उड़ते गर्द गुब्बारकैमलस बैक राइड तथा श्योक एवं नुब्रा वैली का दिलचस्प जानकारियां होंगीजिसे आप जानना,सुनना और देखना पसंद करेंगे. 
क्योंकि इस ब्लॉग में नुब्रा श्योक घाटी से जुड़ी यथा कहां घूमे ,कहां रहें ,क्या खाएसम्बंधित कुछ  कुछ ऐसी महत्वपूर्ण बातें हैं . यादगार कहानियां हैं,मजेदार किस्सें हैं जिसे आपको जरूर जानना चाहिए.
और जब कभी भीआप लदाख जाएंगे जहाँ आपके जाने के निमित यह उपलब्ध जानकारी आप के लिए 
मददगार ही साबित होंगी,यह मेरा मानना है . 
साल २०१९ का था। जून के महीने में हम सभी लेह - लद्दाख में थे। सोनमर्ग , जोजिला पास तथा कारगिल के ठंढ़े इलाक़े से गुजरते हुए लेह लद्दाख भी पहुंचना डर मिश्रित रोमांच के अनुभवों को समेटने जैसा ही था। भारत - पाकिस्तान की सीमाओं पर अभी शांति ही थी। फिर भी मेरे अपनों के साथ जोख़िम भरा सफ़र कहीं न कहीं मुझे डरा ही रहा था। फ़िर भी हम रुकें कहाँ। जीवन चलने का ही तो नाम हैं ना। 


सिंधु घाट ,हमारे सहयात्री और लद्दाख के ठंढे रेगिस्तान 

लद्दाख :अमूमन यह क्षेत्र शुष्क होने के कारण वनस्पति विहीन है,यहां जानवरों के चलने के लिए कहीं कहींपर ही घास एवं छोटी छोटी झाड़ियां मिलती है घाटी में सरपत विलो एवं पॉपलर से भरे उपवन देखे जा सकते हैं. 
ग्रीष्म ऋतु में सेब , खुबानी एवं अखरोट जैसे फलों,के पेड़ पल्लवित होते हैं. लद्दाख में पक्षियों की विभिन्न प्रजातियां नजर आती हैंइनमें रॉबिनरेड स्टार्ट , तिब्बती स्नोकोकरेवेन यहां हूप पाए जाने वाले सामान्य 
पक्षी है.
लद्दाख के पशुओं में जंगली बकरीजंगली भेड़ एवं याक विशेष प्रकार के कुत्तें  आदि पाले जाते हैं,इन 
पशुओं को दूध मांस खाल प्राप्त करने के लिए पालें जातें हैं .लद्दाख एक उच्च अक्षांशीय मरुस्थल है क्योंकि 
हिमालय मानसून को रोक देता है पानी का मुख्य स्रोत सर्दियों में हुई बर्फबारी है.
पिछले दस साल पूर्व २०१० में आई बाढ़ के कारण असामान्य बारिश और पिघलते ग्लेशियर हैं जिसके लिये निश्चित ही ग्लोबल वार्मिंग ही कारण है यायावरी के पहले दिन ही यहां वहां कम वनस्पतियों से घिरे नंगी 
पहाड़ों और लद्दाख के स्थानीय के दर्शनीय स्थलों को हमने पहले ही दिन भ्रमण कर लिया था.
शांति स्तूप: अब हम शांति स्तूप देख लेने के बाद हम लद्दाख से बाहर जाने की सोच रहें थे , दूसरे दिन 
स्थानीय गाइड के अनुसार हमें नुब्रा - श्योक वैली और पेगांग लेक घूमने जाना था।आपको बता दें यदि आप लोग लद्दाख से बाहर श्योक और पेंगांग लेक घूमने का मन बनाते हैं तो,आपको लद्दाख में ही लद्दाख से बाहर घूमने की परमिट भी लेनी होगी,इसके लिए आप स्वयं पर भरोसा कर सकते हैं या खुद से ऑनलाइन आवेदन देने के लिए प्रयास कर सकते है।

लेह शहर में शांति स्तूप : फोटो स्टैंज़िन 

गतांक  से  आगे : १

लद्दाख शहर : जीरो पॉइंट 

चंस्पा की  पहाड़ी पर सफ़ेद रंग के  बने इस स्तूप  को जब हम तारों भरी रात में देखना मुझे आज भी याद हैं ,हमने इसकी कई तस्वीरें भी ली हैं। जहाँ हम ठहरे हुए थे यह स्तूप एकदम पास में ही था। और अन्य स्तूप की भांति इस स्तूप के भीतर बुद्ध की अस्थियां भी रखी हैं शायद इन अस्थियों को १४ वें दलाई लामा ने रखवाई थी । हमने सुबह सुबह ही लद्दाख छोड़ दिया था। शहर छोड़ने से पूर्व ऑक्सीजन की दो सिलेंडर ले ली गयी थी, क्योंकि हमें बतलाया गया था कि खारदुंगला पास के पास ऑक्सीजन की कमी हो जाती है और हमें ऑक्सीजन लेने की आवश्यकता पड़ जाएंगी। 
जीरो पॉइंट : हम लद्दाख के बाद हम लोग थोड़े अंतराल के बाद हम जीरो पॉइंट पहुंच चुके थे जहां से नीचे देखने में नीचे की घाटियों में शहर पसरा पड़ा दिख रहा था। दरअसल घाटियों के ऊपर ज़ीरो पॉइंट से हमारी खड़ी गाड़ी के नीचे छोटे छोटे दिखने वाले लदाख के एक या दो मंजिला घर स्पष्टतः अपनी जग़ह पर बड़े हीथे। हम ऊंचाई पर जो थे। 

खारदुंगला पास से गुजरते हुए हम : फोटो डॉ.सुनीता 

खारदुंगला पास : कुछेक घंटे उपरांत हम खारदुंगला पास पहुंच चुके थे जिसकी हम लगातार चर्चा कररहें थे।यहां बर्फ़ ही बर्फ़ थी। हम काफ़ी ऊंचाई पर थे। मौसम काफी सर्द था। हवाएं तेज चल रही थी। सही में इतनी ऊंचाई पर हमें वहां ठंडी में ऑक्सीजन की कमी से हमारे यूनिट के कुछ साथियों को उल्टी सर दर्द तथा सांस लेने में कठिनाई महसूस होने भी लगी थी ,लेकिन कुछ ने इस विषम परिस्थिति में भी अपने आप को अनुकूल कर लिया था। तो हम में से कुछेक ने बर्फ में मस्ती करने की आदत नहीं छोड़ी थी। मैं गाड़ी में बैठा असहज महसूस करता हुआ ऑक्सीजन ले रहा था मेरी समझ में हमसभी को स्वयं की सुविधा के लिएऑक्सीजन की एक दो सिलेंडर ले ही लेनी चाहिए। हम लोग खारदुंगला पास के बर्फ़िस्तान में कुछ समय व्यतीत कर लेने के बाद और दुनिया के सबसे ऊंचा समझे जाने वाले हाईएस्ट मोटरेबल पास से धीरे धीरे नुब्रा वैली के मैदान में नीचे उतरने लगे थे। 
ठंडी सर्द हवाओं के बीच ऑक्सीजन की कमी वाले ५३५९  मीटर की ऊंचाई पर अवस्थित है यह खारदुंगला पास ,जहां हम चाह कर भी ज्यादा मौज मस्ती नहीं कर सकते थे। क्योंकि इससे हमारे यूनिट के सदस्यों की तबीयत माउंटेन सिकनेस की वजह से खराब होने लगी थी। बाद में हम सबों को  प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में भी ऑक्सीजन एवं दवाएं लेनी पड़ी थी। प्राइमरी एवं स्वास्थ्य  केंद्र  में दवाईआं आदि लेने के पश्चात् हम सभी कुछ बेहतर हुए थे । लेकिन कुछेक ने गाड़ी में बैठना ही उचित समझा क्योंकि उनकी तबीयत ठीक नहीं थी,जैसे जैसे हम ऊंचाई से नीचे आते गए हमारे स्वास्थ्य में उत्तरोत्तर सुधार होता गया।दरअसल ये हायर एल्टीट्यूड में होने वाली बीमारी की शिकायत थी जो हमें हो रही थी। 

गतांक  से  आगे : २. दिस्कित मोनेस्ट्री 


लद्दाख कीअत्यंत ठंडी जलवायु  

खुश्क और चट्टानी आसमान इलाके वाले लद्दाख की जलवायु अत्यंत ठंडी है इस वजह से यहां वनस्पतियां बहुत ही सीमित मात्रा में दिखती है,जब गर्मियों का मौसम होता है,बर्फ़ पिघलती है बर्फ पिघलने से घाटियां जब नमी युक्त हो जाती है तो रोज,जंगली गुलाब और विभिन्न प्रकार की जड़ी बूटियों से कहीं कहीं  ग्रीष्म ऋतु में भर जाती हैं। 

लद्दाख घाटी की नदियां : फोटो सत्यम. 

दिस्कित मोनेस्ट्री : नुब्रा घाटी एक तीन भुजाओं वाली घाटी है जो लद्दाख घाटी के उत्तर-पूर्व में स्थित है,यह श्योक और नुब्रा नदियों के संगम से बनी है। श्योक नदी उत्तर पश्चिम की ओर बहती है और नुब्रा नदी एक न्यूनकोण बनाते हुए इसमें उत्तर-उत्तर पश्चिम से आ कर मिलती है। नुब्रा की केन्द्रीय बस्ती दिस्कित की दूरी लेह से १५० किलो मीटर है। हमें याद हैं दिस्कित मोनेस्टरी तभी रास्तें में दिखा था । आप भी जान ले नुब्रा वैली की तरफ़ बढ़ते हुए जब रास्तें में बुद्ध की ऊँची मूर्ति दिख जाए तो समझ लें आप दिस्कित गांव के आस पास हैं। 
मुख्य मार्ग से हटकर दिस्कित मठ या दिस्कित गोम्पा गांव का मुख्य आकर्षण है।इसे नुब्रा घाटी के सबसे बड़े और सबसे पुराने बौद्ध मठों में से एक माना जाता है। दिस्कित मठ को १४ वीं सदी में त्सोंग खपा के एक शिष्य चंग्ज़ेम त्सेराब जंगपो द्वारा स्थापित किया गया था। इस गोम्पा में मैत्रेय बुद्ध कि मूर्ति, चित्रकारी और नगाड़ा प्रतिष्ठापित हैं।
नुब्रा वैली : नीचे की घाटियों के मध्य बहती अविरल धारा के साथ साथ ही श्रीनगर लद्दाख के राजमार्ग पर हमारी गाड़ी तेजी से सरपट दौड़ते हुए अपने लक्ष्य को छू रही थी। थोड़े समय के बाद दूर कहीं उड़ते गर्द गुब्बार में दूर एक दो कूबड़ वाले ऊंट अस्पष्टतः दिखने लगे थे। शायद दूर कहीं दूर एक दो कूबड़ वाले ऊंटों के चलने से आसमान में एक बार गर्द गुब्बार भी उड़ रहा था।  रास्तें में सड़कों के किनारे दूर से एक दो कूबड़ वाले ऊंट आते भी दिख रहें  थे।
नुब्रा वैली की तरफ़ बढ़ते हुए हमें सामने ज्यादातर एक या दो मंजिले मकान ही दिखे जिसमें अनजाने में हमें  लेह - लद्दाख की सभ्यता संस्कृति से हमें झलक मिल रही थी। कुछ मिनटों के पश्चात जिस स्थान पर हम आ चुके थे वह नुब्रा वैली ही थी।

नुब्रा वैली के बीच बालू के टीलों पर चहलक़दमी करते हमारे सहयात्री : फोटो कमलेन्दु 

नुब्रा वैली  सामने रेत का समंदर ,बालू के छोटे छोटे टीले था। ऊंट इधर उधर जा रहें थे। पर्यटकों और उनकी गाड़ियां कतारों में खड़ी दिख रही थी, हमने  कल्पना भी नहीं की थी ताकि हम बर्फ से घिरे  पहाड़ों के बीच बालू के टीलों पर चहलक़दमी करते हुए हमें इतने सारे  लोग मिल जाएंगे। राजस्थान ,पंजाब ,बिहार ,उत्तरप्रदेश ,मध्यप्रदेश ,कर्नाटक ,तमिलनाडु और न जाने कहां कहां से ढेर सारे पर्यटक नुब्रा वैली के सौंदर्य को देखने पहुंच चुके थे। हममें से कुछ ऊंटों की सवारी लेने के लिए आगे बढ़ गए तो कुछ अपनी मस्ती में इधर घूमने लगे थे। मैं इधर-उधर घूमता हुए ,लोगों से बातचीत करने के क्रम में नुब्रा की संस्कृति के बारें में शोध करने लगा था,
गतांक  से  आगे : ३. बर्फ़ के रेगिस्तान 

लेह लद्दाख की बनस्पत्तियां : फोटो स्टैंज़िन 

बर्फ जमी पहाड़ियों की तलहटी  में ठंडे रेगिस्तान के बारे में सुनना तत्पश्चात देखना हमारे लिए इस जीवन में अत्यंत उत्सुकतामिश्रित सुखद अनुभव था तथा आश्चर्य से भरा हुआ भी। विस्तृत रेतीली ठंडे रेगिस्तान में बहती  हुई स्वच्छ कल कल धारा हमें ओएसिस की याद दिला रही थी। पानी इतना ठंडा था कि आप कुछ एक सेकंड में से ज्यादा तो रख नहीं पाएंगे। 
ज्यादा तो नहीं मगर थोड़ी बहुत  बनस्पत्तियां हमें नुब्रा वैली में भी दिख रही थी। मैंने सम्पूर्ण लद्दाख भ्रमण के दरमियान नुब्रा श्योक वैली घूमने के सिलसिले में मैंने एक बात भली भांति समझी कि नुब्रा एक अत्यंत नमी रहित एक ठंडा रेगिस्तान वाली जग़ह  है। यहां राजस्थान राजस्थान के टीले जैसी  ही संस्कृति है जहां आवाजाही के लिए रेगिस्तान  के जहाज समझे  जाने वाले ऊंटों  की ही भरमार है। और इसकी सवारी के लिए आपको पैसे खर्च करने होंगे यह भी तय है ।
देश विदेश से आए पर्यटकों से मैंने उनकी अनुभूति के बारें में बतियाते हुए मुझे ऐसा लगा कि हमारा भारतवर्ष सही में विभिन्नताओं  में एकता का देश है, जिसकी विशाल सभ्यता संस्कृति पर हम भारतीयों को असीम गर्व होता है। 
मेरा मानना है कि यदि भारत को एक करना है तो खुद में पर्यटन की आदत डालें और घूमते हुए अन्य लोगों के साथ  उनसे अपनापन और एकता का रिश्ता कायम करें जिससे भारत जुड़ेगा ही। हमने नुब्रा में सहरा की याद दिलाने वाले  के लिए रहने के लिए कई एक टेंट भी देखे जिसमें पर्यटक होंगे । इनकी अधिकता अक्सर थार के रेगिस्तानी भूभागों में देखी जा सकती है पता नहीं क्यों नुब्रा श्योक में रहते हुए  मुझे बार-बार राजस्थान की याद आ रही थी।

नुब्रा की रेगिस्तानी आबोहबा : फोटो कमलेन्दु 

नुब्रा  में कैमल राइड का मजा जरूर लेते हुए रेगिस्तानी आबोहबा का आनंद ले। कहीं कहीं पर लद्दाख के नुब्रा  वैली में आने जाने वाले पर्यटक के लिए सांस्कृतिक कार्यक्रमों का भी अति मनभावन आयोजन होता है जिसके देखने का आनंद  आप पर्यटक ले सकते है। 
रात्रि में घर जैसे एहसास वाले होटल में ठहरे और दूसरे दिन ही  सुबह सुबह ही पेंगांग लेक के लिए निकल जाये। आपके जेहन में पेंगांग लेक की यादें भी रह जाएगी यह मेरा मानना है। सरसराती ठंडी हवाओं के बीच,शुद्ध पोषक ,सुस्वादु लजीज व्यंजनों के साथ साथ  से जुड़ी यादें हमें कभी नहीं भूलती हैं,यह एक अद्भुत से माने जाने वाले लामाओं के शहर लद्दाख और इससे जुड़े कई एक छोटे छोटे शहर,कस्बों की कहानी है ,जिसे हम आगे भी जारी रखेंगे ...।

गतांक  से  आगे : ४. घर सांचो

लदाख शहर की वापसी : फोटो विदिशा 

घर सांचो  : शाम में घूमने के पश्चात हम पहले से ही एकदम घर जैसी अनुभूति रखने वाले होटल साँचों  में विश्रामित  हुए। इसके मालिक मैनेजर कर्मचारियों का व्यवहार स्वभाव देव तुल्य था अत्यंत सरल तथा अपने जैसा था। 
अतिथि देवो भवः  का भाव यहाँ के प्रत्येक निवासियों में देखा जा सकता हैं, जो सराहनीय है।  होटल सोलर एनर्जी, गर्म पानी से युक्त था आप चाहें तो यहां भी आ कर रुक सकते है। हमने घर जैसे एहसास रखने वाले होटल में ठहरने का १  दिन का किराया तक़रीबन हज़ार रुपया अदा किया था। 
कितने दिन : एक महत्वपूर्ण बात यह है कि आपको नुब्रा पेगांग लेक घूमने के लिए चार  दिन का समय निश्चित कर सकते हैं जिससे आपका पूरा पर्यटन  संपूर्ण हो सकेगा। रात में नुब्रा में सोते हुए दूसरे दिन अहले सुबह से पैंगांग लेक से घूम कर शाम तक आप लद्दाख वापस भी जा सकते है। लेकिन मुझे भी कुछ कहना हैं  ट्रैफिक जाम ,लैंडस्लाइड आदि बातों को आप को मद्देनजर रखते हुए हमें एक दिन बचा कर रखना होगा।
भाग मिल्खा भाग फिल्म के शूटिंग का स्थल : और भी बहुत कुछ है जो हम नहीं देख पाए खराब मौसम की वजह से उसकी भी हम चर्चा करेंगे जिससे आपको कोई भी जानकारी अधूरी न मिलने पाए। अगर जब कभी भी अगली बार आएंगे तो हम शायद अन्य जगहों को भी देख सकेंगे ,यह सोच कर हमने अपनी यात्रा जारी रखी है ,रात्रि विश्राम  के बाद रास्ते में हमने भाग मिल्खा भाग फिल्म के शूटिंग का स्थल भी देखा जहां  फिल्म का एक लम्बा भाग यहीं शूट किया गया था। यह जानकारी हमें हमारे ड्राइवर ने दी थी।
हमने  भगवान को याद करने के साथ साथ हमने बॉर्डर रोड ऑर्गनाइजेशन को भी याद किया जिसके प्रयासों से हमें यह मार्ग सदैव खुला हुआ मिलता है।

लामाओं का शहर लदाख : विदिशा 

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पृष्ठ ५ .२  गद्य : आप बीती.
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 सहयोग.


छू कर निकल गयी जब सामने से मेरी मौत.. 

डोडा का रिहायशी इलाका  ,कश्मीर  : फोटो साभार इंटरनेट 

एक जवान की आपबीती.

दीपक 
जम्मू कश्मीर / डोडा.' यही कोई फ़रवरी का महीना था। दो हजार का वर्ष। पहले सप्ताह के ही शुरुआती दिन थे। ठण्ड अभी ख़त्म नहीं हुई थी। स्याह रात की शुरुआत होने वाली थी। सन  २००० में मैंने सी.आर.पी.फ. की बेसिक ट्रेनिंग पूरी की थी। और यह हमारी पहली पोस्टिंग जम्मू कश्मीर के डोडा जिले में  थी। हम तेईस साल भी पूरे नहीं कर पाए थे। हम नए रंगरूट के लिए देश प्रेम की खातिर कुछ भी कर सकने का जज्बा नस नस में भरा पड़ा था । अभी तक रह रह कर  उस ख़ौफ़नाक  दृश्य को मैं नहीं भुला पाता हूँ जब आतंकवादियों के साथ हुई मुठभेड़ में मेरा मौत से साक्षात्कार हुआ था। बमुश्किल जान बची थी तब गोली जैसे सांसों को छू कर निकल ही गयी थी । सच कहे तो हम जवान  हर वक़्त सर से कफ़न बांधे हुए ही होते है क्योंकि हमारी वर्दी उनकी निगाहों में होती है हम उनसे सावधान होते हुए हर पल आसन्न खतरे के करीब होते है। कब किसके जीवन की पतंग कट जाएं कोई बता नहीं सकता। ' कई बार हम किसी मिशन के लिए जाते तो पूरे शरीर में होते है लेकिन हम में से कोई  बदनसीब टुकड़े टुकड़े में लौट रहा होता है। कुछ याद करते हुए दीपक सिहर जाते है और बोलते हुए हमें कहीं न कहीं  पुलवामा की याद दिला देते है। 
उन दिनों  खबरिया से हमें गुप्त सूचना मिली थी कि आस पास के रिहायशी इलाक़े में कुछेक आतंकवादी डेरा जमाये हुए  है या कहे छिपे बैठे है । हमें सतर्क और मिशन के लिए तैयार रहने को कह दिया गया था। आपरेशन का समय देर रात्रि तय किया गया था।  
सी.आर.पी.एफ. की इकीसवीं वटालियन को जम्मू कश्मीर पुलिस के साथ इस मिशन पर लगाया गया था। हमारे साथ थे उत्तराखंड के हवलदार नायक हिमाल सिंह डोंगरा। मैं चूंकि नया रंगरूट था इसलिए मुझमें ज्यादा ही उत्साह था। उस भयानक काली रात की मुठभेड़  में जोश में  मैं कुछ अधिक लापरवाह भी हो गया था। 
'रात गयी लगभग इग्यारह बजे के आस पास मिशन शुरू किया गया। आगे बढ़ते हुए मुझे भान भी नहीं रहा कि मैं आतंक वादियों के फायरिंग रेंज में आ गया हूँ। भीतर से फायरिंग यक ब यक और भी तेज़ हो गयी। यदि क्षण भर में हमारे नायक उत्तराखण्ड के हिमाल सिंह डोंगरा ने मुझे जमीन पर गिरा न दिया होता तो कब की कोई गोली हमें लील गयी होती। 
हम कुछेक मिनट तक जमीन पर लेटे रहें और रेंगते रेंगते उनकी फायरिंग रेंज से बाहर आए। यदि हिमाल सिंह डोंगरा साथ नहीं होते तो हम आपके सामने नहीं होते हम यह कहते हुए सी.आर.पी. के सब इंस्पेक्टर दीपक भावुक हो जाते है और यह मानते है कि जीवन में सफल होने के लिए जोश के साथ साथ होश की भी जरुरत होती है। हमें जीना लिखा था लेकिन यह भी अनुभूत सत्य है जीवन में सफल होने के लिए अनुभव की आवश्यकता भी निहायत जरुरी है। हालाँकि हम लोगों ने आतंकियों को ढेर लगा दिया था जिसमें हवलदार नायक  उत्तराखंड के हवलदार नायक हिमाल सिंह डोंगरा के द्वारा दी  सुरक्षा कवच मेरे लिए पुनर्जन्म जैसी घटना सिद्ध हुई थी। मैं ताउम्र उनका आभारी रहूंगा। ' 
नालंदा के नूरसराय में जन्में मातृ भूमि की सेवा करने के बाद बिहार शरीफ़ में बुद्धा सैनिक ट्रेनिंग सेंटर की स्थापना करने की बात करने पर सी.आर.पी. के कमांडों दीपक कुमार ने  कहा कि, 'मैं चाहता हूं कि युवा देश समाज की रक्षा के निमित पुलिस और आर्मी फ़ोर्स ज्वाइन करे और मैं उन्हें प्रशिक्षित करने का काम करुं। ताकि वो देश की सेवा करे और परिवार समाज  के सजग प्रहरी बने यही मेरे जीवन एकमात्र पुनीत  लक्ष्य है, और मैं  इस कार्य में वर्षों से प्रयासरत हूं '
आगे दीपक कहते है आर्थिक रूप से कमजोर तबके के अभ्यर्थियों के लिए वह अपने बुद्धा सैनिक ट्रेनिंग सेंटर में उनके शुल्क में कटौती का भी प्रावधान रखते हुए समाज सेवा के लिए तत्पर दिखेंगे। 
डॉ.सुनीता सिन्हा
लेखन जवान दीपक की आप बीती पर आधारित.

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पृष्ठ ५ .३ गद्य : लघु कथा .
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बदलती हवा
 : 
डॉ.रंजना.  
मुझे शुरू से ही पढ़ने का शौक रहा है पर गाँव में ल़डकियों के पढ़ने की कोई सुविधा नहीं थी I पिताजी छोटे किसान थे I इकलौती बेटी होने के कारण मैं उनकी बड़ी दुलारी थी, ये अलग बात थी कि माँ को वंश ना होने का मलाल था I उनके दुःख को बुआ जी यदा कदा बढ़ाती रहतीं I आठवीं तक तो सब ठीक ही रहा पर नौवीं दसवीं के लिए घर में कोहराम मच गया I पर मेरी जिद्द ने सबको झुका दिया, वैसे भी पिताजी मेरी तरफ थे I रोज़ मुझे साइकिल पर बिठाकर स्कूल पहुंचाते और लाते I
एक दिन सरपंच काका ने टोक कर कहा , ' क्यूँ रे हरिया ..?,..खेती किसानी छोड़ बेटी को कलेक्टर बनाने चला है. देख ज़माना ठीक नही कुछ ऐसी वैसी बात हो गई तो पूरे गाँव में मुँह छुपाता फिरेगा, अबकी लगन में सुगिया के हाथ पीले कर दे ,समझा..! '
पर पिताजी को न उनकी बात माननी थी ना मानी l वो और मैं बस ताने सुनते l इसी बीच मैंने इन्टर की परीक्षा पास कर ली l मैं जानती थी के मेरे हालात ऐसे नहीं के मैं किसी कोचिंग का सहारा लेती अलबत्ता कुछ किताबों की ज़रूरत थी जो महँगी थी ,पिताजी के क्षमता से कहीं बाहर I 

चित्र इंटरनेट से साभार 

पर जैसे वो शुरू से बिन कहे मुझे समझ लेते वैसे इस बार भी किताबें घर आ गई पर दोनों बैल बाहर चले गए I उस रात माँ पिताजी में खूब जोर का घमासान हुआ I बुआ जी भी आग को हवा देने में कोई कसर न छोड़ी I 
खैर मेरी मेहनत और पिताजी की तपस्या रंग लाई, मेरा दाखिला शहर के अच्छे मेडिकल कॉलेज में हो गया I राहें बहुत आसान तो नहीं रहीं, कुछ जमीन के टुकड़े बिके तो कभी माँ के जान से भी प्यारे जेवर गिरवी रखे गए I समय पंख लगाकर उड़ता गया और मैं सुगिया से डॉक्टर सुगंधा बन गई l 
सुबह घर के बरामदे में बड़ी भीड़ लगी थी I पिताजी कभी किसी को पानी पूछते तो किसी को गुड़ की डली देते l 
सरपंच काका बोले, ' देख ! हरिया तेरी बेटी हम सब की बेटी है, उसने पूरे इलाके में गांव का नाम रोशन किया है I हम सब की एक ही विनती है, मैं गाँव में एक अस्पताल बनाना चाहता हूं,सुगंधा बिटिया को बोलो हमारी बिनती स्वीकार कर अस्पताल चलाए I '
मैंने कहा, '.. मुझे स्वीकार है पर मेरी शर्त है कि अस्पताल का नाम हरिओम अस्पताल होगा I '
सारी भीड़ डॉ सुगंधा की जयकार कर रही थी और हरिया की आंखें नम थी बरसों बाद उसे याद आया उसका असली नाम तो हरिओम है.......... 

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पृष्ठ ५ .४.गद्य : आलेख .
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दधीचि  के देश में

रीता रानी
कोरोनावायरस से देश युद्धस्तर पर लड़ रहा है। पूरे देश में आज लगभग सवा दो करोड़ लोग जो अलग-अलग स्तर के संक्रमण से गुजर रहे हैं, हमारी मदद और सकारात्मक पहल की ओर आशा भरी निगाहों से देख रहे हैं, उन्हें इनकी बहुत आवश्यकता भी है। इस बीमारी के बदलते स्वरूप और उससे जूझते रोगियों और उनके परिजनों की विविध तस्वीरें पूरे समाज की संवेदना को हिला कर रख दे रही हैं और इन्हीं तस्वीरों के मध्य कुछ ऐसे रंग भी दिख जा रहे हैं, जो किसी भी सभ्य समाज के संस्कार और मानवीय बोध पर गहरा प्रश्न चिन्ह लगाते हैं।
कोरोनावायरस की दूसरी लहर ने देश को जिस तरह अपना ग्रास बनाया है, इस अव्यवस्था और कष्ट के माहौल में केंद्र और राज्य सरकारें पक्ष- प्रतिपक्ष के द्वारा प्रश्नों के घेरे में है। चाहे वह विभिन्न राज्यों में हाल फिलहाल संपन्न हुए विधानसभा चुनाव हों, कुंभ जैसे धार्मिक उत्सवों का आयोजन हो या प्रदेश विशेष में संपन्न हुआ पंचायत चुनाव-सभी के औचित्य और विधि- व्यवस्था पर आलोचना -समालोचना मुखरित है। प्रशासन या सरकार एक संगठन है और हम नागरिक अपने आप में अलग-अलग एकल इकाई। 
स्वयं की भूमिका : एक नागरिक के तौर पर प्रशासन पर से नजर हटा कर स्वयं पर डालते हुए मैं यह प्रश्न पूछना चाहती हूं कि आपदा के इस युद्ध में हमारी स्वयं की भूमिका कितनी सराहनीय है ? ऑक्सीजन सिलेंडर से लेकर दवाइयों तक की कालाबाजारी, ऑक्सीमीटर से लेकर भाप लेने वाली मशीनों तक के बाजार मूल्य में बेतहाशा वृद्धि,बिना लाइसेंस के पैथोलॉजी सेंटर का काम करना, ऑक्सीजन के सिलेंडर में कार्बन डाइऑक्साइड जैसे गैस को उच्च तापमान पर भर देना, इस जानलेवा बीमारी की भी नकली दवाएं बना देना , एक जगह तो प्रशासन की आंख में धूल झोंक कर झोलाछाप डॉक्टर के द्वारा कोविड सेंटर का संचालन करना, ऑक्सीजन सिलेंडर से लेकर एंबुलेंस सेवा प्रदान करने में रोगियों के परिजनों से मनमानी रकम वसूल करना, स्वयं डॉक्टर का दवाइयों की कालाबाजारी में पकड़ा जाना-क्या है यह सब? यहां तक की लाशों को जलाए जाने वाली लकड़ियों की कालाबाजारी-किस ओर जा रहे हैं हम?इंसान वेश में क्या घूमते- फिरते पिशाच नहीं हम? हमने बहुत आरोप लगाए पुलिस व्यवस्था पर, प्रशासनिक व्यवस्था पर -भ्रष्टाचार के, पर जब हमारी बारी आई तो स्वयं अपने आचरण से हमने क्या स्थापित किया? दुनिया के कई देश ,कई व्यापारिक प्रतिष्ठान भारत में बीमारी के बढ़ते प्रकोप को देखकर और बड़े पैमाने पर लोगों की उखड़ती सांसों को देखकर दोनों हाथों से मदद करने के लिए आगे आए हैं। परंतु हम,गुरुग्राम से लुधियाना तक का एंबुलेंस किराया ₹ १२००००  तक वसूल लेते हैं, ऑक्सीजन के टैंकर को एक-एक सांस के लिए छटपटाते मरीजों  तक जल्दी से जल्दी पहुंचाने की बेचैनी की जगह कालाबाजारी के मकसद से उसकी निर्धारित राह से भटकाने का लोभ पाल लेते हैं, गंभीर अवस्था में तड़पते मरीजों की के परिवार से ऑक्सीजन सिलेंडर और दवाइयों की चौगुना कीमत वसूलते हैं.

महर्षि  दधीचि  का आत्मबलिदान : फोटो इंटरनेट से साभार 

कौन कहेगा यह देश कभी दधीचि और राम का  रहा है। उस महर्षि दधीचि का, जिन्होंने इंद्र के एक निवेदन पर वृत्रासुर के वध के लिए आत्मबलिदान दे दिया था। वृत्रासुर जो त्वष्टा का पुत्र था,ने तीनों लोकों को अपने आतंक से त्रस्त कर दिया। देवता, अनेक प्रयास करके भी उस भयानक असुर को मार नहीं पाए। तब ब्रह्मा ने देवराज इंद्र को बताया कि केवल महर्षि दधीचि की अस्थियों से निर्मित वज्र से ही वृत्रासुर का वध संभव है। इंद्र के अनुरोध पर महर्षि दधीचि ने विश्व-कल्याण के लिए देह-त्याग कर दिया और अपनी अस्थियां वज्र-निर्माण हेतु दान कर दीं। उनकी अस्थियों से देव-शिल्पी विश्वकर्मा ने एक शक्तिशाली और अद्वितीय वज्र तैयार किया और फिर इंद्र ने युद्ध में उस वज्र से वृत्रासुर का संहार कर दिया और इस तरह तीनों लोकों  ने त्राण पाया। इसी दधीचि के वंशज हैं हम।
लेकिन आज विचारों में इतना अवमूल्यन क्यों है, हमारे रक्त में भारतीय संस्कारों की जगह क्या प्रवाहित होने लगा है, इतनी नीचता हमने कहां से सीखी- मृत देहों के सौदागर बन घूम रहे हैं हम। एक तरफ देश अगर कोरोना से लड़ रहा है तो दूसरी तरफ यह युग हमारे वैचारिक आत्ममंथन का भी है। क्यों अपने सामाजिक दायित्वों से, सामूहिक जवाबदेही से भागते हैं हम?क्यों इतने लापरवाह हैं हम ? हमें सीसीटीवी कैमरा चाहिए कोरोनावार्ड की निगरानी के लिए ,ताकि हम अपने मरीजों की देखभाल कर रहे डॉक्टरों, नर्सों या अन्य स्वास्थ्यकर्मियों की कार्यप्रणाली को अपनी आंखों से देख सकें। हमें उन स्वास्थ्यकर्मियों की निगरानी करनी है जो दिन-रात एककर पीपीई किट में खुद को डाल अपने कर्तव्य को पूजा की तरह अंजाम दे रहे हैं,लेकिन वहीं हमें मास्क पहनने के नाम से ही कोफ्त होती है ,अपने मुख और नाक को सही ढंग से से ढंकने की बात कौन कहे।इस आपदा में अपने ही घर में रहने में हमें असहनीय बंधन महसूस होता है, संक्रमण की चेन को तोड़ने के लिए हम हृदय से सहभागिता नहीं दे पातेऔर जब दूसरों की जिम्मेदारियों पर उंगली उठाने की बात हो तो हम कतार में सबसे आगे खड़े रहते हैं। कैसा दोहरा मापदंड है यह। हाल- फिलहाल त्रिपुरा की एक शादी बहुत चर्चा में रही, कथित जिलाधिकारी के आक्रामक रवैये को लेकर-इस चर्चित मुद्दे से जुड़े  अनेक प्रश्न है, हमारी प्रशासनिक व्यवस्था से जुड़े इन प्रश्नों पर मैं गहराई में जाकर टिप्पणी करना नहीं चाहूंगी पर यह प्रश्न जरूर पूछना चाहूंगी अपने पाठकों से कि क्या राष्ट्रीय आपदा के इस समय में कोरोनावायरस से लड़ने के लिए बने मापदंडों का ईमानदारी से  पालन करना वर -वधू पक्ष का  नैतिक दायित्व नहीं था? अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों की यह घोर अवहेलना कहीं न कहीं हमें हत्या करने जैसे संगीन अपराध की श्रेणी में लाकर खड़ा कर देती है। कानून की धाराओं के अंतर्गत भले ही न हो, परंतु नैतिक तौर पर तो अवश्य।
वास्तव में राष्ट्रीय आपदा के वक्त हमारा ऐसा व्यवहार यह स्पष्ट रूप से बताता है कि हमें मनोचिकित्सा की जरूरत है, हमें शिक्षा व्यवस्था की गहराइयों में जाने की जरूरत है। नीति नियंताओं को विचारना होगा कि शिक्षा में हम और क्या शामिल करें कि शिक्षा  रोजगारपरक के साथ-साथ अध्यात्ममूलक और चारित्रिक उन्नयन का भी सोपान बन सके। नैतिक मूल्यों के मामले में हमारे लिए इतना दोहरापन क्यों है-अपने लिए कुछ और, और दूसरों के लिए कुछ और मापदंड।  यह गहन मंथन का विषय है कि हमअपने समाज की विचारधारा को कैसे परिष्कृत करें, पुराने अतीत के गौरव मूल्यों को पुनर्स्थापित कैसे करें।सरकारें अपना काम करती रहेंगी, परंतु एक साधारण नागरिक के दायित्व और कर्तव्य दोनों को कम से कम हम तो ईमानदारी से निबाहें, उसके बाद अपनी उंगलियां किसी और की ओर ताने।
जेफ गोइंस का कहना है,"संघर्ष हमारा चरित्र बनता है और चरित्र तय करता है कि हम क्या बनेंगे।" किसी भी हद तक जाकर पैसा उपार्जित करने का वर्तमान परिस्थितियों में हमारा व्यवहार किस दिशा की ओर इशारा कर रहा है? वास्तव में अपराध मनोविज्ञान के लिए यह एक शोध का विषय है कि सच में ऐसी क्या मजबूरी है कि आदमी अंतिम विकल्प के रूप में ऐसे भ्रष्ट उपाय अपना लेता है या नैतिकता और आत्म चिंतन अपने अस्तित्व में इतना मर चुका है कि पैसे की भूख के आगे कुछ और दिखता ही नहीं ।अगर वास्तविक धरातल पर इतनी आर्थिक मजबूरी है तो देश को डरना होगा, लोगों को इस स्तर तक नीचे गिरने के लिए मजबूर होते देखकर और उनके जीवन पालन के उपायों पर दृढ़ता से काम करना होगा और यदि यह केवल राक्षसी प्रवृत्ति है तो हमारी शिक्षा व्यवस्था को सोचना होगा क्योंकि किसी भी व्यक्ति का संस्कार शिक्षा और उसका परिवेश दोनों मिलकर निर्मित करते हैं। हाल में ही कोरोना से काल कवलित हुए प्रसिद्ध लेखक मंगलेश डबराल का कहना था,"हम इंसान हैं ।मैं चाहता हूं कि इस वाक्य की सच्चाई बची रहे।" 
ऐसा नहीं है कि भ्रष्टाचार कोई नवीन मुद्दा उठ आया है, यह अति प्राचीन समय से ही समाज का अंग रहा होगा, तभी तो प्रेमचंद्र ने 'नमक के दारोगा 'में अपनी कहानी के एक पात्र के मुख से मासिक वेतन को पूर्णमासी का चांद और ऊपरी आय को बहता हुआ स्रोत और बरकत का मार्ग कहलवाकर  करारा व्यंग्य किया है, परंतु वर्तमान परिस्थितियों में आय के जो विकल्प जिन मूल्यों पर ढूंढे जा रहे हैं वह मानवता के मुखारविंद पर कलंक का टीका है और इसलिए अत्यंत लज्जाजनक और चिंता की विषय- वस्तु है। 
अंधकार के इन चित्रों के बीच प्रकाश की लकीरे खींचने का प्रयास भी कम नहीं। जहां कैलाश सत्यार्थी जैसे महापुरुष कोरोना के आघात से अनाथ हुए बच्चों के संरक्षण और प्रश्रय को लेकर चिंतित और प्रयासरत हैं, तो वहीं दूसरी ओर सामान्यजन अपने आसपास युद्धवीरों की तरह अपने -अपने सामर्थ्य के अनुसार जी -जान से जुटे हुए हैं। 
आज के महर्षि  दधीचि  डॉ के के अग्रवाल 
हमारी मदद और सकारात्मक पहल  : उम्मीद के आंकड़े के विशाल कैनवस की  तस्वीरों में जम्मू कश्मीर
के कौल परिवार का बेटा डॉक्टर रोहित अपनी मां के साथ मिलकर , आगरा के भगत हलवाई ; झारखंड, रांची की नवयुवती निशा भगत अपने मंगेतर के साथ मिलकर तीनों वक्त का भोजन सोशल मीडिया के द्वारा  लोगों से संपर्क स्थापित कर सीधे पहुंचा रहे हैं और वह भी निःशुल्क। कुछ लोग अपने मित्रों के साथ मिलकर ऑक्सीजन सिलेंडर की व्यवस्था करने में पीड़ित परिवारों की मदद कर रहे हैं । रूपिंदर सिंह सचदेवा जैसे लोग जिनकी मोहाली में अपनी यूनिट है, होम आइसोलेशन में रहने वाले मरीजों को निशुल्क ऑक्सीजन रिफिलिंग की सेवा दे रहे हैं, दूसरी ओर मध्यप्रदेश के शोहपुर में पंचर की दुकान चलाने वाले रियाज ने अपने और इधर- उधर से इकट्ठे कर कुल  ७० जंबो ऑक्सीजन सिलेंडर प्रशासन को सौंप दिए ,भले ही उनका अपना काम ठप्प हो गया । कतर में रहने वाले इंजीनियर  प्रभात सक्सेना जो
 मूलत:बुंदेलखंड के हैं, अपने एनजीओ 'सृजन एक सोच', जो मुख्यतः गरीब बच्चों की शिक्षा का कार्य करता था, के द्वारा इस महामारी के समय में अपने कार्यक्षेत्र का विस्तार कर लखनऊ और बुंदेलखंड के आसपास के इलाकों में जरूरतमंदों की जानकारी इकट्ठा कर रहे हैं और उनकी प्रमाणिकता जांच कर हॉस्पिटल, दवाइयां ,ऑक्सीजन से लेकर ऑक्सीजन कंसंट्रेटर तक की व्यवस्था करने का कार्य कर रहे हैं। दिल्ली पुलिस के ए एसआई राकेश कुमार निजामुद्दीन जो पुलिस बैरक में ही रहते हैं, १३ अप्रैल से अब तक ग्यारह सौ मृतकों के अंतिम संस्कार में मदद कर चुके हैं ,खुद  ५० से अधिक चिताओं को मुखाग्नि दे चुके हैं और अपने कर्तव्य निर्वहन के लिए उन्होंने ७  मई को होने वाली अपनी बेटी की शादी की तारीख को भी  आगे बढ़ा दिया है। इंदौर के तीन इंजीनियर पंकज, शैलेंद्र और
चिराग -अनेक अस्पतालों में वेंटिलेटर के इंस्टॉलेशन और रिपेयरिंग के काम में अपनी नि:शुल्क सेवा देकर कोरोनायोद्धाओं की अग्रिम पंक्ति में स्वेच्छा से शामिल हो गए हैं।

मदद के लिए तकती आंखें. छाया चित्र सुबोध राणा ,नैनीताल. 

 उनकी विशेषज्ञता इस क्षेत्र में थी नहीं, बस महामारी के इस दौर में लोगों की मदद करने के लिए उन्होंने अपनी तरफ से अनुप्रयुक्त और बीमार वेंटिलेटर पर प्रयोग आजमाया और सफल रहें और बाद में यही इनकी सेवा का मार्ग बन गया।जहां हमारे शहरी बंधुओं को नियंत्रित जीवन में जीना बहुत खटकता है वहीं दूसरी ओर छत्तीसगढ़ के बस्तर इलाके के ४३५  पंचायतों के ५००००० ग्रामीणों ने अपने-अपने  गांवों की नाकेबंदी कर दी है, इस नाकेबंदी पर और गांव में ही बने क्वॉरेंटाइन सेंटर पर युवा बटालियन तैनात है जो  १५० रोगियों की सेवा भी कर रही है। सजगता और सामाजिक जिम्मेदारी के इस भावबोध के कारण ही आदिवासी बहुल क्षेत्रों में संक्रमण की दर अत्यंत निम्न है। ऐसी अनेक कहानियां हैं जो आज के संतप्त समय में चंदन का लेप लगा रही हैं। अंधकार के इस समय में सुप्रीम कोर्ट का भी प्रयास अत्यंत सराहनीय है। विभिन्न स्थितियों पर अपनी कड़ी नजर रखकर व आपदा प्रबंधन हेतु एक कमेटी का गठन कर वह भी अपने दायित्व निर्वहन में पीछे नहीं है। इस क्रम में हमें भारतीय रेलवे के दायित्व निर्वाहन को भी सलामी देनी होगी।
"गोरा " 'उपन्यास में लिखे रविंद्र नाथ टैगोर की यह पंक्तियां आज के इस अंधकारमय  समय की मार्गदर्शिका हैं-"अंधकार बहुत विशाल होता हैऔर दीपशिखा छोटी। उस उतने विशाल अंधकार की अपेक्षा छोटी सी दीपशिखा पर मैं अधिक आस्था रखता हूं।"

रीता रानी
जमशेदपुर, झारखंड

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पृष्ठ ६ . हिंदी अनुभाग. द्य .आज की पाती. 
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कब पराई हो जाती है, बेटियां?


पापा की लाडली, 
भाई की दुलारी, 
घर की प्यारी 
बेटी ..
देखते ही देखते, 
कब पराई हो जाती है ?
उसे खुद ही पता नहीं चलता,
वहीं घर ,जहां फुदकती चलतीं थी, 
वहीं घर ,जहां एक एक कोने को सजाती चलती थी, 
भाईयों की ज्यादती को,मां के थप्पड़ को 
सुबक सुबक कर तब झेल लेने वाली 
बेटी ... 
पता नहीं कब दूर हो गई कि ? 
हर एक टोक पर आहत‌  हो जाती है 
चोटिल भावनाओं को समेट कर सरक लेती है
वहीं बेटी सालों बाद पिता के घर  में भार बन जाती है 
परम्परा है कन्या दान की .. 


यहां तो दिल से ,निकाल दी जाती है 
अनुमति चाहिए अब उसी घर में 
आकर रहने के लिए 
कभी अपने घर मालिक से 
कभी उस घर के मालिक से 
बेटियां हैं 
चाहे बचपन से 
कितना भी लाड़ जता लें 
एक वक्त के बाद 
दिल दिमाग घर 
सब से पराई कर दी जाती है
वहीं मां -बाप ,वहीं भाई
सहन नहीं कर पाते 
वापस आकर  रहना,
सब लाड़  समाजिक बेड़ियों पर भारी
समाजिक सोच बेटियां हैं तो 
अपने घर में रहें 


रंजना.
नई दिल्ली  

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पृष्ठ ६ .० : कविताएं. सीपिकाएं.
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जाड़े  की वो सर्द  काली रात.


जाड़े की वो सर्द  काली रात 
सर्द  काली रातों में,
हवाओं की सनसनाहट, 
साथ में वो झींगुर की  आवाज, 
मानो हवाएं सुर में गुनगुना रही हो । 

जाड़े की वो सर्द काली रात, 
चांद का छुप-छुप कर, 
कभी चीड़ की लंबी पेड़ों तो, 
कभी बाजं की घनी पत्तियों से झांकना ।


जाड़े की वो सर्द  काली रात, 
चांद की लुकाछिपी, 
देखने मैं कभी खिड़की से, 
कभी बरामदे से झांकती ।

जाड़े की वो सर्द काली रात, 
चारों ओर ऊंचे ऊंचे, 
पहाड़ों से घिरी घाटियां,
चांद की शीतल रोशनी में भीग कर,  
जुगनू सी टीम टीमा  रही है ।
ऐसा प्रतीत  हो रहा कि 
तारे आकाश से जमीन पर आकर  बिछ गए हो।
जाड़े  की वो सर्द  काली रात. 


नमिता सिंह.
रानीखेत ( मझखाली )

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पृष्ठ ६.१ : कविताएं. सीपिकाएं.
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मैं तुझे फिर मिलूंगी..


मैं तुझे फिर मिलूंगी....
तेरे अधरों पर खिलती हंसी बनकर,
तेरे अट्टहास से मिलती ख़ुशी बनकर,
तेरी चमकती आँखों के झरोखों से.
झांकती मैं ,झांककर छुप जाती
मैं तुझे फिर मिलूंगी.....
छोटी सी तेरी आँखों के बड़े बड़े सपनों में,
कभी राही बनकर कभी तेरे अपनों में,
तेरी ऐनक की एक कोर पर बैठी मैं,
सब कुछ तेरे संग देखा करूंगी,
मैं तुझे फिर मिलूंगी.....
तेरे हाथों की लकीरों में छुपकर कहीं,
तेरे भविष्य से रूबरू होने का सौभाग्य पाकर,
तेरे आज में तेरे कल में घुलती रहूंगी,
जब चाहे तेरी हथेली से झांककर तुझे मिलती रहूंगी,
मैं तुझे फिर मिलूंगी.....
सूरज की पहली किरण बनकर,
तेरी सुबह को खुशनुमा बनाती मैं,
चन्दा की चांदनी बन फिर,
तेरी नींद को सुकून दे जाती मैं ,
क्षितिज के एक छोर पर तुझे मिलूंगी मैं,
मैं तुझे फिर मिलूंगी.....
एक अनछुई सी याद बनकर,
तेरे जेहन में आती रहूंगी हर पल,
एक अनकही सी बात बनकर,
तुझसे बतियाती रहूंगी हर पल,
तेरे ख्यालों में,तेरे हर विचार में,
अनपुछे सवालों में, जीत में , हार में,
मैं तुझे फिर मिलूंगी.....
मैं तुझे फिर मिलूंगी.....          
                                                                  
कन्चन पन्त.
नैनीताल.  
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पृष्ठ ६.२ : कविताएं. समसामयिक 
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पर सोच मुझ सी है अमर.

एक पल लगा की, 
इस समय को काश अब मैं रोक दू , 
सूर्य को तक आसमाँ की तप विरह में झोंक दू .
चाँद से कह दूं कि, 
एक पल दूर रह ना राह में,  
ओज से कह दूं लिपट जाना तिमिर की बांह में . 
देख ना खुद से विरह के इन हरे से घाव को, 
भू जकड़ जंजीर बन चलने न दे इन पाव को .
मेघ से कह दू 
बरस जा भीगने दे खूब अब ,
या जला आकाश चाहे 
आंख जाए सूख सब. 
हूँ नदी जैसे मुझे अब पार करना है सफर, 
हों शिला कितनी अडिग, 
मैं चीरती कोमल लहर. 
वो हवा नव तेज़ मैं रूड़ी जड़ों का काल हूँ ,
मैं धरा नूतन भले माटी नहीं कंकाल हूँ, 
हूं शून्य भी मैं ही सदा 
मैं हूं अनन्त हर प्रहर 
देह मर जाए भले 
पर सोच मुझ सी है अमर.     

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दूसरी कविता. समसामयिक.
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चाँद से खूबसूरत कुछ भी नहीं .



कहते है चाँद से खूबसूरत 
कुछ भी नहीं ,
किसी का चाँद होना या 
चाँद सा महसूस करना ,
सभी चाहते है. 
मगर मुझे चांद नहीं बनना ,
मैं तो रहना चाहती हूं ,
जुगनू सी इस अंधेरी रात में ,
जब सब शांत सो जाते हैं ,
मैं निकल पड़ती हूं लालटेन लिए 
अपनी तलाश में .
अतीत के दिन या आने वाली सुबह नहीं ,
मैं बस आज की रात उड़ना पसंद करती हूं ,
कभी किसी गहरे हरे पत्ते पर 
या उस सूखी टहनी पर बैठ कर 
मैं पल भर को आराम करती हूं 
फिर उड़ जाती हूं पंख फैला कर .

मानसी पंत 
नैनीताल. 
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पृष्ठ ६.३ : कविताएं. समसामयिक 
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मौसम बदलने वाला है.

देखो ना 
धान की फसल 
पक गयी है खेतों में 
रबी की फसल झुमेगी 
पर लगाए कौन ?
घरों के सारे लोग 
गावों के सब पडोसी 
हवाखोरी करने 
निकल जो गयें हैं 
सडकों पर । 

दृश्य नुमाया है 
सड़कें जाम परिवहन ठप्प 
हो गये हैं सक्रिय दूसरी ओर 
सुरक्षा प्रहरी 
राजा के आदेश पर 
हो गया है जारी 
उनके बैठकों का दौर 
जैसे खोज लेंगे समाधान 
बड़ी समस्या का 
पर कोई किसी का 
सुने तब न !

हां ! सुना है 
चली है तूफानी हवा 
तेज गति से 
मैदानी क्षेत्र के खेतों से 
और पहुंचे शायद 
पठारी क्षेत्र तक 
प्लावित ना कर दे बहुत कुछ 
प्रहरियों के शस्त्र उनके पोशाक 
यहां तक कि राजाओं के ताज 
सबकुछ बदरंग हो ना जाए भींग 
बेमौसमी बरसात में 
लगता है बेहतरी के लिए 
मौसम बदलने वाला है  !
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 गज़लडॉ. आर. के.  दुबे
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( पहली गज़ल )
कोई कहता है कि तू लमकां में रहता है 
 
बेसब्र इंतजार में न सब्र का पैमाना है 
तेरे इंतजार में यूं मन को तरसाना है। 

कई दिन गुजारे हमने कई बरस गुजारेंगे 
तेरी जूस्तजू में लगी आँखों को पथराना है। 

कोई कहता है कि तू लमकां में रहता है 
पता नहीं था तू टूटे दिल का नजराना है। 

तेरी हस्ती गवाह है तू भुलता नहीं कभी 
दुनियां - ए - चमन का तू ही तो अफ़साना है। 

मेरे बांसुरी की धुन में तो तेरा हीं तराना है 
जब तलक है सांसे मेरी धुन तेरा बजाना है। 

( दूसरी गज़ल )
जिंदगी का काम ही था ठोकर दे मारना 

कातिल अदा से तेरी घायल जमाना था 
इत्तेफाकन मैं भी उसका दीवाना था। 

शब वही शब थी और दिन भी वही 
दिन  वो तेरी याद में जिन्हें मुझको बिताना था। 

मुझको ये हैरत कि शक्ल पहचानी हुई थी  
उन्हे ये गुस्सा कि इस गली में  क्यूँ आना था।  

यारों इसी का नाम कभी आशिकी पड़ा था 
आग दिल में बसाना था जी को जलाना था।  

जिंदगी का काम ही था ठोकर दे मारना 
और मुझे तो लुत्फ बस ठोकरों का उठाना था।
     

अंश हवा के हवाले से ....
शब्दार्थ  :  लमकां  : शून्य 

डॉ.आर.के.दुबे

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पृष्ठ ६ .३ .समसामयिक : कविताएं.
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रीता रानी
जमशेदपुर, झारखंड

जीवन दंश का क्या ?

पढ़ती हूं ,सुनती हूं,
फिर से नव पुष्प खिलेंगे,
नव पल्लव फिर सज जाएंगे,
पर जो टहनी सूख गई,
असामयिक दावानल  से,
उन दरख़्तों का क्या ?
झुलसी वल्लरियों का क्या ?
जीवन की आस झलकाते परंतु अब,
ठूंठ बन चुके स्याहवर्णी नवपादपों का क्या ?

कुछ घरों में चिरनिंद्रित मायें, 
रोटी जल रही तवे पर .
कहीं पिता ने मूंद ली आंखें,
भरभरा कर गिर गया घर .
पुत्र लौट कहाँ पाया घर को,
प्राणवायु ढूंढते रह गए दरबदर .
किसी ने फिर आवाज न दी,
सुनकर भी रुधन पुकार पर .
उन्होंने तो खो दिए जीवन साथी, 
पर जीवनाधात बनी मात्र एक खबर .
कहीं कुटुंब ने तो एक -एक कर  ढोया ,
कई मृत देह बस कुछ -कुछ समयातंर पर .

कालचक्र का एक सत्य,
मृत्यु है, जानती हूं,
शाश्वत है यह, मानती हूं .
परंतु जहां जिंदगी ,
इतनी निरीह हो,
घुट- घुट कर दम तोड़े,
ऐसे जीवन का क्या?
जहां मृत्यु सृष्टि का सिर्फ, 
एक नियम बन कर न आए .
सामूहिक नर्तन हो उसका 
सभ्यता की छाती पर .
ऐसे नर्त्तन का क्या ?
जहां जीवन का गीत डूबा हो,
भय,विवशता की सुर लहरियों में ,
ऐसे गुंजित गायन का क्या ?

नई फसलें बोई जाएंगी,
जानती हूं , मानती हूं ,
परंतु काल नदी के विकराल प्रवाह में ,
पहचान खो चुकी जो हमेशा के लिए ,
ऐसी तटीय भूमि का क्या ?
सर्वदा के बिछोह के बाद,
जीवन भर के दंश का क्या ?

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पृष्ठ ६.४ .पद्य : सीपिकाएं.
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नीलम पांडेय.
वाराणसी. 



योद्धा. 

सदियों से दिल ने जो कहा ,
दिमाग ने समझा कब है ?
मन की थाह लगाना मुश्किल ,
दिमाग चंचल लहरों  सा है। 
अरमान के झोकों के बीच ,
हर मानव सहमा -सहमा सा है,
अंतस में कभी झाँका ही नहीं ,
क्यों अपना ही मन तन्हां सा है
फुरसत कभी निकाल पाया नहीं ,
खुद से ही बेगाना सा है,
हारता रहा स्वयं से ही हरदम,
जंग से भाग रहे योद्धा सा है। 

हिसाब.
 
अभी कल तक सपने बुनती रही थी वो ,
कि ,बदल दूँगी ,सोच और सलीका सोचने का, 
हो जायेंगे रास्ते सुगम,
आएगा मज़ा जीने का ,
दिखने लगी थी मंजिल ,
थी कदमों में जान भी ,
पर सपने तो सपने होते हैं 
सच से अनजान थी ,
बेड़ियों को काटना होता ,
आसान इतना सच में तो ,
क्यों जलते अरमां किसी के ,
नींद उड़ती किसी की क्यों ?
माँ का कलेजा धड़कता क्यों ,
देख कोख की परियों को 
याद आता हर दिन शिद्दत से ,
माँ का चेहरा अब तो वो ,
जरूर माँ ने भी सपने बुने होंगे ,
किये होंगे प्रयास भी ,
हरेक हार पर अपनी हर दिन 
रोई होंगी कितना वो 
सुख गए होंगे आँसू  उनके ,
पोछने वाला भी होगा कौन ?
भावनाओं के भंवर में उलझी ,
हिसाब लगाती रही थी वो,
बांटती रही थी अब तक  ,
जमाने भर को खुशियां वो ,
फिर उसके हिस्से में ,
थोड़ी -सी भी बची नहीं क्यों ?
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पृष्ठ ६.३/१  .पद्य : सीपिकाएं.
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फिर से उड़ना सीखाउंगी.

जाने कैसा सैलाब था जो सब बहाकर ले गया, 
मेरी रोशनी, मेरी चमक ना मालूम कहाँ पर ले गया। 
हर तरफ बहार थी, महक थी गुलिस्तान में, 
प्यारी सी बुलबुल थी, चहक थी आसमान में, 
देख न पाई ,छुप कर बैठा था कोई सैय्याद, 
उड़ न पाई फिर ,वो सारे पंख कतर ले गया।  
रोती रही बुलबुल छुपकर अपने घर में, 
जिए या ना जिए सोचती अपने मन में 
तभी किसी ने स्नेह से हाथ रखा, 
देखा वो तो उसकी माँ थी, 
बड़े प्यार से पाला जिसने 
वो तो उसकी जान थी ,बोली 
तेरे सारे पंख मैं ले आऊंगी, 
तुझको फिर से उड़ना सीखाऊंगी,
ऐ माँ तेरी बोली तो है फरिश्तों जैसी, 
तेरा हौसला मेरा सारा डर ले गया, 
फिर से उड़ने का, फिर से जीने का, 
मुझे एक बार फिर से सबर दे गया। 
( पहली  कविता ) 


माँ ,तेरे जाने के बाद.

बंद दरवाजा हंसकर चिढ़ाता है माँ, तेरे जाने के बाद 
अब कोई नहीं घर बुलाता है माँ, तेरे जाने के बाद 
कितने खत पड़े हैं दहलीज पे,डाकिया आवाज़ देकर, 
उदास चला जाता है माँ, तेरे जाने के बाद 
कुछ बीमार तो थी तुम, तीखा मीठा ना खाना था 
फिर भी क्यूँ अचार मुरब्बा तुझे बनाना था 
ये अब  समझ में आता है माँ, तेरे जाने के बाद 
हर पर्व तू बुलाती रही, हर पर्व मैं बहाने करता रहा 
हर साल यूँ ही जाता रहा, हर साल तुमसे बचता रहा ।  
खो गई तू किस जहाँ में, ढूँढूँ तुम्हें अब कहाँ मैं 
यही ग़म मुझे सताता है माँ, तेरे जाने के बाद 
परदेश में पैसा बहुत है, नाम भी खूब कमाया माँ, 
बिन पैसों के तूने पाला मुझको, 
पैसा होकर भी,तुझको रख न पाया माँ 
इतनी छोटी थी औकात मेरी 
अब ये वक़्त बताता है माँ ,तेरे जाने के बाद ।  
( दूसरी कविता )

है तकदीर मेरे हाथों में, ये मेरा नसीब देखे .

ऐ खुदा, मेरी खुशियाँ, मेरा रकीब देखे 
है तकदीर मेरे हाथों में, ये मेरा नसीब देखे .

बड़े अर्से पे होते थे मोहल्ले में तमाशे पहले 
अब रोज ही घर घर में, तमाशे अजीब देखे .
 
जरूरी नहीं कि कत्ल करने को खंजर हो 
कई बार क़ातिल जुबां जैसी भी, सलीब देखे .
 
बड़े रंग बदलते हैं चेहरे उनके ,लिबास की तरह 
रंग उड़ गये मेरे चेहरे के, जब उनको करीब देखे . 

खूब आता है उनको अपना काम निकालना 
मेरी जरूरत पे बचने के कई ,उनके तरकीब देखे .
 
ज़िंदगी गुजर गई दौलत जमा करने में 
खर्च न कर पाए वक़्त के ऐसे बड़े गरीब देखे .

डॉ.रंजना. 
स्त्री रोग विशेषज्ञ.
नालंदा.  

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पृष्ठ.६.३/२ पद्य : सीपिकाएं.
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मोक्ष.

धरो ध्यान कितने,ना बसे राम मन में,
बिन पूजक के साधक बनता नहीं  है.
सहो कष्ट कितने,ना मिले मुक्ति तन को,
बिन तारण के संताप हरता नहीं है.
भजो मंत्र कितने,ना कटे फांस रण के,
बिन ब्रम्हास्त्र के बंध कटता नहीं  है.
करो भक्ति कितनी,ना मिले मोक्ष तन को,
बिन प्रभु के गमन स्वर्ग होता नहीं  है.

बचपन. 

था चांदी सा पलंग मेरा, खिलौना मोतियां उसकी,
वो ऊंचे पेड़ पर चढ़कर, लेना आम की चुस्की .
अखाड़ा कूदना, साथियों संग चल रही कुश्ती,
वो ट्यूबवेल पर नहाना, और अम्मा-बाप की घुड़की .
चवन्नी हांथ में लेकर, भरी बाजार इठलाना,
वो नन्हे पाव से, इस धरा को नापने का दम .
मां की लोरिया सुनकर, सपन की गोद सो जाना,
सुबह उठकर, कटोरा दूध का फिर हांथ में होना .
जरा सा अड़ गया जो, अम्मा का पुचकारना हमको,
अखर जाता है अब भी, किसी का दुत्कारना उनको.
यही बचपन था हमारा, तुम्हें क्या यार बतलाऊं,
चलो फिर से, उसी दुनिया की सैर कर आऊं .

अनुपम चौहान  ( संपादक ) , 
समर सलिल, लखनऊ. 
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पृष्ठ ६.३ / ४ .पद्य : सीपिकाएं.
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बुद्ध होना चाहती हूँ

बुद्ध होना चाहती हूँ
सुकर्मों  से मिले मनुष्य जन्म में
आने  वाले उतार-चढ़ाव
को जीते हुए इस जीवन का,
आनंद ले पार उतरना चाहती  हूँ
हाँ बुद्ध बन जगत का
तम हर उनकी भांति
हलाहल को पीना चाहती हूँ
जीवन को जीते हुए
दूसरों के लिए उत्सर्ग कर
सच में बुद्ध होना चाहती हूँ
हाँ , बुद्ध की भावनाओं को ,
उनके विचारों को ,
उनके कर्मों को ,
अपने में आत्मसात कर ,
उनके पदचिह्नों पर चल
जगत कल्याण हेतु
सर्वस्व त्यागकर बुद्ध होना चाहती हूँ
हाँ , मैं बुद्ध होना चाहती हूँ .

रेनू  शब्दमुखर  
जयपुर. 
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पृष्ठ ६.३ / ५  .पद्य : सीपिकाएं.
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सच्ची जीत.

अपने से सब हार जीतना जीत नहीं है,
जीर्ण सुर्ख़ जर्जर विचार नवनीत नहीं  है.
पाप हरे प्रज्ञावान हो हरे मूढ़ता हर-पल,
अश्रु दृग के पोछे विपरीत क्षणों में पल पल.
विष-भरा पयोमुख जैसा सच्चा मीत नहीं है,
अपने से सब हार जीतना जीत नहीं है .
कर्णपटल स्पर्श करे, शीतलता दे मन को,
घुले तारत्व के बिंदुबिम्ब में शांत करे चितवन को.
कम्पित हर कर्कश विक्षोभ संगीत नहीं है,
अपने से सब हार जीतना जीत नहीं है.
पुनर्जागरण का प्रतीक जो राह दिखाए जन को,
प्रेरित करे जन-सामान्य सामाजिक सृजन को. 
रूढिता आडंबर को ओढ़े अच्छी रीत नहीं है,
अपने से सब हार जीतना जीत नहीं है.
आलोकित हो हृदय परस्पर स्पर्शों के जिससे,
फूटे नये कोंपल विचार नवीन भाव के जिससे.
क्षणिक आवेगों का संयोजन यह कोई प्रीत नहीं है,
अपने से सब हार जीतना जीत नहीं है.
जीर्ण सुर्ख़ जर्जर विचार नवनीत नहीं है।

डॉप्रमोद कुमार.
लेखक / कवि. 
  
--------------------
पृष्ठ  ६.४/२. गज़ल.
--------------------
 गज़ल.


( पहली गज़ल )
जो   है  अपना     ठिकाना  चले   आइए.

जो     है    अपना     ठिकाना   चले    आइए
दिल    है    पागल    दीवाना     चले    आइए ।

तन्हा     करवट    न    यूं    ही    बदलते   रहें,
कोई       करके      बहाना      चले     आइए ।

क़द्रदां     हो     जहां,   आपकी     क़द्र     हो,
वहीं     महफ़िल     सजाना     चले    आइए ।

प्यार     में    आपके    जो  भी   पागल   हुए,
उनसे     दिल    हो    लगाना    चले   आइए ।

मैनें     माना     कि    मुझसे   हुईं   गलतियां,
छोड़िए    अब      जताना      चले     आइए ।

आपसे    दूर    जाकर    कहां    खुश     हुए,
अब    क्या   सुनना   सुनाना    चले   आइए।

जख्म-ए-दिल  हो हरा गर तो फिर उस जगह,
जो      हो     मरहम   लगाना   चले   आइए।

जिसको  कहती  है   दुनियां   ऋतुराज   अब,
हक़    उन्हीं     पर     जताना   चले   आइए।

( दूसरी नज़्म )
आपने   आके   महफ़िल  जवां कर दिया
               
आपने   आके   महफ़िल  जवां कर दिया 
शुक्रिया     आपका,    आपका   शुक्रिया । 
                   
आप   आए   तो   मौसम    सुहाना  हुआ,
ग़मज़दा  बज़्म   थी,  हो   गई   खुशनुमा।
                   
खुद-ब-खुद नज़्म, दिल से निकलने लगी,
और   माहौल  भी     खूबरू   हो   गया।
                    
क्या  अजब  साज़  है  गुलसितां  में  नया, 
अब    परिंदे    भी    गाने   लगे  चहचहा ।
                   
यूं    लगा   जैसे   जन्नत    उतर   आई है,
आपका   जो  यहां   आज आना   हुआ ।
                     
प्यार  की  खुशबू  बिखरी  है  चारों तरफ,
बज़्म  पर   छाया  है  आपका  ही  नशा ।
                     
है  ये  चाहत   ज़रा   सी   ऋतुराज   की,
लोग  ताली  बजाएं   न   क्यूं   मुस्कुरा ।

इस्तक़बालिया नज़्म
रचयिता : कुमार राकेश ऋतुराज

--------------------
पृष्ठ  ६.४/४ गज़ल.
--------------------

दर्द को लेकर तुम जीते हो ,कुछ तो हमसे कह देते, 

तन्हा तन्हा, दर्द को लेकर तुम जीते हो ,कुछ तो हमसे कह देते, 
तन्हा तन्हा तुम रोते हो हम भी संग में रो लेते.

राह अकेले चलते चलते पाँव तुम्हारे थक जाएँगे 
एक इशारा कर देते गर ,संग तुम्हारे चल लेते.

दर्द को लेकर तुम जीते हो ,कुछ तो हमसे कह देते, 

दर्द  ज़माने की तुम बोलो कैसे अकेले सह पाओगे
बनकर ही हमदर्द तुम्हारे साथ में दर्द को सह लेते.

दर्द को लेकर तुम जीते हो , कुछ तो हमसे कह देते.

अरुण अनीश.
कवि .झारखण्ड 

--------------------
पृष्ठ ७.कला दीर्घा : चित्र  
--------------------
प्रकृति के मध्य : चित्र  , विदिशा 

वसंत का मौसम : चित्र  ,विदिशा 

वायसीरीगल लॉज शिमला , चित्र : अनुभूति सिन्हा ( नई दिल्ली ).

          शीर्षक : १.फेमिना ( महिला ), २.फ्रेंड्स फॉरएवर ( दोस्त सदा के लिए ) चित्र : अनुभूति सिन्हा ( नई दिल्ली ).

  शीर्षक :  राधा कृष्णा कलाकृति : कर्नल सतीश कुमार सिन्हा 

  शीर्षक :  आकर्षण के मोह पाश में बंधे राजा : कर्नल सतीश कुमार सिन्हा.

--------------------
पृष्ठ ८. विज्ञापन.
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--------------------
पृष्ठ ९.फ़ोटो दीर्घा : छाया  चित्र.
--------------------
फोटो संपादक. 
अशोक करण. पूर्व छायाकार. हिंदुस्तान टाइम्स. 

गरीबों की सुनो , मदद  के लिए बढ़े हाथ इस महामारी में छाया चित्र : सुबोध राणा. राम नगर ,नैनीताल. 

भूखे चूजों में  खाने की चाहत : छाया चित्र अशोक कर्ण 

नैनीताल से खुरपा ताल की खूबसूरती : फोटो मानसी पंत 

 
--------------------
पृष्ठ .१० .समीक्षा.
--------------------


--------------
पृष्ठ ११. व्यंग्य चित्र.
--------------
सम्पादन.
 

डॉ. मधुप. 

व्यंग्य चित्र १.

---------------
पृष्ठ १२.आपने कहा .
------------
संपादन.
 

रंजीता.
वीरगंज ,नेपाल  

------------

शहर बेगाना  सा लगता है.
गीत. 

 
राजेश रंजन वर्मा 

कल तक जो शहर अपना था , 
बेगाना - बेगाना - सा लगता है. 
हर गली हर मोड़ अब, 
अंज़ाना - अंज़ाना -सा लगता है.
दिन के हलचल में खामोशी कैसी ? 
रात के सन्नाटे में मदहोशी कैसी ? 
अब हर गुलशन उजाड़ क्यों लगते, 
चमन वही है, फूल खिलें हैं अब भी, 
मगर, थोड़े - थोड़े -से उदास क्यों लगते?
अब ,
सपने में भी कोई अपना नहीं कहता है.
कल तक जो शहर अपना था , 
बेगाना - बेगाना  सा लगता है .
हर गली हर मोड़ अब, 
अंज़ाना - अंज़ाना सा लगता है.


गीत : 
राजेश रंजन वर्मा

---------------------------------
Section.B.Page.2.About the Page.
----------------------------------
Editor in Chief.
Dr. Manish Kumar Sinha.
Chairman EDRF. New Delhi.


Editors 
in English.
Dr. Roopkala Prasad. Prof. Department of English.
Dr. R.K. Dubey.
Editors.
in Hindi.
Dr. Shailendra Singh. Raipur.
Rita Rani. Jamshedpur.
Dr. Ranjana. Nalanda.
Dr. Prashant. Health Officer. Gujarat.
Anupam Chauhan. Lucknow.


Ravi Shankar Sharma. Haldwani. Nainital
Dr. Naveen Joshi. Nainital

------------------------


Guest Editor.
Mansi Pant. 
Kanchan Pant.
Nainital.
------------------------
Photo Editor.
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Ex. HT Staff Photographer.
------------------------
CRs / Writers.
Alok Kumar.
Priya. Darjeeling
Dr. Amit Kumar Sinha.
------------------------
Clips Editors. 
Manvendra Kumar. Live India News 24.
Kumar Saurabh. Public Vibe
Er. Shiv Kumar. Reporter. India TV 
------------------------
Stringers. Abroad
 Shilpi Lal. USA.
Rishi Kishore. Canada.
Kunal Sinha. Kubait.
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Our guiding forces. 


Guru Ravindra, William Wordsworth & Sumitranandan Pan

मन को छूने वाली बेहद ख़ूबसूरत कविताएं 


Comments

  1. अच्छा संकलन है दुबे सर का गजल और मैडम की कविता तो वेमिशाल है।

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  2. बेजोड़ छायांकन के साथ साहित्य प्रेमियों के उड़ान भरने और रसास्वादन का सुंदर संयोग👌👍

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  3. Roop Kala
    Every article captures the minutest details.Lively,entertaining &informative.👍

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    Keep rocking as always

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  5. This blog is written in very detailed explanation. Thank you sir.

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