तेरी मेरी कहानी है : मेरी आत्मकथा.


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 तेरी मेरी कहानी है. 
संस्मरण लेख.मेरी आत्मकथा. 
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वेव पेज.
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प्रथम मीडिया. 
एम.एस.मीडिया.
ए.एंड.एम. मीडिया. 
के सौजन्य से. 
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तेरी मेरी कहानी है.   
डॉ.मधुप रमण 

यादें न जायें बीते दिनों की. धारावाहिक 
मेरी आत्मकथा. 
डॉ मधुप रमण 
स्वतंत्र व्यंग्य चित्रकार ,पत्रकार ,यूटूबर ,ब्लॉगर. 
प्रारब्ध :   मैं एक आम आदमी हूं। कोशिश कि बड़ा बनने की ,बन नहीं पाया। कुछ नया करने की कुछ ज्यादा नया नहीं कर पाया। हालांकि और लोगों की तरह अपनी खींची गयी लकीरों से स्वयं को अभी भी बड़ा समझता हूं लेकिन लोग नहीं मानते। आप क्या हैं यह लोग तय करते हैं ,आप नहीं , हैं न ? सभी लोग खुद की बनाई गयी तस्वीर में  ही तो खुद को बड़ा मानते हैं ना ?
सबके पापा अपने बेटों के बारें में कहते है ' पापा कहते है कि बेटा नाम करेंगा ' लेकिन मेरे  पापा मेरे बारें में कहा करते थे  ' जैक ऑफ़ आल मास्टर ऑफ नन  '  याने सब कुछ बन कर भी न बनने की कहानी का पात्र बन कर रह गया हूं मैं। ऐसा कुछ और लोग भी कहते ही होंगे । कुछ तो लोग कहेंगे ,लोगों का काम होता ही हैं कहना।
लेकिन पहचान बनने बनाने की कसक अभी भी है। ताउम्र रहेगी। अपने अहम,अनुभवों,किस्सों के जरिये एक आम आदमी की कहानी बन सकूं, कोशिश बस इतनी ही है। आम अवाम को भी इस आत्मकथा में अपने अपने क़िरदार ढूंढे मिल जाएं तो समझो थोड़ी सफ़लता मिल गयी। इस लिए ही मैंने अपने जीवन के ५७ वें  साल में अपनी यादों की बारात निकाली है,अकेले निकाली है ,इस उम्मीद में कहीं न कहीं ,कभी न कभी इस बारात में कोई न तो कोई बहुत सारे ,जाने अनजाने ,परचित ,अपरिचित बाराती मिल ही जाएंगे। और तब कोई तो कहेगा ....जिंदगी कुछ भी नहीं ,बस तेरी मेरी कहानी है ।
गुरु गोविन्द सिंह जी। हरमंदिर साहिब पटना साहिब 
मेरा बचपन जन्म स्थान पटना साहिब. 
गुरु का दरबार।जहां कभी  सिखों के दसवें गुरु गुरु गोविंद सिंह जनवरी १६६६ को  अपनी माता गुजरी के गर्भ से जन्मे थे। शायद तत्कालीन मुग़ल बादशाह औरंगजेब के धार्मिक अत्याचारों से बचते हुए उनके पिता गुरु तेग बहादुर अगर पटना साहिब में  शरण न लिए होते तो पटना साहिब सिखों की तीर्थ स्थली न बनी होती। यह मेरा सौभाग्य है कि गुरु गोविन्द सिंह ज़ी का जन्म स्थान पटना साहिब हैं ,जो मेरी भी जन्मस्थली होने का गौरव रखता है ।
 जन्म  १३ जनवरी १९६३ का साल। जनवरी का ही महीना। हिंदी में पूस  का महीना होगा, ठंड पड़ रही थी। दिन था रविवार अपराहन  के  बजने वाले थे। गिरजा हॉस्पिटल में जो अद्यतन गुरु गोविंद सिंह अस्पताल के नाम से जाना जाता है  
पटनासाहिब  मेरी जन्मस्थली 
एक शिशु अपने नव जीवन की शुरुआत खुशियों के साथ-साथ अनचाही दुश्वारियां में  करने जा रहा था। क्योंकि जन्म लेने के ठीक पांचवे या छटवें दिन ही सूखा रोग ( रिकेट्स ) पीलिया आदि बीमारियां  उसे उसके जन्म दिन के उपलक्ष पर बधाईआं देने आ पहुंची थी। इन रोगों से पीड़ित होने की वजह से अपने माता-पिता के लिए वह नवजात चिंता का विषय बन गया था। उसने अपने संघर्षशील माता पिता दुःख भंजन प्रसाद और निर्मला सिन्हा के लिए चिंता खड़ी कर दी थी। लेकिन भला उस नवजात का क्या दोष  ?      
मैं और मेरी माँ 
लोहड़ी थी इस दिन ,१३ जनवरी जो था। मकर संक्रांति की पूर्व संध्या पर ठीक इसके एक दिन पहले उत्तर भारत में विशेषतः पंजाबी समुदाय के लोगों के यह त्यौहार मनाया जाता है। रबी की फ़सल गेहूं के कटने के पश्चात् एक जग़ह खुले स्थान में परिवार और आस पड़ोस के लोग के साथ आग के किनारे मिल बैठ कर वे लोग रेवड़ी ,मूंगफली और लावा आदि खाते है। ताकि उनके मध्य आपसी सौहार्द ,और भाई चारा बनी रहें। शायद मैं भी इस उत्सव के निहित सन्देश को अपने भीतर समेटे आपसी भाई -बहन,दादा -दादी ,नाना -नानी,मामा -मामी आदि रिश्तों की गर्माहट को महफूज करने के लिए ही इस लौकिक दुनियां में आ रहा था। आमीन। 
फिरआगे की कहानी शुरू होती है मंदिर मस्जिद और गुरुद्वारे जाने की बातें से । जादू टोने, झाड़ -फूक ,पंडित- मौलवी से मिलने,सलाह लेने,उस पर अमल करने,और किसी तरह से इन रोगों  को ठीक करने की हर दिन की कवायद। न जाने मेरी माँ और मेरी नानी माँ जानकी देवी कहाँ न कहां गयी होगी मेरी दुआ और सलामती के लिए। हर दिन मेरी ख़राब तबीयत को देख कर लगता था जैसे मेरे  दिन पूरे हो गए है। लेकिन वह आख़री दिन कभी न आया। 
लक्ष्मी भवन मेरा तीर्थ :  मैं अपने जीवन के शुरूआती दो से तीन साल नानी घर में ही पला,बढ़ा  इसलिए अपने परनाना श्री लक्ष्मी नारायण जो उस समय साल १९५४ के पहले सेक्रेटरिएट में बड़ा बाबू थे ,नाना बैजनाथ प्रसाद, परनानी  श्रीमती नागेश्वर कुंवर, तथा नानी जानकी देवी का साथ मिला। उनको भी मेरा श्रद्धापूर्वक नमन है । गर्व की बात है मेरी नानी जानकी देवी लोक नायक जयप्रकाश नारायण की धर्म पत्नी प्रभावती देवी के द्वारा खोली गयी महिला चरखा समिति स्कूल में बतौर सिलाई कढ़ाई की शिक्षिका बतौर बहाल हुई थी। तब उन दिनों स्वतंत्रता के बाद वर्ष १९४८ में मेरी माँ की दादी ने उस स्कूल की स्थापना के लिए जमीन दान में दी थी। तब हमारे ख़ानदान में भी उन दिनों अपने देश के लिए जज्वा था। कुछ कर गुजरने की तमन्ना थी।
एक तरफ जादू टोटके का इस्तेमाल हो रहा था तो दूसरी तरफ़ मेरी माँ उस ज़माने के पटना के तमाम मशहूर चिकित्सक यथा डॉ लाला सूरजनंदनडॉ शिशुपाल , जम्मी लिवर की चिकित्सीय सलाह पर बड़ी एहतियात से मेरी जीवन रेखा बचाने के लिए प्रयासरत थी। 
हमारा तीर्थ लक्ष्मी भवन। उनके संरक्षक हमारे परनाना ,परनानी ,नाना नानी की तस्वीरें।  

मैं एक बड़े से संयुक्त परिवार में पला बढ़ा हूं तभी तो अपनी  परम आदरणीया परनानी नागेश्वर कुंवर का भी आशीर्वाद पाने का शुभाकांक्षी और सौभाग्यशाली रहा। लेकिन मेरे जन्म के नौ महीने बाद ही अर्थात वर्ष १९६३ के अक्टूबर महीने में मेरी परनानी इस दुनिया से कूच कर गयी।मैंने नाना-नानी ,दादा -दादी ,चाचा -चाची, मामी-मामा, फुआ -फूफा ,मौसा -मौसी, भाई बहन सबों का साथ देखा है। यह अच्छी बात है। यकीन मानिये अच्छी समझ वाले संयुक्त परिवार आज भी इस युग के लिए वरदान हैं ,यह बात सभी को समझ आएंगी ही।   
साइकिल की सवारी 
चंद तस्वीरें :   
भाई ,माँ ,मैं और गीता मौसी 
मेरे बचपन की चंद तस्वीरें ही मेरी धरोहर हैं, जो मेरी यादों का आइना हैं जिसमें मेरा बचपन दिखता है। बीमारी की उस अवस्था में ,मेरे चेहरे पर कोई मुस्कुराहट भी होगी ,सोचना बड़ा अच्छा लगता है। अकेलेपन के साथ मेरी हंसी में मेरी मौसी भी साथ सम्मिलित दिखीं ये मेरे अनमोल क्षण  हैं। दूसरी तस्वीर में मेरे बड़े भाई मुझे खुश रखने के लिए अपनी साइकिल की सवारी करवा रहें है,भुलाये से भी भूलते नहीं हैं ये पल। धन्यवाद ज्ञापित करता हूं मैं इन दोनों कों जो आप मेरे साथ हैं। 



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तेरी मेरी कहानी है.धारावाहिक 
मेरी आत्मकथा. गतांक से आगे १ । ०९ /०५ २०२० 
 
मेरे प्रिय भाई : वर्ष १९६३ ,मेरे जन्म के साल ही आठ महीने के उपरांत उस तीर्थ लक्ष्मी भवन में मेरे प्रिय मौसरे भाई राजू के जन्म के साथ ही एकबारगी खुशियों के पल पुनः आये। भाई राजीव रंजन जो वर्त्तमान स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया ,पूना में अधिकारी बतौर कार्यरत है मेरे आदर्श रहें  हैं। पढ़ने में बहुत ही जहीन,सहिष्णु और निहायत ही आज्ञाकारी। विरोध का कहीं स्वर नहीं इसलिए उनकी पारिवारिक लोकप्रियता मुझसे अत्यधिक रही है ,मैं यह मानता भी हूं । हमारी स्वाभाविक प्रवृतियों में होती है कि हम अपने-परायें ,पक्ष -विपक्ष,शत्रु -मित्र से अपनी इच्छा अनुसार ही उनके समर्थन और विरोध के हिमायती होते है,न की उनकी इच्छा अनुसार ।    
मैं और मेरे प्रिय भाई राजीव 
    
नानी घर की यादें 
मेरी माँ 
:   एक बीमार बच्चें की तीमारदारी में उनके माता पिता लगे रहें। शुरू से ही मेरी जिंदगी पूरी तरह से रख रखाव की मोहताज़ रही। बड़ी दिक्कतों में मैं पला बढ़ा। मेरे पिता उन दिनों बेरोज़गारी की स्थिति में मेरे साथ उस लक्ष्मी भवन कहे जाने वाले तीर्थ में ही रहते थे। हम लोग अपने कुल जमा चार की संख्या में थे ,मैं ,मेरे माता पिता और मेरे बड़े भाई । मेरी माता के लिए यह संघर्ष की ही स्थिति थी कि इन तमाम कठिनाईओं के मध्य वह खुद को कैसे स्थापित करें। इसके अलावा हमारे चार मामा तीन मौसियां ,नाना नानी के अतिरिक्त ढ़ेर सारे अन्यलोग भी थे जो वहाँ किसी न किसी कारण वश रह रहें थे।
इसलिए लक्ष्मी भवन किसी तीर्थ या किसी गुरूद्वारे से कम नहीं था। मैं इसलिए ऐसा कह रहा हूं ,जैसा माँ बतलाती है कि उन दिनों लक्ष्मी भवन में ढ़ेर सारे लोग ,जाने -अनजाने,अपने -परायें आश्रय पाते थे। आज उस तीर्थ का ही दिव्य प्रभाव है कि कितने लोग वहां से लब्धप्रतिष्ठ शिक्षक ,डॉक्टर ,इंजिनीयर ,वकील ,प्रोफ़ेसर ,पत्रकार ,जज ,सैन्य तथा बैंक अधिकारी बन कर अपने परिवार ,समाज ,देश की सेवा के लिए कृतसंकल्प हैं।  
हंस राज की ड्योढ़ी : जिस लक्ष्मी भवन की बात मैं कर रहा हूं वह बांकीपुर ,पटना के महेंद्रू मोहल्ले में कुन कुन सिंह लेन में अवस्थित है। यही पटना जो कभी पाटलिपुत्र ,कभी कुसुमपुर तो कभी अजीमाबाद के नाम से जाना जाता था, यथार्थ में मेरी माँ का नानी घर है । जबकि मेरा मूलतः नानी घर पटना साहिब के मोगलपुरा मोहल्लें के हंस राज की ड्योढ़ी स्थित घर में है जहां पूर्व से ही एक बड़ा संयुक्त अभी भी रह रहा है । ज्ञात हुआ कि उस मुहल्ले का नाम हमारे ननिहाल खानदान के किसी पूर्वज के ही नाम पर रखा गया था जो अभी भी वर्तमान है । माँ कहती है उसके दादा जी जमींदार थे और समाज में बहुत रुतवा रखते थे।   
     
मेरे पिता
मेरे खाने पीने में मेरे माता पिता आवश्यकता से ज्यादा ध्यान रखतें थे। बीमार होने की बजह से मेरा बचपन परहेज़ में ही बीता। मेरी परनानी मेरे अत्यधिक रोने के कारण मेरी माँ को मुझे अपने पास ही रखने की सलाह देती थी। सही भी है लोग हॅसने खेलने वाले स्वस्थ्य बच्चें को ही गोद में लेकर आनंदित होते है। और मेरी शारीरिक अस्वस्थता ने मेरी जग़ह नियमित कर दी थी। या तो मैं माँ पिता के पास होता या स्वयं में रोता रहता  मेरी खुद की बीमारी मुझे  बचपन से ही एकाकी बना रही थी। एकांतिक होने का भाव उसी समय से ही होने लगा था ना ? 

फोटोदीर्घा : बचपन 
हमारी पीढ़ी के सितारें बुल्लू,लालू ,राजू,संजू ,राम और छोटी 
एक हज़ारों में मेरी बहना हैं ,लल्ली ,पिंकी ,ऋचा ,मीरा और कुल्लू 
गौरव के क्षण , सम्मानित होती हुई मेरी बहन शिल्पी 

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तेरी मेरी कहानी है.धारावाहिक
मेरी आत्मकथा.
फूफा जी
बचपन की चोरी.
 
गतांक से आगे २. 
१९६५ का साल : बिहारशरीफ़ रहने के दरमियाँ वचपन की कुछेक धुंधली तसवीरें हैं जिसकी साझेदारी मैं आपसे कर रहा हूँ। , हम अगस्त १९६४ के आस पास थाना के परिसर में रहते थे। 
हमारा पैतृक घर : इसके पहले माँ चंदासी ग्राम जो हमारा पैतृक घर रहा है मूलतः दादी घर है वही से माँ रोज दिन भैंसासुर स्थित वालिका उच्च विद्यालय में  पढ़ाने  बिहारशरीफ़ आया करती थी। बड़ी दिक़्कतें होती थी उन्हें उन दिनों। 
चंदासी ग्राम  हमारा पैतृक घर
फूफा जी उनदिनों बिहारशरीफ़ में ही पुलिस महकमे में सब इंस्पेक्टर के पद पर तैनात थे। सुविधा देखते हुए फूफा जी के कहने पर माँ थाना परिसर में ही चली आई जहाँ दादी भी हमलोग के साथ ही रहती थी। एक बड़ा संयुक्त परिवार साथ में गुजर वसर कर रहा था  । 
माँ अक्सर कहती है हमारे फूफा  राजेश्वर  जी का असीम योगदान है उन्हें  स्थापित करने में। अगर उनका आसरा नहीं मिल पाता तो माँ के लिए बिहारशरीफ़ जैसी नई जग़ह में नौकरी करने में बड़ी मुश्किलें होती। मैं भी अपने फूफा जी के लिए आभार रखता हूँ क्योंकि गया कॉलेज से एम ए की पढ़ाई मैंने कुछ दिनों वही रह कर की थी। 
स्कूल से विरक्ति : जहाँ तक मुझे याद है मैं बचपन से ही स्कूल जाना पसंद नहीं करता था। शायद कभी भी नहीं जाता यदि डिग्री की जरूरत नहीं होती। गुरु रविंद्र के मनः भाव मेरे मन में भी समाएं हुए थे। गुरु ने भी तो कभी विद्यालय का मुख नहीं ही देखा था ना। माँ जबरदस्ती खींचते हुए कोलिजियट  स्कूल के पास ही किसी रिहायशी मकान में चल रहें स्कूल में छोड़ आती थी। और मैं एकाध दिन बीच कर निश्चित ही हाजमा ख़राब होने की बजह से अपनी पैंट गीली कर लिया करता था । क्योंकि लिवर खराव रहने से हमारी सेहत और पाचन शक्ति बेहतर नहीं थी। मैं प्रारम्भ  कमज़ोर और रुग्ण रहा हूं।  
बड़े बाबूजी
लोमड़ी सर के घर : कुछेक दिनों के बाद हमलोग माता पिता तीन भाई बहन सहित टाउन स्कूल के लोमड़ी सर हालाँकि उनका नाम कुछ और ही था ,के यहाँ रहने आ गए थे। वह बड़े  ही काईआं किस्म के इंसान थे इसलिए लोग उन्हें इसी बद नाम से बुलाया करते थे। पास ही में एक मठ था आज भी हैं जिसके घंटे की आवाज़ अक़्सर कानों में गूंजती रहती  थी। हम सभी भाई बहन सुबह सबेरे ही उठ जाया करते थे। मुझे याद है मेरे खाने पर अच्छी खासी पाबन्दी थी क्योंकि मैं लिवर का रोगी था। वहां अक्सर रांची से बड़े बाबूजी आया करते थे जिनकी देख रेख में मेरे पैदायशी  लिवर की ख़राबी का इलाज  इलाज चलता था। अम्मा मेरे खाने पर पूरा नियंत्रण रखती थी। हमलोग के साथ वीणा दीदी भी रहती थी ना। 
शारदा मौसी 
शारदा मौसी : माँ के साथ काम करने वाली सहकर्मी शारदा मौसी हमारी जिंदगी की 
कहानी का एक प्रस्तावित पन्ना हैं जिसका  जिक़्र करना हमारे लिए लाज़मी है। यह सच कि अपनी अपनी सोच में परिवार से कहीं ज़्यादा पड़ोस ही काम आता है। ठीक उसी तरह रहीं है हमारी मौसी , शारदा मौसी कहीं भी सगी मौसी से ज्यादा। उनके दर्शन का भाव हमारे
 जीवन पर भी नितांत रूप से पड़ा है। जहाँ जहाँ हमलोगों ने घरें बदली वह हमारे साथ रही। हमलोग के साथ उसी घर में रहती थी। आज भी जीवन के आधे पड़ाव पर हमारे घर
के पड़ोस में ही उनका घर है।  उनके द्वारा दिए गए स्नेह को हम आज भी नहीं भुला पाते है वह हमारे लिए सगी मौसी से भी ज्यादा प्यार करती थी ,और अभी भी करती है। मुझे याद हैं जब कभी माँ से डाट और पिटाई मिलता तो उनके कमरें में ही शरण पाता था। 
टिन के शेड वाले कुमार सिनेमा पास में ही था तब न जाने किस बालहठ में गाने की क़िताब लाने सिनेमा हाल में चला गया था। शारदा मौसी कहती है कि मैंने उनके यहाँ से गाने की क़िताब लाने हेतु ही दो आने चुरा लिए थे जिसके लिए मुझे अच्छी खासी मार भी पड़ी थी। हालाँकि मेरे आत्म मन ने खुद से की गयी चोरी को कभी भी नहीं स्वीकारा। मैंने पैसे चुराए ही नहीं थे। शायद कभी अपनी नादानी में मैंने उनका क़ीमती चादर भी जला दिया था जिसकी मुझे याद नहीं ।  
गर्मियों के दिनों : मुझे याद है गर्मियों के दिनों में बाबूजी खूब सलीके से आम काट कर खिलाया करते थे। तभी से आम मुझे बचपन से ही हमे पसंद है। और इसी वचपन में खौलते गर्म दूध  में मेरी अपनी छोटी बहन के हाथ जलने की चर्चा अम्मा करती है जिससे उसके हाथों में फोले उठ आये थे। 
इसके बाद मुझे ज़्यादा याद नहीं हमलोग फ़िर दूसरे किराये के मकान रामकेशर भवन में चले आये थे। वह यही कोई ७० का दशक रहा था। 
७० का दशक :  
०७  /०६  २०२१ 
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Comments

  1. It is a good way to explore ourselves

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  2. There are very few bloggers aho can write as well as you . Your deep friendship with the the Hindi language reflects in your writing and helps your writing resonate with the readers.
    Looking forward to read more of your content

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  3. Wah purani yaado ki baarat very good my son aage ki kahaniyyoo ki wet ....….!

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  4. अच्छी प्रस्तुति ।

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  5. Mera bhi school ninth tak BNR Terming School Raha
    Bara maja aata था कुंन कुन्न सिंग लेन्न से जाना बघी पर बहा बो बक्त.......

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  6. Very emotional writing with beautiful command in hindi
    Love to read it again.

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  7. So proud of you . I wish I could speak or write even a fraction of what you do. Kudos. Glad that we have someone amongst us who is contributing immensely in carrying the flame of our national language . We need this flame to kindle a thousand more lights. God Bless !!!

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  8. अपनी यादों को शब्दों में बाँधना सबसे कठिन होता है क्योंकियादें भी हमारी उम्र के साथ परिपक्व होती जातीहैं! आपने बहुत ही अच्छा और सफल प्रयत्न किया है! यादें पानी की जैसी ही होती हैं जो पात्र के अनुसार अपना रूप धारण कर लेती है। आप अपनी यादों के साथ न्याय कर पायें इसी शुभकामना के साथ शेष की प्रतीक्षा में

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  9. बहुत अच्छा लगा । प्रस्तुति जारी रखें ।

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  10. P N Sinha
    Story of our family. Described in very interesting manner. You have very good command in hindi. It is not easy to translate memories into words and sentences. Keep it up. We will be waiting.

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  11. Lalu। Tumahei aatm kahaniya
    Bahut aachi lag rahi ha
    Gher me lockdown me hamsabi se mil rahi hu
    Purani yaado me bakt pas ho raha ha
    Very very thanks

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  12. अपनी कहनी जारी रखना हम सब साथ साथ है

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